Shailesh Narwade
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शैलेश नरवाडे (Shailesh Narwade)

ये कहानी मैं क्यों लिख रहा हूँ? 

 

Shailesh Narwadeमुझे अपनी कहानी बताने की ज़रूरत क्यों महसूस हुई. मैं कोई जानामाना व्यक्ति नहीं हूँ जिसकी कहानी पढ़ने में किसी को दिलचस्पी हो. मैं एक साधारण व्यक्ति हूँ जो पत्रकारिता छोड़कर भी पत्रकार के जिम्मेदारी को समझता है और एक कलाकार के सामाजिक दायित्व को जानता है. मैं अपनी कहानी सिर्फ इसीलिए बताना चाह रहा हूँ क्योंकि मैंने ज़िन्दगी में एक ऐसी गलती की है, जो मैं नहीं चाहता कोई और करे. 

मार्च 2019 की बात है. मेरी लड़की के दसवीं कक्षा के इम्तिहान चल रहे थे. नागपूर में पांचपावली स्थित एक स्कूल में उसका एग्जाम सेंटर था. हर पेपर के दिन मैं उसे उस सेंटर पर छोड़ने और लाने जाया करता था. मेरी लड़की के कक्षा की उसकी एक सहेली के पिता से मेरी अच्छी बातचीत रही है. उनका नाम जय है. कमर्शियल आर्टिस्ट है और आंबेडकरवादी है. एक दिन वो उस एग्जाम सेंटर पर मिले. बातों-बातों में उन्होंने बताया की कुछ दिन पहले वो उनके एक दोस्त से मिले जो आकाशवाणी में एनाउंसर है, नागपूर के जानेमाने कलाकार है. मेरी कभी उनसे व्यक्तिगत मुलाक़ात नहीं हुई लेकिन उनका नाम मैं अक्सर सुनते रहता हूँ. जय जब उनसे मिले और चर्चा में किसी तरह मेरा और ‘मसीहा’ नाटक का ज़िक्र आया तो उनके दोस्त ने जय से कहा की “शैलेश तो आरएसएस का आदमी है!” 

ये सुनकर जय को झटका लगा. उन्हें समझ नहीं आया की इसपर वो कितना विश्वास करें और क्या प्रतिक्रिया दे. उन्होंने हमेशा मुझे आंबेडकरवादी विचारों की बात करते ही सुना था. वो बड़े असमंजस में थे. स्कूल में जब हम मिले तो उन्होंने ये बात मुझे बतायी. ये सुनकर पहले तो मुझे ये समझ नहीं आया कि मैं इसका क्या जवाब दूँ. झूठ बोलना नहीं चाहता था. लेकिन ये भी तय था की जय जैसे आंबेडकरवादी व्यक्ति के सामने अगर मैं ये स्वीकार कर लूँ कि कुछ समय के लिए ही क्यों न हो, आरएसएस से मेरा संबंध आया है, तो शायद वो व्यक्ति मुझे घटिया इंसान और गद्दार समझकर हमेशा के लिए मुझसे संबंध तोड़ देगा. जय जैसे बहुजन विचारधारा से कटिबद्ध मित्र को मैं खोना नहीं चाहता था. मैंने कह दिया कि उन्होंने जो सुना वो सही नहीं है. ये जानकर जय को अच्छा लगा. उसके बाद हम दोनों अपने रस्ते चल दिए. 

लेकिन उसके बाद मैं ये सोचकर परेशान होता रहा कि ऐसे कितने लोगों से मैं झूठ बोलता रहूँगा और अपना अतीत छुपाता रहूँगा! जितना ये सच है कि मैंने कभी आरएसएस के साथ काम किया है, उतना ही सच ये भी है कि आज मैं उस संगठन के साथ नहीं हूँ और ना ही उनकी विचारधारा से कोई सरोकार रखता हूँ. लेकिन मुझे इस बात की फ़िक्र रहती थी कि फुले-शाहू-आंबेडकर विचारधारा में निष्ठा रखने वाले लोग इस बात पर कितना यकीन करेंगे और उनके आंदोलन का हिस्सा बनने का मुझे कितना अवसर देंगे? मैं ये सोचकर व्यथित हो जाता था कि क्या मुझे कभी अपनी गलती सुधारने का मौका मिलेगा या नहीं?

ऐसे में, एक परिचित ने मुझे ये राय दी कि मैं अपना सच अपनी कहानी के माध्यम से बताऊँ. मुझे लगा कि अपनी गलती मानने का ये सही तरीका होगा. इसीलिए मैं ये कहानी लिख रहा हूँ. मैं कोशिश करूँगा कि कम से कम शब्दों में इसे पूरा करूँ. लेकिन मैं ये भी नहीं करूँगा कि सिर्फ उतने समय की बात करूँ जो मैंने उस संगठन के साथ बिताया है. उसके पहले के समय की बात भी करनी पड़ेगी ताकि पढ़ने वालों को ये पता चले की धर्म और राष्ट्रवाद जैसी खोकली बातों में विश्वास नहीं रखने वाला व्यक्ति भी, सिर्फ विचारधारा की स्पष्टता न होने की वजह से, कैसे अपने विरोधियों के खेमे में जा बैठता है और उनकी ताक़त बढ़ाते रहता है. बात सच की होगी.

बचपन

मेरे पिता और माँ, ठवरे नगर स्थित मेरे नानी के घर एक कमरे में किराये से रहते थे. मेरे पिता उस समय एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में ट्रक ड्राइवर थे. नानी, फूड कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया (एफसीआय) में मजदूर थी, लेकिन सरकारी नौकर थी. नानी की कोशिश से मेरे सगे मामा प्रवीण को भी एफसीआय में नौकरी लग गयी थी. उनका परिवार भी उसी चार कमरे के मकान में रहता था.

मेरा जन्म 29 नवम्बर 1976 को नागपुर में चॉक्स कॉलोनी स्थित एक अस्पताल में हुआ. चार भाई-बहनों में मैं सबसे बढ़ा था. मेरे पिता ट्रकचालक होने की वजह से अक्सर दूसरे शहर जाया करते थे. मामा के परिवार से माँ का कुछ जमता नहीं था. इसीलिए वो हम बच्चों को लेकर दिनभर पाटिल मामा के घर चली आती थी. पाटिल मामा का परिवार वहीँ ठवरे नगर में रहता था. वो मेरे नानी के परिचित थे. हम बच्चे उन्हें बड़े मामा पुकारते थे. वो एक छोटी से स्कूल में टीचर थे. उनके घर में उनकी पत्नी और चार बच्चे थे. उनके बच्चे उम्र में हमसे बड़े थे. लेकिन उनके घर का माहौल मुझे बहुत पसंद था. किसी बात की रोकटोक नहीं रहती थी. सगे नहीं होकर भी वो हम सभी से बहुत प्यार करते थे. मेरे पिता भी बड़े मामा और बड़ी मामी का बहुत आदर करते थे. 

मेरी नानी की सलाह पर पिताजी ने सरकारी नौकरी पाने की कोशिश शुरू की. उन्हें महाराष्ट्र स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड (एमएसइबी) में ड्राइवर के पद पर नौकरी मिल गयी. अब उनका कई दिनों तक घर से बाहर जाना बंद हो गया. उन्होंने मिसाल लेआउट में एक प्लॉट ख़रीदा और वहाँ अपना तीन कमरों का घर बनाया. हमारा परिवार अब इस घर में रहने लगा. तब मैं 6 साल का था. मेरी सबसे छोटी बहन का जन्म नए घर में आने के बाद ही हुआ. उसके बाद, पिताजी की पोस्टिंग कुछ वर्षों के लिए मुंबई में हो गयी. मुंबई की भागदौड़ वाली ज़िन्दगी से बचाने के लिए पिताजी ने हमें नागपूर में ही रखा था. दो-तीन महीनों में वो कुछ दिनों के लिए आया करते थे. 

मैं बचपन में बहुत ही डरपोक और शर्मीले स्वभाव का लड़का था. नए लोगों से बात करने में मुझे बहुत डर लगता था. केजी से लेकर दसवीं तक मेरी पढ़ाई जरीपटका स्थित महात्मा गाँधी सेंटेनियल सिंधु हाईस्कूल में हुई. स्कूल में मैं एक या दो दोस्तों से बात किया करता था. पढाई में मैं होशियार था, लेकिन टीचर के सवाल पूछने पर उसका जवाब पता होने के बावजूद मैंने कभी हाथ खड़ा करके उसका जवाब नहीं दिया. उतनी हिम्मत कभी जुटा नहीं पाता था. लेकिन आगे चलकर ज़िन्दगी में कुछ ऐसे फैसले भी लिए जिन्हे देखकर आज अपने बचपन के स्वभाव पर हैरानी होती है.

 

पिताजी

मेरे पिताजी यवतमाळ ज़िले के थे. उनके घर-परिवार के बारे उन्होंने हमें ज्यादा कुछ नहीं बताया था. मेरी नानी उनके बारे जो कुछ जानती थी वो कभी-कभार बताया करती थी. मुझे इतना पता चला था कि मेरे पिता उनकी सौतेली माँ से परेशान थे और इसीलिए घर से भागकर नागपुर आये थे. मेरी नानी बताती थी कि मेरे पिता उनके पिताजी को याद करके अक्सर अपनी आँखें नम कर लिया करते थे. 

नागपूर में कुछ काम करते-करते वो ट्रकड्राइवर बन गए थे. उनके पास रहने की जगह नहीं थी. शायद इसीलिए मेरी नानी ने शादी के बाद अपनी लड़की और दामाद को उनके ही घर में रहने को एक कमरा दे दिया था. मेरे बचपन में, जब पिताजी ट्रक चलाया करते थे, तब उनके साथ बिताया समय मुझे उतना याद नहीं है. मिसाल लेआउट में अपने घर में रहना शुरू करने के बाद से कुछ बातें याद आती है. 

मेरे पिताजी किसान के बेटे थे. यही कारण था कि हमारे घर का आधा खुला प्लॉट किसी छोटे खेत या बगीचे से कम नहीं था. वहां साग-सब्जियाँ, अनाज और फूलों के पौधे थे. पिताजी उसपर खूब मेहनत करते थे. मुझे भी कुछ काम करने का मौका देते थे. ज़रूरत की बहुत सारी चीज़ें उसी बगीचे से मिल जाती थी. और ज़रूरत पूरी होने के बाद बची हुई चीज़ें पड़ोसियों में बाँट दी जाती थी. बस्ती में पिताजी की सभी लोगों से अच्छी बातचीत थी. घर के चारों तरफ लकड़ी से बना हुआ कंपाउंड था जिसके सहारे पेड़-पौधे लगाए गए थे. पिताजी उन पौधों का रखरखाव करते रहते थे. उस समय हमारा प्लॉट काफ़ी हराभरा लगता था. 

पिताजी की मुंबई में पोस्टिंग होने के बाद उस बगीचे की तरफ कोई ध्यान नहीं दे पाया. बड़े मामा के घर पर चुरी-लकड़ी का टाल था. उन्होंने पिताजी से कहकर वो टाल हमारे घर में भी शुरू करवा दिया था ताकि कुछ पैसा आता रहे. कुछ साल तक वो टाल चला. 8-9 साल की उम्र में मैंने टाल का धंदा संभाल लिया था. एलपीजी गैस आने के बाद धीरे-धीरे चुरी-लकड़ी का इस्तेमाल कम हो गया और फिर टाल भी बंद होने लगे. पिताजी ने भी टाल बंद कर दिया और उस जगह पर तीन और कमरे बना लिए जहाँ किरायदार रहते थे. 

पिताजी की वापिस नागपूर में पोस्टिंग होने के बाद से बहुत सारी बातें याद आती हैं. पिताजी हम भाई-बहनों को कभी किसी मंदिर नहीं लेकर गए. हमारे घर में किसी भगवान की मूर्ति नहीं थी. घर में गौतम बुद्ध और डॉ बाबासाहेब आंबेडकर की फ्रेम की हुई फोटो थी. पिताजी रोज उसकी पूजा करते थे. हर बुधवार पिताजी का उपवास रहता था. दिन भर भूखे रहकर रात में खाना कहते थे. 

बच्चों की पढ़ाई को लेकर वो बहुत सचेत रहते थे. रोज ड्यूटी से आने बाद वो हम सब भाई-बहनों को लेकर बैठते थे और पढाई कराया करते थे. पढाई को लेकर मैंने कई बार उनके हाथ से मार खाई है. लेकिन उनके गुस्सा होने का ये एक ही कारण रहता था. वो चाहते थे कि उनके चारों बच्चे खूब पढ़ें. यही कारण था कि जब तक पिताजी थे, हम भाई-बहन अपनी-अपनी कक्षा में पहले या दूसरे नंबर पर ही पास होते थे.

एक बात जो मुझे अच्छी तरह याद है वो ये कि हर साल स्कूल के रिजल्ट के एक दिन पहले हम सभी को नए कपड़े ज़रूर मिलते थे. हमारे अच्छे नंबर पर पास होने का पिताजी को इतना विश्वास पहले से ही रहता था. रिजल्ट के दिन हम भाई-बहन नए कपड़े पहनकर और हाथ में रिजल्ट लेकर अपने कुछ रिश्तेदारों के यहाँ मिठाई बाँटकर आते थे. ऐसा जन्मदिन के दिन भी नहीं होता था. ये याद करके मुझे अक्सर लगता है कि पिताजी हमें अपनी उपलब्धियों को मनाने की सीख दे रहे थे, ना कि जन्मदिन जैसी साधारण बातें.

हमारे घर में जो एक किताब पिताजी काफ़ी पहले से रखे हुए थे वो थी धनंजय कीर की लिखी हुई बाबासाहेब की जीवनी. घर में रोज जो अख़बार आता था वो पूरा पढ़ लेते थे. घर में एक बड़ा ब्लैक एंड व्हाइट टीवी था, जिसपर पिताजी सबसे पहले देश-दुनिया की खबरें देखते और सुनते थे. 

हमारे घर में पोले का त्यौहार मनाया जाता था लेकिन कभी होली मनाई गयी हो ये मुझे याद नहीं. दिवाली में भी कोई पूजापाठ वाली बातें नहीं होती थी. खानेपीने की चीज़ें बनती थी लेकिन वो भी इसीलिए कि आस-पड़ोस में सभी एकदूसरे को अपने घर बुलाकर खिलाया-पिलाया करते थे. मुझे याद है ऐसे समय अगर बस्ती में सफाई करने वाला, या पोस्टमैन, या रात में चौकीदारी करने वाला गोरखा, या सब्जीवाला, ऐसा कोई व्यक्ति दिखता था तो पिताजी उसे घर में बुलाकर आराम से बिठाते थे और उसे खिलाया-पिलाया करते थे. ये सब करने में उन्हें बहुत आनंद आता था. यही कारण था कि उनकी सभी से बहुत अच्छी बातचीत रहती थी.

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बस्ती में हम जितने दोस्त थे, उनमें से ज्यादातर दोस्तों के पिताजी सरकारी नौकरी में थे. कोई रेलवे में, बैंक में, इरीगेशन या कोई पीडब्लूडी में. सबसे छोटे औहदे पर मेरे पिताजी ही थे. लेकिन तब भी, हम दोस्तों के लिए सबसे पहली क्रिकेट किट मेरे पिताजी ही खरीदकर लाए थे. हमारे घर में एक बड़ा कैरम बोर्ड भी था. सारे दोस्त हमारे घर पर जमा हो जाते थे और कैरम खेलते थे. ये वो समय था जब मैं नए-नए दोस्तों से मिलने लगा था, उनके साथ खेलने लगा था, समय बिताने लगा था. शायद इसी उम्र में मेरा शर्मिलापन कम हुआ.

मुझे याद है पिताजी अकेले मुझे ही फ़िल्में दिखाने ले जाया करते थे. अकेले शायद इसीलिए भी कि बाकी भाई-बहन छोटे थे. अमिताभ की ‘लावारिस’, रजनीकांत-शत्रुघ्न की ‘असली-नकली’ और थ्री-डी फिल्म ‘छोटा चेतन’ ये कुछ फ़िल्में मुझे याद है जो मैंने पिताजी के साथ देखी थी. शायद तभी से मुझे फिल्मों के प्रति कुछ लगाव होने लगा था. फिल्म देखने के बाद मैं कई दिनों तक उनके बारे में सोचता रहता था. और सिर्फ फिल्म की कहानी के बारे में नहीं, तो ये भी कि वो बनती कैसे होगी? 

एक और बात जो याद है वो ये कि एक दिन पिताजी को एमएसइबी के एक इंजीनियर के साथ कहीं फील्ड विजिट पर जाना था. पता नहीं क्यों उस दिन पिताजी मुझे भी साथ लेकर गए. इतना याद है कि शहर से दूर कहीं गए थे. इंजीनियर अपने काम में व्यस्त थे. पिताजी और मैं उनकी जीप के पास आम के एक बड़े पेड़ ने नीचे बैठे थे. उस समय पिताजी मेरे साथ बहुत सारी बातें कर रहे थे. वो याद करके मुझे ये समझ आता है कि पिताजी बहुत कुछ बताकर अपना मन हल्का करना चाहते थे. लेकिन कुछ कहकर रुक जाते थे. शायद मेरी 11-12 साल की उम्र में मुझे कितना समझेगा ये वो तय नहीं कर पा रहे थे. लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि उस दिन वो दुखी थे, परेशान थे. वो चाह रहे थे कि कोई उन्हें सुने. उस दिन शायद मैं उनकी कोई मदद नहीं कर पाया. 

