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संजय श्रमण (Sanjay Shraman)

डॉक्टर अंबेडकर ने कहा है कि भारत का इतिहास असल में श्रमण और ब्राह्मण संस्कृति के संघर्ष का इतिहास है। इस बात को धार्मिक-दार्शनिक विकास सहित परंपराओं, कर्मकांडों, देवी-देवताओं के विकास के स्तर पर भी बहुत दूर तक समझा जा सकता है। ना केवल भौतिक संसाधनों की लूट एवं अधिकार के लिए संघर्ष के संदर्भ में बल्कि इससे भी कहीं अधिक वैचारिक संपदा की लूट के संदर्भ में इस वक्तव्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए।

भारत में 6 दर्शनों की जो परंपरा है उसमें वेदांत आखिर में आता है, लेकिन इसका प्रचार ऐसे किया जाता है जैसे यह सबसे प्राचीन दर्शन है। भारत के श्रमण दार्शनिकों एवं गुरुओं ने जिन दर्शनों का विकास किया वे मूल रूप से भौतिक वादी एवं तांत्रिक रहे हैं। देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने इस विषय में काफी गहराई से खोजबीन की है। उनके अध्ययन एवं डॉ आंबेडकर के अध्ययनों को एवं अन्य मानवशास्त्री अध्ययनों को एक साथ रखें तो कई बातें पता चलती है।

भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में दार्शनिक विचारों की शुरुआत ईश्वर और देवी-देवताओं के जन्म से काफी पहले हो चुकी थी। दुनिया भर की सभी आदिवासी संस्कृतियों में दर्शन की शुरुआत प्रकृति और प्राकृतिक शक्तियों के मनुष्य-जीवन से संबंधों के विश्लेषण के साथ होती है। इसकी प्रेरणा भी मूल रूप से ज़मीन की उर्वरा शक्ति एवं मनुष्य शरीर की उर्वरा शक्ति सहित मृत्यु के भय में छुपी हुई है।

इस सब का सीधा संबंध मनुष्य के शरीर एवं जीवन की रक्षा से जुड़ा हुआ है। ज़मीन पर अधिक फसल कैसे हो, और कबीले की महिलाएँ अधिक बच्चों को जन्म कैसे दें, और इसके साथ ही ज़मीन की उपजाऊ शक्ति है और महिलाओं की उपजाऊ शक्ति को एक साथ एक नजरिये में कैसे शामिल किया जाए- इस बात पर विचार करते हुए दुनिया भर की आदिवासी संस्कृतियों ने रीति-रिवाजों एवं परंपराओं का निर्माण किया।

एक स्थान पर रहकर खेती करने वाले कबीलों ने ज़मीन और माँ को केंद्र में रखकर जिन धर्मों का निर्माण किया उसमें मातृशक्ति, वन-देवियाँ, ग्राम-देवियाँ, कुल-देवियाँ आदि प्रमुख हो गईं, अनेकता और समन्वय इन परंपराओं एवं धर्मों की विशेषता रहा है। इसके विपरीत घुमंतू पशुपालक समुदाय के लोगों ने पुरुष प्रधान एवं बहुलता के विरोध में धर्मों का निर्माण किया है।

घुमंतू पशुपालक समुदाय अपने पशुओं को लेकर युद्ध करते हुए लूटपाट करते हुए आगे बढ़ते थे, इसलिए स्वाभाविक रूप से उनके लिए एक पुरुष की आक्रमक शक्ति का अधिक महत्व था। ऐसे हज़ारों आक्रमक पुरुष जब दूसरों के पशुधन एवं स्त्रियों पर आक्रमण करते थे तब वे उस पशुधन एवं स्त्रियों को अपना गुलाम बना लेते थे और पुरुषों को मार देते थे।

इसीलिए इन घुमंतू आक्रामक चरवाहों में आक्रामक देवताओं और बाद में पुरुष की शक्ल में एक सर्वशक्तिमान ईश्वर का जन्म हुआ। धीरे-धीरे इन युद्धखोर एवं बर्बर कबीलों ने खेती करने वाले लोगों को जीत कर उन्हें अपना गुलाम बनाना शुरू किया। उन्हें गुलाम बनाकर उनसे खेती करवाई, अनाज पैदा करवाया।

