संजय जोठे (Sanjay Jothe)
गुरु नानक इस देश में एक नयी ही धार्मिक-सामाजिक क्रान्ति और जागरण के प्रस्तोता हैं। पूरे मध्यकालीन संत साहित्य में जिन श्रेष्ठताओं का दर्शन बिखरे हुए रूप में होता है उन सबको नानक एकसाथ एक मंच पर ले आते हैं। उनकी परम्परा में बना गुरु ग्रन्थ साहिब इतना इन्क्लूसिव और ज़िंदा ग्रन्थ है कि उसकी मिसाल किसी अन्य धर्म या सम्प्रदाय में नहीं है। आज नानक जयन्ती पर नानक को परम्परावादी प्रशंसा या अहोभाव की मुद्रा से परे जाकर एक समाज क्रान्ति के मसीहा के रूप में देखने का दिन है।
हमारे अधिकाँश संत और महापुरुष – जो सम्प्रदायों की चादरों में लपेटकर एकदूसरे के लिए अछूत बना दिए गए हैं – उनमे सबसे बड़ा नाम नानक का ही है। उन्हें सिख धर्म और पंजाब तक सीमित कर देना एक ऐसा षड्यंत्र है जिसकी कीमत आज पूरा भारत चुका रहा है। इस देश में व्यक्ति पूजा के हथियार से उसी व्यक्ति की ह्त्या करने का रिवाज बहुत पुराना है। आप बुद्ध या कबीर या नानक को समाज और सामाजिक विमर्ष से गायब करना चाहते हैं तो सबसे अच्छा तरीका है कि उनका मंदिर बनाकर उनकी पूजा शुरू करवा दो। फिर कोई नहीं पूछेगा कि इन महापुरुष का मौलिक विचार या मौलिक क्रान्ति क्या थी। फिर सब विचार और क्रांतियाँ जय जयकार की दलदल में डूब मरेंगी। लेकिन ये दलदल अब छंटनी जरुरी है।
जिस तरह की समाज क्रान्ति की प्रस्तावनाएँ हम आयात करते आये हैं, अब उनसे बहुत बड़ा ख़तरा निर्मित होने लगा है। पश्चिमी विचारों से और मूल्यों से भरी वे क्रांतियाँ इस देश और इस समाज से न्याय नहीं करतीं। वे एक नए भविष्य का सपना तो देती हैं लेकिन हमारे ही जातीय और सामूहिक अतीत/मनोविज्ञान से उनका कोई संगत नाता नहीं बनता। गरीबी या शोषण को मिटाने के जो उपकरण हमने विकसित किये हैं वे राजनीतिक अधिक हैं सामाजिक कम, और सारे उपकरणों का राजनीतीकरण होते ही वे स्वयं विशुद्ध सत्ता की राजनीति में पतित हो जाते हैं। दलित राजनीति और समाजवादी राजनीति की दुर्गति इसका ज्वलंत प्रमाण है। शायद ये रास्ता ही गलत है, या फिर इस रास्ते को किसी दूसरी जमीन की जरूरत है।
भारत के गरीब समाज को – जो अधिकांशतः दलित और पिछड़ा वर्ग है – उसे एक ठोस सामाजिक और सांस्कृतिक सशक्तिकरण का मौका दिए बिना ही समानता और वैश्विक भाईचारे की बड़ी बहस में सीधे घसीट लेना एक अपराध है। जो समाज या संस्कृतियाँ साम्यवाद या समाजवाद का सम्मान कर पा रही हैं वे ऐसे समाज या संस्कृतियाँ हैं जो धर्म से या संस्कृति की छाती से पर्याप्त दूध पी चुकी हैं।
यूरोप का इतिहास देखिये, पूरा यूरोप एक संगठित धर्म की चुस्त और कसी हुई व्यवस्था में लगभग डेढ़ हज़ार सालों तक जीता है, इस बीच में कठोर धार्मिक अनुशासन के साथ साथ आपसी युद्ध भी चरम पर पहुंचता है। इस विराट वैविध्य से भरी पृष्ठभूमि में पूरी की पूरी यूरोपीय सभ्यता एक नए स्तर पर पहुँचती है जहां एक तरफ लोकतंत्र समाजवाद, साम्यवाद, मानव अधिकार जैसे लिबरल विचार जन्म लेते हैं दूसरी तरफ क्रूसेड शुरू हुआ, प्रगतिशील विचार के वैज्ञानिकों और दार्शनिकों की हत्याएं हुईं और इस सबके इस सबके बीच में यूरोप के कई भाषायी और एथनिक कबीले अलग राष्ट्रों के रूप में उभरे और आपस में लड़ते मरते हुए आज उस स्थिति में पहुंचे हैं कि यूरोपीय यूनियन जैसा एक सपना साकार हुआ है। हालांकि ब्रेक्सिट ने इस सपने को कमजोर साबित किया है लेकिन यूरोप की यह ऐतिहासिक उपलब्धि कुछ सोचने को मजबूर करती है।
