Surya Bali
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डॉ. सूर्या बाली “सूरज धुर्वे”

रानी दुर्गावती ने भारतीय, खासकर गोंडवाना के लोगों के दिलों में बहुत सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त किया है. आज भी लोग उनकी वीरता और बलिदान की कहानियाँ सुनाते हुए रोमांचित हो उठते हैं और ऐसी अद्वितीय वीरांगना के वंशज होने पर गर्व करते हैं. आज भी उनके लिए करोड़ों कोइतूरों के दिलों में अपार श्रद्धा है जो उनकी याद को अपने अंदर सँजोये हुए हैं. मेरे लिए ऐसी महान व्यक्तित्व के बारे में कुछ लिखना बहुत बड़ा सौभाग्य है. आइये आज (24 जून) उनके 456वें बलिदान दिवस पर उन्हें भाव-भीनी एवं विनम्र श्रद्धांजलि देते हुए, उनके जीवन के कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर केन्द्रित करते हुए, उनके अद्भुत योगदान और गरिमामयी जीवन को जानने समझने और उससे सबक लेने की कोशिश करते हैं. 

भारतीय इतिहास में अपने समय में अकेली ऐसी महिला थीं जिन्हें इतना सम्मान और आदर मिला था. उनके समकक्ष कोई भी महिला प्रशासक वो ऊंचाई नहीं हासिल कर सकी जो रानी दुर्गावती ने हासिल की. अगर सच कहूँ तो गोंडवाना का इतिहास अगर थोड़ा बहुत बचा है तो वो इन्हीं के कारण बचा हुआ है वरना ब्राह्मणवादी और सामंती सोच वाले लेखक और इतिहासकार तो कब का गोंडवाना का नामोनिशान मिटा चुके थे. दुखद पहलू ये है कि ऐसी महान व्यक्तित्व के बारे में भी बहुत कम लिखा गया है और जो कुछ लिखा गया वह द्वेष और ईर्ष्या के कारण पक्षपातपूर्ण ढंग से अधूरा लिखा गया है.

किसी भी कौम का इतिहास उसके महापुरुषों और महान मातृ शक्तियों के बलिदान और वीरता से बनता है. आज भले ही गोंडवाना अपने अस्तित्व की पहचान को बचाने के लिए जूझ रहा हो लेकिन गोंडवाना का अतीत बहुत ही गौरवशाली और महान रहा है (बाली, 2019). गोंडवाना की नारी शक्तियों में राजकुमारी हसला लांजी गढ़,रानी पद्मावती गढ़ा मंडला,रानी कमलापती गिन्नौरगढ़ भूपाल,रानी सुंदरी मरावी गढ़ मण्डला नामनगर,रानी मैनावती मरावी गढ़ा कटंगा,रानी देवकुंवर उईके देवगढ़, रानी हिरई आत्राम चांदा गढ़ और रानी दुर्गावती गढ़ा मण्डला प्रमुख हैं. कोइतूरों की मातृ सत्तात्मक शासन व्यवस्था की झलक इन रानी, महारानी और राजकुवरियों के बलिदान में देखी जा सकती है. लेकिन दुर्भाग्य देखिये, ब्राह्मणवादी इतिहासकारों ने कभी भी गोंडवाना की इन वीर वीरांगनाओं को इतिहास में उचित स्थान और सम्मान नहीं दिया जिसकी वो हकदार थीं.

मैंने पहले भी रानी दुर्गावती के ऊपर काफी कुछ लिखा है लेकिन जैसे जैसे उनके बारे में पढ़ता लिखता गया उनकी प्रति और जानने की जिज्ञासा बढ़ती गयी. उनके बारे में और जानने के लिए मैंने पुराने इतिहासकारों की रचनाओं, देश विदेश की पुस्तकालयों, ग्रंथागारों और अभिलेखागारों से प्राप्त पुरालेखों का अध्ययन किया. महारानी दुर्गावती के 456वें बलिदान दिवस पर यह शोध लेख गोंडवाना में ब्राह्मणवाद की फैलती विष बेल की पकड़ को उजागर करेगा और ब्राह्मणवाद के खिलाफ रानी दुर्गावती के योगदान को दुनिया के सामने लायेगा जो अभी तक बहुत कम लोगों को ज्ञात हैं.वर्ष 1564 में अकबर की उम्र मात्र 22 वर्ष की थी और वह दिल्ली सल्तनत का प्रभावशाली बादशाह था. वह अपनी विस्तारवादी नीति और औरतों के प्रति कामुक अशक्ति के बीच वस्तुतः संघर्ष के एक ज्वालामुखी पर बैठा था. एक तरफ वह एक-एक कर अपनी विशाल सेना के दम पर भारतीय रियासतों पर कब्जा करता जा रहा था वहीं दूसरी ओर अपने हरम में हिन्दू मुसलमानों की खूबसूरत लड़कियों और महिलाओं की संख्या भी बढ़ाता जा रहा था. अपने मातहत न जाने कितने हिन्दू-मुसलमान राजाओं और सुल्तानों की बहू बेटियों को जबर्दस्ती अपने हरम में रखा और कोई भी उसका विरोध नहीं कर सका (Oak, 2000). अकबर राजपूत राजाओं और विद्वान ब्राह्मणों को ऊंचे ऊंचे ओहदे देकर एहसान तले दबा देता था जिसके कारण उनकी बहु-बेटियों पर बुरी नज़र डालने पर भी वे कुछ बोल नहीं पाते थे बल्कि कई तो खुशी-खुशी अपनी बेटियों को अकबर के हरम में पहुंचा देते थे. राजा मान सिंह ने अपनी बुआ को,राजा टोडरमल ने अपनी भांजी को और बीरबल ने अपनी भतीजी को अकबर के हरम में स्वयं पहुंचाया था (शेडमाके, 2017).

