ललित कुमार
एक तरफ तो प्रधान मंत्री और देश की सरकारें खुदरा भारतीय बाजार में १०० प्रतिशत तक पूंजी निवेश का समर्थन करते है, विदेशी निवेशकों को लुभाने के लिए भारतीय प्रधान मंत्री देश का पैसा खर्च करके विदेश जाते हैं और दूसरी तरफ स्वामी राम देव की कंपनी विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने का आग्रह करती है, ये कहकर कि इस से देश का पैसा विदेश में नहीं जायेगा और इस से आर्थिक आज़ादी आएगी. इसका मतलब क्या पतंजली या स्वामी रामदेव के नजरिये से देश की सरकार, विदेशी निवेश को बढ़ावा देकर और विदेशी कंपनियों को आमंत्रित करके देश को आर्थिक रूप से गुलाम बनाने की राह पर ले जा रही है.
पिछले दिनों पतंजली आयुर्वेद का एक विज्ञापन कैंपेन देखा और इस कैंपेन के द्वारा कोई और नहीं कंपनी के मालिक श्री रामदेव जिन्हें लोग स्वामी रामदेव के नाम से भी जानते हैं, खुद दर्शकों से कह रहे है कि वर्षों पहले जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी ने हमें गुलाम बनाया था वैसे ही आज विदेशी कंपनियां अपने बने सामान हमारे यहां बेच कर हमारी मेहनत की कमाई को विदेश ले जाती हैं और हमें आर्थिक रूप से गुलाम बनाना चाहती हैं. रामदेव आगे सभी देशवासियों से उनकी देशभक्ति की भावना को याद दिलाते हुए ये आग्रह करते हैं कि आइये इस स्वतंत्रता दिवस पर हम ये शपथ लें कि अब से हम विदेशी कंपनियों का बना सामान नहीं खरीदेंगे. स्वतंत्रता दिवस, देशभक्ति, देशी बनाम विदेशी और स्वामी रामदेव से जुड़ने के कारण इस एक विज्ञापन से कितना गलत और भ्रामक सन्देश जा रहा है ये गहराई से सोचने की ज़रुरत है.
सबसे पहले तो ये कैंपेन भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग के गठन के उद्देश्यों की ही धज्जियाँ उड़ाता है. क्योंकि आमतौर पर देशभक्ति की भावना सबसे ऊंची होती है और अगर कोई कंपनी इस भावना का फायदा उठा के अपने उत्पाद बेचना चाहती है तो जो कम्पनियाँ इस भावना के साथ नहीं जुड़ सकतीं उनके साथ उसी मार्किट में स्वतंत्र प्रतियोगिता में रहना कभी भी निष्पक्ष नहीं ठहराया जा सकता. क्योंकि आज भी भारत वर्ष की ज्यादातर आबादी देश की स्वतंत्रता और स्वाभिमान के समक्ष अन्य विषयों को गौण ही समझती है और एक निष्पक्ष निर्णय ले पाने में असमर्थ हो जाती है. इस हालात में विदेशी मूल की भारतीय कंपनियों के साथ तो भेदभाव होता ही है साथ ही उपभोक्ताओं को भी एक स्वतंत्र बाजार में जो फायदा हो सकता है उस से हाथ धोना पड़ सकता है. इस तरह से उपभोक्ताओं के हितों की भी रक्षा नहीं हो पायेगी.
इस विज्ञापन का दूसरा नकारात्मक पक्ष है देश की सरकारी नीतियों का विरोध करके सरकार के तरक्की के उद्देश्यों में बाधा उत्पन्न करना. कौन नहीं जानता की देश में नौकरियों की संख्या बढ़ाने और महंगाई घटाने के लिए वित्त मंत्रालय, वाणिज्य मंत्रालय या कंपनी मामला मंत्रालय और खुद प्रधान मंत्री मोदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को कितना प्रभावकारी समझते हैं. लेकिन इस एक विज्ञापन के कारण प्रोक्टर एंड गैम्बल तथा हिंदुस्तान यूनिलीवर जैसी कंपनियों के ग्राहकों पर अगर प्रतिकूल असर पड़ता है तो क्या अन्य विदेशी कम्पनियाँ भारतीय बाज़ार में आने का जोखिम उठाना चाहेंगी. निसंदेह वो दस बार अपने निर्णय के बारे में सोचेंगी.