अब भारत पर विचार कीजिये, एक देश में जहां कोई एक धर्म न हो कोई एक कर्मकांड न हो और एक सामाजिक नैतिकता भी न हो वहां अलग अलग सम्प्रदाय एक साझे समाज की तरह विकसित ही नहीं हो पाए हैं। अलग अलग सम्प्रदायों की बात तो छोड़िये एक ही सम्प्रदाय में जाति और वर्ण की ऐसी बहुमंजिला इमारत बनी हुई है जिसमें आपसे में सम्पर्क नहीं हो सकता। ऐसे विखंडित और पाखंडी समाज को सत्रहवीं अठारवी शताब्दी में यूरोप का वही संगठित समाज आकर गुलाम बना लेता है लूटना शुरू करता है। इसके पहले कबीर और रैदास के प्रयास भी अपने दबे कुचले गरीब बहुजन सम्प्रदायों में कैद हो चुके होते हैं।
कबीर और रैदास के बाद इस स्थिति को ठीक करने की जिम्मेदारी गुरु नानक उठाते हैं। वे कबीर और रैदास सहित बाबा फ़रीद की विरासत को भी ठीक से सहेजकर आगे बढ़ाना चाहते हैं। इस सबके बीच वे जानते आए हैं कि इस देश मे सदियों से मलाई खा रहा पुरोहित वर्ग नए संप्रदायों मे घुसकर कैसे वहाँ जहर फैलाता है। इसलिए गुरु नानक आरंभ से ही बहुत सावधान होते हैं और ब्राह्मणवादी पाखंड को दूर रखने की जितनी कोशिश की जा सकती थी उतनी कोशिश करते हैं। उनके बाद के गुरु तो न सिर्फ जाति और वर्ण को सीधे सीधे नकार देते हैं बल्कि गुरु शिष्य परंपरा मे आमूल-चूल बदलाव करते हुए अपने ही पाँच शिष्यों को अमृतपान करवा उन शिष्यों को गुरु समान मानकर उनके प्रति वही सम्मान व्यक्त करते हैं जो एक शिष्य अपने गुरु के प्रति करता है। और पते की बात ये कि ये पाँच प्रमुख शिष्य (पंज पियारे) उन जातियों और वर्णों से आते हैं जिन्हे पुराने शोषक धर्म के द्वारा अछूत और शूद्र बताया गया था।
गुरु नानक देव जी सूरज को पानी दे रहे पण्डों से तर्क करते हुए कि ये कर्मकांड सिर्फ पाखंड है (पेंटिंग – जसपाल सिंह चौहान)
लेकिन इस देश का दुर्भाग्य बहुत ही घना है। यहाँ कोई भी कुछ भी करना चाहे, ब्राह्मणवाद की भांग उसे धीरे धीरे इस तरह पिलायी जाती है कि वह संप्रदाय मदहोश होने लगता है और उसमे भी वही बातें प्रवेश कर जाती हैं जिनके खिलाफ उन्होंने पहली बार झण्डा बुलंद किया था। परिणाम सामने है। गुरु नानक के अथक प्रयासों के बाद भी खुद पंजाब मे जाति और जाति आधारित भेदभाव खत्म नहीं हुआ है और सिख धर्म का जिस तेजी से पूरे भारत सहित दक्षिण एशिया मे प्रसार होना चाहिए था वह भी नहीं हो सका है।
ऐसी दशा मे जबकि भारतीय समाज एक धर्म एक सिद्धांत और एक नैतिकता मे जीना नहीं सीख पाया है, तब अचानक से अंग्रेज आ धमकते हैं। एक संगठित धर्म के डेढ़ हजार सालों मे पली सभ्यता और सैकड़ों संप्रदायों मे हजारों साल से एकदूसरे को अछूत ठहराने वाले लोगों की असभ्यता मे कूटनीतिक सामरिक और व्यापारिक युद्ध शुरू होता है।
नतीजा सामने है, अंग्रेज एक एक करके इस मुल्क की हर रियासत को हड़प लेते हैं और वही लोग जो दूसरों को नीच और अछूत साबित करते आए थे वे इन नए मालिकों के सबसे भरोसेमंद सेवक बनकर उन्हे सामरिक, व्यापारिक और धार्मिक सलाहें दिया करते थे। इन्ही लोगों ने संस्कृत सहित तमाम भाषाओं के अनुवाद मे मदद करके उस इतिहास को जन्म दिया है जिसे आज उनकी खुद की अगली पीढ़ी ‘गलत इतिहास’ बताकर गाली दे रही है।