5 जनवरी 1989 की रात की बात है. ठण्ड का मौसम था. पिताजी दिन की ड्यूटी करके घर आये थे. हम सबने खाना खा लिया था. रात में लगभग 11 बजे पिताजी ने हम चारों भाई-बहनों को नींद से उठाया और सभी को खूब प्यार करने लगे. उन्होंने बताया कि रात में कोराडी पावर स्टेशन के ऑफिस में कोई अर्जेंट मीटिंग है और इसीलिए एक इंजीनियर को ऑफिस लेकर जाना है. इतने बजे उनका सबको उठाना और चुम-चूमकर प्यार करना मुझे बहुत अजीब लग रहा था. माँ से भी बहुत हँस-खेलकर बातें कर रहे थे. कुछ समय बाद जब वो जाने लगे तो शेरू नाम का एक कुत्ता, जो अक्सर हमारे दरवाजे पर बैठा रहता था और पिताजी उसे खाने के लिए कुछ दे दिया करते थे, वो उनपर चढ़ने लगा और उन्हें जाने से रोकने लगा. वो उनके पैरों के बीच बैठकर उनका रास्ता रोकने लगा. किसी तरह उससे छुटकारा पाकर पिताजी अपनी जीप लेकर चले गए. घर में हम गहरी नींद में सो गए थे. 

6 जनवरी को सुबह 5 बजे घर के बाहर से जोर-जोर से कोई माँ को पुकारने लगा. इतनी सुबह कौन है देखने के लिए माँ ने दरवाजा खोला तो आस-पड़ोस के लोग हमारे घर के सामने खड़े थे. उन्हें रात में कोई ख़बर देकर गया था कि पिताजी का एक्सीडेंट हो गया है. ये सुनते ही हम सब रोने लगे. उस समय मन में क्या-क्या चल रहा था कुछ लिख नहीं सकता. कुछ समय बाद, बड़े मामा और नानी आए. घर का माहौल देखकर वो सिर पटककर रोने लगे थे. जैसे-जैसे दिन का उजाला बढ़ने लगा, घर पर रिश्तेदारों और बस्ती के लोगों की भीड़ बढ़ने लगी. एक्सीडेंट में पिताजी को कितना लगा और क्या हुआ ये कोई बता नहीं रहा था. लेकिन दोपहर तक घर पर पंडाल बांध दिया गया था. ये देखकर मुझे बहुत डर लगने लगा था. माँ और हम भाई-बहन रो-रोकर थक गए थे. कुछ खाने-पिने का मन नहीं कर रहा था. छोटी बहन तो इतनी छोटी थी कि उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था. दोपहर बाद एक एम्बुलेंस में पिताजी का शव लाया गया. वहां रोने-चीखने की आवाजें बढ़ गयी थी. मैं जिसे देख रहा था उसकी आँखों में आँसूं थे. 

पिताजी का शव जब पलंग पर रखा गया तब हम उन्हें घेरकर बैठ गए. मैं लगातार उनके चेहरे की तरफ देख रहा था. मुझे लग रहा था कि पिताजी अभी जाग जायेंगे. लेकिन वो शांत पड़े हुए थे. उनके चेहरे पर कहीं कोई खरोच नहीं थी. लेकिन माथे पर एक गहरी चोट थी. मुझे समझ नहीं आया वो क्या था. वहां मौजूद कुछ लोगों से ये सुनने में आया कि देर रात जब पिताजी जीप लेकर जा रहे थे, तब कोराडी पावर स्टेशन के गेट पर दूसरी दिशा से आनेवाले एक ट्रक से टक्कर हो गयी. उसमें पिताजी की मौत हो गयी और एक इंजीनियर को कुछ खरोंच आयी थी.

शाम में, पिताजी के शव को नहलाकर आखरी बिदाई दी गयी. उस समय हमारे घर के पास सैकड़ों लोग आये हुए थे. बहुत लोगों को मैं जानता भी नहीं था. 

घाट पर पहुँचते-पहुँचते अँधेरा हो गया था. पिताजी को अग्नि देने के समय तक मैं मन में यही सोच रहा था कि कुछ हो जाये और पिताजी जाग जाये. लेकिन वैसा हुआ नहीं. सब ख़त्म हो गया था. उस दिन एक सन्नाटा मेरे मन में भर गया था. उसे मैं आज भी महसूस करता हूँ तो पिताजी का चेहरा मेरी आँखों के सामने आ जाता है. 

पिताजी जब गए तब सिर्फ 39 साल के थे. पिताजी कुछः साल और जीते तो मैं आज कुछ और होता. हम सभी भाई-बहन कुछ और ही होते. उस उम्र में उनका जाना मैं अपना सबसे बड़ा नुकसान समझता हूँ.

स्कूल-कॉलेज

पिताजी के जाने के एक साल बाद माँ को एमएसइबी में क्लर्क की नौकरी मिली. मेरे बड़े मामा ने इसमें माँ की बहुत मदत की. माँ की पोस्टिंग पहले कोराडी पावर स्टेशन के ऑफिस में थी. कुछ सालों बाद उसका तबादला खापरखेड़ा पावर स्टेशन और फिर काटोल ऑफिस में हो गया था. 

पांचवीं कक्षा तक मैं पहले, दूसरे या तीसरे नंबर से ही पास हुआ करता था. जिस साल पिताजी गए, उस साल मैं छठीं कक्षा में था और पहली बार सातवें नंबर से पास हुआ. उसके बाद कभी 11वां, 12वां नंबर आता था. आठवीं कक्षा से स्कूल का समय दोपहर से शाम का रहता था. बाकी तीन भाई-बहन सुबह स्कूल जाकर दोपहर तक आते थे. माँ सुबह का खाना बनाकर ऑफिस चली जाती थी. भाई-बहन छोटे थे इसीलिए उनका ख़्याल करने के लिए उनके साथ समय बिताना पड़ता था. मैं धीरे-धीरे घर के सारे काम करना सीख गया था. खाना बनाना, कपडे-बर्तन धोना, मार्केट से सामान लाना.

आठवीं कक्षा में पढ़ते समय, एक दिन स्कूल के ऑडिटोरियम में ‘शैडो प्ले’ का एक कार्यक्रम हुआ. परदे के पीछे लाइट जलाकर अलग-अलग आकार के पात्रों की परछाई परदे पर दिखाई जा रही थी. उसी माध्यम से उन्होंने एक छोटी सी कहानी पेश की थी. वो मैंने पहली बार देखा था. वो जैसे मेरे दिमाग पर छप गया था. कुछ ही दिनों में मैंने एक कहानी बनाई, कागज़ पर उसके पात्र बनाकर उनके कटआउट बनाये, एक सफ़ेद कपड़ा बांधा और उसके पीछे टॉर्च जलाकर एक शैडो-प्ले शो घर पर ही बना लिया. भाई-बहनों और पड़ोस के दोस्तों को वो पसंद आया. अब ये एक कभी न ख़त्म होने वाली चीज़ मुझे मिल गयी थी. हर बार सिर्फ नई कहानी चाहिए थी. शायद इसीलिए कहानियों की रचना करने का काम मेरे दिमाग़ में लगातार चलता रहता था. आठवीं कक्षा में ही एक बात समझ आ गयी थी कि सबसे ज्यादा मज़ा फिल्में बनाने में आने वाला है. 

इसके बाद से स्कूल की किताबों से धीरे-धीरे मेरा मन उखड़ने लगा था. हालांकि जितनी भी पढ़ाई करता था वो अच्छी तरह समझ जाता था. लैंग्वेजेज और सोशल साइंस में मैं अच्छा स्कोर कर लेता था. लेकिन मैथमेटिक्स और साइंस के विषय में तकलीफ़ होती थी. धीरे-धीरे इन सब्जेक्ट्स का डर लगने लगा था. 

स्कूल की किताबों के अलावा दूसरी किताबें पढ़ने का कभी ख़्याल नहीं आया. अख़बार में नाटकों से संबंधित लेख और कहानियाँ छपती रहती थी. उन्हें पढता भी था और संभालकर भी रखता था.

मार्च 1993 में, दसवीं के बोर्ड के एग्जाम में मैं 60% मार्क्स के साथ पास हुआ था. उसके बाद मेरा बहुत मन था कि 11वीं-12वीं की पढ़ाई आर्ट्स में करूँ. लेकिन माँ को ये पसंद नहीं आया. उस समय पॉलिटेक्निक का बहुत क्रेज चल रहा था. हर दूसरा लड़का पॉलिटेक्निक कर रहा था. आस-पड़ोस के लड़कों में इस बात का क्रेज देखकर माँ ने तय कर लिया कि मैं पॉलिटेक्निक ही करूँगा. मैंने गवर्नमेंट पॉलिटेक्निक में आवेदन किया और मेरा मैकेनिकल इंजीनियरिंग के लिए नंबर भी लग गया. लेकिन नागपूर की बजाय ब्रम्हपुरी की लिस्ट में नाम आया. माँ ने उस समय नागपूर से बाहर भेजने से मना कर दिया. इंजीनियरिंग करने का मेरा इरादा भी नहीं था. लेकिन इंजीनियरिंग नहीं मिला तो माँ ने साइंस में 11वीं-12वीं करने को कहा. पांचपावली स्थित सिंधु कॉलेज में एडमिशन लिया लेकिन 11वीं में एक दिन भी कॉलेज नहीं गया. सिर्फ एग्जाम देने गया था. पास भी हो गया था. उसी साल, रामदासपेठ की एक इंस्टिट्यूट से कंप्यूटर में 6 महीने का बेसिक कोर्स भी किया और उसी इंस्टिट्यूट में 6 महीने इंटर्नशिप भी की. 12वी में फिर कॉलेज जाने का मन नहीं किया. मैं कितनी भी मेहनत करूँ लेकिन विज्ञान और गणित मेरी समझ से बाहर थे. 

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12वी की बोर्ड के प्रैक्टिकल एग्जाम शुरू हो गए थे. साल भर कॉलेज नहीं जाने से मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था. मार्च 1995 में, 12वी की परीक्षा में मैं फेल हो गया. मुझे याद है उस दिन मैं बहुत रोया था. उस दिन मैं घर से बाहर भी नहीं गया. पहली बार मुझे हारने का एहसास हुआ था. माँ ने खूब भला-बुरा कहा था. 

उसी साल, माँ के कहने पर मैं प्राइवेट कॉलेज से इंजीनियरिंग करने के लिए राज़ी हुआ. सदर स्थित अंजुमन कॉलेज में दसवीं के बेसिस पर कंप्यूटर इंजीनियरिंग फर्स्ट ईयर में एडमिशन हुई. शुरू-शुरू में सब ठीक चला लेकिन फिर वही साइंस और मैथमेटिक्स के विषय होने से तकलीफ़ होने लगी. बाकि स्टूडेंट्स के साथ उम्र में फर्क होने से मैं ज्यादा मेल-जोल नहीं कर पाता था. फर्स्ट ईयर में फेल हो गया. एक और साल कोशिश करके भी जब बात नहीं बनी तो इंजीनियरिंग छोड़ दी.

1997 में, फिर सिंधु कॉलेज में 11वी-12वी के लिए एडमिशन की, लेकिन इस बार आर्ट्स स्ट्रीम में. इंग्लिश और हिंदी के अलावा अन्य विषय थे हिस्ट्री, पोलिटिकल साइंस, सोशियोलॉजी और फिलॉसॉफी. इन्ही विषयों के साथ साल 1999 के नवम्बर में मैंने 12वी पास कर ली. उसके बाद, मैंने बीए फर्स्ट ईयर में हिस्लॉप कॉलेज में एडमिशन की. विषय थे इकोनॉमिक्स, पोलिटिकल साइंस और फिलॉसॉफी. नवंबर 2000 में बीए फर्स्ट ईयर पास कर लिया. तब तक मैंने ‘हितवाद’ अख़बार में काम करना शुरू कर दिया था. 

दोस्त

मिसाल लेआउट में रहने आने के बाद, वहां आसपड़ोस में रहने वाले लड़कों से मेरी दोस्ती हुई. मेरे पिताजी ने जब क्रिकेट किट और कैरम बोर्ड लाकर दिया, हम लोग दिन-दिन भर खेला करते थे. ये सब बस्ती में रहने वाले दोस्त थे. स्कूल में अभी तक मेरी किसी से गहरी दोस्ती नहीं हुई थी. 

आठवीं कक्षा में पढ़ते समय धनंजय से दोस्ती हुई. धनंजय दूसरी स्कूल से सातवीं पास करके हमारे स्कूल में और मेरी ही कक्षा में आया था. पढ़ाई में ठीक-ठाक था. एक-दो बार एक ही बेंच पर बैठने के बाद पता चला कि वो मेरे घर से थोड़ा और आगे रहता था. फिर हमारा तय हुआ कि साथ-साथ स्कूल जाया करेंगे. वो रोज स्कूल जाने से पहले मेरे घर आता था, और हम मिलकर स्कूल जाया करते थे. स्कूल में भी हम साथ ही रहते थे. हमारी ही कक्षा में पढ़ने वाला विजय भी हमारा दोस्त बन गया. 

उसी समय मैंने स्कूल में शैडो-प्ले देखा था और मेरा नयी-नयी कहानियां लिखने का मन किया करता था. धनंजय के घर में लकड़ी से बना एक अलग कमरा था. हम अक्सर वहां बैठकर पढाई या बातें किया करते थे. उसके घर में मुझे हमेशा अपने घर जैसा माहौल मिला. मैं उसके माता-पिता को आंटी और अंकल कहता था. अंकल सरकारी नौकरी में थे. वो रोज लगभग 18 किलोमीटर साइकिल से आना-जाना करते थे. उनके घर में बुद्ध धम्म का बहुत प्रभाव था. घर में रोज बुद्ध की पूजा होती थी. अंकल और आंटी उनके परिचितों के घर पर परित्राण भी कराते थे. घर पर बाबासाहेब की मूर्ति थी, लेकिन बातचीत में कभी बाबासाहेब का जिक्र आया हो या उनपर चर्चा हुई हो ऐसा मुझे याद नहीं आता. 

फिल्मों के लिए मेरा शौक बढ़ने लगा था. धनंजय और मैं हर हफ्ते फिल्में देखने जाते थे. उस वक़्त मैंने छोटे-छोटे नाटक और कहानियां लिखना शुरू कर दिया था. जब हम नौवीं कक्षा में थे, धनंजय और विजय को साथ में लेकर मैंने दोस्तों का एक कल्चरल क्लब बनाया था. बस्ती के, और इन दोस्तों के पहचान के मिलाकर लगभग 200 लड़के-लड़कियां उस क्लब के मेंबर बन गए थे. 

बस्ती के दोस्तों की हमारी एक क्रिकेट टीम थी. उस टीम का कप्तान दिनेश था. दिनेश मुझे बहुत सपोर्ट करता था. हम लोग दूर-दूर जाकर टूर्नामेंट्स खेला करते थे. मैं अपनी टीम का ओपनिंग फास्ट बॉलर था. हर मैच में 3-4 विकेट्स तो ले लेता था. बैटिंग करते समय मैं कभी भी 10-12 रन से ज्यादा नहीं बना पाया. 

नौवीं कक्षा में धनंजय और विजय फेल हो गए. मैं पास हो गया और दसवीं कक्षा में चला गया. हम तीनों साथ मिलकर पढाई नहीं कर पाते थे. लेकिन साथ मिलकर स्कूल जाना और खेलना-कूदना चलता रहता था. दसवीं की बोर्ड एग्जाम मैं 60% के साथ पास हो गया था. धनंजय और विजय नौवीं कक्षा पास हो गए थे और उन्होंने दसवीं के लिए ट्यूशन क्लासेस लगा ली थी. उन क्लासेस में उन्हें धर्मा और अजय ये दो नए दोस्त मिले. अजय पढ़ाई में बहुत अच्छा था. धर्मा ठीक-ठाक था. धर्मा के पिताजी जानेमाने चित्रकार थे. लेकिन धर्मा उनके साथ नहीं रहता था. वो उसकी बुआ के साथ हमारी बस्ती के पास ही रहता था. धर्मा ने हमारा परिचय ओशो रजनीश की किताबों से कराया था. मैं और धनंजय भी ओशो को खूब पढ़ने लगे थे. इसी दौर में हमने फ़िल्मी गानों से हटकर ग़ज़ल और कव्वाली सुनना शुरू किया था. मेहंदी हसन, नुसरत फ़तेह अली खां, ग़ुलाम अली और जगजीत सिंह के ऑडियो कैसेटस का उस समय हमारे पास खज़ाना था. इस समय से, मैं अपने बस्ती के दोस्तों से अपनेआप अलग होता चला गया. 

उसी समय, दोस्तों का एक नया ग्रुप बनने लगा. धनंजय का मौसेरा भाई पिंटू नागपुर के गवर्नमेंट पॉलिटेक्निक में पढाई कर रहा था. उसके माध्यम से हम संतोष और चंद्रमणि से मिले, जो मेरे ही स्कूल से लेकिन किसी दूसरी कक्षा से पढ़कर निकले थे. मेरे बस्ती के दोस्तों में से प्रशांत और निलेश भी फिर इस नए ग्रुप में आ गए. इसी बीच, धनंजय के पिताजी को वाड़ी इलाके के पास सरकारी क्वार्टर मिल गया. उनका परिवार वहाँ शिफ्ट हो गया. 