इस तरह जहाँ एक ऒर यह विज्ञापन भारतीय प्रतियोगिता आयोग के मूलभूत उद्देश्यों का उल्लंघन करता है वहीं दूसरी ऒर भारत सरकार की योजनाओं और उद्देश्यों का खुला प्रतिकार करने वाला है. एक तरफ तो प्रधान मंत्री और देश की सरकारें खुदरा भारतीय बाजार में १०० प्रतिशत तक पूंजी निवेश का समर्थन करते है, विदेशी निवेशकों को लुभाने के लिए भारतीय प्रधान मंत्री देश का पैसा खर्च करके विदेश जाते हैं और दूसरी तरफ स्वामी राम देव की कंपनी विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने का आग्रह करती है, ये कहकर कि इस से देश का पैसा विदेश में नहीं जायेगा और इस से आर्थिक आज़ादी आएगी. इसका मतलब क्या पतंजली या स्वामी रामदेव के नजरिये से देश की सरकार, विदेशी निवेश को बढ़ावा देकर और विदेशी कंपनियों को आमंत्रित करके देश को आर्थिक रूप से गुलाम बनाने की राह पर ले जा रही है. अगर ये सब कुछ रामदेव जी की बीजेपी के प्रति निकटता के सन्दर्भ में देखा जाए तो एक तीखा विरोधाभास उत्पन्न करता है कि अगर उनका बीजेपी का समर्थन करना सही है तो उसी के द्वारा प्रोत्साहित विदेशी निवेश से बनी विदेशी कंपनियों के उत्पादों का विरोध सही कैसे हो सकता है. एक और विरोधाभास देश भक्ति के मामले में भी है कि असली देश भक्ति का परिचय सरकार की उसके अर्थों में विकासोन्मुख नीतियों के साथ चल कर दिया जा सकता है या उनका खुला विरोध करने वालों का साथ देकर उन्हें निष्प्रभावी करके.
क्योंकि श्री राम देव कोई आम व्यापारी नहीं हैं, वो एक बहुत बड़े भारतीय वर्ग के पूज्य है, उन्हें लोग योग गुरु कह कर, स्वामी कह कर संबोधित करते हैं. वे अक्सर विज्ञापनों के द्वारा ये प्रचारित करते रहते हैं कि पतंजली का पैसा किसी व्यक्ति विशेष के फायदे के लिए नहीं बल्कि चैरिटी के लिए है. ऐसी हालात में एक बहुत बड़े वर्ग का उनके इस विज्ञापन से प्रभावित होने से इनकार नहीं किया जा सकता और इनकार नहीं किया जा सकता इस बात से कि सर्वोपरि नागरिक भावना देशभक्ति की भावना का इस्तेमाल करके अपने व्यापार को बढ़ावा देने के लिए पतंजली का यह विज्ञापन विदेशी निवेश आकर्षित करने के उद्देश्यों को बहुत हद तक प्रभावित कर सकता है.
लेकिन बड़ा सवाल यही है कि एक बेचारा आम भारतीय उपभोक्ता जिसे पतंजलि के साबुन और पेस्ट की जगह अगर विदेशी कंपनियों के पीअर्स साबुन और पेप्सोडेंट पेस्ट पसंद आता है तो क्या उसे अपने देश को आर्थिक गुलामी की राह पर ले जाने की ग्लानि से गुजरना होगा और अगर ऐसा नही है तो क्या ऐसे विज्ञापन देश के प्रमुख राष्ट्रीय मीडिया पर आने चाहिए.
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लेखक ,ललित कुमार NIT कुरुक्षेत्र से 1996 बैच से मैकेनिकल इंजीनियर है , और अभी भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय में कार्यरत हैं
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