0 0
Read Time:37 Minute, 3 Second

अरविंद शेष (Arvind Shesh)

परदे पर कोई कहानी फिल्म हो सकती है, डॉक्यूमेंटरी हो सकती है या फिर बायोग्राफी हो सकती है। देश और काल के मुताबिक इसके दर्शक वर्ग अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन फिल्म विधा में होने वाले लगातार प्रयोगों का यह हासिल जरूर हुआ है कि फिल्म और बायोग्राफी का दर्शक वर्ग अब मिला-जुला होने लगा है। लेकिन अभी भी डॉक्यूमेंटरी का दर्शक वर्ग मुख्यधारा की फिल्मों के मुकाबले थोड़ा अलग है, जो मुख्यधारा की फिल्मों का दर्शक भी हो सकता है।

आमतौर पर फिल्मों की समीक्षा या उसका विश्लेषण कुल मिला कर उसके कला-पक्ष और कहानी की प्रस्तुति पर केंद्रित होता रहा है, लेकिन उसके सामाजिक प्रभाव के मसले को बहुत तरजीह नहीं दी जाती है। अगर कभी किसी फिल्म के इस पहलू पर ध्यान दिलाया जाता है और इस कसौटी पर कोई फिल्म सख्त सवालों के कठघरे में खड़ी होती है, तब इस बात को सफाई के तौर पर पेश किया जाता है कि फिल्म को फिल्म की तरह देखा जाए। इसके समांतर कसौटी और सवालों के सिरे से आगे बढ़ने पर पता चलता है कि फिल्म को फिल्म की तरह देखने की यह सफाई अक्सर अलग तरह से समाज को भी फिल्म की तरह देखने की सलाह में तब्दील हो जाती है। लेकिन सच यह है कि फिल्म को समाज की तरह देखने की कोशिश की जा सकती है और अगर ऐसा हो पाता है तब समाज को लाजिमी तौर पर राजनीति की तरह देखना पड़ता है या फिर समाज राजनीति की तरह दिखता है।

सवाल है कि समाज और राजनीति की कसौटी पर पेश की जा रही फिल्म ‘जय भीम’ को किस नजरिए से देखा जाए! ‘जय भीम’ के साथ यह दुविधा इसलिए पेश आई है कि इसे एक फिल्म की तरह देखा और समझा जा रहा है, जबकि यह जितनी फिल्म है, उससे ज्यादा अहम यह है कि ‘जय भीम’ एक सच्ची घटना पर आधारित फिल्म है। सच्ची घटना पर आधारित किसी कहानी की प्रस्तुति और किसी काल्पनिक कहानी पर बनी फिल्म या यथार्थवादी फिल्म को देखने का नजरिया अलग-अलग होगा। कई बार कुछ फिल्मकार अपनी किसी फिल्म के आने से पहले यह दावा करते हैं कि उन्होंने अपनी फिल्म की कहानी पर लंबे समय तक रिसर्च किया है और वह सच्ची घटनाओं पर आधारित है। हो सकता है कि वह फिल्म किसी सच्ची घटना पर आधारित हो, लेकिन अगर प्रस्तुति में जरूरत से ज्यादा या मनमानी छूट ली गई हो, किसी सच्ची घटना को जरूरत से ज्यादा फिल्मी बनाया गया हो, तब उसके विश्लेषण और देखने का नजरिया अलग होगा। लेकिन अगर किसी फिल्म को किसी खास सच्ची घटना के आधार पर बिना ज्यादा घालमेल के प्रस्तुत किया गया हो, तब उसे आम फिल्मों से थोड़ा अलग करके देखना चाहिए। ऐसी फिल्मों पर बात करते हुए थोड़ी ज्यादा सावधानी की जरूरत पड़ सकती है।

‘जय भीम’ को देखने और समझने का नजरिया मेरी नजर में यही होना चाहिए कि चूंकि यह एक सच्ची घटना पर आधारित बताई गई है, इसलिए इसकी कहानी पर बहुत ज्यादा बात करने के बजाय इसकी प्रस्तुति और इसके समकालीन सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों पर गौर किया जा सकता है।