गोंडवाना के कोइतूरों के वैभव और खूबसूरती की भनक अकबर को अभी तक नहीं लगी थी लेकिन होनी को कौन रोक सकता है. गढ़ मंडला के प्रतापी कोइतूर राजा संग्राम शाह की बहू की अपार सुंदरता और उनके प्रशासनिक नेतृत्व क्षमता के चर्चे भी कुछ चापलूस ब्राह्मणों ने अकबर के दरबार तक पहुंचा दिये. बहुत कम लोगों को पता होगा कि अकबर का सबसे खास मंत्री बीरबल कभी महारानी दुर्गावती के आधीन सामान्य मुलाजिम के तौर पर कार्य करता था.

जिस समय अकबर दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ उस समय गोंडवाना में गोंड कोइतूरों का शासन था. गढ़ा मंडला अपनी वैभव, संपन्नता और खुशहाली के लिए चारों ओर विख्यात था. गढ़ा कटंगा (जबलपुर) में गोंडो के मरावी राजवंश के प्रतापी राजा संग्राम शाह के पुत्र दलपत शाह का शासन था जहाँ से सिंगौरागढ़ (दमोह) और चौरागढ़ ( नरसिंहपुर) के किलों का संचालन होता था. गोंडवाना का विशाल साम्राज्य रानी दुर्गावती को अपने ससुर महाराजा संग्राम शाह और पति राजा दलपत शाह से विरासत में मिला था. पूरा साम्राज्य छोटे छोटे 52 गढ़ों और 57 परगनों में बंटा हुआ था. शादी के मात्र 4 साल बाद ही पति दलपत शाह की मृत्यु हो गयी. दलपत शाह की अकाल मृत्यु के बाद रानी दुर्गावती ने संग्राम शाह की रियासतों की बागडोर अपने हाथों में ली और अपने पुत्र बीर नारायण की संरक्षक बनकर शासन चलाने लगी. अकबर के जाने माने इतिहासकार अबुल फजल के मुताबिक सोलहवीं सदी में रानी दुर्गावती के शासन के अंतर्गत 70,000 गाँव थे जिसमें से 23,000 गाँव में भरपूर खेती होती थी(Muni Lal, 1980).

रानी दुर्गावती की प्रशासनिक क्षमता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपने साम्राज्य को अक्षुन्य बनाए रखने के लिए और प्रत्येक गढ़ पर मजबूत नियंत्रित रखने के लिए गोंड कोइतूरों के स्थानीय राजाओं को पूर्ण स्वतन्त्रता और अधिकार दे रखा था. इन गोंड कोइतूर में मरकाम, टेकाम, सैयाम, मरावी, नेताम, ध्रुव इत्यादि प्रमुख गोत्र थे. अपने सभी गढ़ प्रमुखों से रानी का बराबर संवाद बना रहता था. प्रसिद्ध इतिहासकार मुनि लाल अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “अकबर” में लिखते हैं कि रानी दुर्गावती को अपने सभी गाँव के पटेलों, सरपंचों और मुखियाओं के नाम और चेहरे याद रहते थे(Muni Lal, 1980).

इतिहासकार (Muni Lal, 1980) लिखते हैं कि रानी दुर्गावती का साम्राज्य पूर्व से पश्चिम 250 मील (400 किलोमीटर) और उत्तर से दक्षिण 120 मील (193 किलोमीटर ) था जबकि यह दूरी कम प्रतीत होती है. अगर देखा जाये तो पश्चिम में गिन्नौर गढ़ (भोपाल) और पूरब में लाफागढ़ (बिलासपुर) की दूरी 660 किलोमीटर बनती है और उत्तर में मड़ियादों (दमोह) से टीपागढ़ (राजनन्दगाँव) की दूरी 535 किलोमीटर है. पूरे राज्य का सीमांकन का नक्शा राम भरोस अग्रवाल की प्रसिद्ध किताब “गढ़ मंडला के गोंड राजा” में दिया गया है(अग्रवाल, 1990).

किसी महिला द्वारा 16 वर्षों से ज्यादा समय तक इतने विशाल साम्राज्य का नियंत्रण और कुशल संचालन की बेजोड़ उदहारण भारतीय इतिहास में कहीं नहीं मिलती है. अपनी न्याय व्यवस्था के लिए महारानी दुर्गावती बहुत प्रसिद्ध थीं. पूरा कोइतूर समाज उनकी निष्पक्ष न्याय के लिए उन्हे “न्याय की देवी” के नाम से पुकारता और जानता था. रानी दुर्गावती ने वर्ष 1548 में शासन की बागडोर सम्हाली और और वर्ष 1564 मृत्यु तक कुल सोलह वर्षों में पचास युद्धों का नेतृत्व करते हुए लड़ीं लेकिन जीते जी उनमें से एक भी युद्ध नहीं हारीं. यह भारतीय इतिहास की अलौकिक और अकेली घटना है जिसे एक कोइतूर शेरनी ने कर दिखाया. रानी दुर्गावती अपने पराजित दुश्मन के साथ भी उदारता का व्यवहार करती थीं और उन्हें सम्मानपूर्वक कीमती उपहार और पुरस्कार के साथ शुभ कामनाएँ देकर अपने नियंत्रण में रखती थीं. उनकी यह रणनीति हमेशा काम करती थी इसीलिए कभी भी गोंडवाना में विद्रोह के स्वर नहीं उठे. मंडला ज़िले का गज़ेटियर अपने पेज नंबर 29 पर लिखता है कि “वह (रानी दुर्गावती ) दुनिया की महान महिलाओं में गिनी जाने लायक है”(अग्रवाल, 1990).