धनंजय ने 1994 में दसवीं की एग्जाम 60% के साथ और 1996 में 12वीं की परीक्षा 40% के साथ पास कर ली थी. उसने हिस्लॉप कॉलेज में बीएससी में एडमिशन ली थी और स्टेटिस्टिक्स जैसा मुश्किल लगने वाला सब्जेक्ट भी लिया था. ग्रेजुएशन करते हुए धनंजय पढाई में बहुत तेज़ होता चला गया. कॉलेज में उसे दोस्तों का एक और सर्किल मिला, जहाँ से उसे करियर के अलग-अलग रास्ते पता चलने लगे.

ग्रेजुएशन में धनंजय का एक क्लासमेट था, विखे. विखे वैसे तो अकोला था लेकिन उस समय उसका परिवार बालाघाट में स्थायी था. वो मराठा समाज से था. लेकिन उस उम्र में ना तो हम एक-दूसरे की जात देखते थे और ना ही कभी उसपर चर्चा होती थी. नागपूर में विखे उसके कुछ दोस्तों के साथ काचीपुरा इलाके में एक किराये के मकान में रहता था. विखे, धनंजय का बहुत अच्छा दोस्त बन गया था, और फिर मेरा भी. हम तीनों ज्यादातर समय साथ बिताते थे. हम तीनों ख़ास दोस्त बन गए थे. मैं और विखे अक्सर वाड़ी में धनंजय के घर जाते थे और वहां रुकते थे. उन दोनों का जब एग्जाम होता था, तब मैं कुछ दिनों के लिए उनसे दूर रहता था. एग्जाम के समय धनंजय और विखे वाड़ी के घर में रहकर पढाई करते थे. 

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1999 में, ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद विखे ने एक क्रेडिट कार्ड कंपनी में सेल्स एग्जीक्यूटिव का काम शुरू किया. बाद में उसने एक फार्मा कंपनी में एमआर के तौर पर काम किया. 

धनंजय ने यूनिवर्सिटी कैंपस में ‘डिप्लोमा इन कंप्यूटर ऍप्लिकेशन्स’ के लिए एडमिशन ली. वहां उसकी दोस्ती सुरजीत से हुई, जिसे विखे भी जानता था. सुरजीत उसके भाई के साथ तिलक नगर में एक किराये के मकान में रहता था. सुरजीत बहुजन समाज से था और झारखण्ड से आया था. सुरजीत के साथ मेरी कभी-कभी मुलाक़ात होती थी. मुझे उसकी किताबें पढ़ने की आदत बड़ी अच्छी लगती थी. वो घंटो तक ऐसे पढ़ता रहता था कि उसे खाने-पीने की सुध नहीं रहती थी. सुरजीत गिटार भी अच्छा बजा लेता था. 

साल 2000 के शुरू में ही मैंने ‘हितवाद’ में काम करना शुरू कर दिया था. धनंजय बड़े-बड़े इंस्टीट्यूट्स के एंट्रेंस एग्जाम दे रहा था. उसी साल, वो त्रिची में एमसीए करने चला गया. उस समय किसी के पास मोबाइल फोन नहीं थे. धनंजय के हॉस्टल में एक लैंडलाइन नंबर था. हफ्ते में एकाध बार रात दस बजे के बाद उस नंबर पर उससे बात होती थी. 

धनंजय त्रिची जाने के बाद, अब ज्यादातर समय मैं और विखे साथ में बिताते थे. मैं सुबह अपनी मोटरसाइकिल लेकर घर से निकलता था और विखे के रूम पर जाता था. विखे मुझे ऑफिस छोड़ देता था और मेरी मोटरसाइकिल लेकर दिन भर फार्मा कंपनी के काम से डॉक्टर्स से कॉल करने चला जाता था. शाम को काम ख़त्म करके वो मुझे लेने आता था. फिर हम उसके रूम में बैठकर देर रात बातें किया करते थे. हम दोनों फिल्में बनाने के सपने देखा करते थे. उन दिनों, विखे गांधीनगर में रहता था. विखे के साथ उसके कमरे में दो-चार और भी लड़के रहते थे. विखे के साथ बात करते-करते देर रात तक वहां बैठा रहता था. कभी-कभी मुझे घर पहुँचने में रात के दो बज जाते थे. 

दिसंबर 2000 में, मेरे दूसरे नाटक की रिहर्सल चल रही थी. जनवरी में हमें नाटक का मंचन करना था. विखे इसमें मेरी मदत कर रहा था. एक दिन विखे ने कहा कि वो उसके दोस्त प्रशांत के साथ मलांजखण्ड जा रहा है. उस समय कड़ाके की ठण्ड थी. वो दोनों मोटरसाइकिल से जाने वाले थे. रास्ते में ठण्ड से बचने के लिए विखे ने किसी दोस्त को बड़े जैकेट के लिए बोल रखा था. उस शाम वो जैकेट लेने अपने दोस्त के रूम पर सदर के गाँधी चौक में आया. मैं वहां उससे मिला. हम दोनों ने चाय पी. रिहर्सल रुकने मत देना, मैं 2-3 दिन में आ जाऊँगा, ऐसा कहकर उसने जोर से मुझे गले लगाया. तब मुझे जरा अज़ीब लगा था, क्योंकि हम घंटों साथ बिताते थे लेकिन ऐसे गले लगना वगैरे नहीं होता था. फिर वो ‘आता हूँ भाई’ बोलकर गाड़ी पर बैठा और चल दिया. मैं लौटकर घर आ गया. 

तीन दिन के बाद, चौथे दिन शाम को मैं विखे के रूम पर गया. वहां उसका छोटा भाई सचिन भी रहता था. विखे अभी लौटा नहीं था. मुझे चिंता हो रही थी. मुझे पता था कि रिहर्सल शुरू है इसीलिए वो समय पर आ जायेगा. सचिन ने कहा की गांव गया है तो एक-दो दिन कोई भी रुक ही जाता है. उस समय, मेरे घर के पड़ोस में एक किराना दुकान में एक फ़ोन था. मैंने सचिन से कहा कि विखे आएगा तो उस नंबर पर मुझे कॉल करने को कहना. मैं लौटकर घर आ गया. 

अगले दिन, 19 दिसंबर को सुबह लगभग 11-12 बजे, वो किराना दुकान से एक लड़का घर पर आया और बोला की सुबह से 4-5 बार फोन आ चुका है. विखे नाम के किसी लड़के का एक्सीडेंट हो गया है. ये सुनने के तुरंत बाद मेरी क्या हालत थी मुझे याद नहीं है. मैं मोटरसाइकिल उठाकर भागा और विखे के रूम पर गया. रूम पर कोई नहीं था. वहां के मकान मालिक ने बताया कि सुबह-सुबह एक्सीडेंट की खबर आयी और सब अस्पताल चले गए. उसने बताया कि मोटरसाइकिल पर जो दो लड़के थे, उनमें से एक बच गया और दूसरा मर गया है. मैं मन में सोच रहा था कि जो बच गया है, वो विखे हो. 

वहां से मैं सुरजीत के रूम पर गया. मैं बहुत डरा हुआ था. मैंने सुरजीत को साथ चलने को कहा. वहां से मैं घर आया और अपनी माँ और भाई-बहनों को ये खबर दी. वो सभी रो पड़े थे. फिर मैं, सुरजीत और संतोष, कन्हान के सरकारी अस्पताल गए. हम जब वहां पहुंचे उसी समय विखे के माँ-बाप भी एक जीप से वहां आये थे. उस एक्सीडेंट में जो बच गया था, वो विखे नहीं था. विखे मर चुका था. देर रात, मलांजखण्ड से नागपूर आते हुए, विखे मोटरसाइकिल चला रहा था और प्रशांत पीछे बैठा था. रास्ते पर खड़े एक ट्रक को वो देख नहीं पाया और बहुत तेज़ी से पीछे से टक्कर मार दी थी. विखे का हेलमेट फट गया था और सिर पर गहरी चोटें आयी थी. प्रशांत को कुछ खरोंचे आयी थी लेकिन वो बेहोश हो गया था. बहुत देर तक बिना किसी मदद के वहीँ पड़े रहने की वजह से और खून बह जाने की वजह से विखे की मौत हो गयी थी. 

मुर्दाघर में पोस्ट-मोर्टेम के बाद बांधकर रखा हुआ उसका शव देखकर मैं खुद को रोक नहीं पाया था. ये वही आदमी था जो तीन-चार दिन पहले मुझे जोर से गले लगाकर गया था. मैं बहुत रोया. विखे के माँ-बाप और भाई का रो-रोकर बुरा हाल था. रात में उसने कहीं से अपने पिता को फोन करके झूठ बोला था कि वो नागपूर पहुँच गया है. जवान लड़के का शव देखकर माँ-बाप बहुत तकलीफ़ में थे. उस समय विखे की उम्र सिर्फ 22 साल थी. 

उसके शव को फिर एम्बुलेंस से अकोला ले जाया गया. कुछ समय सुरजीत के रूम पर रुकने के बाद मैंने एक टेलीफोन बूथ से धनंजय को ये खबर दी. धनंजय भी उधर फोन पर बहुत रोने लगा था. कुछ देर बात करने के बाद मैं घर आकर सो गया. रात भर मुझे विखे के साथ बिताया हुआ समय याद आ रहा था. उसकी बातें याद आ रही थी. अगली सुबह जब नींद खुली, तो मैं बहुत डरा हुआ था. कंबल से बाहर आकर दिन का उजाला देखने से डर लग रहा था. क्योंकि उसमें एक खालीपन था.

मैं दो दिन ऑफिस नहीं गया. एक दिन सुरजीत के साथ बिताया. लेकिन तीसरे दिन फिर से रिहर्सल शुरू की और जनवरी में नाटक का मंचन भी किया. 

उसके बाद जब भी समय मिलता, मैं सुरजीत से मिलने चला जाता था. वो हमेशा पढ़ता रहता था इसीलिए उसके साथ अलग-अलग विषयों पर चर्चा करने में मज़ा आता था. कुछ महीने बाद, शायद उसी साल के आखिर में, सुरजीत उसके किसी चचेरे भाई के साथ बैंगलोर शिफ्ट हो गया.

थिएटर और लवमॅरेज

नवंबर 1994 की बात है. बस्ती के दोस्तों के ग्रुप में एक दोस्त था किशोर. मेरे घर के पास ही रहता था. वो किसी दूसरी जाति का था. लेकिन हम एकदूसरे के घर आनाजाना करते थे, साथ में खेलते थे. गीता उसके मौसी की लड़की थी. वैसे तो गीता का परिवार छिंदवाड़े से था लेकिन उस समय उसके पिता की रेलवे की नौकरी जबलपुर में थी इसीलिए वो लोग जबलपुर में एक क्वार्टर में रहते थे. गीता और उसके भाई-बहन कभी-कभार नागपुर में किशोर के घर आया करते थे. 

इस बार कुछ अलग हुआ. हमारी दो-चार बार नजरें मिली. मैं उसके बारे में सोचने लगा. मुझे लगा कि उससे बात करनी चाहिए. लेकिन लड़कियों से बात करने का ख़याल भी मुझे डरा देता था. मुझे बहुत समय लगा उससे बात करने में. धीरे-धीरे बातचीत बढ़ी. महीनों बाद मैंने बातों-बातों में उसे ये जताना शुरू कर दिया था कि वो मुझे अच्छी लगती है. गीता बहुत पढ़ी-लिखी नहीं थी. लेकिन उसकी सादगी मुझे पसंद थी. मैंने देखा था कि उनकी जाति में लड़के-लड़कियां कम पढ़ते है, शादियाँ भी जल्दी हो जाती है और कई परिवार बहुत छोटे-छोटे कारणों से टूट भी जाते है. इसमें सबसे ज्यादा नुकसान लड़कियों का होता है. 

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मुझे यकीन था कि मैं अगर खुद के लिए कुछ अच्छा कर लूंगा तो गीता को भी एक अच्छी ज़िन्दगी दे सकूंगा. मैंने उसे बताया था कि मैं उससे शादी करना चाहता हूँ. ये बात जब किशोर के घर में पता चली तो उन लोगों ने गीता को डराया और शायद धमकाया भी था. उन्हें लग रहा था कि मैं उसे बेवक़ूफ़ बना रहा हूँ. हालाँकि वो लोग मुझे अच्छी तरह जानते थे, लेकिन उन्हें ये भी यकीन था कि मैं अपनी माँ के इच्छा के विरुद्ध जाकर किसी दूसरी जाती की लड़की से शादी करने की हिम्मत नहीं करूँगा. उसके बाद गीता ने अचानक मुझसे मिलना और बात करना बंद कर दिया था. कुछ महीनों बाद वो जबलपुर चली गयी. जल्दी भावुक हो जाना मेरी बुरी आदत तो थी ही, लेकिन इस फासले और ख़ामोशी से तकलीफ़ भी होने लगी थी. 

नाटकों और फिल्मों के बारे में अख़बारों में लगातार पढ़ते आ रहा था. कुछ किताबें और मॅगज़ीन्स भी खरीदकर पढ़ लेता था. अख़बारों में नाटकों की समीक्षा और अन्य लेख पढता था. ऐसे में थिएटर से जुड़े कुछ लोगों के नाम और फोन नंबर मिले. एक-एक करके उनसे मिलने लगा. लगभग सभी लोग ब्राह्मण समाज से थे. मैं उनके साथ अपनी कहानियों की चर्चा करने लगा. दो-चार बार किसी नाटक की रिहर्सल देखने चला गया. उनके ज्यादातर नाटक धार्मिक विषयों पर और रामायण-महाभारत से जुड़े होते थे. मुझे उसमें कुछ ख़ास दिलचस्पी नहीं थी. उस समय बजाज नगर में रहने वाले एक व्यक्ति से ज्यादा मिलना होता था. वो बैंक में थे और शाम का समय थिएटर के लिए देते थे. मैंने अपना पहला मराठी लघुनाटक ‘त्या रात्रि’ लिखकर उनको सुनाया. वो एक मर्डर मिस्ट्री थी. उन्हें नाटक अच्छा लगा. 

अगस्त 1997 में, मैंने ‘चलो चलते है’ नामक आधे घंटे का हिंदी रोमॅंटिक नाटक लिखा और कुछ लड़के-लड़कियों को जमाकर एक प्रतिस्पर्धा में उस नाटक का मंचन भी किया. बतौर लेखक-निर्देशक, रंगमंच पर वो मेरा पहला प्रयास था. नाटक बहुत अच्छा नहीं हुआ था. लेकिन इस बात की ख़ुशी थी कि कुछ शुरू कर दिया है. एक दिन, डॉ पंजाबराव देशमुख सभागृह में निळु फुले साहब का एक नाटक देखने का मौका मिला. तब पहली बार समझ आया कि स्टेज पर कलाकारों ने कितनी ताक़त से एक्टिंग करने की ज़रूरत होती है. उसके बाद, डॉ वसंतराव देशपांडे सभागृह में एक नाटक देखा. मुझे वो हॉल बहुत पसंद आया था. मैंने तभी सोच लिया था कि अगला नाटक उसी हॉल में करूँगा. 

किशोर की बहन लता जब भी नागपुर से जबलपुर या छिंदवाड़ा जाती थी, मैं उसे गीता के नाम लिखी एक चिट्ठी थमा देता था. वो चिट्ठी गीता तक पहुँचती थी या नहीं, वो उसे पढ़ती थी या नहीं, पता नहीं. लेकिन मुझे कभी कोई जवाब नहीं आया. एक बार किशोर के मामा की शादी में हम बस्ती के कुछ दोस्त मिलकर छिंदवाड़ा गए थे. वहाँ गीता से मुलाक़ात हुई, बात हुई. मैंने उसे बताया की मेरा इरादा सच्चा है. मैंने फिर हिम्मत करके उसकी माँ से भी बात की. उन्हें बताया कि मैं उनकी लड़की से शादी करना चाहता हूँ लेकिन उन्हें कुछ साल रुकना होगा. माँ-बेटी की तरफ से मुझे कोई ऐसी बात सुनने नहीं मिली जिससे मैं निश्चिन्त रहता.

1998 में, मैंने एक थिएटर ग्रुप रजिस्टर किया और अप्रैल महीने में ‘द सेल्फिश गेम’ इस ढ़ाई घंटे के नाटक का लेखन और निर्देशन किया. ये नाटक एक थ्रिलर था. इस नाटक का नायक, भविष्य बताने वाले एक साधु के झांसे में आकर, अपनी प्रेमिका की हत्या करने का प्लान बनाता है. यहाँ-वहाँ से पैसे जमाकर उस नाटक में कुछ अच्छे कलाकार और तकनीकी लोगों को लिया था. धनंजय और विखे ने इस नाटक को खड़ा करने में मेरी बहुत मदत की थी. नाटक का मंचन डॉ वसंतराव देशपांडे सभागृह में हुआ. उस समय कुछ लोगों ने मुझे उस हॉल में नाटक करने से ये कहकर रोकने की कोशिश की थी, कि नए डायरेक्टर्स इतनी जल्दी इतने बड़े स्टेज पर मंचन नहीं करते. लेकिन मैंने किसी की नहीं सुनी. नाटक हुआ और मीडिया में उसकी काफ़ी तारीफ़ भी हुई. लोगों ने ये भी लिखा कि नाटक की स्क्रिप्ट बहुत अच्छी थी. 