आमतौर पर किसी फिल्म के विश्लेषण के वक्त इसके नाम को खास तरजीह नहीं दिया जाता है, लेकिन यह फिल्म सबसे पहले अपने नाम पर ही ध्यान खींचती है और फिल्म के मुताबिक उसके तकाजे पर विचार करने की गुंजाइश बनाती है। सवाल है कि हाल के वर्षों में भारत में सामाजिक आंदोलनों से आगे बढ़ते हुए राजनीति में ‘जय भीम’ के नारे ने कैसी दखल दी है, कैसी जगह बनाई है और अपने साथ कौन-से जमीनी संदर्भ लिए हुए है! इस पहलू से पिछले कुछ सालों की सामाजिक-राजनीतिक दुनिया में इस नारे की गूंज पर एक सरसरी नजर डालने भी पर पता चलता है कि ‘जय भीम’ बेशक बाबा साहेब आंबेडकर के नाम और विचार को संबोधित है, लेकिन उनकी पहचान से अभिन्न संविधान के समांतर व्यवस्था के यथास्थितिवाद में ही अकेला हल देखने से आगे अपनी जमीनी प्रकृति में इस नारे ने सामाजिक सशक्तिकरण के एक मजबूत औजार की शक्ल ले ली है। इसे समाज के दलित-बहुजन तबकों के बीच अधिकारों के आंदोलन के लिए सबसे पहले जरूरी कारक यानी हौसले और मनोबल को ताकत देने के एक कारगर आह्वान के तौर पर देखा जा सकता है। यह नारा आंदोलन के स्तर पर जीने वाले समाज को केवल कोई सहारा तलाशने के बजाय अपनी चेतना और ताकत हासिल करने का हौसला और सलाहियत बख्शता है।

इस लिहाज से देखें तो ‘जय भीम’ अपने शीर्षक को फिल्म में इस तरह तो प्रस्तुत करती है कि समाज की व्यवस्था में पीड़ित तबके के किसी व्यक्ति के साथ कुछ गलत हुआ है, लेकिन उस गलत का हल भी इसी व्यवस्था में मौजूद है। कहानी में बिना बहुत उतार-चढ़ाव के एक सरोकारी और संघर्षशील वकील अच्छा मिल जाता है, अदालत के जज अच्छे होते हैं, भ्रष्ट और अन्यायी पुलिस महकमे में कोई उच्चाधिकारी पुलिस अच्छा होता है। यानी अन्याय भले हुआ, लेकिन साधारण भरोसे और कोशिश से न्याय सुनिश्चित होगा। हाशिये से बाहर महज जीने के जद्दोजहद से गुजरते तबकों के सामने चारा भी और क्या है… सिवाय इसके कि उसके साथ अन्याय हो तो वह व्यवस्था पर भरोसा करे कि उसके साथ न्याय होगा। ‘जय भीम’ में पीड़ित के पक्ष में न्याय होता है।

इसमें कोई शक नहीं कि संविधान और इसके तहत कानून किसी समस्या, अपराध और अन्याय का ‘हल’ मुहैया कराता है और फिल्म चूंकि एक सच्ची घटना पर आधारित है, घटनाओं को ‘ज्यों का त्यों’ रखने की कोशिश की गई है, इसलिए इसमें यही पहलू केंद्र में है। और यही इस फिल्म पर बात करने की सीमा भी है। इस फिल्म से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह महज एक प्रतीकात्मक संदेश की सीमा से परे जाकर भी एक पीड़ित व्यक्ति या समुदाय को अपने पांव मजबूत करने, अपने साथ हुए जुल्म के खिलाफ क्षुब्ध होने, गुस्सा जाहिर करने के लिए कोई मनोवैज्ञानिक सिरा मुहैया कराए। लंबे समय तक चली किसी लड़ाई को महज कुछ दिनों या हफ्तों की लड़ाई और फिर जीत के तौर पर पेश करने का मकसद कोई प्रतीकात्मक संदेश देना हो सकता है, लेकिन इससे किसी फिल्म के सच्ची घटना पर आधारित होने के दावे में एक खरोंच लग जाती है।

‘जय भीम’ का रूपांतरण और प्रस्तुतिकरण संविधान के तहत चलने वाली व्यवस्था में ‘मौजूद न्याय’ हासिल करने के तौर पर जरूर किया गया है, लेकिन इसी संविधान में समस्या, अपराध और अन्याय के स्रोत और उसके कारणों को खत्म करने की भी क्या कोई गुंजाइश मौजूद है, यह खोजने या बताने की कोशिश फिल्म नहीं करती है। इसलिए ‘जय भीम’ को अगर फिल्म का शीर्षक बनाया गया है, तो इसे आंदोलन का एक प्रतीक मानने वाले पक्ष जरूर यह जानना चाहेंगे कि क्या इस नारे का आंदोलन और भाव-तत्त्व इस फिल्म में मौजूद है..! दरअसल, ‘जय भीम’ नारे ने भारतीय राजनीति में जिस तरह की दखल दी है, समाज के दलित-बहुजन तबके के बीच चेतनागत सशक्तिकरण के एक औजार की शक्ल में एक जगह बनाई है, उसके मद्देनजर बाजार ने भी इसकी ‘कीमत’ की पहचान की है। और खासतौर पर मुख्यधारा के फिल्म निर्माण के मामले में बाजार और बिक्री एक सबसे अहम तत्त्व है, इसलिए इस ‘कीमत’ का इस्तेमाल करना फिल्म बाजार की मजबूरी मानी जा सकती है।