रानी की अपार शक्ति और लोकप्रियता का रहस्य उनकी विशाल सेना में था उनकी सेना में कुशल धनुर्धर और तलवार बाज गोंड लड़ाके थे. उनकी सेना में 70,000 पैदल सैनिक और 2,500 हाथियों की सेना थी. उनके साम्राज्य का हर एक गाँव कभी रक्षा गढ़ हुआ करते थे. उनकी गाँव पर पकड़ इतनी मजबूत थी कि कोई भी बाहरी व्यक्ति या सैनिक गोंडवाना के गाँव में घुसने की हिम्मत नहीं कर सकता था क्यूंकि गाँव वाले पहले ही उसे खदेड़ देते थे या रानी तक तुरंत खबर पहुंचा देते थे. महारानी दुर्गावती केवल युद्ध के समय ही महानता और वीरता नहीं दिखाती थीं बल्कि शांतिकाल में भी अपनी प्रजा और मातहतों का भरपूर खयाल रखती थीं. लगभग 23,000 खेती वाले गांवों में उत्पादन का कुशल नियंत्रण और प्रबंधन की ज़िम्मेदारी भी स्वयं ले रखी थी जिससे गोंडवाना में रसद और खाद्य सामाग्री की कभी कमी नहीं पड़ी(Muni Lal, 1980).

रानी दुर्गावती ने अपने आप को भारत की उन महान रानियों और वीरांगनाओं से अलग और अद्वितीय साबित किया. फिर भी नायकत्व के महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं में वह पूर्ववर्ती तीन – संजोगिता, रजिया बेगम और पद्मिनी से मिलती जुलती थीं. संजोगिता और रजिया बेगम की तरह उनमें एक योद्धा-रानी के गुण थे जो विदेशी दुश्मन से अपने सिंहासन और अपनी प्रजा की रक्षा कर सके. पद्मिनी की तरह उनमें भी नारी सम्मान की रक्षा के लिए अपने प्राण त्यागने का जज़्बा था. पद्मिनी की तरह वह भी किसी पराए पुरुष के हाथों में पड़कर अपने कुल परिवार के सम्मान को दागदार नहीं कीं. उनका भी विवाह संजोगिता की तरह एक रोमांटिक घटनाक्रम था(Mukharji, 1933).

रानी दुर्गावती का जन्म उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के कलिंजर के किले में 5 अक्तूबर 1524 (संवत 1446, अश्विन सुदी अष्टमी) हुआ था. उनके पिता का नाम राजा कीरत राय (कीर्ति वर्मन) तथा माता का नाम कमलावती था(अग्रवाल, 1990; मिश्र, 2008a). कुछ इतिहासकारों का मत है कि दुर्गावती के पिता राहतगढ़ के महाराजा सालभान(शालीवाहन) थे जो बहुत ही प्रतापी गोंड़ राजा थे जिन्होंने मध्य भारत में काफी अरसे तक शासन किया था. आज भी राहत गढ़ के किले के अवशेष भोपाल सागर राजमार्ग से गुजरते हुए देखे जा सकते हैं(Muni Lal, 1980).

शादी के समय दलपत शाह की उम्र 25 वर्ष और राजकुमारी दुर्गावती की उम्र 18 वर्ष की थी. सिंगोरागढ़ के किले में कोया पुनेमी (गोंडी विधि विधान) से वर्ष 1542 दोनों का विवाह सम्पन्न हुआ. इसी किले में वर्ष 1545 को रानी दुर्गावती ने अपने बच्चे को जन्म दिया जिसका नाम वीर नारायण (बीरसा) रखा गया. वर्ष 1543 में इसी किले में राजा संग्राम शाह की मृत्यु हुई थी और इसी किले में बाद में उनके बड़े बेटे दलपत शाह की भी 1550 में मात्र 33 साल की अल्पायु में मृत्यु हो गयी. शादी के महज 8 साल बाद ही रानी दुर्गावती विधवा हो गयी. दलपत शाह की मृत्यु के समय उनके बेटे वीर नारायण की उम्र महज 5 साल की थी(मिश्र, 2008b). ससुर संग्राम शाह और पति दलपत शाह की मृत्यु के कारण पूरे गढ़ा के शासन प्रशासन की ज़िम्मेदारी रानी दुर्गावती पर आ गयी. 

लोगों को भ्रमित करने और कोइतूरों को अपमानित करने के लिए कुछ इतिहासकार रानी दुर्गावती को राजपूत बताते हैं जबकि कोइतूरों में गैरजातियों में विवाह सम्पन्न नहीं होते थे इसलिए इतने महान प्रतापी राजा को किसी राजपूत की लड़की से शादी करने का कोई औचित्य नहीं दिखता है. भारतीय ब्राह्मणवादी मानसिकता के लेखक और इतिहासकारों ने आधी अधूरी जानकारी के आधार पर ही घोषित कर दिया कि रानी दुर्गावती राजपूत थीं जो बिलकुल निरधार है. रानी दुर्गावती कोइतूरों की एक शाखा चंदेल कोइतूर जिनका टोटम खरगोश होता है, उस वंश की थीं और उनके पिता का नाम कीरत राय था. इस बात का प्रमाण एन ओरिएंटल बायोग्राफ़िकल डिक्शनरी में मिलता है, जिसमें साफ-साफ लिखा है की रानी दुर्गावती महोबा के गोंड राजा की बेटी थीं(Beale & Keene, 1894). प्रसिद्ध इतिहासकार मुनि लाल जी भी लिखते हैं कि मध्य भारत के राहतगढ़ राज्य के गोंड राजा की कन्या थीं. 