अंग्रेजों के पहले जितने भी अन्य आक्रमण भारत पर हुए उनसे सबसे पहले संधि करने वाला और उनकी मदद करने वाला संप्रदाय या वर्ण वही रहा है जो आज इन आक्रमणकारियों को सबसे अधिक गालियां देते हुए राष्ट्रवाद का झण्डा सबसे ऊंचा करके लहराता है। यह भारत के इतिहास का एक ऐसा मजेदार पक्ष है जिसपर विचार आरंभ होने की संभावना बनते ही स्वयं इतिहास ही बदल दिया जाता है।
इस षड्यन्त्र को कबीर, रैदास और नानक बहुत अच्छे से समझते देखते आए हैं। उनकी वाणियों मे जिस संश्लेषण की गूंज है वह अतीत के षड्यंत्रों से भविष्य के भाईचारे की तरफ ले जाती है। न सिर्फ भारतीय समाज के अलग-अलग जातियों और वर्णों को इस ‘ग्रेंड-डिजाइन’ मे शामिल किया जाता है बल्कि तत्कालीन सत्ताधीश वर्ग – मुस्लिम समाज को भी इस डिजाइन मे शामिल किया जाता है। यह गुरु नानक द्वारा किया गया वह सूत्र है जिसे अगर बाद मे ठीक से अमल मे लाया गया होता तो इस देश मे नई सभ्यता और नयी नैतिकता का उदय हो सकता था लेकिन यह नहीं हो सका। जिस तबके के षड्यंत्रों के खिलाफ यह नई भूमिका बन रही थी उसे तबके ने इस नए धर्म को अपनी तलवार घोषित करके इस तरह प्रचारित किया कि नानक के नए धर्म की अस्मिता और वैधता के प्रति शेष भारतीय समाज सचेत ही नहीं हो सका और करवट बदल कर फिर से सो गया।
गुरु नानक उस दौर मे भारत मे प्रकट होते हैं जिस दौर मे एक धर्म और एक कर्मकांडीय नैतिकता सहित एक सामाजिक धार्मिक नैतिकता की आवश्यकता पूरे भारत मे महसूस की जा रही थी। कबीर और रैदास इस आवश्यकता को बहुत स्पष्ट शब्दों मे अभिव्यक्ति देते हैं लेकिन दुर्भाग्य से कबीर और रैदास की अभिव्यक्ति काव्य तो बन जाती है लेकिन धर्म नहीं बन पाती। कबीर और रैदास अधिक से अधिक एक संप्रदाय बना पाते हैं। इस दुर्भाग्य की धुंध मे गुरु कबीर और रैदास का पूरा कर्तृत्व खो जाता है।
बाद मे पुराने शोषक धर्म का षड्यन्त्र अपने शिक्षर पर पहुंचता है और कबीर सहित रैदास ने जिस परंपरा के खिलाफ झण्डा बुलंद किया था वही परम्पराएं इन दोनों को संत शिरोमणि और न जाने क्या क्या कहकर अपनी परंपरा का ‘भक्ति संत’ साबित कर देते हैं। यह चमत्कार भारत मे बार-बार होता रहा है। अभी भी जारी है।हमारी आखों के सामने जिस तरह से बाबा साहेब अंबेडकर को हड़पने का खेल चल रहा है वह गौर करने लायक है। ये वही पुराना खेल है जो कबीर और रैदास ही नहीं गौतम बुद्ध के साथ भी खेला जा चुका है।
इस तरह अतीत मे एक नैतिकता और एक धर्म के अभाव को देखकर गुरु नानक ने अपना कार्य आरंभ किया था। न सिर्फ अध्यात्मिक संश्लेषण की दिशा में बल्कि समाज को समाज बनाए रखने की दिशा में भी। उनका होना इतना महत्वपूर्ण और बहुआयामी है कि हम अंदाजा भी नहीं लगा सकते कि उन्होंने और उनके बाद के गुरुओं ने क्या कर दिखाया है। साधारण सामाजिक विमर्श, क्रान्ति के विमर्ष और धार्मिक विमर्श भी उनके साथ अन्याय करते आये हैं। वे धर्म, नैतिकता और सभ्यता के निर्माण के साथ साथ समाज निर्माण को भी एकसाथ साधते हैं और जो मॉडल देते हैं वो आगे चलकर बहुत क्रांतिकारी है साबित होता है।