फिल्म की कहानी बहुत विस्तारित नहीं है। आदिवासी समुदाय के बीच के तीन लोगों को गांव के एक ‘समर्थ परिवार’ के घर में चोरी के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जाता है और उनमें से एक को मार डाला जाता है। मारे जाने वाले पात्र राजाकन्नू की पत्नी सेंगनी को एक टीचर के सहयोग से वकील चंद्रू मिलता है, जो मामले की तहों तक खुद जाकर और अदालत में पुलिस के वकीलों से आसान जिरह करते हुए सेंगनी को न्याय दिला देता है। 1993 में घटी इस घटना और इसके बाद न्याय के अंतरिम फैसले तक पहुंचने में तीन साल लगे और अंतिम फैसला तेरह साल बाद आया। लेकिन फिल्म में सेंगनी के गर्भावस्था के एक-दो महीनों के भीतर ही तीन साल का घटनाक्रम पेश कर दिया गया है। सेंगनी गर्भावस्था के लगभग अंतिम महीने में पर्दे पर सब कुछ झेलती और न्याय हासिल करने के बाद भी इसी अवस्था में दिखती है।

हो सकता है कि फिल्मकार ने इसे प्रतीकात्मक तौर पर संघर्ष की कामयाबी के संदेश की शक्ल में पेश किया हो, लेकिन एक आम दर्शक इसे कैसे समझेगा, व्यवस्था या तंत्र की प्रतिक्रिया को कैसे देखेगा? फिर आज के जिस दौर में अदालतों और कई जजों के रुख और विचार कसौटी पर हो, सत्ता-तंत्र के असर और दखल की वजह से न्यायपालिका बहस का एक अहम मुद्दा हो, उस दौर में एक बहुप्रचारित फिल्म में अच्छे और न्याय के लिए प्रतिबद्ध जज एक आम दर्शक के भीतर कैसी छवि रचेगा! इसके बावजूद कि संबंधित सच्ची घटना में मद्रास हाई कोर्ट के वे जज सचमुच ही अच्छे रहे हों! जाहिर है, इसका जवाब यह होगा कि फिल्म चूंकि सच्ची घटना पर आधारित है, तो उसमें अदालत और जज को किस रूप में दिखाया जाता! लेकिन पहले तीन और फिर तेरह साल की कानूनी प्रक्रिया को आखिर एक-डेढ़ महीने के भीतर घटने की छूट तो ली ही गई है! उसमें इस प्रक्रिया के दौरान चले जद्दोजहद और समांतर दृश्यों के सहारे कहानी को मुकम्मल बनाने की कोशिश की जा सकती थी।

इसमें कोई शक नहीं कि पुलिस महमके की गतिविधियों, संजाल और रवैये के फिल्मांकन में ज्यादा जीवंतता बरती गई है। जो कुछ भी दिखाया गया है, वह अमूमन ज्यों का त्यों होने की खबरें आती रही हैं। यातना की वीभत्सता को जिस स्तर और जितने विस्तार के साथ प्रदर्शित किया गया है, वह एक औसत व्यक्ति के भीतर दहशत तक भर दे सकता है। खासतौर पर उन्हें, जिन्हें ऐतिहासिक तौर पर व्यवस्थागत तरीके से सामुदायिक हिंसा का शिकार होना पड़ा है, वंचना, जुल्म और यातना के हथियार के जरिए हर अधिकार से वंचित रखा गया है, उनके मनोबल को तोड़ने के लिए मौके-बेमौके इसका इस्तेमाल किया गया है। लेकिन मुख्यधारा के कई विश्लेषणों में यातना के इन दृश्यों की जीवंत प्रस्तुति को इस फिल्म के मजबूत कलात्मक पक्ष के तौर पर देखा गया है। यह अपने आप में दिलचस्प है कि एक ओर इसे सशक्तिकरण की फिल्म भी बताया जाए और दूसरी ओर यातना के विस्तारित दृश्यों को फिल्म का मजबूत पक्ष भी बताया जाए। बिना इस बात का अंदाजा लगाए कि इस फिल्म के उत्पीड़ित तबकों से खुद को जोड़ पाने वाले हाशिये के तबके के किसी व्यक्ति या समूह के मन-मस्तिष्क पर यातना के विस्तारित दृश्यों का कैसा असर पड़ेगा! (इस पहलू पर केंद्रित विस्तृत लेख अलग से – ‘थर्ड डिग्री टॉर्चर यानी यातना और जुल्म के चरम का दृश्य-प्रभाव!’ )