एक बात से और साबित होता है कि महारानी गोंड ही थी क्यूंकि उनके दरबार के ब्राह्मण मंत्रियों ने उन्हे दलपत शाह की मौत के बाद चिता के साथ सती होने के लिए प्रेरित किया था लेकिन रानी ने अपने कुल के गौरव और कोया-पुनेमी रीति रिवाज का निर्वहन किया और सती होने से साफ साफ मना कर दिया और कहा कि “मेरे खानदान में कुलवधू की परंपरा होती है न कि पुत्र वधू की. मैं राजा संग्राम साह की पुत्र वधू नहीं हूँ बल्कि मैं मड़ावी राजवंश की कुल वधू हूँ इसलिए इस विषम परिस्थिति में पति की चिता के साथ सती होने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है कि मैं अपने कुल परिवार और साम्राज्य को संभालू”. उन्होंने अपने पति की लाश को भी जलाने से मना कर दिया और सिंगोरागढ़ के किले के प्रांगण में ही राजा दलपत शाह को दफ़न करके उनकी समाधि बनवाई और पूरे कोया-पुनेमी रीति-रिवाज से पति की अंतिम क्रिया कारवाई. इससे ब्राह्मण और राजपूत मंत्री नाराज़ हो गए और रानी को नीचा दिखने और सबक सिखाने का बहाना ढूढ़ने लगे.

जब तक दलपत शाह जिंदा थे तब तक आस पास के राजाओं (उत्तर में बघेल राजपूत, पश्चिम में मालवा के सुल्तान, पूरब में बंगाल के नबाब और दक्षिण में मुस्लिम शासक) की गोंडवाना की तरफ आँख उठाकर देखने की हिम्मत नहीं होती थी लेकिन जैसे ही रानी दुर्गावती ने शासन संभाला आसपास के पुरुष प्रधान समाज के राजाओं को गोंडवाना को हड़पने का खयाल आना शुरू हो गए और रानी दुर्गावती कई राजाओं और सुल्तानों की आँखों में खटकने लगीं.

वर्ष 1556 में मालवा के सुल्तान सुजात खान के बेटे बाज बहादुर ने रानी दुर्गावती पर पश्चिम की तरफ से हमला किया, लेकिन रानी दुर्गावती की सूझबूझ और कुशल युद्ध रणनीति के कारण सुल्तानों की एक न चली. बाज बहादुर को जान बचाकर भागना पड़ा. इस तरह एक स्त्री से हारने के कारण बाज बहादुर की बड़ी बदनामी हुई और उसको हराने के कारण रानी दुर्गावती की चर्चा चारों ओर तेजी से फैल गयी.

रानी दुर्गावती की वीरता और महानता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब उनके करीबी दीवान आधार सिंह ने रानी को अकबर की सेना की विशालता, उसकी व्यूह रचना और तोपों के बारे में बताया और ये भी बताया कि उनकी अपनी सेना के सैकड़ों सैनिक सेना को छोड़कर भाग खड़े हुए हैं. रानी इस बात से बिलकुल भी विचलित नहीं हुई उन्होंने अपने मंत्री आधार सिंह से कहा कि “अपमानजनक जीवन से सम्मानजनक मृत्यु बेहतर है. यदि अकबर स्वयं यहाँ आता तो उसके लिए सम्मान प्रकट करना मेरे लिए उचित था. किन्तु आसफ खाँ, क्या समझे कि रानी का पद क्या होता है? यही सबसे उत्तम होगा कि मैं वीरतापूर्वक मृत्यु का आलिंगन करूँ“ (मिश्र, 2008a).

आइये, अब महारानी दुर्गावती के कुछ मंत्रियों और सिपाहसालारों के बारे में भी जान लेते हैं. बीरबल के बारे में तो आप लोगों ने सुना ही होगा लेकिन उस व्यक्ति की सच्चाई शायद ही पता हो. बीरबल का असली नाम महेश दास था जो मध्य प्रदेश के सीधी जिले के घोघरा गाँव के एक भट्टराव ब्राह्मण परिवार में वर्ष 1528 में पैदा हुआ था. सीधी से चलकर महेश दास दमोह पहुंचा और वहाँ राजा संग्राम शाह के महल में सामान्य चाकर की हैसीयत से काम करने लगा. उसकी हाजिर जवाबी और बुद्धिमत्ता देखकर राजा संग्राम शाह ने उसे अपने बेटे दलपत शाह के साथ सहयोग करने में लगा दिया.