उसी पर खड़ा सिख धर्म एक अद्भुत रचना है। इसमें कबीर और रैदास के तर्क की धार है तो फरीद और बुलेशाह के हवाले से आ आ रही पैगंबर मुहम्मद के एकेश्वरवाद के प्रति समर्पण की ठोस जमीन भी है। इसमे तर्क और समपर्ण के बीच एक विशेष संतुलन बनाया गया है साथ ही सगुण और निर्गुण की जितनी भी विरोधी परम्पराएं हैं उनमे गजब का संश्लेषण कर दिया गया है। इस नवीन रचना की सबसे बड़ी बात ये है कि भारत के अन्य धर्मों की तरह यह गरीबी और पलायन के प्रति सम्मान नहीं सिखाता बल्कि ताल ठोंककर लड़ने और आत्मरक्षा का अधिकार भी देता है, भीतर से धार्मिक और बाहर से संपन्न और शूरवीर मनुष्य की जो कल्पना नानक ने दी है वो और कहीं नहीं मिलती। गुरु अर्जुन देव इसी को ‘रसिक बैरागी’ कहकर चार चाँद लगा देते हैं। बाद मे अछूत और शूद्र माने गए तबके को शस्त्र और शास्त्र का अधिकार देते हुए अगले गुरु इस धर्म की डिजाइन को अधिक से अधिक समावेशी बनाते जाते हैं।
यह जो मौलिक देन है गुरु नानक की, इसे पूरी गरीब और पिछड़ी जातियों के सबलीकरण का आधार बनना चाहिए। कबीर, रैदास, मुहम्मद और नानक की युति को इस दिशा में बहुत गंभीरता से समझना जरुरी है। कबीर और रैदास एक तरफ जहां एक नए मार्ग की सैद्धांतिक भूमिका बनाते हैं वहीं नानक उसी को “ओपरेशनलाइज” कर देते हैं। वे सिद्धांत को एक ठोस रचना में बदल देते हैं। कबीर अपनी मर्जी से हिन्दू मुस्लिम की श्रेणी के बाहर खड़े हैं और नानक और उनके बाद के गुरु तो खुद में एक नई ही श्रेणी बन जाते हैं।
अब भारत मे लोकतान्त्रिक या समाजवादी क्रान्ति की प्रस्तावनाओं के साथ रखकर नानक को इस तरह देखना बहुतों को अजीब लग सकता है। लेकिन उन ग्लोबल क्रांतियों की भारत में जैसी दुर्गति होती आयी है उसके प्रकाश में इस तुलना को देखेंगे तो बात समझ में आयेगी। आखिर क्या बात है कि गरीब और दलित समुदाय के पक्ष में खड़ी हुई क्रान्ति या राजनीति भी अंततः पुरातनपंथी व्यवस्था के ज्वार में ही बह जाती हैं? या उनमे शक्ति आने के बाद वे ठीक उसी तरह का शोषण करने लगती हैं जैसा शोषण पुराने शोषकों ने किया था?
इसका सीधा सा उत्तर है कि मौलिक रूप से गरीब और दलित समुदाय की मानसिक गुलामी के सूत्र जब तक नहीं तोड़े जाते तब तक उनकी भीड़ पर खड़ी राजनीति और समाजनीति – दोनों ही कहीं नहीं ले जाएँगी। अभी भी शोषित वर्ग का मनोविज्ञान उसी खूंटे से बंधा है जो उनके मन में पांच हजार साल पहले इस देश के कर्मकांडीय शोषकों ने खोदा था। वो खूंटा अभी तक वहीं गड़ा हुआ है।
नानक और कबीर इस अर्थ में विचारणीय हैं, वे बहुत गहराई में इस देश के मौलिक मनोविज्ञान को थामे हुए भविष्य का नक्शा देते हैं। और उस नक़्शे की मौलिक प्रेरणा एक सबल सांस्कृतिक एकीकरण में है। फिर धीरे धीरे इसी एकीकरण में से क्रान्ति का झरना बह निकलता है। बगैर हल्ला मचाये बहुत कुछ अपने आप बदल जाता है।
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संजय जोठे लीड इंडिया फेलो हैं। मूलतः मध्यप्रदेश के निवासी हैं। समाज कार्य में पिछले 15 वर्षों से सक्रिय हैं। ब्रिटेन की ससेक्स यूनिवर्सिटी से अंतर्राष्ट्रीय विकास अध्ययन में परास्नातक हैं और वर्तमान में टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान से पीएचडी कर रहे हैं।
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