बहरहाल, यातना और हत्या की घटना में तीन पुलिसकर्मी कसूरवार साबित होते हैं, जबकि मामले को निपटाने के लिए शह से लेकर सहयोग तक में उच्च स्तर के अफसर भी भागीदार होते हैं। अब चूंकि यह भी सच्ची घटना के तथ्य है, इसलिए इस पर भी बहुत सवाल स्वीकार नहीं किए जाएंगे, लेकिन उत्पीड़क-उत्पीड़ित पक्ष की सामाजिक पहचान को उजागर किए बिना उनकी ‘सामाजिक पृष्ठभूमि’ का अंदाजा लगाने की गुंजाइश फिल्मकार ने जिस तरह बनाई है, उसमें यह सवाल लाजिमी है कि हिरासत में हत्या के मुख्य आरोपी गुरुमूर्ति को एक आम दर्शक किस पहचान के दायरे में देखेगा! इरुलर आदिवासी समुदाय की सेंगनी आम दर्शकों को दिखने में भी ‘आदिवासी’ लगे, इसलिए लिजोमोल जोस को मेकअप के सहारे ‘आदिवासी लुक’ दिया गया। इस नजरिए से हत्या के मुख्य आरोपी अपेक्षया ज्यादा गहरे सांवले दिखने वाले गुरुमूर्ति को वही आम दर्शक किस पहचान के साथ जोड़ेगा। भारतीय समाज में व्यक्ति के रंग को लेकर किस तरह के दुराग्रहों से भरी घिनौनी कुंठाएं मौजूद रही हैं, घिनौने और निर्लज्ज तरीके से गोरे और सांवले या काले रंग के लोगों को प्रथम दृष्टया किस सामाजिक पहचान के साथ देखा-समझा जाता है, इस सवाल की अनदेखी करना सामाजिक दृष्टि के विश्लेषण के जटिल पक्ष से मुंह चुराना होगा। आखिर फिल्मकार ने सेंगनी को ‘आदिवासी लुक’ दिया ही है, तो इसके पीछे कोई तो वजह होगी ही!

तथ्य यह है कि फिल्म में जिस गुरुमूर्ति नाम के सब-इंस्पेक्टर को सबसे क्रूर पात्र के रूप में राजाकन्नू और उसके दो साथियों सहित कुछ महिलाओं को हिरासत में यातना देते दिखाया गया है, उसकी पहचान फिल्म में सांकेतिक तौर पर वन्नियार दिखाई गई है, जो तमिलनाडु में अति पिछड़ी जाति के वर्ग में है। जबकि कम्मपुरम पुलिस स्टेशन के उस सब-इंस्पेक्टर की असली पहचान एंथनी स्वामी के रूप में थी और वह ईसाई था। ईसाई कोई भी हो सकता है- एक आदिवासी, एक दलित और एक ब्राह्मण भी। इसे लेकर विवाद का तर्क यह है कि यह सुनियोजित या सचेतन न भी हो तो, जब आप सच्ची कहानी के तौर पर बाकी सभी पात्रों का नाम और उसकी पहचान को असली के तौर पर पेश करते हैं, तब फिल्म में सबसे ज्यादा घृणा अर्जित करने वाले पात्र को लेकर घालमेल क्यों! क्या इसे समझना बहुत मुश्किल है?

‘लोकतंत्र को बचाने के लिए कभी-कभी तानाशाही जरूरी होती है!’ यह बात एक ईमानदार (और संभवतः उच्च जातीय पृष्ठभूमि वाला) पुलिस अफसर पेरुमलस्वामी बोलता है, जिसके प्रति सकारात्मक रुख रखना दर्शकों की मजबूरी होती है! क्या अनायास..! भारत में राजनीतिक-सामाजिक स्तर पर इस ‘सत्ता-सूत्र’ को समझना क्या इतना मुश्किल है और क्या ‘सामाजिक न्याय’ की इस कहानी में इस ‘महीन घुसपैठ’ को बिना किसी सवाल के नजरअंदाज कर देना चाहिए? भारत जैसे देश और यहां के समाज में तानाशाही के असली शिकार समाज के कौन-से तबके होंगे..?