दलपत शाह की मृत्यु के बाद उसे रानी दुर्गावती द्वारा वह सम्मान नहीं मिला जो पहले मिलता था इसका कारण यह था कि रानी दुर्गावती को बीरबल पर शक था कि राजा दलपत शाह की असमय मृत्यु के पीछे कहीं बीरबल का ही हाथ है. बीरबल पूरे गढ़ में ब्राह्मणवादी व्यवस्थाओं की स्थापना करना चाहता था और रानी हमेशा ब्राह्मणवादी कर्मकांडों का विरोध करती थीं और महेश दास की कोई भी सलाह नहीं मानती थीं. इससे खिन्न होकर वर्ष 1551 को एक दिन ब्राह्मण महेश दास अकबर के दरबार में चला गया. अकबर भी कम चालाक नहीं था दुश्मन के खेमे से आए व्यक्ति को बहुत मान सम्मान दिया और अपने दरबार में रख लिया जो बाद में अकबर के नवरत्नों में से एक हुआ और बीरबल के नाम से प्रसिद्ध हुआ. इसी बीरबल ने रानी के ऊपर आक्रमण करने और उनकी सम्पति को हड़पने के लिए अकबर को उकसाया था.

इस बात की पुष्टि पंडित गणेश दत्त पाठक भी करते हैं और लिखते हैं कि राजा दलपत शाह के दरबार में बीरबल नौकरी की तलाश करते हुए आया था और उसे राजा ने नौकरी भी दी थी. एक बार बीरबल ने राजा से 25,000 रुपये की सामाग्री दान करवा दी. यह बात रानी दुर्गावती को बहुत बुरी लगी थी. इसलिए राजा दलपत शाह उसे कुछ पैसे देकर राज दरबार से बाहर का रास्ता दिखा दिया था(अग्रवाल, 1990; मिश्र, 2008b). वास्तव में बीरबल राजा दलपत शाह की मृत्यु के बाद गढ़ा मंडला के दरबार को छोड़ा था न कि मृत्यु से पहले जैसा की इतिहासकार ने लिखा है.

कुछ और ब्राह्मण पुरोहित एवं सलाहकार जैसे पंडित महेश ठाकुर,दामोदर ठाकुर,केशव लौगाक्षी,रघुनंदन राय और अनंत दीक्षित, चूड़ामणि बाजपेयी भी गढ़ा दरबार में थे जो राजा दलपत शाह की मृत्यु के बाद अपना रुतबा खो चुके थे और अब मजबूरी में रानी दुर्गावती के आधीन रह रहे थे(Sleeman, 1837) और रानी के व्यवहार से खुश नहीं थे. इन सब ब्राह्मणों के अलावा भी कई अफगान जैसे शम्स खाँ मियाना और स्थानीय गोंड सेनापति, मुनीम और मंत्री भी थे. आधार सिंह जो गोंड मंत्री थे रानी दुर्गावती के काफी करीब थे. इन्हें भी कई इतिहासकारों ने कायस्थ बताया जबकि वो धुर्वे गोंड थे और देवगढ से आये थे. नरई नाला के अंतिम युद्ध में वे भी रानी के साथ शहीद हो गए थे लेकिन एक भी ब्राह्मण मंत्री का बाल बांका नहीं हुआ था.

ऐसा कहा जाता है कि दोनों ब्राह्मणों बीरबल और रघुनंदन ठाकुर ने अकबर के दरबार में जाकर रानी की अपार धन दौलत, उनकी खूबसूरती और आत्म सम्मान की चर्चा की थी जिससे प्रभावित होकर अकबर ने आसफ खान को गढ़ा को जीतने और रानी को जिंदा पकड़ कर लाने का हुक्म दिया था.

अपनी पुस्तक गढ़ा मंडला के गोंड राजा में राम भरोस अग्रवाल लिखते हैं कि एक बार अस्वस्थ होने के कारण पंडित महेश ठाकुर ने रानी दुर्गावती को वेद पाठ सुनाने के लिए अपने शिष्य पंडित रघुनंदन राय को भेज दिया लेकिन रानी को वेद पाठ कुछ समझ नहीं आया क्यूंकि वो कभी भी हिन्दू ग्रंथो के पाठ-पठन में रूचि ही नहीं लेती थीं और ऐसी हरकत करने के लिए महारानी दुर्गावती ने महेश ठाकुर और उसके शिष्य रघुनन्दन राय दोनों को लताड़ा. इससे रघुनंदन बहुत अपमानित महसूस किया और वह भी रूठकर अकबर के दरबार में चला गया. महारानी दुर्गावती ने ब्राह्मणवादी व्यवस्थाओं का जमकर विरोध करना शुरू कर दिया इसको लेकर ब्राह्मण पुजारियों और पुरोहितों की भौंहे टेढ़ी रहने लगीं और अब वे रानी को रास्ते से हटाने का प्लान बनाने लगे.

आसफ ख़ान से रानी दुर्गावती की अंतिम लड़ाई 23 जून 1564 की सुबह शुरू हुई. रानी के सैनिकों और आसफ़ खाँ के सैनिकों के बीच भयंकर युद्ध शुरू हो गया जिसमें रानी के हाथी सेना के फौजदार अर्जुनदास बैस की मृत्यु हो गयी. इस दिन रानी के पुत्र बीर नारायण ने आसफ खाँ की सेना को तीन बार पीछे धकेला और अंत में घायल हो गया. तब रानी ने अपने सिपाहियों को उसे सुरक्षित जगह चौरागढ़ (चौगान का किला) ले जाने का आदेश दिया और खुद अपने हाथी सरमन पर सवार होकर आसफ खाँ की सेना से लोहा लेने निकल पड़ी. आसफ खाँ की सेना में रानी दुर्गावती की सेना से कई गुना सैनिक और घुड़सवार थे फिर भी रानी ने पूरी सेना को शाम तक मुक़ाबला करती रही और मुगल सेना को कई बार पीछे जाने पर मजबूर किया(बाली, 2019; मिश्र, 2008a).