सदियों से एक ही स्थान पर रहकर उन्होंने जिन कलाओं, रीति-रिवाजों, परंपराओं एवं दर्शनों का विकास किया था उनमें अपने पुरुषवादी प्रतीकों एवं विश्वासों को थोपना शुरू किया। अधिकांश वन-देवियों, ग्राम-देवियों एवं कुल-देवीयो इत्यादि को युद्धखोर घुमंतू कबीलों के आदि पुरुषों की पत्नियां बना दिया गया। इस तरह नये गोरे देवताओं और पुरानी काली देवियों की शादियाँ शुरू हुईं, बाद में इसी प्रयोग की सफलता के बाद सर्वशक्तिमान ईश्वर का जन्म हुआ।

दूसरी तरफ ज़मीन पर रुक कर खेती करने वाले लोगों के लिए ज़मीन की उपजाऊ शक्ति का अधिक महत्व था। एक ही स्थान पर टिके रहने के कारण उन्होंने कहीं अधिक बहुलतावादी एवं भौतिकवादी विचारों का विकास किया। सारी कलाएँ, किस्से कहानियाँ एवं प्रतीक, भोजन की परंपरा, वस्त्र, आभूषण, मिट्टी, लकड़ी, चमड़े, लोहे आदि के औज़ार एवं उपकरण बनाना इन्होंने ही शुरू किया।

इन उपकरणों एवं औज़ारों के साथ संस्कृति का विकास करते हुए तरह-तरह की सामाजिक संस्थाएँ और मिथकों का निर्माण हुआ। एक स्थान पर रुक कर काम करने वाले लोगों के मिथक अपने जन-जीवन से जुड़े हुए एवं रोज़मर्रा के जीवन के आनंद से जुड़े हुए होते हैं।

दूसरी तरफ बर्बर घुमंतू चरवाहों के मिथक, हमेशा आधिपत्य, सत्ता, शासन, युद्ध एवं हिंसा की बात करते हैं, इसीलिए उनका ईश्वर एक आक्रामक कबीले के सरदार की तरह हमेशा दंड देने की भाषा बोलता है। इसके विपरीत दुनिया भर की आदिवासी सभ्यताओं में अधिकतर मिथक स्थानीय जन-जीवन से जुड़े प्रतीकों को संभालते हुए लोक-कथा एवं दंत-कथाओं से होकर गुज़रते हैं, इनमें बड़े पैमाने की हिंसा या युद्ध की प्रशंसा इत्यादि बहुत अधिक नहीं होता है।

दुनिया भर में युद्धखोर चरवाहे समुदाय एवं स्थानीय खेतिहर समुदाय के बीच युद्ध हुआ है, दुनिया के अन्य ज्यादातर हिस्सों में धीरे-धीरे इन दो समुदायों के बीच एक समझौता बन गया है। पिछले कुछ हज़ार सालों में युद्धखोर चरवाहों ने खेतिहर समुदायों की जमीनों एवं स्त्रियों पर अधिकार करके पहले उन्हें अपना गुलाम बनाया।

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लेकिन जल्द ही उनके बीच आपसी तालमेल एवं रोटी-बेटी का संबंध शुरू हो गया, और उनके बीच बड़े पैमाने पर सामाजिक, राजनीतिक धार्मिक एवं रक्त संबंधी संश्लेषण शुरू हुआ और वे धीरे-धीरे एक होते गए।

लेकिन भारत में यह नहीं हुआ। भारत में खेतिहर समुदायों की जनसंख्या बहुत बड़ी थी और उनकी हज़ारों साल की परंपराओं का ठोस अस्तित्व था जिसे मिटाना युद्धखोर आर्य चरवाहों के लिए बहुत ही मुश्किल काम था। ये चरवाहे जब भारत आने लगे तब शुरुआती शताब्दियों में इन्होंने बहुत बड़ी संख्या में मूलनिवासी भारतीय खेतिहर समुदायों का नरसंहार किया, उनके पशुधन, ज़मीन और स्त्रियों को अपने कब्ज़े में लिया। चरवाहों के साहित्य में और इनके धार्मिक मिथकों में ऐसे ही युद्धों और अभियानों का बड़ा भयानक वर्णन मिलता है। पूरा ऋग्वेद युद्ध के इन अभियानों की कहानियों से भरा पड़ा है।

धीरे-धीरे इन चरवाहों ने महसूस किया कि वे अधिक समय तक इस हत्याकांड और लूटपाट को जारी नहीं रख सकते। तब उन्होंने दूसरी रणनीति पर काम करना शुरू किया, उसी रणनीति का नाम वर्ण और जाति व्यवस्था है।