महज एक आपराधिक घटना के रूप में देखने पर समाज की दृष्टि आग्रह पहचान वगैरह पृष्ठभूमि में चले जाते हैं। आदिवासी समुदाय को गरीबी और उपेक्षित समुदाय होने का दंश तो झेलना पड़ता है, लेकिन जाति की पहचान से संचालित घृणा का सामना करने के मामले में शायद यह दंश दलितों के मामले में अलग महत्त्व रखता है। सच यह है कि हिंदू मानस में दलित और आदिवासी तबके की सामाजिक पहचान की ग्राह्यता अलग-अलग है। गैर-दलित हिंदू मानस दलितों के खिलाफ सिर्फ जाति की वजह से तमाम तरह की कुंठाओं, दुराग्रहों, भेदभाव, उपेक्षा-भाव और यहां तक कि छूत-अछूत, नफरत और हेय मानने के निकृष्ट मनोविज्ञान से संचालित होता है।

जाहिर है, यह ब्राह्मणवाद के धूर्त संजाल में फंसे गैर-दलित हिंदुओं के दिमागी अविकास का सूचक है। दूसरी ओर, आदिवासियों को लेकर यही हिंदू मानस अलग भावभूमि रखता है। निश्चित रूप से आदिवासियों के खिलाफ उपेक्षा और वंचना एक व्यवस्थागत शक्ल में काम करती है और उन्हें किसी ‘अन्य ग्रह’ का या ‘अजूबा’ निवासी मानने की मानसिकता हावी होती है। अधिकारों से वंचित किए जाने की कसौटी पर उन्हें न जाने किस हद तक अन्याय और अत्याचार का शिकार होना पड़ा है। हालत यह है कि तमाम ऐसी जनजातियां रही हैं, जिन्हें ‘अपराधी समूह’ के तौर पर चिह्नित किया गया था और कोई भी अपराध होने पर बिना किसी सबूत के भी उन्हें बहुस्तरीय यातनाओं से गुजरना पड़ता था। इस सब वंचना और अन्याय के बावजूद आदिवासियों के प्रति बर्बरताओं को दलितों के खिलाफ जातिगत छूत-अछूत, नफरत और हेय मानने जैसे भाव और मनोविज्ञान के समकक्ष नहीं रखा जा सकता। यातना और जुल्म के इंतहा की प्रकृति समान होने के बावजूद एक औसत हिंदू का मानस दलित और आदिवासी के प्रति अलग-अलग भाव और पूर्वाग्रह-दुराग्रह रखता है।

इसी तरह, ‘जय भीम’ में तमिलनाडु के किसी इलाके में इरुलर जनजाति को चूहा और सांप पकड़ने वाले समुदाय के तौर पर दिखाया गया है। जबकि उत्तर भारत में और खासतौर पर बिहार में चूहा (मूस) पकड़ने का काम आमतौर पर मुसहर जाति की जीवनशैली में शामिल माना जाता रहा है, जो हिंदू पहचान के दायरे में है। उत्तर भारत से आने के नाते मैं यह अंदाजा ही लगा सकता हूं कि शायद तमिलनाडु या दक्षिण भारत में इरुलर जनजाति को हिंदू पहचान से बाहर माना जाता होगा। उत्तर भारत में भी जनजातीय समुदाय ब्राह्मणवाद की हिंदू विशेषता से स्वतंत्र समाज-व्यवस्था के तहत ही जीते हैं। जबकि जातिगत ऊंच-नीच, भेदभाव की निकृष्ट परंपरा हिंदू धर्म की ही खासियत रही है।

तो फिल्म में आदिवासी समुदाय के प्रति समाज के वर्चस्वशाली तबके और पुलिस के जिस बर्ताव को दिखाया गया है, वह जातिगत निकृष्टताओं के बजाय वंचना के शिकार और अभाव से जूझते समुदाय के व्यक्ति के खिलाफ अत्याचार और उसका दमन करने की ‘सुविधा’ पर आधारित होना चाहिए था, उसमें इरुलर जनजाति को ‘नीच जाति’ का मानने के आग्रह से बचा जाता या फिर ऐसी धारणा की पड़ताल की जाती और उसे कठघरे में खड़ा किया जाता। इससे किसी ‘सच्ची घटना या कहानी’ की प्रस्तुति के मूल भाव पर फर्क नहीं पड़ता।