दिन के अस्त होने पर रानी ने अपने सिपहसलाहकारों को बुलाया और उनसे कहा कि हम लोग अभी रात में ही मुगल सेना पर आक्रमण कर दें नहीं तो सुबह तक खुद आसफ़ खाँ अपने तोपखाने और गोला बारूद के साथ गढ़ा से नरई नाला आ जाएगा और युद्ध जीतना मुश्किल होगा. लेकिन रानी के प्रस्ताव से कोई भी सहमत न हुआ(मिश्र, 2008a). रानी के सभी ब्राह्मण सलाहकार और मंत्रियों ने दक़ियानूसी सोच और पाप पुण्य में उलझकर रानी को रात में हमला करने से मना कर दिया. महेश ठाकुर, केशव लौगाक्षि और लक्ष्मी प्रसाद दीक्षित आदि ने उन्हें रात्रि में युद्ध न करने का धर्म पाठ पढ़ाया और सेना के सेनापतियों को भी ऐसा न करने का सुझाव दिया और बताया कि इससे अनर्थ हो जाएगा और अपयश मिलेगा. ब्राह्मणों की सलाह मानना ही रानी दुर्गावती के लिए भारी पड़ा.

ब्राह्मणों की गलत राय मानकर हाथ आए सुनहरे मौके को छोड़ देने के कारण ही पूरे गोंडवाना के वैभव और सम्मान पर आंच आई. अगर इन ब्राह्मण सलाहकारों ने रानी की तर्कपूर्ण सलाह को मानकर सेनापतियों को युद्ध के लिए तैयार किया होता तो आज इतिहास कुछ और होता क्यूंकि उस समय मुगल सेना थकी हारी थी, उस इलाके से पूरी तरह अपरिचित थी और उनके तोपखाने भी नहीं आए थे और कई बार मात खाने के कारण आसफ खान भी डरा हुआ था. ब्राह्मणों की मुगलों के साथ साठगांठ और मिली भगत ने रानी को रात में हमला न करने की सलाह देकर मुगलों के लिए रास्ता खोल दिया जिसकी कीमत रानी को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी.

ब्राह्मणों की सलाह रानी पर भारी पड़ी और 24 जून 1564 की सुबह आसफ़ खाँ अपने तोपखाने के साथ नरई आ गया और दोनों सेनाओं में भीषण युद्ध हुआ. रानी अपने सबसे ऊंचे हाथी सरमन पर होने के कारण आसानी से दुश्मन की नज़र में आ गयी थीं और बड़ी आसानी से दुश्मन के तीरबाजों के निशाने पे थीं. दुश्मन का एक तीर रानी की दायी कनपटी पर लगा जिसे रानी ने तुरंत निकाल कर फेंका लेकिन तीर का नोक रानी के शरीर के अंदर ही रह गया. फिर दूसरा तीर भी रानी के गर्दन में आ लगा. काफी खून बहने से रानी मूर्छित हो गयी और हाथी से नीचे गिर गयी. महावत आधार सिंह उन्हे बाहर लेकर जाने की तैयारी कर ही रहा था कि तभी रानी को थोड़ा होश आया उन्होने महावत आधार सिंह से कहा कि वो उन्हें मार दे लेकिन वह तैयार नहीं हुआ फिर रानी ने अपनी ही कटार निकाली और अपने दोनों हाथों से पकड़कर एक ही झटके में अपने सीने में उतार ली और अपने जीवन का अंत कर लिया. वो किसी भी हालत में मुगलों के हाथ नहीं लगना चाहती थी और जिल्लत की ज़िंदगी नहीं जीना चाहती थी(बाली, 2019).

इस निर्णय से भी यह बात पक्की हो जाती है कि रानी दुर्गावती कोया पुनेमी कोइतूर थी जो कर्मकांड और ब्राह्मणवादी ढकोसलों को नहीं मानती थीं. यहाँ तक कि मृत्यु का आलिंगन करते हुए भी उन्होंने अपने सेनापति से कहा था- मेरी लाश को जल्दी से नरई नाले के पास ही दफ़न कर देना जिससे वो दुश्मनों के हाथ न लगे.- अपनी लाश को जलाने के लिए न कहना भी बताता है कि वो हिन्दू राजपूत नहीं बल्कि एक सच्ची कोइतूर गोंड़ थीं.

रानी की मृत्यु के बाद ब्राह्मणों ने चौरागढ़ किले में सती प्रथा का जबर्दस्ती पालन करवाया और सैकड़ों गोंड रानियों और राजकुमारियों को जिंदा चिताओं पर कूदने के लिए बाध्य किया जबकि रानी दुर्गावती कभी भी सती प्रथा के पक्ष में नहीं रहीं. रानी की मृत्यु के बाद जनता में विद्रोह हो गया और आसफ ख़ान के लिए इतने बड़े साम्राज्य को संभालना मुश्किल हो रहा था ऐसी स्थिति में फिर सभी ब्राह्मण सिपहसालार और मंत्री आसफ ख़ान के साथ हो लिए और गोंडवाना का राज्य कैसे चलाया जाये और कैसे नियंत्रण में रखा जाए, ये सब मुगलों को बताने लगे. एक ब्राह्मण मंत्री जिसका नाम चूड़ा मणि बाजपेयी था वह अकबर के दरबार में समझौता करवाने के लिए दिल्ली भी गया और दलपत शाह के छोटे भाई को गढ़ा मंडला का राजा बनाकर मुगल सल्तनत के अधीन काम करने के लिए राजी भी करवा लिया(Sleeman, 1837). इस तरह से ब्राह्मणों ने अपने पाँव गोंडवाना में जमा लिए और मुगलों के साथ मिलकर कोइतूर राजाओं पर शिकंजा कसते हुए ब्राह्मणवाद को बढ़ावा देना शुरू कर दिये और कोइतूर संस्कृति को खत्म करने के षणयंत्र रचने लगे.