अख़बारों में ये सब छपने के बाद, मेरी माँ के ऑफिस में कुछ लोगों ने उसे समझाया कि अपने लड़के को नाटक और सिनेमा से दूर रखो. उनका कहना था कि इस क्षेत्र में अच्छे लोग नहीं जाते. माँ ने घर आकर ये सब मुझे बताया. मैंने चुप रहकर सुन लिया, क्योंकि मैं मानने वाला तो नहीं था.

उसी साल, गीता के पिताजी का नागपूर में ट्रांसफर हो गया. हम दोनों फिर मिलने लगे. एकदूसरे के साथ समय बिताने लगे, एकदूसरे को समझने लगे. हमें यकीन था कि हम दोनों एकदूसरे के साथ ज़िन्दगी गुजारना चाहते हैं. लेकिन इस बात का अंदेशा भी था कि जाति वाला मामला तकलीफ खड़ी कर सकता है. साल 2000 के शुरू से मैंने ‘हितवाद’ में काम करना शुरू कर दिया था. उसी साल अक्टूबर महीने में, बिना घर में बताये, हम दोनों ने कोर्ट में रजिस्टर्ड मैरेज कर लिया. धनंजय और विखे साथ में थे. 

पिछले तीन-चार सालों में, मैं जब भी विखे के साथ उसके या उसके दोस्तों के फ्लॅट्स पर जाता था, मैं उनका लाइफस्टाइल देखा करता था. दूसरे शहरों और गावों से पढ़ने के लिए नागपूर में आये हुए जवान लड़के, जो किराये के मकानों में रहते थे. कुछ घंटे कॉलेज में बिताने के बाद वो लोग बाकि का समय ऐसे बिताते थे जैसे उनपर किसी का नियंत्रण नहीं है. घरवालों से दूर रहकर उन्हें ऐसा लगता था मानो उन्हें कोई देख ही नहीं रहा है. सभी तरह का नशा करना, लड़कियों का शोषण करना, लड़कियों को इस्तेमाल करने की कोई चीज़ समझना, नियम-कानून का कोई डर न होना, वगैरा. विखे उन लोगों जैसा नहीं था. शायद इसीलिए हम दोनों अच्छे दोस्त बन गए थे. एक बार उसने कहा था कि अगर हम दोस्त नहीं होते तो शायद वो भी उसके दोस्तों जैसा होता.

इन गैरजिम्मेदार लड़कों के जीने का तरीका देखकर मेरे दिमाग में बहुत दिनों से एक कहानी आकार ले रही थी. साल 2000 में, ‘हितवाद’ में शाम से रात की शिफ्ट करके मैं आधी रात घर आता था और फिर सुबह चार बजे तक ये नाटक लिखता रहता था. अक्टूबर में मैंने एक नाटक ‘महत्कृत्य’ लिखकर पूरा किया. नवंबर में विखे के साथ मिलकर नाटक की तैयारी शुरू की. दिसंबर महीने में बजाज नगर के एक हॉल में रिहर्सल शुरू हुई. और कुछ दिनों बाद, विखे की एक्सीडेंट में मौत हो गयी. 

महाराष्ट्र सरकार की हिंदी नाट्य प्रतियोगिता जनवरी में होने वाली थी. उसके लिए हमने अपने नाटक का आवेदन भी किया था. इसीलिए नाटक की रिहर्सल फिर शुरू हुई. विखे की मौत के सदमे से उभरने में पूरी टीम को समय लगा. 

नाटक के मुख्य पात्र की भूमिका राहुल कर रहा था, जो ‘हितवाद’ में मेरा सीनियर था. उसे थिएटर करने का बहुत मन था और इस नाटक में वो अच्छा काम भी कर रहा था. लेकिन उसी समय उसकी शादी की तारीख भी क़रीब आ गयी थी. और घरवालों के कहने पर उसने शो के सात दिन पहले काम करने से मना कर दिया. उस समय सब टेंशन में आ गए थे. इतने कम समय में किसी नए कलाकार को डायलॉग्स याद करवाना और उससे मुख्य पात्र की भूमिका करवाना मुश्किल था. मैंने स्क्रिप्ट लिखी थी और निर्देशन भी मैं कर रहा था इसीलिए मुझे उस पात्र का सबकुछ पता था. तब मैंने खुद ही वो रोले करने का फैसला किया. हालाँकि मुझे स्टेज पर आने से बहुत डर लग रहा था.

जनवरी 2001 में, ‘महत्कृत्य’ का पहला शो डॉ वसंतराव देशपांडे हॉल में, और प्रतियोगिता के लिए दूसरा शो साइंटिफिक हॉल में किया गया. इस नाटक में एक फ्लैट में रहने वाले तीन दोस्तों की कहानी बताई गयी थी. एक दोस्त एक ग़रीब लड़की को बहला-फुसलाकर गलत इरादे से फ्लॅट में लेकर आता है, लेकिन गलती से उसकी हत्या कर बैठता है. अब उस अपराध से बचने के लिए तीनों दोस्त जो जद्दोजहद करते है, वो इस नाटक में दिखाया गया है. इस नाटक की ख़ासियत ये थी की जिस लड़की के इर्द-गिर्द ये कहानी घूमती है, उस लड़की का पात्र मंच पर था ही नहीं. सिर्फ उसका जिक्र होता था. कहानी बताने का ये अंदाज़ लोगों को बहुत पसंद आया. नाटक का मंचन होने के बाद लोगों ने उसकी खूब तारीफ़ की. हॉल से बाहर निकलते समय लोगों ने मुझे बताया कि नाटक पुरे दो घंटे उनके दिमाग पर हावी था. 

कुछ महीनों बाद उस राज्य-स्तरीय प्रतियोगिता का रिजल्ट आया और उसमें ‘महत्कृत्य’ को सर्वश्रेष्ठ नाटक का दूसरा पुरस्कार मिला. 24 साल की उम्र में मुझे ये एक उपलब्धि जैसा लगा. एक ऐसा अनुभव जो कभी स्कूल-कॉलेज के रिजल्ट देखकर नहीं मिला. मुझे यकीन हो गया था कि मैं अच्छा लिख सकता हूँ. 

2001 में ‘हितवाद’ में मेरी नौकरी परमानेंट हो गयी. उधर गीता के माँ-बाप उसकी शादी कराने की तैयारी में लग गए थे. मुझे फैसला करना था. शादी तो मुझे करनी थी लेकिन मैं जल्दबाज़ी नहीं करना चाहता था. मैंने किसी तरह उन्हें एक और साल रोक लिया. गीता को भी शादी की कोई जल्दी नहीं थी. वो मुझे और समय देने को तैयार थी लेकिन उसके घर के लोग उसे परेशान करने लगे थे. इसीलिए अब वो उनपर गुस्सा भी करने लगी थी. 

2002 के शुरू में मैंने माँ के मन को समझने की कोशिश की. मुझे यकीन हो गया कि माँ किसी भी हालत में इस अंतरजातीय शादी के लिए तैयार नहीं होगी. दरअसल, उसे जब हमारे रिश्ते के बारे में भनक लगी थी, तबसे वो गीता और उसके परिवार पर बहुत गुस्सा करने लगी थी. मैंने भी बहुत सोचा और अपना मन बना लिया. मैंने ऑफिस से एक छोटा लोन लेकर नागपूर में छत्रपति चौक के पास दो कमरे का मकान किराये से लिया और उसमें ज़रूरत की कुछ चीज़ें डाल दीं. फरवरी महीने में मैंने अपने भाई-बहनों को ये बता दिया कि मैं शादी करके अलग रहने वाला हूँ. उन्हें जितना समझाना था मैंने समझाया था. उसके बाद एक दिन मैंने माँ से ये बात की. उस दिन कोहराम मच गया था. कुछ दिन मैं शांत रहकर अपना ऑफिस करने लगा. उस बीच मेरे भाई-बहन शायद माँ को मनाने की कोशिश कर रहे थे. जिस दिन मैंने घर से निकलने का तय किया था, उस दिन माँ ने कह दिया कि गीता को घर लेकर आ जाओ. 

24 फरवरी 2002, शाम को मैं गीता के घर गया. उस समय वो लोग रेलवे क्वार्टर में रहते थे. मेरे साथ धनंजय और पिंटू भी थे. मैंने गीता को साथ चलने को कहा. उसके घर का माहौल गर्म था. वो लोग चाहते थे कि लड़की की शादी हिन्दू रीती-रिवाजों के अनुसार की जाये. मैं पहले ही ये बता चुका था कि शादी पर मैं कोई भी फिजूलखर्च नहीं करूँगा. इस वजह से वहाँ सब नाराज़ थे. मैंने ख़रीदा हुआ सूट पहना, गीता तैयार हुई और फिर मैं उसे अपनी मोटरसाइकिल पर बिठाकर घर ले आया. घर में तब तक माँ ने आस-पास की दो-तीन औरतों को बुलाकर रखा था. घर में गीता का स्वागत हुआ. 

गीता आज भी मेरी सबसे बड़ी ताक़त है. उसे अपना लाइफ-पार्टनर चुनना मेरा सबसे अच्छा फैसला था.

पत्रकारिता और लेखन

1998 से मैंने नौकरी पाने की कोशिश शुरू कर दी थी. बैंक और रेलवे की कुछ सिलेक्शन एग्जाम भी दी. विखे ने जब क्रेडिट कार्ड के सेल्स का काम शुरू किया तब मुझे भी उसने वो काम ज्वाइन करने की सलाह दी. लेकिन मुझे पता था मैं कुछ बेच नहीं सकता. मैंने वो नहीं किया. मैं और कोई जॉब ढूंढ रहा था. ऐसे में, जनवरी 2000 के पहले हफ्ते में ‘द हितवाद’ अख़बार के लिए ‘ट्रेनी जर्नलिस्ट’ का इश्तेहार आया. विखे के रूम पर बैठकर अख़बार पढ़ते समय वो इश्तेहार दिखा और मुझे लगा की इस क्षेत्र में काम करने में मज़ा आएगा. अगले दिन इंटरव्यू था. मैंने कभी इंटरव्यू दिया नहीं था. लेकिन विखे ने हिम्मत बँधायी. उसने एक टाई भी दी, ये कहकर की जब इंटरव्यू के लिए जाऊँ तो उसे पहन लूँ. 

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दूसरे दिन सुबह मैं वहां पहुँच गया. अख़बार पढ़ते रहने की वजह से मुझे करंट अफेयर्स की जानकारी थी. पोलिटिकल ख़बरों में दिलचस्पी थी. इसी वजह से शायद मेरा इंटरव्यू अच्छा हुआ. मुझे रिटन एग्जाम देने को कहा गया. कुछ सवालों के जवाब लिखकर जब मैंने पेपर सौंपा तब बताया गया कि हफ्ते भर में रिजल्ट बताया जायेगा. जब बाहर निकला तब ध्यान आया कि विखे की दी हुई टाई तो जेब में ही रह गयी थी.

24 जनवरी 2000 को मैंने जॉब ज्वाइन किया. सबसे पहले मध्य प्रदेश डाक एडिशन के लिए ट्रांसलेशन का काम किया. धीरे-धीरे सब-एडिटिंग करने लगा. बहुत जल्द मेरे काम में तेज़ी आ गयी. फिर मुझे शाम से रात की शिफ्ट में आने को कहाँ गया. ये वो समय होता है जब किसी भी अख़बार में सबसे मुख्य काम किया जाता है. शाम की शिफ्ट में रायपुर सिटी एडिशन की टीम में काम करने लगा. वहां पवार सर का बहुत सपोर्ट मिला. उन्होंने बहुत कुछ सिखाया और बहुत कुछ करने का मौका भी दिया. उस समय पवार सर डेस्क-इंचार्ज थे, और रायपुर एडिशन की टीम का नेतृत्व राहुल करता था. राहुल फ्रंट पेज करता था और बाकी लोगों को उनके पेज के अनुसार न्यूज़-रिपोर्ट्स बाँटने का काम भी करता था. राहुल के साथ काम करते-करते मैं जल्द ही उसका काम सिख गया. ये देखकर राहुल ने स्पोर्ट्स डेस्क में जाने की कोशिश शुरू कर दी. उसे उसी में दिलचस्पी थी. राहुल के बाद रायपुर सिटी एडिशन की टीम को मैं लीड करने लगा था. 

मेरे ज्वाइन करने के 7-8 महीने बाद आकाश ने ‘हितवाद’ ज्वाइन किया और रायपुर डेस्क पर ही काम करने लगा. वो पहले गोंदिया के किसी कॉलेज में पढ़ाता था. क्रिश्चन था, उम्र में मुझसे लगभग 10 साल बढ़ा था. वो सदर के पास राज नगर में रहता था. रात में काम ख़त्म करके हम दोनों सदर तक साथ आते थे. आकाश मेरी बगल वाली कुर्सी पर ही बैठता था. ऑफिस आने के बाद वो अपने मुँह में तंबाकू दबा लेता था और अलमारी से कोई नयी-पुरानी मैगज़ीन निकालकर उसे पढ़ने लगता था. उसकी ये रोज की आदत देखकर मुझे भी पढ़ने की इच्छा होने लगी. फिल्मों में मेरी दिलचस्पी देखकर उसने मुझे इंग्लिश फिक्शन पढ़ने की सलाह दी. मैंने मारिओ पुजो की ‘द गॉडफादर’ से शुरुवात की. उसके बाद जेफरी आर्चर की लगभग सारी नोवेल्स पढ़ डालीं. इस दरमियान, फिल्मों से और स्क्रिप्ट-राइटिंग से जुडी किताबें भी पढ़ी. ये सिलसिला जारी रहा. मुझे लगता है कि फिक्शन पढ़ने से मुझे स्क्रिप्ट-राइटिंग को और निखारने में काफ़ी मदद हुई.

संतोष की दवाई की दुकान थी. वहाँ हम सब दोस्त हफ्ते में एक-दो बार मिला करते थे. उस दुकान के ऊपर एक इंटरनेट कैफ़े था. वहां मैं भी कई बार सर्फिंग किया करता था. साल 2002 की बात है. एक दिन मैं और चंद्रमणि, संतोष की दुकान पर बैठे बातचीत कर रहे थे. तब संतोष ने बताया कि ऊपर का इंटरनेट कैफ़े बिकने वाला है. ये सुनकर चंद्रमणि के मन में आया कि क्यों न हम ही उसे खरीदकर चलाने लगे. मेरी शाम की शिफ्ट रहती थी इसीलिए दिन भर मुझे समय मिल जाता था. मैं भी पार्टनरशिप करने को राज़ी हो गया. एक महीने में हमने वो कैफ़े चलाना शुरू कर दिया. सुबह से शाम तक वहां मैं बैठता था और दिनभर अपना काम करके शाम को चंद्रमणि आ जाता था. 

वो कैफ़े एक तरीके से हम दोस्तों के मिलने का अड्डा बन गया था. उस समय मैंने अपना पहला मोबाइल फोन, पैनासोनिक कंपनी का एक सेकंडहैंड हैंडसेट, ख़रीदा था. बाद में, मेरा और चंद्रमणि का अपने-अपने जॉब में जिम्मेदारी बढ़ जाने से कैफ़े में टाइम देना मुश्किल होने लगा था. हमने एक लड़का भी रखा था लेकिन तब भी बात नहीं बानी. एक-डेढ़ साल में हमने अपनी व्यस्तता के कारण उसे बेच दिया. 

12 दिसंबर 2003 को मेरी बेटी का जन्म हुआ. घर में सब खुश थे. घर में अब और ज्यादा समय बीतने लगा. उधर धनंजय ने एमसीए पूरा करने बैंगलोर में एक आयटी कंपनी में काम करना शुरू कर दिया था. मार्च 2004 में, धनंजय और मेरी बहन की शादी हुई. 

अगले एक-डेढ़ साल तक मैंने अपनी कुछ कहानियों पर काम किया. एक फिल्म की स्क्रिप्ट भी पूरी कर ली. तब मुझे लगा कि मुंबई में फिल्म निर्माता-निर्देशकों से मिलकर उन्हें अपनी कहानियाँ सुनानी चाहिए. 2005 में एक-दो बार मुंबई जाकर भी आया, और तब समझा कि ये काम करने के लिए मुंबई में रहना पड़ेगा.

मुंबई

अक्टूबर 2005 को ‘हितवाद’ की नौकरी छोड़कर मैंने मुंबई में ‘द फ्री प्रेस जर्नल’ ज्वाइन किया. उस समय मेरा ऑफिस नरीमन पॉइंट में था. पहले 15 दिन एमएलए हॉस्टल में रुकने के बाद, मैंने नवी मुंबई के सानपाडा इलाके में एक फ्लैट किराये पर ले लिया. उस बिल्डिंग के मालिक पाटिल जी थे. वो बिल्डर थे. पाटिल जी के साथ अच्छी दोस्ती होने लगी थी. 

