आंबेडकर किताबों में हैं, (और) मूर्तियों में भी।

विकास वर्मा (Vikas Verma) पिछ्ले कई सालों से बहुत लोगों को बोलते और लिखते हुए देखता आ रहा हूँ कि डॉ. आंबेडकर किताबों में रहते हैं, मूर्तियों में नहीं। और ये विचार हर साल आंबेडकर जयंती के दौरान लोगों की लेखनी और कथनी में उफान मारने लगता है। पहली नज़र में ये बात जायज़-सी दिखती है। किसी महापुरुष की वैचारिकता […]

मध्यकालीन अशराफ़ इतिहास और पसमांदा सवाल

लेखक : अब्दुल्लाह मंसूर (Abdullah Mansoor) हम यह जानते हैं कि पसमांदा मुसलमानों का न कोई राज्य रहा है और न कोई राजा। क़ौम के बनाए ढाँचे में पसमांदा मुसलमान तब तक फिट नहीं हुए जब तक लोकतंत्र में प्रत्येक वोट का महत्व नहीं बढ़ा। विदेशी नस्ल के मुस्लिम सुल्तानों और बादशाहों ने भारतीय पसमांदा समाज को कभी अपने बराबर […]

आंबेडकरवाद क्यों जरूरी है?

संजय श्रमण (Sanjay Shraman) डॉक्टर अंबेडकर ने कहा है कि भारत का इतिहास असल में श्रमण और ब्राह्मण संस्कृति के संघर्ष का इतिहास है। इस बात को धार्मिक-दार्शनिक विकास सहित परंपराओं, कर्मकांडों, देवी-देवताओं के विकास के स्तर पर भी बहुत दूर तक समझा जा सकता है। ना केवल भौतिक संसाधनों की लूट एवं अधिकार के लिए संघर्ष के संदर्भ में […]

पीऍफ़आई (PFI) पर लगे प्रतिबन्ध पर पसमांदा प्रतिक्रिया

इस सवाल का जवाब तो देना होगा न कि मुसलमानों का 85% पसमांदा समाज आज अगर गलाज़त में जी रहा है तो कसूरवार कौन है? सरकार को तो हम जी भर के गालियां देते ही हैं पर अब हमें अशराफ मुस्लिम रहनुमाओं से सवाल करने होंगे। हमारे मुसलिम समाज के धार्मिक और राजनीतिक रहनुमाओं ने कौन-सी रणनीति बनाई है जिस पर चल कर यह समाज अपनी गलाज़त से निकल सके? शिक्षा और रोज़गार क्या हमारी मुस्लिम राजनीति का हिस्सा है भी? ये समस्याएँ आखिर कभी राष्ट्रीय बहस का हिस्सा क्यों नहीं बन पाती हैं? तलाक के मुद्दे पर तो सड़कें भर देने वाले हमारे धार्मिक रहनुमा क्या इन मुद्दों पर कभी सड़कों पर निकले हैं? हिंदुत्व (फासिस्ट ताकतों) को मुसलमानों का सबसे बड़ा खतरा बताने वाले हमारे रहनुमाओं ने उससे लड़ने के लिए कौन-सी लोकतांत्रिक रणनीति समाज को दी है? कैसे हम इस खतरे का मुकाबला करें? क्या कोई तरीका है मुसलिम समाज के पास?

गुरु नानक देव और धार्मिक-सामाजिक क्रांति

Sanjay Shraman Jothe 3 7 19

संजय जोठे (Sanjay Jothe) गुरु नानक इस देश में एक नयी ही धार्मिक-सामाजिक क्रान्ति और जागरण के प्रस्तोता हैं। पूरे मध्यकालीन संत साहित्य में जिन श्रेष्ठताओं का दर्शन बिखरे हुए रूप में होता है उन सबको नानक एकसाथ एक मंच पर ले आते हैं। उनकी परम्परा में बना गुरु ग्रन्थ साहिब इतना इन्क्लूसिव और ज़िंदा ग्रन्थ है कि उसकी मिसाल […]

जाति आधारित गैरबराबरी में विश्वास- अवैज्ञानिकता, अनैतिकता और मूर्खता

Dhamma

  धम्म दर्शन निगम (Dhamma Darshan Nigam) जो इंसान ठगी और दूसरों को मूर्ख बनाने का रास्ता अपनाता है वह सिर्फ दूसरे ठगों द्वारा ही विकास पसंद कहा जाता है. अन्यथा जीवन में असली विकास वही इन्सान करता हैं जो वैज्ञानिक, नैतिक और तर्कसंगत बात करता है. वैज्ञानिक स्वभाव वाला इंसान दूसरों से भी वास्तविकता में विश्वास रखने तथा उसमें […]

भारतीय कौमवाद (राष्ट्रवाद) : हकीक़त या छल

ajmer singh

  सरदार अजमेर सिंह (S. Ajmer Singh) ‘कौमवाद’ का संकल्प, मूल रूप में एक पश्चिमी संकल्प है जो अपनी साफ़ साफ़ सूरत के साथ मध्ययुग के आखिरी दौर में प्रकट हुआ. यह प्रिक्रिया जितनी व्यापक यानी फैली हुई है, उतनी ही अलग भी है. व्यापकता, एतिहासिकता और भिन्नता-विभिन्नता इसके संयुक्त लक्षण हैं. इसलिए इसकी कोई ठोस या पक्की परिभाषा संभव […]

…ये सबसे सुरक्षित और सबसे कारगर काम है

sanjay jothe2

  संजय जोठे  (Sanjay Jothe) भारत के दलितों आदिवासियों, ओबीसी (शूद्रों) और मुसलमानों को मानविकी, भाषा, समाजशास्त्र, दर्शन इतिहास, कानून आदि विषयों को गहराई से पढने/पढाने की जरूरत है. कोरा विज्ञान, मेडिसिन, मेनेजमेंट और तकनीक आदि सीखकर आप सिर्फ बेहतर गुलाम या धनपशु ही बन सकते हैं, अपना मालिक और अपनी कौम के भविष्य का निर्माता बनने के लिए आपको […]

सिखों के स्वशासन के अधिकार पर डॉ. अंबेडकर का बहुमूल्य मशवरा

यह आर्टिकल सरदार अजमेर सिंह की किताब ‘बीसवीं सदी की सिख राजनीती – एक गुलामी से दूसरी गुलामी तक’ से लिया गया है।     (पंजाब के विभाजन के बाद बनी परिस्थितियों और अलग सिख राज्य पर) पंजाब के विभाजन के बाद पूरबी पंजाब में अलग अलग वर्गों की जनसँख्या के अनुपात में खासी तब्दीली आ गई थी। पश्चिमी पंजाब […]