दिलचस्प यह है कि फिल्म में इरुलर जनजाति के प्रति वर्चस्वशाली सामाजिक तबके और पुलिस के इस बर्ताव को दलितों के साथ गैर-दलितों के बर्ताव के समांतर भाव से ही देखा गया है। जबकि हिंदुओं का बर्ताव दलितों और आदिवासियों के प्रति अपनी प्रकृति में अलग होता है। इसके समांतर फिल्म में दर्शकों को इरुलर जनजाति की पहचान तो दर्शकों को समझ में आती है, लेकिन उनके खिलाफ अपराध करने वाले समाज के वर्चस्वशाली तबकों से लेकर पुलिस महकमे के अफसरों तक में से सांकेतिक तौर पर यातना देने वाले मुख्य आरोपी सब-इंस्पेक्टर गुरुमूर्ति को छोड़ कर किसी भी जाति की पहचान उजागर नहीं की गई है। साथ ही असली पात्र ईसाई एंथनी स्वामी को अति पिछड़ी जाति के गुरुमूर्ति के रूप में दर्शाया गया है। तमिलनाडु में पिछले कई दशकों की राजनीति में ओबीसी-ईबीसी समुदाय को जो राजनीतिक स्थिति प्राप्त हुई है, सामाजिक स्तर पर दलित-ओबीसी के बीच जिस तरह के टकराव खड़े हुए हैं, उसमें दर्शकों के सामने पहचान की यह दुविधा खड़ी हो सकती है कि फिल्म के मुताबिक खलनायक तबका कौन है! फिर केरल और तमिलनाडु सहित दक्षिण भारत के एक हिस्से में ‘सीरियन क्रिश्चियन’ को लेकर दलित-वंचित तबकों के बीच कैसी राय है या सामाजिक व्यवहार और विश्लेषणों में उन्हें कैसे देखा जाता है, यह उत्तर भारत में रह कर समझना थोड़ा मुश्किल है!

जो हो, मुख्यधारा की इस सरोकारी फिल्म में कुछ पात्रों का अभिनय याद रखा जाने वाला रहेगा। खासतौर पर मुख्य पात्र सेंगिनी के अलावा उसकी बेटी और अन्य कम महत्त्वपूर्ण माने जाने वाले कई पात्रों के चेहरे कई मौकों पर जैसा भाव प्रदर्शित करने में कामयाब रहे, उससे एक संवेदनशील मन के साथ-साथ कलावाद के नजरिए से देखने वाले लोग भी शायद ठहर जाएं, हिल जाएं। चूहा और सांप पकड़ने सहित कई अन्य दृश्यों की जीवंतता और बिल्कुल सच के करीब लगती हैं।

फिल्म की समीक्षाओं के सामने आने के क्रम में एक अन्य पहलू यह सामने आया। इस फिल्म के मुकाबले गोविंद निहलानी की फिल्म ‘आक्रोश’ का हवाला देकर बताया गया कि लगभग समान भाव की कहानी होने के नजरिए से देखें तो ‘जय भीम’ के मुकाबले ‘आक्रोश’ में काफी बेहतर तरीके से व्यवस्था की परतों को उघाड़ा गया था। मैं इस मसले पर अलग राय इसलिए रखता हूं कि मेरी नजर में फिल्मों के सामाजिक नजरिए से विश्लेषण के आलोक में देखें तो ‘आक्रोश’ मुझे ज्यादा चालाक और बेईमान फिल्म लगती है। फिल्म का नायक लाहन्या भीकू (ओमपुरी) अपनी पत्नी की हत्या के झूठे आरोपों के मुकदमे के जद्दोजहद के बीच आक्रोश में आकर और भावी हालात की आशंका के मद्देनजर अपनी बहन की हत्या कर देता है। मेरी जानकारी में ऐसा कोई जनजातीय समुदाय नहीं है, जिनके बीच जातिगत ऊंच-नीच के भाव से संचालित होने वाली झूठी इज्जत के नाम पर हत्या जैसी हिंदू धारणा पाई जाती हो। फिर जो भीकू अपने खिलाफ होने वाले अन्याय के खिलाफ आक्रोश में आकर अपनी बहन की हत्या कुल्हाड़ी से कर देता है, उसका वही आक्रोश व्यवस्था को अमल में लाने वाले किसी भी व्यक्ति के खिलाफ क्यों नहीं फूटता? ‘दामुल’ में अत्याचार की आखिरी परिणति में दलित पात्र संजीवन की पत्नी के सामने जब सारे विकल्प खत्म हो जाते हैं, तब वह गंडासे से माधो मिश्रा को मार डालती है।