सानपाडा में रहते हुए मैंने एक कंप्यूटर ख़रीदा और ऑफिस के अलावा जो भी समय मिलता था, उसमें एक-एक करने 5-6 फिल्मों की स्क्रिप्ट्स लिख डाली. उसके बाद मैंने फिल्म इंडस्ट्री के चक्कर लगाना शुरू कर दिया. कुछ लोगों ने नाम के बदले पैसे लेकर स्क्रिप्ट बेचने का ऑफर दिया. कुछ लोगों ने कहा कि दूसरों की लिखी स्क्रिप्ट्स पर काम नहीं करते. कुछ लोगों ने उनकी आईडिया पर स्क्रिप्ट लिखवाये लेकिन पैसे भी नहीं दिए. कुछ लोगों को मेरी स्क्रिप्ट पसंद आयी लेकिन काम शुरू ही नहीं किया. 

इस बीच, 2006 में मैंने रिलायंस कम्युनिकेशन्स में इंटरव्यू और रिटन एग्जाम दिया और मुझे वहां जॉब मिल गया. अब मेरा ऑफिस नवी मुंबई में महापे इलाके में धीरूभाई अम्बानी नॉलेज सिटी में था. घर से ऑफिस बहुत पास में था, लेकिन वहां तीन शिफ्ट में काम होता था और हर हफ्ते मेरी शिफ्ट बदलती रहती थी. इस वजह से अब पुरे दिन का समय नहीं मिलता था. बाहर जाकर लोगों से मिलना बंद हो गया. जो भी समय मिलता था उसमें स्क्रिप्ट्स का काम आगे बढ़ाने लगा. 2007 के शुरु से मेरे दाहिने कंधे और गर्दन में दर्द होने लगा. पहले मैंने उसपर ज्यादा ध्यान नहीं दिया लेकिन फिर वो दर्द रोज होने लगा. कुछ महीनों बाद चेकअप कराने से पता चला की सर्वाइकल स्पोंडिलोसिस की तकलीफ है. ऑफिस में रोज लगभग 8 घंटे और घर पर 4-5 घंटे कंप्यूटर पर काम करने से ये तकलीफ शुरू हुई थी. डॉक्टर ने कंप्यूटर पर कम समय बिताने को कहा. ऑफिस में तो काम करना ही था इसीलिए घर पर काम करना कम करना पड़ा. ऑफिस में काम करने के बाद इतना दर्द होता था कि घर पर आकर काम करना मुश्किल होने लगा. इस दर्द का इलाज एक्यूप्रेशर और आयुर्वेदिक दवाईयों से करने लगा. 

रिलायंस की शिफ्ट वाली जॉब से भी बहुत तकलीफ होने लगी थी और मैं उसे बदलने की सोच रहा था. उसी साल, सीएनबीसी-टीवी18 से ऑफर आया. मैंने इंटरव्यू दिया और जॉब मिल गया. उसमें कमोडिटीज डिपार्टमेंट के इंग्लिश कंटेंट डेस्क पर मैंने काम शुरू किया. अब मेरा ऑफिस अँधेरी में था. गर्दन का दर्द जैसा का वैसा था. डॉक्टर ने साफ़ कह दिया था कि कितनी भी दवा कर लो, जब तक कंप्यूटर से दूर नहीं रहोगे, दर्द कम नहीं होगा. 

इस बीच, पाटिल जी से अच्छी दोस्ती हो गयी. एक दिन उन्होंने एक शॉर्टफिल्म को प्रोड्यूस करने की इच्छा जतायी. मेरे पास ‘राम’ नाम से एक स्क्रिप्ट तैयार थी. उस कहानी में मैंने ये बताया था कि जातिवादी शक्तियों से लड़ने वाला एक हिन्दू आदमी अपनी 9 साल की लड़की को धर्म कैसे समझाता है. पाटिल जी को कहानी पसंद आयी और हमने शूट करने की तैयारी शुरू कर दी. 

दिसंबर 2009 के आखरी हफ्ते में, मुरबाड़ के पास एक छोटे गांव में तीन दिन में हमने वो शॉर्टफिल्म की शूटिंग पूरी की. जनवरी 2008 में उस फिल्म का पोस्ट-प्रोडक्शन हुआ और पाटिल जी ने सानपाडा के एक मिनी-थिएटर में उस फिल्म का एक स्पेशल शो भी आयोजित किया. लोगों को 40 मिनट की वो शॉर्टफिल्म पसंद आयी. फिल्मों में ये मेरा पहला काम था.

2008 में सर्वाइकल स्पोंडिलोसिस की तकलीफ बहुत बढ़ गयी थी. ऑफिस में दिन भर गले में कॉलर लगाकर काम करना पड़ता था. गर्दन और कंधे से होकर दर्द अब दाहिने हाथ की उँगलियों तक आ गया था. दर्द इतना बढ़ गया था कि बर्दाश्त नहीं होता था. कभी-कभी उँगलियाँ सुन्न हो जाती थी और आँखों के सामने अँधेरा छा जाता था. मैं समझ गया था कि इस तरह मैं ज्यादा दिन तक काम नहीं कर पाऊंगा. जॉब के अलावा और क्या किया जा सकता है ये सोचना मैंने शुरू कर दिया था.

फिर मैंने एक रेस्टोरेंट शुरू करने का फैसला किया. अच्छा खाना बनाकर दूसरों को खिलाना मुझे पहले से पसंद था. लेकिन एक साधारण मेनू वाला रेस्टोरेंट शुरू करके काम नहीं चलने वाला था. जल्द ही लोगों की नज़र में आने के लिए कुछ अलग करना ज़रूरी था. मैंने रेस्टोरेंट सेक्टर पर रिसर्च किया. उस समय मुंबई में क्या चल रहा था ये भी देखा. मैंने तय किया की अपने रेस्टोरेंट के मेनू का मुख्य क़िरदार होगा ‘स्प्राउट्स’ और रेस्टोरेंट का नाम होगा ‘अंकुरण’.

ये आईडिया लेकर मैं धनंजय से मिलने गया. उस समय वो हैदराबाद में रहता था और एक बड़ी आईटी कंपनी में काम करता था. धनंजय को आईडिया पसंद आया. हमने प्लान किया कि प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनाएंगे और ‘अंकुरण’ का ट्रेडमार्क करेंगे. उसने कहा वो उसके दोस्तों से इन्वेस्टमेंट के लिए बात करेगा. 

मुंबई लौटकर मैंने भी एक लोन के माध्यम से कुछ पैसों का बंदोबस्त किया. अक्टूबर 2008 में मैंने जॉब छोड़ दिया. मैं रेस्टोरेंट शुरू करने के तैयारी कर रहा था, उसी बीच ख़बर आयी कि धनंजय को ब्लैडर में कैंसर हो गया है. मैं जब तक हैदराबाद पहुँचता, उसने शुरुआती टेस्ट करके ऑपरेशन करवा लिया था. ऐसी हालत में भी वो बहुत खुशमिजाज़ रहता था. ये देखकर दूसरों को भी जोश आ जाता था. 

जनवरी 2009 में हमने कंपनी रजिस्टर कर ली. सानपाडा इलाके में पहला रेस्टोरेंट शुरू हुआ. लोगों को स्प्राउट्स से बनी चीज़ें पसंद आने लगी. फोन पर आर्डर आते थे और हमारे डिलीवरी बॉयज लोगों के घरों और ऑफिस में खाना पहुंचा दिया करते थे. अच्छे क्वालिटी का खाना और अच्छी सर्विस की वजह से हमने जल्दी ही नाम कमा लिया था. बाद में हमने सीबीडी बेलापुर में उसी नाम से एक और रेस्टोरेंट शुरू किया. 

साल 2010 में, नवी मुंबई महानगर पालिका के चुनाव थे. उस समय नवी मुंबई में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का बोलबाला था. कुछ नगरसेवक शिवसेना के थे. लेकिन भारतीय जनता पार्टी का वहां कोई नामोनिशान नहीं था. पाटिल जी जिस तुर्भे इलाके में रहते थे, वहाँ उनका और उनके दोस्त पवार जी का अच्छा प्रभाव था. तुर्भे की सीट महिलाओं के लिए आरक्षित थी. एक महिला 20 साल से वहाँ एनसीपी की टिकट पर चुनकर आ रही थी. इस बार पवार जी ने खूब कोशिश करके अपनी पत्नी के लिए बीजेपी का टिकट प्राप्त किया था. पाटिल जी को पता था कि मैं अच्छा लिखता हूँ. शॉर्टफिल्म बनाने के बाद से पवार जी भी मुझे जानते थे. जब चुनाव प्रचार शुरू हुआ, पाटिल जी ने मुझे बुलाकर कहा कि प्रचार साहित्य लिखने में मदद चाहिए. उस समय मेरे मन में विचारधारा वाली बात कहीं नहीं थी. मैंने हाँ कह दिया. बैनर, पोस्टर, पैम्फ्लेट, इत्यादी लिखने का काम मैंने शुरू किया. पाटिल जी ने फिर उम्मीदवार का घोषणापत्र लिखने का काम भी मुझे दिया. मैंने उनसे 3-4 लोग मांगे, जिन्हें मैंने पूरे चुनाव क्षेत्र में घुमकर लोगों की समस्या सुनकर आने को कहा. उन लोगों से मिली जानकारी के आधार पर मैंने एक घोषणापत्र तैयार किया. उसमें किसी भी जाति या धर्म की बात नहीं थी. सिर्फ लोगों की समस्या हल करने की बात थी. वो घोषणापत्र वैसा ही छापकर पूरे वार्ड में बाँट दिया गया. 

चुनाव का रिजल्ट आया तब मैं नागपूर में था. पाटिल जी ने मुझे फोन करके बताया कि नवी मुंबई की 72 सीटों में से भाजपा सिर्फ एक सीट जीती है. और वो उनकी सीट थी. वो बहुत खुश थे. पाटिल जी और पवार जी की यहाँ से भाजपा में एंट्री हुई थी. 

रेस्टोरेंट के साथ मुश्किल ये थी कि दोनों दुकानें किराये पर थी. हर दो साल में नए एग्रीमेंट करने पड़ते थे और किराया हर साल बढ़ाकर देना पड़ता था. इस वजह से मुनाफ़े में रहना मुश्किल हो गया. उसमें भी, सानपाडा के दुकान मालिक ने दुकान का सौदा कर दिया था और हमें दुकान खाली करने को कहा था. उस समय, मेरा भाई और एक मौसेरा भाई रेस्टोरेंट संभाला करते थे. हमने दोनों रेस्टोरेंट बंद कर दिए. 

 

नागपूर वापसी

मुंबई में रहते हुए, मैं हर दो महीने में नागपूर आता रहता था. जब रेस्टोरेंट बंद करने का फैसला हुआ, मैंने नागपूर शिफ्ट होने का तय कर लिया. उस समय, स्पोंडिलोसिस का दर्द रोज नहीं होता था. जिस दिन कंप्यूटर पर ज्यादा काम कर लिया, उस दिन दर्द शुरू हो जाता था. मुझे पता था मैं फुलटाइम कहीं भी काम नहीं कर पाउँगा. इसीलिए दिन में 3-4 घंटे ऑनलाइन कंटेंट-राइटिंग करके मैं अपने ज़रूरत का पैसा बनाने लगा. 10 मई 2012 को मेरे बेटे का जन्म हुआ.  

नागपूर वापस आने के बाद, 3-4 महीने में या तो मैं हैदराबाद जाता था या धनंजय नागपूर आया करता था. हम दोनों जब मिलते थे, अलग-अलग विषयों पर चर्चा करते थे. उम्र के उस पड़ाव पर हमें लगा कि सामाजिक स्तर पर सक्रीय होना चाहिए. लेकिन क्या करना और किससे जुड़ना ये समझ नहीं आ रहा था. बाबासाहेब के विचारों पर काम करने वाले संगठन और पार्टियों के बारे में हम जानकारी इकठ्ठा करने लगे. तब हमने देखा कि वहां सबकुछ बिखरा हुआ था. संगठन के नाम पर बहुत सारे छोटे-छोटे गुट नज़र आ रहे थे, जिनमें से अधिकतर कुछ नहीं कर रहे थे. जो कुछ हद तक सक्रीय थे, वो एकदूसरे को छोटा दिखाने की प्रतिस्पर्धा कर रहे थे. हम सोचने लगे कि इनमें से किसके साथ जुड़कर कुछ अच्छा काम करने का मौका मिलेगा. एक बार तो ये ख्याल आया कि क्यों न उन सभी संघटनों और पार्टियों से मिलकर उन्हें एक साथ लाने का प्रयास किया जाए. लेकिन फिर लगा कि ये कोशिश तो और भी लोगों ने की होगी. लेकिन शायद कोई उनकी बात सुन और समझ नहीं पाया होगा. उस समय हम तो कुछ भी नहीं थे. सामाजिक कार्य में हमारा कोई योगदान नहीं था. फिर कोई हमारी बात क्यों सुनेगा? एक दूसरा ख्याल ये भी आया था कि क्यों न एक नया संगठन शुरू किया जाये. हमने इस दिशा में गंभीरता से सोचना भी शुरू कर दिया था – जैसे संगठन का नाम क्या होगा? क्या नाम में आंबेडकर या दलित जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाये? ये सब सोचते-सोचते जब हमने बहुत समय से सक्रीय संगठनों के बारे में ऑनलाइन जानकारी हासिल करने की कोशिश की, तब एक नाम बार-बार पढ़ने में आ रहा था – आरएसएस. 

एक दिन धनंजय के मन में आया कि क्यों ना उसके जीजाजी से सलाह-मशवरा किया जाये. जीजाजी धनंजय की मौसेरी बहन के पति थे और भंडारा में रहते थे. वो क़रीब 10-15 सालों से भाजपा के लिए काम कर रहे थे. साल 2013 के बारिश के मौसम में, एक दिन हम दोनों जीजाजी से मिलने भंडारा गए. सारी बातें सुनकर और किसी संगठन से जुड़ने की हमारी इच्छा देखकर उन्होंने हमें भाजपा से जुड़ने की सलाह दी. ये हमने सोचा नहीं था. हम तो अपने लोगों के साथ कुछ करना चाहते थे. जीजाजी ने कहा बाबासाहेब को मानने वाले लोग कभी एक साथ आकर काम नहीं कर सकते और इसीलिए अपने समाज का कोई मजबूत संगठन नहीं बना है. उन्होंने बताया कि अलग-अलग समाज के लोग भाजपा से जुड़ रहे है. उन्होंने बताया कि अपने समाज के भी बहुत लोग भाजपा से जुड़े है और काम कर रहे है. फिर उन्होंने धर्मराज जी से फोन पर बात की और हमें उनसे मिलने को कहा. धर्मराज जी एससी समाज से थे और भाजपा में एससी एसटी सेल के पदाधिकारी थे. 

धर्मराज जी से पहली बार हम गांधीसागर के पास एक बैंक के हॉल में भाजपा के एक कार्यक्रम में मिले. काफ़ी देर इंतज़ार करने के बाद वो बाहर आये और मिले. उन्होंने कहा कि वो हमें एससी एसटी सेल में प्रवेश दिलाएंगे. ये सुनकर हमें कोई खास ख़ुशी नहीं हुई. हम तो मुख्य संगठन में काम करना चाहते थे. और धनंजय तो ऊपर के स्तर पर काम करना चाह रहा था. धनंजय के पास बहुत सालों का आयटी क्षेत्र में काम करने का अनुभव था. मैं भी मीडिया के अलग-अलग प्लॅटफॉर्म पर काम करके आया था. हम उस स्तर की कोई जिम्मेदारी ढूंढ रहे थे. धर्मराज जी से उनके नंदनवन स्थित ऑफिस में एक-दो मुलाक़ातें हुई. एक बार उन्होंने कहा की वो खासदार जी के हाथों हमारा पार्टी प्रवेश करवाना चाहते है और इसीलिए उनसे समय मिलने का इंतज़ार कर रहे है. भाजपा से जुड़ना या नहीं, ये मैं अभी भी तय नहीं कर पाया था. 

उसके बाद, हम एक बार फिर जीजाजी से मिलने भंडारा गए. धनंजय ने उन्हें बताया कि हम ऐसे घंटो किसी नेता के पीछे घुमना नहीं चाहते या हाथ पर हाथ रखकर बैठे नहीं रहना चाहते. हम काम करना चाहते है. ये सुनकर जीजाजी ने जीतेन्द्र नामक व्यक्ति से फोन पर बात की और हमें उनसे मिलने को कहा. जीतेन्द्र वैसे तो गोंदिया के रहने वाले थे और पोवार समाज से आते थे. उन दिनों वो रामनगर के एक विद्यालय में पढ़ाते थे और महाविद्यालयीन विद्यार्थियों को संघ से जोड़ने का काम करते थे. 