एक और बहुत महत्त्वपूर्ण घटना रानी दुर्गावती के शासन काल में घटी थी जिससे बहुत सारे लोग अनभिज्ञ थे. उस समय गढ़ा मंडला साम्राज्य में भिक्षा माँगना अपराध माना जाता था. ऐसा करने वालों को कोई माफी नहीं मिलती थी दंड के रूप में केवल पिटाई की जाती थी. तुलसी दास घूमते-घूमते गढ़ा मंडला की सीमा में आ पहुंचे और भिक्षा मांगकर जीवन यापन करने लगे. एक दिन रानी के सैनिकों ने उन्हे पकड़कर मारते-पीटते हुए रानी के दरबार में ले आए और बताया कि यह आदमी राज्य में भिक्षा मांग रहा है तब रानी ने उन्हें एक जोड़ी हल-बैल और नर्मदा के किनारे कुछ जमीन देकर मेहनत करके कमाने का दंड दिया. कुछ दिन के बाद तुलसीदास की हालत खराब होने लगी और फिर एक रात चुपके से तुलसीदास नर्मदा नदी से होकर भाग निकले. पूरे ग्रन्थों में कहीं भी कोइतूरों, गोंडों,मुगलों या अकबर के बारे में तुलसीदास ने नहीं लिखा लेकिन अपनी कोइतूर गोंडों द्वारा की गई पिटाई को भूल नहीं पाये और अंततः दोहावली में एक दोहे में उनकी अपनी व्यक्तिगत पीड़ा छलक ही गयी…पहली बार किसी हिन्दू ग्रंथ में गोंड शब्द का प्रयोग यहीं मिलता है(तुलसीदास, 1923).

गोंड़ गवांर नृपाल महि जवन महा महिपाल.

साम न दाम न भेद कलि केवल दंड कराल ॥-तुलसीदास

( भावार्थ : गोंड गवांर एवं यवन (म्लेच्छ) लोग धरती पर राजा महाराजा हो रहे हैं. कलयुग में [भिक्षा मांगने वाले को ] ये लोग कोई साम, साम और भेद न अपनाते हुए केवल दंडित करते हैं. )

इस तरह जो गोंडवाना पंद्रहवीं शताब्दी तक बाहरी लोगों के लिए अभेद्य था उसमें गोंड राजाओं की मदद से ब्राह्मण पुरोहितों, पुजारियों और मंत्रियों का प्रवेश हुआ और फिर ब्राह्मणों ने अपने छल कपट से पूरी राज सत्ता को अपने हाथों में ले लिया और गोंड राजाओं को हिन्दू राजकुमारियों से शादी विवाह करवाना शुरू कर दिया और फिर उन रानियों ने पूजा पाठ के लिए मंदिर बनवाना शुरू किए, हिन्दू रीति रिवाज से महलों में पूजा पाठ और अन्य कर्मकांड होने लगे. धीरे धीरे गोंड़ राजाओ के महलों से उनकी कोया पुनेमी संस्कृति दूर होती गयी और राजा भी अपनी प्रजा और समाज से दूर होते गए और धीरे धीरे उनका हिंदूकरण होने लगा. कालांतर में वे अपने को कोइतूर गोंड कहलाने में भी शर्म महसूस करने लगे और खुद को सिंह, राजपूत, ठाकुर, क्षत्रिय की तरह पेश करने लगे और अपने आचार विचार व्यवहार में पूरी तरह हिन्दू वादी व्यवस्था को अपना लिए. धीरे इन्ही गोंडों को ब्राह्मणों ने राज गोंड कहना शुरू किया क्यूंकि ये राजाओं के पुत्र और पुत्रियाँ थे जो राजकाज में निपुण थे और धीरे धीरे ये राजगोंड कोइतूरों की एक उपजाति के रूप में स्थापित होl

रानी दुर्गावती ने अपने जीते जी कभी भी गोंडवाना में कोया-पुनेमी संस्कृति के सिवाय कोई अन्य धर्म का पालन न खुद किया और न ही राज्य में किसी को ऐसा करने दिया. ऐसी महान कोया पुनेमी संस्कृति की रक्षक, देशप्रेमी, देशभक्त, वीरांगना को आज उनके 456वें बलिदान दिवस पर कोटि कोटि नमन और सादर सेवा जोहार करते हुए अपनी भाव भीनी श्रद्धांजली अर्पित करते हैं.