इन युद्धखोर चरवाहे समुदायों ने भारत के प्राचीन निवासियों को पराजित करने के बाद पूरी तरह स्वयं में शामिल नहीं किया और ना ही वे मूलनिवासी भारतीयों में पूरी तरह शामिल हुए। क्योंकि भारत के इन मूलनिवासियों की संख्या बहुत बड़ी थी और उनकी परंपराओं की जड़े भारत में बहुत गहरी थी, उन्हें पूरी तरह से खत्म नहीं किया जा सकता था।

इसीलिए धीरे-धीरे मूलनिवासियों को पराजित जीवन एवं दूसरे दर्जे का जीवन जीने को मजबूर किया गया। दुनिया के अन्य हिस्सों में भी यह सब हुआ है लेकिन भारत के अलावा अन्य देशों में धीरे-धीरे विजेताओं एवं पराजितों में एक समन्वय निर्मित हो गया। लेकिन भारत में ऐसा कोई बड़ा समन्वय नहीं हो पाया।

इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि यूरोप के उन चरवाहों में जब भारत में संगठित एवं निर्णायक रूप से प्रवेश करना शुरू किया तब भारत में अपने ही धर्म एवं परंपराएँ अपने शिखर पर पहुँच चुके थे। इसके सबूत श्वेताश्वर उपनिषद् सहित पाणिनि एवं पतंजलि के लेखन में मिलते हैं।

प्राचीन श्रमण परंपराएँ चार्वाक, बौद्ध, जैन, आजीवक, तंत्र, योग एवं सांख्य सहित अनेक दर्शन भारत में पहले से ही मौजूद थे। इन्हें और इनके अनुयायियों को पूरी तरह नष्ट करके गुलाम बना लेना असंभव था। इसीलिए यूरोपीय चरवाहो ने भारत में दूसरी रणनीति पर काम किया। इनका सबसे महत्वपूर्ण हथियार था निवासी भारतीय दर्शन एवं परंपराओं में अपने देवी-देवताओं एवं कहानियों की मिलावट करते हुए अंधविश्वास का प्रचार करना और इस अंधविश्वास को राजाओं एवं राजसत्ता के लिए एक निर्णायक रणनीति की तरह उपलब्ध कराना।

आत्मा परमात्मा एवं पुनर्जन्म के इस अंधविश्वास को राजनीति के खेल का सबसे बड़ा हथियार बनाने में जो लोग सफल रहे वे। तत्कालीन सभी राजाओं के सलाहकार एवं राजगुरु हो गए। फिर इन राजगुरुओं ने धर्मशास्त्रों का निर्माण किया और भारत के प्राचीन होली, दिवाली, दशहरा, नाग पंचमी, पोला, जिरोती, सिमगा आदि त्योहारों में गंदगी और मिलावट भरना शुरू किया। उन्होंने इन त्योहारों को इतना बदल दिया कि आज उन्हें पहचानना ही कठिन हो गया है।

इस प्रकार इन यूरोपीय युद्धखोर चरवाहों के भारत में आने के कुछ शताब्दियों बाद ही एक विशेष वर्ण और वर्ग के लोग पूरे भारत में राजगुरु, पुरोहित एवं मंत्री पद पर काबिज हो गए। इस खेल के सफल होने के बाद स्थानीय मूलनिवासी श्रमण राजाओं को भी नज़र आया कि यह खेल बहुत ताकतवर है, उन्होंने भी अपने पुराने धर्मों में ईश्वर, आत्मा और पुनर्जन्म की मिलावट शुरू कर दी।

धीरे-धीरे ना केवल इन चरवाहों के अपने घुमंतू धर्म में ईश्वर मजबूत होता गया बल्कि भारत की मूलनिवासी श्रमण परंपरा के धर्मों में भी ईश्वर आत्मा का पुनर्जन्म घुस गया। इसी खेल का विस्तार पूरे गोंडवाना में हुआ और गोंड-कोइतूर संस्कृति का महान साम्राज्य मिट्टी में मिल गया।

चार्वाक, लोकायत, आजीवक, बौद्ध, जैन, सांख्य, योग आदि सारे प्राचीन दर्शन मूल रूप से भौतिकवादी और निरीश्वरवादी हैं। आर्य चरवाहों के हत्याकांड के बाद चार्वाक, लोकायत आदि परंपराएँ लगभग खत्म हो गई। जैन और बौद्ध भी लगभग खत्म हो गए। लेकिन इनकी दार्शनिक परंपराओं को इन आर्य चरवाहों ने खुद ही अपना लिया और इनमें मिलावट करके इन्हें अपने अनुकूल बना लिया। जिस बौद्ध धर्म में आत्मा नहीं होती वहाँ पुनर्जन्म का प्रचार हो गया है, जिस जैन धर्म में ईश्वर का कोई स्थान नहीं था, वहाँ भक्ति, समर्पण और ईश्वर स्वीकृत हो गया है।