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जीतेन्द्र से पहली मुलाक़ात हिलटॉप के वॉलीबाल ग्राउंड में हुई. वो वहीँ आसपास रहते थे. उन्होंने कहा कि वो धनंजय को अक्षय से मिलाएंगे जो आयटी क्षेत्र के लोगों को संघ से जोड़ने का काम करते थे. उसी बीच, जीजाजी ने धनंजय को फोन करके बताया कि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष की नवेगांव-बांध में एक जनसभा होने वाली है तो वहां जाकर उनसे मिलने की कोशिश करो. एक दिन हम दोनों नवेगांव गए. वहां सभा समाप्त होने पर जब प्रदेश अध्यक्ष जाने लगे तब धनंजय ने उनसे बात की और बताया कि वो आईटी में काम करना चाहता है. उन्होंने उसे घर आकर बात करने को कहा. शायद अगले एक या दो दिन में ही प्रदेश अध्यक्ष के घर गए. वहां पहले से बहुत लोग मिलने के लिए आये थे. जब हम दोनों को अंदर बुलाया गया, धनंजय ने अपने बारे में बताया. मैं ज्यादा कुछ बोल नहीं पाया. मन भी नहीं कर रहा था. प्रदेश अध्यक्ष ने धनंजय को मुंबई जाकर उनके प्रवक्ता से मिलने को कहा. 

उसके बाद हम जीतेन्द्र से मिले. जीतेन्द्र ने कहा कि वो भी मुंबई आएंगे. फिर एक दिन हम तीनो मुंबई पहुंचे और नरीमन पॉइंट पर भाजपा के ऑफिस में गए. वहाँ प्रवक्ता से मुलाक़ात हुई. बस यहाँ-वहां की बात हुई. ऐसे लग रहा था जैसे खूब टाइमपास चल रहा है. उसके बाद जीतेन्द्र ने संगठन मंत्री से मिलाया. उनसे भी बस यहाँ-वहाँ की बात हुई. शाम में हम नागपूर के लिए निकल पड़े.

एक दिन नागपूर में, जीतेन्द्र ने धनंजय को अक्षय से मिलाया. मैं उस मीटिंग में नहीं था. अक्षय ने धनंजय को हैदराबाद के संघ के कुछ कार्यकर्ताओं से कनेक्ट किया. 

नवम्बर 2013 में, मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने वाले थे. सिवनी ज़िले में चुनाव प्रचार पर नजर रखने की जिम्मेदारी उस समय जीतेन्द्र को मिली थी. उन्होंने हम दोनों को भी अपने साथ पकड़ लिया. मेरी दिलचस्पी ये थी कि मैं चुनाव के ग्राउंड मैनेजमेंट को करीब से देखना चाहता था. नवम्बर-दिसंबर के दौरान, हम लोग महीनाभर नागपूर-सिवनी के चक्कर लगाने लगे. जीतेन्द्र के साथ हम सिवनी में भाजपा के ऑफिस में रुकते थे. वहां खाने-सोने की पूरी व्यवस्था थी. ऑफिस में जितनी बैठके होती थी, वो सब देखने-सुनने को मिली. नगद रुपयों का लेन-देन भी भारी मात्रा में हुआ. भाजपा के साथ-साथ, आरएसएस, बजरंग दाल, विश्व हिन्दू परिषद्, आदि सभी संगठनों के कार्यकर्त्ता वहाँ हाजिर होते थे और काम की जिम्मेदारी लेकर जाते थे. हमारे लिए एक गाड़ी का भी इंतेज़ाम किया गया था, जिससे हम अलग-अलग ब्लॉक में घुमा करते थे और स्थिति का जायज़ा लेते थे. जीजाजी को किसी पड़ोस के चुनाव क्षेत्र की जिम्मेदारी मिली थी. एक-दो बार उनसे मुलाक़ात भी हुई. इसी दौरान, नागपुर में, धनंजय और अक्षय की एक-दो मुलाक़ातें हुई. उसके बाद धनंजय हैदराबाद लौट गया.

आरएसएस

साल 2014 के शुरू में, धनंजय ने हैदराबाद में संघ ज्वाइन कर लिया. वो मुझे फोन पर बताता था कि वो शाखा में जाने लगा है. वहाँ ‘आईटी मिलन’ नाम से संघ एक कार्यक्रम चलता था जिसका उद्देश्य था सॉफ्टवेयर इंजीनिअर्स को संघ से जोड़ना. धनंजय भी उसी माध्यम से जुड़ा और अच्छे प्रोफाइल के लोगों के संपर्क में आया. इन सब कार्यक्रमों की वो बहुत तारीफ़ किया करता था. उसने मुझे भी नागपूर में शाखा में जाने को कहा. लेकिन मेरा मन अभी भी नहीं मान रहा था. 

उसके बाद जब एक-दो बार धनंजय नागपूर आया, हम लोग जीतेन्द्र से मिले. एक दिन शाम में जीतेन्द्र हमें रेशिमबाग के कार्यालय में लेकर गए. उस समय वहां युवा विद्यार्थियों का शिविर चल रहा था. जीतेन्द्र ने हमें रमेश से मिलाया जो उस समय महानगर प्रचारक थे. उस दिन मैं अक्षय से पहली बार मिला. वो भी प्रचारक थे. मुझे पता चला कि अक्षय आईआईटी मुंबई से डिग्री करके आये थे. मुझे ये भी पता चला की आईआईटी मुंबई हर साल संघ को एक प्रचारक देता है. उस दिन तीनों-चारों ने मिलकर मुझे संघ के बारे में बहुत बड़ी-बड़ी बातें बताई और ज्वाइन करने के लिए प्रेरित किया. 

हैदराबाद में संघ के काम के लिए धनंजय काफी समय देने लगा था. हमारी फोन पर बात होती रहती थी. दो महीने बाद जब वो फिर नागपूर आया, तब जीतेन्द्र के साथ फिर एक बार रेशिमबाग के कार्यालय में गए. उस दिन जीतेन्द्र ने मुझे सुनील जी से मिलाया. सुनील जी सदर भाग के संघचालक थे. उन्होंने मुझे बताया कि जरीपटका के दयानंद पार्क में शाखा लगती है. उन्होंने कहा कि वहां जाना शुरू करो. उन्होने उस शाखा के एक-दो लोगों के नाम भी बताये. उसके बाद भी मैंने कोई फैसला नहीं किया. धनंजय को अब संघ ज्वाइन करके 5-6 महीने हो गए थे. उसे उनके साथ काम करने में मज़ा आ रहा था. हमारी जब भी फ़ोन पर बात होती थी, वो मुझे जल्द से जल्द संघ में आने के लिए कहता था. 

मई 2014 में भाजपा की सरकार बनी. मीडिया में खूब महिमामंडन चल रहा था. एक ऐसा माहौल बनाया जा रहा था जैसे ये देश अब इतना अच्छा बन जायेगा जैसा पहले कभी था ही नहीं. इस झूठे प्रचार का मैं भी कहीं न कहीं शिकार हुआ था. इसकी एक वजह ये भी थी मेरे मन में भी कांग्रेस के खिलाफ बहुत गुस्सा था. भाजपा का सरकार में होना या किसी व्यक्ति का उसके कद से अधिक ऊँचा दिखना, इस बात का मुझपर कोई प्रभाव नहीं था. व्यक्तिपूजा कभी भी मेरे विचारों में नहीं थी. लेकिन फिर एक ख्याल आया कि चलो इन लोगों से जुड़कर देखते है. वैसे भी उस समय सबकुछ अच्छा ही दिख रहा था, या वैसा दिखाया जा रहा था. 4-5 महीने काम करने के बाद धनंजय को भी सबकुछ अच्छा ही लग रहा था. 

जून 2014 में मैंने मॉर्निंग वॉक के बहाने दयानंद पार्क जाना शुरू किया. वॉक करते-करते मैं दूर से उन लोगों को देखा करता था लेकिन जाकर बात करने का मन नहीं हो रहा था. एक बार धनंजय से बात हुई. उसने कहा कि इतना सोचने की ज़रूरत नहीं है. फिर एक दिन मैं जाकर उन लोगों से मिला. पहले तो मुझे बड़े शक़ की नज़र से देखा गया. मैंने जब बताया कि रेशिमबाग कार्यालय में सुनील जी मुलाक़ात हुई थी, तब वहां के लोगों ने बात करनी शुरू की. नाम, काम, पता पूछने के बाद जब उन्हें कोई गड़बड़ नहीं लगी तब उन्होंने मुझे अपने साथ लिया. उन्होंने पहले तो मुझे भगवे ध्वज को प्रणाम करके को कहा. ध्वज-प्रणाम कैसे करते है ये भी बताया. उस समय उस ध्वज को झुककर प्रणाम करते समय मुझे बहुत अटपटा लगा, क्योंकि ऐसा करने की आदत नहीं थी. ऐसा लगा जैसे पहले ही कदम पर व्यक्तिगत विचारों की बलि चढ़ानी पड़ी. ध्वज को प्रणाम करते ही उन लोगों के कहा कि आज मेरा संघ-प्रवेश हो गया है. 

दयानंद पार्क की शाखा में आनेवाले लोगों में अगर 4-5 लोगों को छोड़ दें, तो बाकी सभी लोग सिंधी समाज के थे. सभी लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी धंदा करने वाले लोग थे. बाद में मैं जैसे-जैसे उन्हें समझने लगा, मेरे मन में एक सवाल उठा कि इन लोगों की वैचारिक स्तर पर संघ को क्या मदद होती होगी? फिर धीरे-धीरे इसका जवाब ये मिलता गया कि संघ को किसी का वैचारिक योगदान नहीं चाहिए था. बिना कुछ सोचे-समझे पीछे चलने वालों की बस एक फ़ौज चाहिए थी. 

संघ से जुड़ने के सभी के अपने-अपने कारण होते हैं. उस शाखा में लगभग सभी व्यापारी लोग थे. उनकी अपनी एक लाइफस्टाइल थी, खाने-पीने के शौक़ थे. इस मामले में संघ के नियमों को वहाँ कोई नहीं मानता था. वो लोग खुद ही कहते थे कि धंधे से ऊपर कुछ नहीं है. वो लोग देशप्रेम या अनुशासन जैसी बातों के लिए संघ से नहीं जुड़े थे. वो लोग संघ में इसीलिए थे क्योंकि वहाँ रहने से उन्हें सुरक्षा का अहसास होता था. देश के एक बड़े संगठन से जुड़े रहने से उन्हें उनका समाज और व्यापार दोनों सुरक्षित लगते थे. विचारधारा की समझ उन्हें इतनी थी कि जो अधिकतर लोग कह और कर रहे है, वही सही है.

संघ में काम करने वाले बहुजनों के बारें में विचार किया जाये, तो उनके अपने संगठन और राजनितिक पार्टियाँ शायद इतने क़ाबिल नहीं है कि कार्यकर्ताओं की महत्वाकांक्षाओं को पूरा कर सके. इस बात का फ़ायदा उठाकर संघ उन्हें अपनी तरफ आकर्षित करता है और ऐसा आभास-निर्माण करता है कि सबकी महत्वकांक्षाएँ पूरी हो रही है. इसीलिए बहुजन समाज का व्यक्ति अपनी विचारधारा का सौदा करके उनके साथ जुड़ जाता है. 

 

मैं संघ से क्यों जुड़ा? 

आज जब मैं इस बात पर सोचता हूँ तो मुझे याद आता है कि मैं कोई महत्वकांक्षा पूरी करने वहाँ नहीं गया था. अन्यथा मैं समझौते करते-करते अपनी कोई छोटी-मोटी महत्वकांक्षा पूरी कर भी लेता. संघ से जुड़ने के 7-8 महीने पहले से, जीतेन्द्र के साथ सिवनी जाने के समय से, मैं उस संगठन को देख रहा था और वहाँ ऐसा कुछ नहीं था जिसे देखकर मैं ख़ुशी-ख़ुशी उनसे जुड़ जाता. 

संघ से मेरे जुड़ने के मुझे दो कारण नज़र आते है. पहला कारण है विचारधारा की अस्पष्टता. उस समय तक मैं सामाजिक आंदोलन से पूरी तरह अलिप्त था. अपनी विचारधारा पूरी तरह समझ नहीं पाया था इसीलिए दूसरी विचारधारा के साथ जाने में शायद कुछ गलत नहीं लगा. लेकिन दूसरी विचारधारा को आँखें मूँदकर स्वीकार भी नहीं किया, और सत्य जानने के बाद उसे ठोकर मार दी. दूसरा कारण था मेरी और धनंजय की दोस्ती. हम दोनों कई सालों से एक साथ थे. एक कोई काम करता था तो दूसरे को साथ ले ही लेता था. उस समय तक ऐसा ही था. इसीलिए उसके संघ से जुड़ने के कुछ महीनों बाद मैं भी जुड़ गया था.

पहले दिन वहां कुछ गिनेचुने लोग ही थे. मुझे इतना बताया गया की रोज सुबह 7-8 शाखा लगती है. दूसरे दिन वहां मेरी प्रदीप जी से मुलाक़ात हुई. उन्होंने मुझे जय भीम कहा. हम पहली बार मिल रहे थे लेकिन मुझे देखकर उन्हें ख़ुशी हुई. अपने समाज से एक और आदमी को वहां देखकर उन्हें लगा कि वो अकेले नहीं है. प्रदीप जी सरकारी नौकर थे और ठवरे नगर में रहते थे. वो शायद 4-5 साल से संघ से जुड़े थे और इस बात का उन्हें कोई दुःख नहीं था. 

शाखा में कुछ खेल खेले जाते थे, कुछ देर व्यायाम या योगा किया जाता था, रोज कम से कम एक गीत गाया जाता था, और फिर ‘एकात्मता मंत्र’ बोलकर आखिर में ध्वज की तरफ प्रणाम करते हुए ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे’ ये प्रार्थना गायी जाती थी. शाखा लगते समय ध्वज लगाने से लेकर शाखा समाप्ति पर ध्वज निकालने तक, क्या-क्या किया जायेगा इसका क्रम और तरीका तय था. उस शाखा के व्हाट्सएप्प ग्रुप में क़रीब 250 लोगों के नाम थे लेकिन शाखा में 10-12 लोगों से ज्यादा लोग नहीं रहते थे. रोज आने वाले 5-6 लोग थे और बाकी के लोग बदलते रहते थे. 

कुछ दिनों बाद मेरी मुलाक़ात परेश जी से हुई. वो ओड़िसा से थे और 5-6 साल पहले नागपूर में स्थायी हुए थे. मेरे घर के पास ही रहते थे. उनका अपना व्यवसाय था. उनका स्वभाव बहुत अच्छा था, अच्छे इंसान थे. हमेशा दूसरों की मदत करने को तैयार रहते थे. सधन परिवार से थे, लेकिन नम्र थे, किसी बात का कोई घमंड नहीं था. सेहत के प्रति सचेत रहते थे, हमेशा चुस्त और फुर्तीले दिखते थे. मेरी उनसे अच्छी बनती थी. 

एक दिन सुनील जी भी शाखा में आये. उन्हें पहले से पता चल गया था कि मैंने शाखा ज्वाइन कर ली है. उनके साथ सदर भाग के कार्यवाह भी थे. वो हफ्ते में एक-दो बार शाखा में आते थे, सबसे बात करते थे. हफ्ते दो-हफ्ते में महानगर प्रचारक भी वहाँ आते थे. ये लोग फिर एक-दो बार घर पर आये. उन्हें पता था कि मैं एससी समाज से हूँ और शाखा में नियमित आता हूँ.

दो महीने बाद, एक शाम भाग कार्यवाह और एक-दो लोग घर पर आये. उन्होंने बताया कि मुझे उस शाखा के ‘मुख्य शिक्षक’ का दायित्व दिया गया है. मुझे आश्चर्य हुआ कि इतने कम समय में ये कैसे तय हो गया. मैंने उनसे पूछा कि मुझे क्या करना होगा? उन्होंने बताया कि शाखा के आयोजन की जिम्मेदारी मुख्य शिक्षक की होती है. आसान शब्दों में ये ऐसा था कि एक घंटे की शाखा में सबकुछ क्रम से चलाने का काम मुख्य शिक्षक का होता है. मुख्य शिक्षक सीटी बजाये तो सबलोग अपना काम छोड़कर ध्वज के पास जमा हो जाते है. मुझे पता चला कि पिछले कई महीनों से उस शाखा में कोई मुख्य शिक्षक नहीं था. बाद में उसका कारण ये भी समझ में आया कि उन व्यवसायी लोगों की अनुशासन बताने वाले से कभी जमती नहीं थी. 

मेरे साथ भी वही हुआ. मैं नाम के लिए ही मुख्य शिक्षक था. मेरी बातों की वहां कोई कद्र नहीं थी. शाखा में सबकुछ सिंधी समाज के लोगों की मर्जी से ही होता था. वैसे भी शाखा का एक ही फॉर्मेट होता है जो मैंने पहले बताया है. इसके अलावा, साल भर जो अलग-अलग कार्यक्रम होते है, उसके दिशा-निर्देश तो ऊपर से ही आते है, जिन्हे ज्यों का त्यों मानना होता है. 

तीन महीने शाखा में बिताने के बाद और उनके व्हाट्सएप्प ग्रुप के मैसेज पढ़ने के बाद मुझे ये विश्वास होने लगा था कि मुसलमानों की बढ़ती आबादी इस देश के लिए चिंता का विषय है. ये भी की आईएसआईएस नामक मुसलमानों का संगठन किसी भी समय इस देश पर आक्रमण कर सकता है. ये भी कि मुसलमानों से दोस्ती रखने वाला कभी देशभक्त नहीं हो सकता. यह बदलाव अपने आप कैसे आता है ये एकदम से समझना मुश्किल है. मामूली से दिखने वाले कई छोटे-छोटे कार्यक्रम आपके विचारों में ये बदलाव लाते है. तमाशा देखने वालों को क्या लुभाएगा ये परखकर ही मदारी अपने बंदर को नचाता है.