संदर्भ सूची :

  1. Beale, T. W., & Keene, H. G. (Henry G. (1894). An oriental biographical dictionary. London W.H. Allen. http://archive.org/details/orientalbiograph00bealuoft
  2. Mukharji, A. R. B. (1933). Durgawati. In Heroins of Indian History (pp. 37–48). Oxford University Press, Bombay; https://ia600608.us.archive.org/21/items/in.ernet.dli.2015.81163/2015.81163.Heroines-Of-Indian-History_text.pdf.
  3. Muni Lal. (1980). Defiance Unto Death by Rani Durgawati. In Akbar (First). Vikas Publishinh HOuse Pvt Ltd, 5-Ansari Road, New Delhi 110002; https://archive.org/details/Akbar?q=Rani+Durgawati. https://ia902505.us.archive.org/27/items/Akbar/Akbar.pdf
  4. Oak, P. N. (2000). Who Says Akbar was Great! (First, Vol. 1). Hindi Sahitya Sadan, 30/60 ConnaughtCircus, New Delhi 110001; https://ia800204.us.archive.org/0/items/EnglishBooksOfP.n.Oak/WhoSaysAkbarWasGreat_text.pdf.
  5. Sleeman, W. (1837). History of the Gurha Mundala Rajas. THE BAPTIST MISSION PRESS, CIRCULAR ROAD, THE SOCIETY’S OFFICE. CALKUTTA, VI(68), 621.
  6. अग्रवाल,राम भरोस. (1990). गढ़ा मंडला के गोंड राजा (चतुर्थ, Vol. 1–1). गोंडी पब्लिक ट्रस्ट , मंडला , मध्य प्रदेश 481661.
  7. तुलसीदास,गोस्वामी. (1923). दोहावली. In गोस्वामी तुलसीदास रचित दोहवाली (Vol. 1, p. 155). गीता प्रेस, गोरखपुर, यू पी.
  8. बाली,सूर्या. (2019). गोंडवाना साम्राज्य की महान वीरांगना रानी दुर्गावती मडावी [न्यूज़ पोर्टल]. आदिवासी रेसर्जेन्स. http://www.adivasiresurgence.com/%e0%a4%97%e0%a5%8b%e0%a4%82%e0%a4%a1%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%be-%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a5%8d%e0%a4%af-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%ae%e0%a4%b9/
  9. मिश्रसुरेश. (2008a). गढ़ा का गोंड राज्य (प्रथम संस्करण, Vol. 1). राजकमल प्रकाशन प्रा लि, नई दिल्ली.
  10. मिश्रसुरेश. (2008b). देवगढ़ का गोंड राज्य (पहला संस्करण, Vol. 1). राजकमल प्रकाशन प्रा लि, नई दिल्ली.
  11. शेडमाके,शताली. (2017). वीरांगना महारानी दुर्गावती. गोंडवाना दर्शन मासिक पत्रिका, 32(6), 5–10.

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डॉ सूर्या बाली “सूरज धूर्वे” अंतर्राष्ट्रीय कोया पुनेमी चिंतक और कोइतूर विचारक हैं. पेशे से वे एक डॉक्टर हैं. उनसे drsuryabali@gmail.com ईमेल पर संपर्क किया जा सकता है.

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8 thoughts on “गढ़ा मंडला की महारानी दुर्गावती का बलिदान और ब्राह्मणवादी षणयंत्र

  1. Bahut hi bdiya Sir ji…. Aapne jo MahaRani Durgati k bare me ek scientifically proof karke prastut kiya h….

    Aapko koti koti Sewa Johar🙏😊 🙇🙏

  2. सन्दर्भ के मार्फत जो जानकारी दी गई है उसको कोई भी झुठला नही सकता। सन्दर्भ के माध्यम से सूर्यबाली ने सिलसिलेवार जो विवरण दिया है उससे आने वाली कोईतुर पीढ़ियों को बहुत बल मिलेगा। युवा वर्ग अपने इतिहास की असलियत जानकर अपनी पुरानी कोईतुर परंपरा में वापस हों और ब्राह्मणवादी कुटिल चालों से सतर्क रहें यही कामना करता हूँ।

    अजीत कुमार 9425600197

    1. शिक्षा और प्रशासनिक बुद्धि केवल ब्राह्मणों के ही पास थी उस समय… राजा लोग भी यह बात समझते थे। नहीं समझे तो आप जैसे नफरत से भरे लोग, जो इतिहास को भी विकृत करने में कोई कसर नहीं छोड़ते।

  3. जानकारी बहुत ही दुर्लभ होने के कारण अधिकांश लोगों को अपनी ही संस्कृति का ज्ञान नही है, और कर्मकांड के चक्रव्यूह में पड़कर गैरों के साथ मिलकर समाज के लिए विभीषण की भूमिका में है।
    धन्यवाद सर
    सेवा जोहार बहुत ही अच्छी जानकारी दी आपने
    🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻

  4. बहुत ही सारगर्भित जानकारी है । इस प्रकार की जानकारी संकलित करने में कई ऐतिहासिक पुस्तकों का अध्ययन किया गया है। निश्चित ही हमें अपनी मूल संस्कृति को बनाए रखने के सोचना पड़ेगा।

  5. सही कहा है कि रानी दुर्गावती जी को इतिहास के पन्नों में जितना स्थान मिलना चाहिए था उतना नहीं मिला. कई इतिहासकारों ने जानबूझकर इतिहास के पन्नों में जगह नहीं दी क्यूंकि वो गोंड थीं, एक कोइतूर थीं. रानी दुर्गावती जी का शासनकाल स्वर्णिम युग था. वहां सोने के सिक्के चलन में थे. रानी ने मुग़लों को दक्षिण भारत में घुसपेठ नहीं करने दिया. जब अकबर के आत्मसमर्पण की बात आई तो रानी ने अकबर को वापिसी में चूड़ियाँ भेजी थीं.

  6. शिक्षा और प्रशासनिक बुद्धि केवल ब्राह्मणों के ही पास थी उस समय… राजा लोग भी यह बात समझते थे। नहीं समझे तो आप जैसे नफरत से भरे लोग, जो इतिहास को भी विकृत करने में कोई कसर नहीं छोड़ते।

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