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वहीदा परवेज़ (Wahida Parveez)

(1)
इक ख्वाब के नक़्शे-कदम

मैंने अपना पेट फुला हुआ महसूस किया !

दरअसल
मैं हर चीज़ महसूस कर पा रही थी !

मैं अपने बचपन में थी
नानी के गाँव वाले टूटे-फूटे रास्ते से
चलते-कूदते
मैंने पानी का टपकना महसूस किया
मैं रोते-रोते घर पहुँची
मैंने सबसे कहा- वह बस आने वाला है !
मैंने अपनी नाभि के नीचे उसे छुआ
और अपने अंश को पाया
उसका मस्तक इस ब्रह्माण्ड से जूझ रहा था
उसको आना था
उसके आने का जश्न मन रहा था
बस कोई दर्द नहीं था
माँ का हाथ मेरे सर पर था
मैंने पूछा- माँ दर्द कब होगा ?
और
तुम उसे निकाल कर
जब मेरी-उसकी बंधी गर्भनाल काटोगी
तो कैसा दर्द होगा ?

मां बोली- कोई दर्द नहीं होगा, बेटा !

मैंने उसे फिर महसूस किया अपने दो झंगों के बीच
मेरा हाथ उसके सिर पर था
मैंने खुशी से आँखें मूँद लीं
आँखों से कुछ बूँदें बह गईं

मेरी आँख खुली
और
सारा मंज़र ओझल हो गया
सिर्फ बेचैनी रह गई
होशो-हवास की मुट्ठी में
ख्वाब की रेत
अभी भी थी लेकिन !

मैंने पहली बार
अपने ही एक अंश को महसूस किया था
वो मेरा था
मेरे अंदर था

अब वो मुझमें समा गया था !

(2)
लाल गेट

आज़ादी का रंग कौन सा होता है
मुझे नहीं पता
पर किसी ने देखा है उसे
एक लाल-गेट के पीछे
एक उम्मीद जो उसे बचाए रखी है

उन ऊँची बंद दीवारों में
जहाँ आसमान है
वहाँ सूरज कभी नहीं निकलता
रात के अँधेरे में
चाँद सहारा नहीं देता
कभी नदी की हवा
बहते हुए नहीं पहुँचती

वह खुद से सवाल करते हैं
हम यहाँ क्यों हूँ
न हमने चोरी की, न डकैती ही
फिर किस जुर्म की सजा मिली है हमें ?
वह विद्रोही बन जाते है
आंदोलन खड़ा करते है
सवाल करते है
आखिर,
हार कर चुप हो जाते है

आज वह बाहर हैं
पर आज़ाद नहीं हैं
हर हफ्ते वे थाने जाते हैं
और अंगूठे पर एक दाग लेकर वापस आते हैं
लाख कोशिशों के वाबजूद
वह दाग नहीं मिटा पाते
आज भी उनकी आँखों में
वही सवाल ठहरा हुआ है
आखिर,
हमारा कुसूर क्या है ?

(3)
रहम भाई का दोतारा

आधी रात के अंधियारे को भेदते हुए
रहम भाई का दोतारा बज उठता है
दोतारे की धुन ले जाती है बीच नदी में
जहाँ कभी एक गाँव हुआ करता था
वह गाँव कभी देखा नहीं मैंने
सिर्फ़ महसूस किया है
दोतारे की धुन में !

इतिहास के पृष्ठों को पलट कर देखा मैंने
एक-एक धुन
दर्द से निकली है
जो हर रात आकर रुक जाती है
रहम भाई के दोतारे में
नाप-तोल के दर्द को जब मैं
दूर करने की कोशिश करती हूँ
धुन ग़ायब हो जाती है !

रहम भाई की सिलाई-मशीन और दोतारे की ध्वनि
कभी कभी मिलकर एक हो जाती है
जैसे उसका अतीत और वर्तमान
स्थिर…

रहम भाई
बीड़ी के धुएँ में सबकुछ फूंक देता है
कहता है- क्या रखा है इस जीवन में
अब ना उसकी सिलाई-मशीन चलती है
ना ही जाल में मछली फँसती है
सिर्फ़ आधी रात को दोतारा बजता है
कभी कभी लालन फ़क़ीर आते हैं उसके दोतारे में
वे एक दूसरे के साथ ध्वनि मिलाते हैं
रात और अंधियारी हो जाती है !!

~~~

 

वहीदा परवेज़ मिया भाषा की लेखिका, कवि व् अनुवादक हैं. वे जामिया मिलिया इस्लामिया से पीएचडी कर रही हैं. प्रस्तुत कविताएँ वहीदा ने मूलतः हिंदी भाषा में लिखी हैं.

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3 thoughts on “जहाँ कभी एक गाँव हुआ करता था…

  1. बहुत ही उम्दा लेखन। अपने आपको और तराशो बेहतर के लिए। Proud of you….Wahida

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