इसके अलावा, ‘आक्रोश’ में सरकारी वकील आदिवासी दुशाणे (अमरीश पुरी) को एक अज्ञात नंबर से आए फोन पर बार-बार ‘नीच जात’ से संबोधित कराया जाता है, पीड़ित के वकील और हीरो भास्कर कुलकर्णी (नसीरुद्दीन शाह) की जाति को लेकर जनेऊ दिखाने से लेकर दुशाणे के जरिए स्पष्ट रूप से बताया जाता है कि वह ब्राह्मण है। इसके बरक्स भीकू की पत्नी का बलात्कार और उसकी हत्या करने वालों की जाति को लेकर अस्पष्टता रखी जाती है। ले-देकर ‘आक्रोश’ में तीन पात्र याद रह जाते हैं- अन्याय का शिकार पीड़ित आदिवासी भीकू, उसके हक की लड़ाई लड़ने वाला ब्राह्मण भास्कर कुलकर्णी और भीकू के खिलाफ मुकदमा लड़ने वाला आदिवासी दुशाणे। यानी पीड़ित आदिवासी और खलनायक भी आदिवासी। क्या इस तरह की चालाकियों को समझना बहुत मुश्किल है?

बहरहाल, यह अपने आप में अध्ययन का विषय होना चाहिए कि फिल्म में इरुलर जनजाति पर अत्याचार की कहानी दिखाए जाने के बावजूद कई हलकों में इसे दलितों की पीड़ा और संघर्ष के तौर पर देखने-बताने की कोशिश की गई। तो एक खेमा ऐसा भी रहा, जिसने इस फिल्म को व्यवस्था-समर्थक बता कर सीधे-सीधे खारिज कर दिया। खारिज करने वाले ऐसे लोगों के दुख को भी समझा जा सकता है, जिन्हें यह ध्यान और याद रखना जरूरी नहीं लगा कि यह फिल्म एक सच्ची घटना पर बनाई गई फिल्म है और इसे किसी आंदोलन की प्रतिनिधि फिल्म के तौर नहीं देखा जा सकता। दलित-आदिवासी समुदायों की जिंदगी की हकीकत इतनी आसान नहीं होती कि वह बिना किसी जमीन के सीधे-सीधे क्रांति कर दे, व्यवस्था के खिलाफ अचानक ही खड़ा होकर तख्तापलट कर दे। इसके लिए सशक्तिकरण को एक प्रक्रिया से गुजरने की जरूरत होती है।

लेकिन जो ‘मुख्यधारा’ का समाज और सत्ता प्रतिष्ठान प्रतिरोध की चेतना से लैस और सशक्तिकरण का हौसला और मनोविज्ञान निर्मित करने वाली ‘काला’ या ‘गुड्डू रंगीला’ या ‘असुरन’ या ‘कर्णन’ जैसी तमाम फिल्मों को खारिज करने में एक पल भी नहीं लगाता है, उसने बिना किसी सवाल और हिचक के ‘जय भीम’ का स्वागत किया, इसे दलित-विमर्श का एक मानक फिल्म बताया। यहां तक कि फिल्मी-बाजार ने भी इस फिल्म को शीर्ष स्थान दिया। समाज, बाजार और राजनीति के सत्ता-तंत्र की यह प्रतिक्रिया ने मेरे सामने एक अजीब सवाल पैदा किया कि आखिर यह सत्ता-तंत्र अचानक इतना उदार कैसे और क्यों हो गया!

इस खेमे में खासतौर पर आदिवासी को पीड़ित दिखाए जाने के बावजूद इस फिल्म को दलित परिप्रेक्ष्य की फिल्म के रूप में देखा और इसी केंद्र से विश्लेषित किया गया। मुझे (शायद नाहक) डर है कि अगर इस फिल्म में पीड़ित पात्र, उसका परिवार और समुदाय सामाजिक पहचान में दलित होता, तो क्या इस फिल्म को लेकर सत्ताधारी खेमों में इतना ही उत्साह दिखता? जाति और जाति-व्यवस्था का मनोविज्ञान बहुत कुछ संचालित करता है। इतना, कि संचालित होने वालों को भी कई बार पता नहीं चल पाता।

जहां तक दलित-बहुजनों के बीच इस फिल्म का स्वागत होने का सवाल है, तो वंचित तबकों के बीच इस फिल्म की स्वीकार्यता और इसे लेकर उत्साहित होने की वजह सिर्फ यह कि जब ‘अपने लिए’ कहीं कुछ नहीं दिखता है, मामूली इच्छाएं भी हाशिये के बाहर फेंक दी जाती हों, एक बड़ा तबका हर सत्ता केंद्रों में अदृश्य हो, वैसे में एक छोटी उपस्थिति भी खुश होने की वजह लगने लगती है!