खेल और व्यायाम करते समय राम, कृष्ण, महादेव, हनुमान जैसे हिन्दू देवताओं के नाम लिए जाते थे. उनके गीतों में देवी-देवताओं के नाम आते थे. शाखा में कुछ लोग आते ही ‘जय श्री राम’ का नारा लगाते थे. काल्पनिक देवी-देवताओं के अधीन हो जाना मुझे मूर्खता की निशानी लगती थी. मैं ऐसे शब्द नहीं बोल पाता था. लेकिन मुझे ये अहसास भी होता था कि मैं गलत सांचे में फिट होने की कोशिश कर रहा हूँ.

कुछ वरिष्ठ अधिकारी लेकिन मुझपर नज़र रखे हुए थे. उन्हें पता था मुझे पढ़ने-लिखने में दिलचस्पी है. रेशिमबाग कार्यालय में सुबह-सुबह होने वाले बौद्धिक, और समय-समय पर होने वाले कार्यकर्त्ता वर्गों के लिए मुझे बुलाया जाता था. ऐसे कार्यक्रमों में सिर्फ सुनना होता था, कोई कुछ बोल या पूछ नहीं सकता था. एक दिन, राष्ट्रिय कार्यवाह का बौद्धिक भाषण था. वो लगभग डेढ़ घंटा बोले, मराठी में. हमारी शाखा से बहुत लोग वहाँ गए थे. कार्यक्रम ख़त्म होने पर मैंने अपनी शाखा से आये कुछ सिंधी साथियों से पूछा कि भाषण कैसा लगा? वो कहने लगे कि बहुत अच्छा था, बस हिंदी में बोलते तो समझ में भी आ जाता. 

‘मैं अनुसूचित जाति से हूँ’ ये जानने के बाद मुझे समरसता के कार्यक्रमों से जोड़ने की कोशिश भी की गयी. एक अधिकारी ने मुझे रमेश पतंगे लिखित ‘मैं, मनु और संघ’ यह किताब पढ़ने का सुझाव दिया. इस किताब में बहुजन समाज के युवकों के मन में संघ के प्रति उठने वाली शंकाओं को चतुराई से निरस्त करने की कोशिश की गयी है, और ये भ्रम पैदा करने की कोशिश की गयी है कि कैसे संघ बहुत ईमानदारी से बहुजनों के हित में काम करता है. 

अप्रैल 2016 में, बाबासाहेब की 125वीं जयंती के उपलक्ष में, आरएसएस ने उसके मुखपत्र ‘पांचजन्य’ के माध्यम से ऐसा ही एक भ्रम पैदा करने की कोशिश की. उस महीने का मासिकपत्र उनके कहने के अनुसार बाबासाहेब को समर्पित था. सभी लेख बाबासाहेब से संबंधित थे. हालाँकि, जिसने बाबासाहेब की लिखी किताबें पढ़ी है, वो समझ सकते थे कि वो लेख कैसे आधे-अधूरे और तोड़-मोड़कर पेश किये गए थे. उस अंक की हजारों कॉपियाँ उस समय बहुजनों में वितरित की गयी थीं और उसके बाद, बहुजन समाज के कुछ लोग भ्रमित होकर निश्चित रूप से संघ से जुड़ गए थे.  

संघ से बाहर निकलने के बाद, जब मैं अपनी विचारधारा का अभ्यास करने लगा तब समझने लगा कि ‘समरसता’ का कार्यक्रम दरअसल संघ की एक गहरी साज़िश है जिसके तहत वो बहुजन आंदोलन को निगल लेना चाहता है. यह लड़ाई बहुजनों को आगे करके बहुजनों के ख़िलाफ़ लड़ी जा रही है. और आँखों पर अज्ञान और भक्ति की पट्टी बंधी होने से, बहुजन समाज का स्वयंसेवक ये नहीं समझ पाता कि वो उसकी आनेवाली पीढ़ियों की कब्र अपने हाथों से खोद रहा है.

रेशिमबाग के कार्यालय में साहित्य की एक दूकान है जहाँ संघ का यूनिफार्म, लाठी, तस्वीरें और किताबें बेंची जाती है. वहाँ बहुजन महापुरुषों के जीवन पर आधारित बहुत सारी छोटी-छोटी किताबें पांच-पांच रुपये में बेचीं जाती है. इन किताबों में सच को तोड़-मरोड़कर बताया जाता है. मनगढ़त कहानियाँ लिखी गईं हैं. 

संघ के कार्यकर्ताओं को बस्ती-बस्ती में होने वाले बहुजन महापुरुषों के जयंती के कार्यक्रमों में हिस्सा लेने के लिए तैयार किया जाता है. ये लोग वहाँ जाकर अपने भाषणों में उन महापुरुषों के इतिहास से खिलवाड़ करके आते है. बुद्ध को विष्णु का अवतार बताया जाता था. आंबेडकर जयंती पर बाबासाहेब को हिन्दू धर्म के हितचिंतक और सुधारक के रूप में पेश किया जाता था. एक बार जरीपटका के कुकरेजा नगर में शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक दिवस का कार्यक्रम हुआ. वहाँ आये हुए वक्ता ने अपने भाषण में एक ऐसे शिवाजी प्रस्तुत किये, जो मानो सोते-जागते सिर्फ मुसलमानों का खून पीने का सपना देखते थे.

ये सब मुझे पसंद नहीं आ रहा था. क्योंकि पूरा भले ही नहीं लेकिन थोड़ा सच तो मैंने भी पढ़ा था. इसीलिए इसके बाद जब भी कुछ बताया जाता था, मैं उसे यहाँ-वहाँ से पढ़कर उसकी सच्चाई जानने की कोशिश करता था, और सच और झूठ का फर्क जानने लगता था. ये काम बाकी लोग नहीं करते थे. किताबें खोलकर देखने की या इंटरनेट पर रिसर्च करने की ज़हमत कोई नहीं उठाना चाहता था इसीलिए जो बताया जाता था उस पर सब विश्वास कर लेते थे, और उसी को सच मान लेते थे. लेकिन अब मेरा वहाँ दम घुटने लगा था.

एक दिन, डॉ वसंतराव देशपांडे सभागृह में, एक बैंक के वार्षिक उत्सव का कार्यक्रम मनाया गया. संघ के सर्वोच्च अधिकारी समरसता पर बोलने वाले थे. मुझे कई लोगों ने याद दिलाया कि उन्हें सुनना ही है. मैं वहाँ गया. पूरा हॉल सुनने वालों से भरा हुआ था. वो अधिकारी एक घंटा बोले. बार-बार तालियाँ बज रही थी. लेकिन उस हॉल में अगर कोई निष्पक्ष भाव से बैठकर सुन रहा होता, जैसा कि मैं कर रहा था, तो वो ये समझ जाता कि समरसता की नौटंकी भी कितने आधे मन से की जा रही है. उनका एक वाक्य मुझे आज भी याद है – “संघ का काम बढ़ाना है तो तुम्हें दलितों के घर जाना पड़ेगा. उनका दिया हुआ अन्न खाना पड़ेगा…. भले ही वो गले से उतरे या ना उतरे” (इस पर पुरे हॉल से ठहाके लगाने की आवाजें आईं). 

एक दिन, बच्चों के लिए बाल-शिविर का आयोजन किया गया था. उसकी व्यवस्था देखने वाली टीम में मैं भी था. शिविर शुरू होने पर, सदर भाग के सह-कार्यवाह ने बच्चों को बहुत सारी बातें बतायी. और आखिर में कहा कि- “क्या, क्यों, कैसे, ये कभी नहीं पूछना. सवाल करने से अनुशासन टूटता है”. ये बहुत भयानक था. मेरा मानना था कि बच्चों को सवाल करने से रोकना मतलब उनके दिमाग़ के विकास को रोकना. 

ऐसी कुछ घटनाओं के बाद मैं गंभीरता से सोचने लगा था कि मैं क्या कर रहा हूँ? संघ से अलग होने का फैसला मैंने किसी विशिष्ट घटना की वजह से नहीं लिया था. मुझे तो शुरू से ही संघ और उसके तौर-तरीकों को अपनाने में परेशानी हो रही थी. विचारधारा की स्पष्टता भले ही ना हो लेकिन जीवन को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखने की आदत थी. भगवान, आत्मा, पुनर्जन्म जैसे पाखंड पर पहले से ही विश्वास नहीं था. लेकिन इन्हीं काल्पनिक बातों का इस्तेमाल करके इंसान को इंसान से लड़ाने की जो कोशिश की जा रही थी, वो मुझे अस्वस्थ कर रही थी. मैं उस षड्यंत्र का हिस्सा नहीं बनना चाहता था.

मुझे पता था कि मैं अपने बच्चों को कुछ और दे पाऊँ या नहीं, लेकिन शिक्षा ज़रूर दूँगा. और शिक्षित होने के बाद जब मेरे बच्चे मुझसे ये सवाल करेंगे कि ऐसी क्या मज़बूरी थी जो मैंने ऐसे संगठन के लिए काम किया, तो मेरे पास शर्म से डूब मरने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचेगा. मैंने फैसला कर लिया कि मैं संघ के साथ काम नहीं कर सकता. और फिर मैं वहाँ से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढने लगा.

कुछ दिनों से मैं फिल्म की एक स्क्रिप्ट पर काम कर रहा था. मुझे लग रहा था की दो-चार लोगों को साथ लेकर और कुछ पैसा खड़ा करके कम खर्चे में एक फिल्म बनाई जाए. जुलाई 2015 में, मैंने यही बात शाखा में बतायी. मैंने कहा कि मैं फिल्म का काम शुरू कर रहा हूँ और इसी वजह से मुझे समय नहीं मिल पायेगा. उन्होंने कहा कि रोज नहीं तो कभी-कभी आते रहो. उसके बाद मैंने शाखा में जाना बंद कर दिया. 

वो लोग कभी-कभी शाखा ख़त्म करके घर पर आ जाया करते थे. तब मैंने उन्हें साफ़ कह दिया कि फिल्म का काम पूरा होने तक मैं नहीं आ पाऊंगा. उसके बाद, लगभग 6 महीने तक, अगर कोई कार्यक्रम होता तो कोई ना कोई घर पर आकर मुझे उसकी जानकारी देकर जाता था. मैं किसी भी कार्यक्रम में नहीं गया. जनवरी 2016 में, एक बार प्रदीप जी घर पर आये और शाखा में ना आने का कारण पूछने लगे. उस दिन मैंने उनसे बहस कर ली. मैंने उनसे पूछा कि बाबासाहेब के समाज से होकर भी वो ऐसे किसी संगठन के साथ कैसे काम कर सकते है जो बाबासाहेब की विचारों को मिटाने के लिए काम करता है? प्रदीप जी ने पहले मुझे समझने की कोशिश की. उनके अपने बेतुके से विचार थे. लेकिन जब मैंने अपनी बात सही तरीके से रखी, उनकी बोलती बंद हो गयी. उस दिन के बाद प्रदीप जी कभी नहीं आये. उसके बाद किसी कार्यक्रम का आमंत्रण भी नहीं आया.

चूँकि परेश जी मेरे घर के पास ही रहते थे, वो कभी-कभी रास्ते में टकरा जाते थे. लेकिन वो समझ गए थे कि मुझे संघ के साथ काम नहीं करना है. इसीलिए उन्होंने कभी मुझे ये नहीं पूछा कि मैंने आना क्यों बंद कर दिया. वो मिलते थे, अच्छे से बात करते थे और आगे बढ़ जाते थे. मैं कई बार परेश जी के बारे में सोचता था. वो ओबीसी समाज से थे, पढ़े-लिखे थे, समझदार थे. लेकिन जिस ईमानदारी से वो संघ के लिए काम किया करते थे, वो देखकर मुझे लगता था कि क्या उन्हें कभी ये ख़्याल नहीं आता होगा कि सही क्या है और गलत क्या? क्या वो अपने बच्चों के भविष्य के प्रति निश्चिन्त थे? 

लेकिन फिर बात अकेले परेश जी की नहीं थी. संघ में ऊपर के पदों पर रहने वाले ब्राह्मण समाज के लोगों को अगर छोड़ दिया जाये, तो बाकी काम करने वाली पूरी सेना ही ओबीसी और कुछ हद तक एससी-एसटी समाज के बहुजन लोगों से भरी पड़ी थी. इन कार्यकर्ताओं ने कभी अपना इतिहास जानने की कोशिश नहीं की थी. उन्हें अपने पूर्वजों का गौरवशाली अतीत नहीं पता था. तथाकथित पंडितों की ग़ुलामी को अपना भाग्य समझने वाले इन लोगों को ये नहीं पता था कि असल में इस देश के राजा वो खुद है. और उनकी यही अज्ञानता संघ की असली ताक़त थी. इस अज्ञानता का पालन-पोषण करने के लिए संघ के पास हजारों प्रचारक और सैकड़ों कार्यक्रम थे. 

घरवापसी

2015 के शुरू में, एक स्कूल के 30 बच्चों को लेकर ‘बचाते रहो’ यह हिंदी नाटक किया. नाटक की काल्पनिक कहानी ऐसी थी कि टाइम-मशीन की सहायता से कुछ लोग 2015 से 2050 में सफर करते है और वहाँ पहुँचकर देखते है कि धरती पर पानी ख़त्म हो चूका है. धरती की आधे से ज़्यादा जनसंख्या भी लड़ाई में ख़त्म हो चुकी है. बच्चों के साथ ये नाटक करने में मज़ा आया. 

इस नाटक के प्रमोशन के सिलसिले में मैं एक दिन मंगेश से मिला. मंगेश एक एफएम रेडियो में काम करते थे. मंगेश को मैं काफ़ी सालों से सुन रहा था. हम दोनों को पहली बार धर्मा ने मिलाया था. धर्मा अब रियल इस्टेट में अच्छा काम कर रहा था. मैं मंगेश से उनके सदर ऑफिस में मिला. मंगेश ने ख़ुशी से मदद करने की बात कही और एक दिन उन्होंने स्कूल में आकर नाटक की रिहर्सल को रेडियो पर लाइव कर दिया. नाटक का मंचन डॉ वसंतराव देशपांडे सभागृह में हुआ. 

उसके बाद, एक दिन अख़बार में ख़बर पढ़ी की 2016 में बाबासाहेब की 125वीं जयंती के उपलक्ष में कई जगहों पर कार्यक्रम आयोजित किये जाने है. मुझे लगा इस अवसर पर कोई काम करना चाहिए. ये वो समय था जब मैं संघ के चरित्र को समझने लगा था. मैंने अपना समय एक फिल्म की स्क्रिप्ट लिखने में लगाया और डेढ़-दो महीने में उसे पूरा किया. बाद में, इसी फिल्म का बहाना करके मैं संघ से अलग हो गया था. 

अगस्त 2015 में, मैंने ‘विथ एंड विथाउट वाटर’ नाम से एक छोटी सी फिल्म बनायीं. उसकी कहानी ये थी कि महानगर में रहने वाला एक एक्टर शूटिंग के लिए ग्रामीण इलाके में जा रहा है. उसका एक्सीडेंट हो जाता है और मदद के लिए वो एक सूखा-पीड़ित गाँव में आ पहुँचता है. लेकिन समय पर पानी भी नहीं मिलने की वजह से उसकी मौत हो जाती है.  

सितम्बर 2015 से, मैं फीचर फिल्म की फंडिंग के लिए घुमने लगा. बहुत लोगों ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई तो कुछ लोग हाँ कहकर भी मुकर गए. 

शाखा में जाना बंद करने के बाद मैं बहुत हल्का महसूस करने लगा था. अपनी गलतियों को मैं खुद ही सुधार सकता हूँ, ये जानकार मेरा आत्मविश्वास बढ़ गया था. मैं ये भी महसूस कर रहा था जैसे पिछले एक साल में मैं व्यक्ति के तौर पर मैला हो गया हूँ और मुझे अब तुरंत खुद को साफ़ और स्वच्छ करना है. मन में इतना तय कर लिया था कि मैं सत्य के साथ रहूँगा, भले ही वो आज कितना भी कमज़ोर क्यों ना दिख रहा हो, और झूठ से दूर रहूँगा भले ही वो कितना ही ताक़तवर क्यों ना नज़र आता हो. 

अक्टूबर 2015 में, एक नई पार्टी बनी. नागपुर में उसका पहला कार्यक्रम अजिंठा हॉल में था. मैं वहां ये देखने गया था कि एक नयी पार्टी, समाज को क्या देने की सोच रही है. लेकिन शाम 5 बजे का कार्यक्रम 7:30 बजे शुरू हुआ. मंच पर लगभग 50-60 लोग थे. जब तक कार्यक्रम शुरू होता, लोग वहां से जाने लगे थे. वहाँ भाषणों में लोग नए संगठन या पार्टी के महत्व की बात कर रह थे. लेकिन तरीके पुराने ही लग रहे थे. मैं समझ गया की यहाँ नया सिर्फ नाम है.

उसके बाद, दीक्षाभूमि और अन्य जगहों पर होने वाले कार्यक्रमों में मैं नियमित रूप से उपस्थित रहने लगा. मैं अलग-अलग वक्ताओं को सुनता रहा. मेरे विचार बदल रहे थे. उसी दौरान, मैंने फिर से बाबासाहेब की जीवनी पढ़ी, महात्मा फुले द्वारा लिखित ‘ग़ुलामगिरी’ और कॉ गोविन्द पानसरे की ‘शिवाजी कोण होता’ ये किताबें पढ़ी. विचारधारा में धीरे-धीरे स्पष्टता आने लगी थी.

2016 में, एक पार्टी के 60 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष में नागपुर में एक कार्यक्रम हुआ. इस कार्यक्रम में इस बात पर जोर दिया गया कि बाबासाहेब ने शुरू किये हुए संगठन और पार्टी ही सबसे उचित है, और हमने उसी को बढ़ा करने में पूरी ताक़त लगा देनी चाहिए. इस कार्यक्रम के आयोजकों में 2-3 लोग ऐसे थे जिन्होंने कई बार मुझे दयानंद पार्क की शाखा में देखा था. वो मुझे बहुत घृणा की नजर से देख रहे थे. उन्हें लग रहा था जैसे मैं संघ की तरफ से वहां जासूसी करने आया हूँ. उन्हें ऐसा लगना स्वाभाविक था.

2016 में, मैंने ‘रूममेट्स’ फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी. स्क्रिप्ट लिखते-लिखते मैंने लोगों को जोड़ना शुरू किया. हमारे पास पैसे नहीं थे. यहाँ-वहाँ से जोड़कर जितना पैसा खड़ा हुआ था, उसमें हमें शूटिंग ख़त्म करनी थी. 

इसी बीच, एक दिन अक्षय घर पर आये. उन्होंने मुझे केरल में स्वयंसेवकों पर हो रहे तथाकथित हमलों के निषेध में एक लेख लिखने के लिए कहा जिसे तरुणभारत में छापा जा सकता था. लेकिन मैंने समय के अभाव का बहाना कर दिया. उन्होंने बताया कि समरसता को लेकर कोई काम शुरू होने वाला है और उसके लिए नागपूर से मेरा नाम तय हुआ है. मैंने उन्हें बताया कि मेरे फिल्म का काम शुरू हो रहा है और मेरे पास बिलकुल समय नहीं है. 

2016 के नवम्बर-दिसंबर में हमने ‘रूममेट्स’ की शूटिंग की. नवंबर के तीसरे हफ्ते में, जब फिल्म की शूटिंग शुरू थी, तब एक दिन अक्षय का फोन आया. उन्होंने कहा कि आधे घंटे में रेशिमबाग कार्यालय आ जाओ, किसी बड़े अधिकारी से मिलाना है. मैंने कहा कि शूटिंग शुरू है और मेरा आना नामुमकिन है. उन्होंने कहाँ की थोड़े समय के लिए आ जाओ. मैं परेशान हो गया था. मुझे नहीं जाना था. और शूटिंग छोड़कर जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता था, क्योंकि सारा शेड्यूल पहले से बना होता है. मेरी धनंजय से बात हुई. मैंने उसे चिड़कर कहा कि जब मैं इन लोगों के साथ काम नहीं करना चाहता, फिर भी ये लोग क्यों मेरे पीछे पड़े है? धनंजय ने कहा कि एक बार मिलकर आ जा. काम नहीं करना है तो वैसे बाद में बता देना.  

कुछ सोचकर मैं वहां गया. अक्षय ने मुझे ऊपर पहले माले पर बुलाया. उन्होंने बताया कि वो मुझे राष्ट्रिय कार्यकारिणी के अधिकारी से मिलाना चाहते है. मैंने पूछा कि ये किस सिलसिले में है? इसका उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. उन्होंने मुझे बगल वाले कमरे में दस मिनट रुकने को कहा. कुछ देर बाद अक्षय ने मुझे बुलाया और एक कमरे में लेकर गए. वहाँ वो अधिकारी बैठे हुए थे. मैं उनसे पहली बार मिल रहा था. उन्होंने मुझसे मराठी में बात की. पहले तो हालचाल पूछा और फिर आजकल क्या चल रहा है, ये पूछा. मैंने बताया कि एक फिल्म की शूटिंग कर रहा हूँ. उन्होंने उसकी कहानी जाननी चाही. मैं उन्हें संक्षिप्त में ‘रूममेट्स’ की कहानी बताने लगा. उन्होंने मुझे आधे में ही रोक लिया और कहा की उन्हें ऐसा सुनने में आया था कि मैं बाबासाहेब के विचारों पर कोई फिल्म कर रहा हूँ. मैं कुछ पल चुप रहा. मैंने उन्हें बताया कि वो फिल्म मैंने फ़िलहाल रोक दी है. उन्होंने कारण पूछा तो मैंने बताया कि मैं कहानी पर और काम करना चाहता हूँ और उस फिल्म का बजट भी ज्यादा है. उन्होंने फिर फिल्म का बजट पूछा. मैंने कहा कि चार करोड़ का खर्चा रहेगा. उन्होंने कहा कि मुझे वो फिल्म करनी चाहिए. उन्होंने कहा कि मुझे सारी मदद मिल जाएगी. मैंने उन्हें बताया कि फ़िलहाल मैं ‘रूममेट्स’ का काम ख़त्म करना चाहता हूँ, और उसके लिए किसी मदद की ज़रूरत नहीं है. मेरा जवाब शायद उन्हें पसंद नहीं आया. उन्होंने फिर अक्षय की तरफ देखा. अक्षय पूरा समय उनके पास खड़े थे. अक्षय ने फिर मुझे इशारे से बताया कि, हो गया. मैं सोफे से उठा और अक्षय के साथ बाहर आया. हमारी मीटिंग से अक्षय भी कुछ निराश लग रहे थे. मैंने उनसे पूछा कि मुझे किस लिए बुलाया गया था. उन्होंने कहा, कुछ नहीं बस ऐसे ही, मिलाना था.

उस मीटिंग के बारे में मेरा अनुमान ये था कि मुझे किसी काम से जोड़ने का विचार चल रहा था और इसीलिए वो अधिकारी मुझसे मिलकर मुझे परखना चाहते थे. लेकिन पूरी मीटिंग में मैंने मेरी तरफ से जो फासला बनाकर रखा था, उससे उन्हें ये साफ़ हो गया था कि मैं बिलकुल भी इच्छुक नहीं हूँ. मुझे ऐसा लगा कि मैं अपने इरादे उन दोनों को साफ़-साफ़ बताकर आया था. 

उस रात धनंजय का फिर फोन आया. उसने पूछा कि मीटिंग में क्या हुआ. मैंने उसे सब बताया और ये भी कहा की इसके बाद मैं किसी के भी बुलाने पर वहाँ नहीं जाऊँगा. मैंने उससे कहा की हो सके तो मेरी ये बात उन लोगों तक पहुंचा दे. ये सुनकर धनंजय नाराज़ हो गया था.

जनवरी 2017 से ‘रूममेट्स’ का पोस्ट-प्रोडक्शन शुरू हुआ. मुंबई आना-जाना होने लगा. इस दौरान, मैं नागपूर में ऐसे लोगों के संपर्क में आया जो फिल्म और थिएटर से जुड़े थे. ऐसे भी बहुजन कलाकार देखे जिन्होंने गौतम बुद्ध और बाबासाहेब के जीवन पर नाटक बनाकर इतना कमाया कि उस भरोसे उन्होंने अपने घर और गाड़ियां खरीद ली. लेकिन अब वही लोग राम और कृष्ण बना रहे थे. ऐसे लोगों से जब मैं सवाल करता हूँ, तो जवाब में सुनने को मिलता है कि- कलाकार की कोई जात नहीं होती. फिर मैं सोचता हूँ कि जब मुझे अपनी विचारधारा समझने में इतना समय लगा, तो ये लोग तो अभी कोसो दूर है. 

मई 2017 में मैंने एक एजेंसी का काम शुरू करने का सोचा. उसी सिलसिले में फिर एक बार मंगेश से मुलाक़ात हुई. मंगेश अब एक नए एफएम रेडियो में काम कर रहे थे. उस दिन दोनों में बहुत सारी बातचीत हुई. बातों-बातों में एक फिल्म फेस्टिवल आयोजित करने का विचार आया. ठीक दो महीने बाद, जुलाई 2017 में, हमने एक इंटरनॅशनल शॉर्टफिल्म फेस्टिवल आयोजित किया. फेस्टिवल के पहले हमने एक प्रेस कॉन्फरेंस की थी और सभी अख़बारों ने फेस्टिवल के आयोजन के बारे में छापा था. शायद वही ख़बर पढ़कर एक दिन अक्षय ने मुझे फ़ोन किया. उन्होंने कहा कि संघ के कुछ लोगों को फेस्टिवल के उद्घाटन के लिए बुलाओ. मैंने उन्हें बताया कि ये नहीं हो पायेगा. उसके बावजूद उन्होंने उस दिन दो-तीन लोगों के नंबर भेजे और उन्हें आमंत्रित करने को कहा. मैंने किसी को फोन नहीं किया,और ना ही किसी को बुलाया.

फेस्टिवल के कुछ महीनों बाद, फिल्म और नाटक से संबंधित कुछ लोगों ने मुझे एक मीटिंग के लिए बुलाया. उस मीटिंग में सब बहुजन लोग थे. उन्होंने बताया कि आंबेडकरी नाट्य सम्मलेन आयोजित करने का विचार है, और मैं भी उनके साथ रहूँ ऐसी उनकी इच्छा है. ये जानकार मुझे ख़ुशी हुई. लेकिन मीटिंग जब आगे बढ़ी और सम्मलेन को लगने वाले पैसों की बात आयी, तब वहां इस पर विचार होने लगा कि भाजपा के किसी नेता से पैसे लेकर उसे कार्यक्रम का अध्यक्ष बनाया जाये. मैंने उन्हें बता दिया कि मैं ऐसे कार्यक्रम से नहीं जुड़ सकता. उन्होंने बताया कि पैसा खड़ा करने का और कोई रास्ता नहीं है. मेरी समझ में ये नहीं आ रहा था कि सम्मलेन आयोजित करना है इसीलिए ये लोग विरोधियों के सामने नतमस्तक होने जा रहे है, या उनके पैरों में गिरने का बहाना चाहिए इसीलिए सम्मलेन आयोजित कर रहे है. पता नहीं क्यों, लेकिन वो सम्मलेन नहीं हो पाया. 

हमारे फिल्म फेस्टिवल के समय मेरी रितेश से पहचान हुई. रितेश लगातार थिएटर में कुछ नया करने की कोशिश कर रहे थे. क्रांतिकारी लेखकों की कहानियों का नाट्यरूपांतरण करके वो बहुत ख़ूबी से उसे मंच पर पेश करते थे. मैंने उनके दो-तीन नाटक देखे और मैं बहुत प्रभावित हुआ. उनके नाटकों में ग़रीबों की, मजदूरों की, महिलाओं की, अल्पसंख्यकों की बात होती थी.

रितेश के नाटक देखकर मुझे एहसास हुआ कि रंगमंच के लिए मैंने बहुत समय से कुछ नहीं लिखा है. मैंने लिखना शुरू किया. अप्रैल 2018 में, वो नया नाटक लेकर मैं रितेश के पास गया और उनसे कहा कि मुझे ख़ुशी होगी अगर इसका निर्देशन वो करें. उस समय रितेश के नाटकों के दूसरे शहरों में दौरे थे. दौरे पर जाते समय, रितेश नाटक की स्क्रिप्ट तो लेकर गए लेकिन उसे पढ़ नहीं पाए. लगभग एक महीने बाद, उन्होंने मुझे बुलाया और कहा कि कुछ कलाकारों से उस नाटक की रीडिंग करवाते है. उनके ग्रुप के कुछ कलाकारों ने नाटक पढ़ा और उसके बाद रितेश ने कहा कि वो नाटक का निर्देशन करेंगे. जुलाई 2018  में ‘मसीहा’ का पहला शो नागपूर में हुआ. दर्शकों ने उसे खूब सराहा. अक्टूबर 2018 में, पटना में आयोजित इप्टा के नॅशनल प्लैटिनम जुबली फेस्टिवल में ‘मसीहा’ को आमंत्रित किया गया. 

साल 2017 में, धनंजय चंडीगढ़ शिफ्ट हो गया. वो पूरी ईमानदारी से संघ का काम कर रहा था. उनके विचारों का समर्थन और प्रचार-प्रसार कर रहा था. उसने उसका रास्ता चुन लिया था और उस पर चलते हुए अब वो बहुत आगे निकल गया था. मैं भी उसी रास्ते पर चल पड़ा था. लेकिन अपनी गलती का एहसास होते ही मैं मुड़ गया और अपना रास्ता बदल दिया. हम दोनों जितना विरुद्ध दिशा में जा रहे थे, उतना ही हम दोनों में तनाव बढ़ने लगा था. अब मिलना भी कम होने लगा, बातें भी कम होने लगी. बात होती भी थी तो बहस हो जाती, हम झगड़ने लगते थे. अब हम वो दोस्त नहीं रहे थे जैसे हम 2014 तक थे.

लेकिन मैं अपने लिए खुश हूँ. मुझे इस बात का अहसास है कि मैं अपने समाज के हितों के विरुद्ध कोई काम नहीं कर रहा हूँ. आज मैं किसी संगठन से जुड़ा नहीं हूँ. लेकिन बहुजन समाज के अलग-अलग कार्यक्रमों में उपस्थित रहकर वक्ताओं को सुनते रहता हूँ. किताबें पढ़कर अपनी विचारधारा को समझने की कोशिश कर रहा हूँ. संत तुकाराम, छत्रपति शिवाजी महाराज, छत्रपति संभाजी महाराज, महात्मा जोतिबा फुले, सावित्रीमाई फुले, छत्रपति शाहू महाराज, गाडगे महाराज, पेरियार रामासामी, डॉ बाबासाहेब आंबेडकर और तुकडोजी महाराज जैसे बहुजन महापुरुषों ने समाज के उद्धार में जो योगदान दिया है; उसे पढ़ने में, समझने में, और आचरण में लाने में एक पूरा जीवन लग जाता है. मेरी कोशिश जारी है.

 

मैं एक बहुजनवादी हूँ

इस कहानी के माध्यम से मुझे यही बताना था कि लगभग एक वर्ष का समय मैंने आरएसएस के साथ बिताया है लेकिन उस संगठन से आज मेरा कोई संबंध नहीं है. संघ से जुड़ना मेरी सबसे बड़ी भूल थी, और उस गलती के लिए मैं शर्मिंदा हूँ. उस संगठन से दूर होकर मुझे आज लगभग चार साल का समय हो चुका है. आज मैं एक बहुजन समाज का व्यक्ति हूँ जो सिर्फ फुले-शाहू-आंबेडकर की विचारधारा को मानता है. इसीलिए आज अगर कोई मुझे ‘आरएसएस का आदमी’ समझता है तो मुझे पीड़ा होती है. ऐसा लगता है जैसे कोई मुझे गाली दे रहा हो. 

अपनी गलती सुधारने का जो काम मैंने किया उसे मैं कोई पराक्रम नहीं समझता. अगर कोई व्यक्ति सच्चे और अच्छे रास्ते पर चलने का फैसला करता है, तो वो किसी दूसरे व्यक्ति पर कोई अहसान नहीं करता. लेकिन उसका फैसला समाज के हित में ज़रूर होता है. क्योंकि सच का दामन थामे ज़्यादा से ज़्यादा बहुजन लोग जब नेक रास्ते पर चलने लगेंगे, तब एक ऐसा समाज निर्माण होगा जहाँ समता, बंधुता और न्याय के मूल्यों की स्थापना होगी. जय भीम.

(यह कहानी बताने का उद्देश्य किसी की व्यक्तिगत छवि को सुधारना या बिगाड़ना नहीं है. इसीलिए व्यक्तियों के नाम या तो बदले गए है या ज़ाहिर नहीं किये गए है)

आपकी प्रतिक्रिया और विचारों का स्वागत है.

~~~

 

शैलेश नरवाडे का जन्म 1976 में नागपुर में हुआ। जनवरी 2000 में उन्होंने नागपुर में ‘द हितवाद’ नामक अंग्रेजी दैनिक अख़बार में काम करना शुरू किया। नवंबर 2005 में शैलेश मुंबई गए और द फ्री प्रेस जर्नल, रिलायंस कम्युनिकेशन्स, और सीएनबीसी-टीवी18 जैसी मीडिया कंपनियों में काम किया। 2012 से वो स्वतंत्र लेखक के तौर पर काम कर रहे है। शैलेश ने 1998 से रंगमंच के क्षेत्र में बतौर लेखक-निर्देशक काम करना शुरू किया। उन्होंने पांच हिंदी नाटकों का लेखन किया है। उन्होंने दो हिंदी शॉर्टफिल्म और ‘रूममेट्स’ नामक मराठी फीचर फिल्म का लेखन और निर्देशन किया है। वो फिल्म राइटर्स एसोसिएशन मुंबई के सदस्य भी है। उनसे इस sbnarwade@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

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3 thoughts on “एक बहुजन की घरवापसी आर.एस.एस के खेमे से (एक लघु आत्मकथा)

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