जिस योग में सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर का कोई स्थान नहीं है वह योग ईश्वर से मिलन का ही उपाय बन गया है। जिस सांख्य दर्शन में मौलिक रूप से प्रकृति और पुरुष के देश की बात है उसे अद्वैत के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। जिन आदिवासी परंपराओं में स्त्री एवं प्रकृति की महिमा का बखान भरा पड़ा है, वहाँ आजकल पुरुषवादी देवता एवं ईश्वर घुसे जा रहे हैं।

इसके बावजूद एक सबसे जरूरी बात जो भारत के पूरे ओबीसी, अनुसूचित-जाति एवं जनजाति के समुदायों को नोट करनी चाहिएवह यह है कि आज भी इन आर्य चरवाहों के कबीलाई देवता एवं ईश्वर भारत पर अधिकार नहीं जमा पाए हैं। यह भारत के मूल निवासियों की बहुत बड़ी जीत है।

आर्य चरवाहों के शुरुआती देवता उदाहरण के लिए इंद्र, अग्नि, वरुण, मित्र आदि जो ऋग्वेद में सबसे शक्तिशाली देवता है उन्हें मूलनिवासी भारतीयों ने स्वीकार नहीं किया। यह देख कर स्वयं आर्य चरवाहों ने रणनीति बदली और भारत के स्थानीय मूलनिवासी पवित्र देवी-देवताओं प्रतीकों एवं मिथकों को ‘डाइजेस्ट’ करना शुरू किया। मूलनिवासी भारतीयों के प्राचीन साहित्य में काले रंग के देवी देवताओं का बहुत ऊँचा स्थान रहा है।

इन्हीं को धीरे-धीरे आर्यों ने अपने कब्जे में ले लिया और उनके मुँह से इंद्र एवं ब्रह्म की प्रशंसा करवाई गई। वेदों में ऐसे कई काले रंग के देवी-देवताओं का युद्ध आर्यों के गोरे रंग के देवी देवताओं से होता है। इतना ही नहीं बल्कि वेदों में इन काले देवी-देवताओं को गोरे देवी-देवताओं द्वारा पराजित करने की कहानियाँ भी मिल गई है। लेकिन कई शताब्दियों बाद आए पुराणों में धीरे-धीरे आर्य चरवाहे और उनके धर्मगुरु एवं दार्शनिक स्वयं ही भारत के काले देवी-देवताओं को स्वीकार करके उनके मुँह से अपने मनमर्जी की बातें कहलवाने लगते हैं।

यह बात बहुत आश्चर्यजनक लगती है लेकिन आसानी से समझी जा सकती है। असल में हुआ यह है कि आर्य चरवाहों ने धीरे-धीरे यह महसूस किया कि भारत के लोगों का अपने काले रंग के देवी-देवताओं एवं प्रतीकों पर जो गहरा विश्वास है उसे खत्म नहीं किया जा सकता। इसीलिए उन्होंने ना केवल इन काले एवं भौतिकवादी देवी-देवताओं को अपना लिया बल्कि अपने इंद्र एवं ब्रह्मा इत्यादि को केवल वेदों एवं वेदांत तक सीमित कर दिया।

यह बात पूरे भारत के ओबीसी, अनुसूचित-जाति एवं जनजाति के लोगों को बहुत गहराई से समझनी चाहिए कि आर्य चरवाहों के इंद्र, अग्नि एवं ब्रह्म (ब्रह्मा नहीं) का भारत में कोई भी मंदिर नहीं है। इतनी बड़ी और जरूरी बात है कि इस पर हर गाँव हर शहर में हर गली में बार-बार चर्चा होनी चाहिए। आज ना केवल मूलनिवासी भारतीय बल्कि उन चरवाहों के प्रतिनिधि भी इंद्र, अग्नि या ब्रह्म के मंदिर में पूजा नहीं करते बल्कि भारत की मूलनिवासी परंपराओं से आने वाले काले रंग के देवताओं की पूजा करते हैं, और उन्हीं के नाम पर स्वयं मूलनिवासियों को आपस में लड़वाते रहते हैं।

आर्य चरवाहों के धर्मगुरुओं, कवियों, दार्शनिकों एवं लेखकों ने ऐसे शास्त्र लिखे हैं जिनमें भारत के काले देवी-देवता जाति और वर्ण की प्रशंसा करते हैं। यह सब दार्शनिक मिलावट एवं डकैती है जो असुर कृष्ण ऋग्वेद में इंद्र के हाथों मारे जाते हैं वे पुराणों तक आते-आते वही महान विजेता बन जाते हैं, उन्हीं कृष्ण से बाद में चार वर्णों की प्रशंसा करवाई जाती है। जो तांत्रिक शिव अ-संस्कृत एवं अघोरी बताए जाते हैं, जिन्हें सभ्य लोगों की सभा में निमंत्रण के योग्य नहीं समझा जाता था, बाद में उन्हीं को परमेश्वर बना दिया जाता है। बौद्ध परंपरा की जातक कहानियों में जो बोधिसत्व राम सब कुछ छोड़ कर त्याग और करुणा और अहिंसा की बात करते हैं उन्हें बाद में मूलनिवासी भारतीय शंबुक का हत्यारा बना दिया जाता है।

ठीक इसी तरह जिन हज़ारों मूलनिवासी भारतीयों की कुल-देवियां एवं कुल-देवताओं को असुर, दैत्य एवं राक्षस बताया गया है उन्हीं के मंदिरों एवं मिथकों पर कब्जा करके रथयात्रा एवं लंबे चौड़े कर्मकांड शुरू कर दिए गए। धीरे-धीरे इन देवी देवताओं के बारे में ऐसे शास्त्र बना दिए गए जिनमें यह काले देवी-देवता खुद ही वर्ण एवं जाति का प्रचार करते हुए नज़र आते हैं।

दुनिया में दूसरे हिस्सों में युद्धखोर चरवाहों ने इस तरह की रणनीति को बहुत बड़े पैमाने पर इस्तेमाल नहीं किया है। यह रणनीति केवल भारत में इस्तेमाल हुई है इसीलिए यहाँ पर वर्ण एवं जाति व्यवस्था पैदा हुई जो दुनिया में और कहीं नहीं हुई। यह रणनीति बहुत सफल रही, और आज भी इसी रणनीति के आधार पर भारत के मूल निवासियों को आपस में लड़वाया जा रहा है। इसी रणनीति के आधार पर आर्य चरवाहों की सत्ता को बचाए रखने के लिए नये-नये देवी-देवता, मंदिर, बाबाजी, योगी गुरु और सांस्कृतिक एवं राजनीतिक दल पैदा हो रहे हैं।

भारत के सभी ओबीसी, अनुसूचित-जाति और जनजाति के अधिकांश लोगों को यह सब समझना बहुत ज्यादा जरूरी है। यह सब समझ पाना भारत के बहुजनों और खासकर उनकी स्त्रियों के लिए बहुत आसान नहीं है। इसी कठिनाई के कारण भारत के ओबीसी, अनुसूचित-जाति और जनजाति के लोग आज भी अपने ही देश में युद्धखोर चरवाहों के वंशजों से पराजित हो रहे हैं।

भारत के ओबीसी, अनुसूचित-जाति एवं जनजाति के लोग और विशेष रूप से उनकी महिलाएँ केवल इतना याद रखें कि आज जो संघर्ष नज़र आ रहा है वह आज का नहीं है बल्कि सिंधु घाटी सभ्यता के अस्तित्व से भी पुराना है। कम से कम 5000 साल से यह संघर्ष चल रहा है, इसलिए भारत के किसानों, मजदूरों एवं महिलाओं के हक में आवाज़ उठाते समय इन 5000 सालों के संघर्ष को याद रखना चाहिए।

जो लोग इस संघर्ष को आज़ादी के बाद का, या आधुनिकता और शहरीकरण के आने के बाद का संघर्ष मानते हैं- वे लोग हमेशा हारते रहेंगे। जो लोग इसे सिर्फ गरीब-अमीर का संघर्ष मानते हैं वे भी हारेंगे। अगर आपको इस लड़ाई में जीतना है, अगर आपको भारत के गरीब किसानों मजदूरों और महिलाओं के हक में आवाज उठानी है तो आपको ज्योतिबा फुले, रामासामी पेरियार और अंबेडकर का नज़रिया अपनाना ही पड़ेगा।

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संजय श्रमण जोठे टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज, मुंबई से पी.एच.डी. हैं व् लेखक हैं।

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One thought on “आंबेडकरवाद क्यों जरूरी है?

  1. बहुत ही खोजपूर्ण लेख। लेख में आर्य चरवाहों को यूरोपीय कहा गया है लेकिन आर्यों को मध्य ऐशिया या यूरेशियाई कहा जाता है।

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