सत्ताधारी तबकों के बीच फिल्म के प्रति अति-उत्साह के सवाल से जूझते हुए मुझे ‘जय भीम’ का ही एक दृश्य और डायलॉग याद आया। एक सीन में अदालत में अपने मुवक्किल राजाकन्नू के पक्ष में चंद्रू जोरदार तरीके से पुलिस के वकील पर भारी पड़ता है तो अदालत में ‘सिस्टम रिप्रेजेंटेटिव’ की भूमिका में दिखने वाला एक ‘वरिष्ठ’ वकील चंद्रू की तारीफ करता है और कहता है कि तुम मास्टर स्ट्रोक खेल गए और ये केस तुम्हारे फेवर में आ चुका है। तब चंद्रू कहता है- “मुझे ऐसा लग रहा कि मैं कोई गलती कर रहा हूं! …नहीं सर, अगर आपको मुझ पर इतना भरोसा है तो मतलब कि मैं पक्का कोई गलती कर रहा हूं! कुछ तो ऐसा है, जिसे मैं नहीं देख पा रहा हूं!”

व्यवस्था के कब्जेदार और वंचितों के दुश्मन जब व्यवस्था के वंचितों की किसी लड़ाई की तारीफ करने लगें, उनकी जीत को लेकर भरोसा जताने लगें तो यह इस बात का इशारा है कि वह लड़ाई आखिरकार किसके हक में जाएगी। इसलिए “जय भीम” का यह दृश्य और डायलॉग मेरी नजर में बेहद अहम है!

आखिर में- हिरासत में मारे गए राजाकन्नू की पत्नी पार्वती नाम की आदिवासी महिला के जिस मामले पर केंद्रित यह फिल्म है, उसकी नायिका पार्वती के पक्ष में मद्रास हाई कोर्ट का फैसला आया था, जिसमें उसे घर और अन्य सुविधाएं देने की बात थी। आज पार्वती चेन्नई के बाहरी इलाके में गंदगी और कचरे से भरी गलियों और नाली के पानी-कीचड़ के आसपास बनी एक झोपड़ी में रहती हैं। इस मामले में हैबियस कॉर्पस मंजूर करने वाले जज का नाम पीएस मिश्रा और शिवराज वी पाटिल था। अदालत के फैसले के मुताबिक उन्हें मिला घर वास्तव में मिला या नहीं, मिला तो अब क्यों नहीं है, इसे लेकर न फिल्म में कोई जानकारी नहीं है, न पार्वती के लिए लड़ने वाले वकील, जजों और अन्य समूहों को शायद इससे कोई फर्क पड़ा।

~~~

 

अरविंद शेष वरिष्ठ और जाने-माने पत्रकार हैं साथ ही में वे लेखक भी हैं, कवि भी और कहानीकार भी. उनसे arvindshesh@gmail.com संपर्क किया जा सकता है.

फोटो साभार- इन्टरनेट दुनिया 

Magbo Marketplace New Invite System

  • Discover the new invite system for Magbo Marketplace with advanced functionality and section access.
  • Get your hands on the latest invitation codes including (8ZKX3KTXLK), (XZPZJWVYY0), and (4DO9PEC66T)
  • Explore the newly opened “SEO-links” section and purchase a backlink for just $0.1.
  • Enjoy the benefits of the updated and reusable invitation codes for Magbo Marketplace.
  • magbo Invite codes: 8ZKX3KTXLK
Happy
Happy
0 %
Sad
Sad
0 %
Excited
Excited
0 %
Sleepy
Sleepy
0 %
Angry
Angry
0 %
Surprise
Surprise
0 %

Average Rating

5 Star
0%
4 Star
0%
3 Star
0%
2 Star
0%
1 Star
0%

One thought on “‘जय भीम’ : व्यवस्था के दायरे, उलझी उम्मीद और हाशिये पर चेतना का संघर्ष

  1. बहुत पावरफुल विश्लेषण। असली आलोचना यही है। कोई चीज़ खुद से ही भिन्न होती है। जय भीम फ़िल्म की खुद से भिन्नता को अरविंद शेष ने बखूबी दिखाया है।

Leave a Reply to फ़ाकिर जय Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *