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धम्म दर्शन निगम (Dhamma Darshan Nigam)
1. जननी
मैं
जननी इस संसार की
आज तलाश में
अपनी ही पहचान की
अपने ही पेट से
चार कंधों के इन्तजार तक!!
पहचान मिली भी
तो आश्रित रहने की
बचपन में पिता पर
जवानी में पति पर
और बुढ़ापे में बेटे पर
पूरी उम्र आश्रित
अपनी ही पैदा की गई जात पर
आदमी पर!!
कभी पहचान जताने के लिए
गलियों से गुजरते हुए
निकालनी पड़ी मुझे
सुअर की आवाज़
तो कभी निकलना पड़ा
खुली रक्खे अपनी छाती
तो कभी पहचान बता डायन
मनोरंजन किया गया सबका
घुमा कर नंगा, मुझे पूरा गांव!!
इन सब का स्वार्थ
और झूठा सम्मान भी
बनाये रखना था मुझे ही
तो कभी कोख से निकालकर
तो कभी कोख में ही दी गई मेरी बली
कभी रखा गया मुझे परदे में
कभी किया बाल विवाह
तो कभी बनी मैं सती
कभी करवाया गया जौहर
तो कभी समाना पड़ा पृथ्वी में
और देनी पड़ी अग्नि परीक्षा
उस पुरुषोत्तम राम को
जिसको जरा भी शर्म नहीं आई थी
अहिल्या को पैर से छूते हुए!!
और छीना मेरा अस्तित्व
बना मुझे, कभी देवदासी, कभी जोगिनी
और कभी वैश्या
मिटाने
इनकी, इनके देवों की और
और इनके पुजारियों की
वासना की भूख!!
और अब ये चरित्रहीन बोलने लगे कि
मैं ही गढ़ती हूं परिभाषा
चरित्रहीनता की
और देते हैं
सभ्यता और सलीके की दुहाई
कि सांस भी खुलकर
नहीं लेनी मुझे!!
और आज भी
सर उठाने, चलने
गले से आवाज़ निकालने
तक के लिए जूझती मैं
जूझती अपने प्रतिशत के लिए!!
कभी
ठगी सी खड़ी
बीच, आदमियों की जमात के
देखती
इस झूठे लोकतंत्र में
इस झूठी संसद में
होने को कोई फैंसला मेरे पक्ष में
होने को कोई अनहोनी!!
अभी खड़ी भी हूं
अपने पैरों पर, तो
कोशिश में ये आदमी
खींचने को तैयार ज़मीन
मेरे पैरों के नीचे से!!
सुलगाए जा रही मैं
तुम्हारे इस दिलो दिमाग को
देने को आकार एक नई आग को!!
2. खीर
बहन
क्या
मैं एक आदमी को मारने जा रही हूं
क्यों
वो मुझे कुछ दिनों से छेड़ रहा है
कौन
वो मुखिया,रामकृष्ण
वो चतुर्वेदी
हां
क्या तुम सच में उसे मार दोगी
हां, सच में
… ठीक है
कुछ है तुम्हारे पास उसे मारने के लिए
नहीं
ये दरांती लेलो
मैंने सुबह ही ये पैनी करी है
बहुत पैनी है
मैं इसे शाम को वापस कर दूंगी
ठीक है
तुम उसे मारोगी कहां
वो हर शाम खेत घूमने जाता है
(जहां उसने मुझे कल शाम छेड़ा था)
मैं तुम्हारे साथ चलूं क्या
नहीं
क्या तुम्हें डर नहीं लग रहा
नहीं
(किसी को पता नहीं चलेगा)
ठीक है
जाओ और जल्दी आना
मैं हम दोनों के लिए खीर बना कर रखती हूं ..
3. विद्या आंटी
मेरे घर का काम करने वाली विद्या आंटी
सारे काम करती हैं
झाड़ू मारती हैं
पोछा मारती हैं
जगह-जगह से धूल झाड़ती हैं
किताबें भी जहां-तहां से उठा के
टेबल पर रख देती हैं
कंप्यूटर टेबल डेली साफ़ करती हैं
बाथरूम- टॉयलेट भी समय-समय पर साफ़ करती हैं
वो मेरा खाना भी बनातीं हैं
उनके हाथ में जो स्वाद है (लाजवाब, कि हाथ चूम लो)
वो दुनिया की किसी दूसरी औरत के हाथ में नहीं हो सकता
वो लोग जो कहते हैं
साफ़-सफ़ाई का काम करने वाली औरतों के हाथ का
बना खाना स्वादिस्ट नहीं होता
उनका सत्यानाश हो
किसी भी तरह से, किसी भी रूप में
किसी भी शर्त पर, किसी भी परिस्थिति में
जाति का समर्थन करने वालों
तुम्हारा सत्यानाश हो!!
4. पितृसत्ता
पितृसत्तावादी नहीं हूं
पर पितृसत्ता मुझमें भी है
उथली-पुथली-उलझी
जो समय-समय पर
बिना कोई मौका दिए
शरीर के लगभग सभी अंगो से
बाहर निकलने को आतुर रहती है
और कभी-कभी बाहर आ भी जाती है।
मैं, मेरी ही आंखों में नंगा होता चला जाता हूं
जब भी तुम मेरी मुलाकात
मेरे अंदर के इस घिनौनें जानवर से कराती हो।
5. मेरी योनी कमज़ोरी नहीं है मेरी
एक शरीर से कहीं ज़्यादा हूं मैं
पर इस शरीर की ही मदद से
मेरे रहने-खाने का इंतज़ाम भी कर लेती हूं
लेकिन, तुम्हारी मर्दानगी
तुम्हारे लिंग में ही क्यों बसती है??
जब तुम मेरे जीने के
सभी रास्ते बंद कर देते हो
तब भी जीती हूं मैं
मेरा सर आसमान सा उंचा किए
मेरे इस शरीर के सहारे!!
मेरा घर-परिवार भी छुड़वा देते हो
मेरे अहसास तक नहीं समझते
लेकिन तुम्हारे अहं की प्यास बुझाने
तुम मुझे ही ढूंढ़ते आते हो
किसी वस्तु की तरह मेरा शरीर नोचने!!
अगर तुम थोड़ा सा प्यार दिखाते
बदले में मेरा प्यार भी पाते
मुझे तुम्हारी बाहों में पाते
पर तुम हमेशा आदेश देना चाहो तो कैसे चलेगा?
तो अब हिंसक बन चुकी हूं मैं!!
अगली बार जब तुम मुझे ढूंढ़ते
मेरे इलाके में आओ
जहां मेरा और मेरे शरीर का वर्चस्व है, सावधान रहना
मैं तुम्हें मैली मिट्टी में बदल सकती हूं
मेरी योनी कमज़ोरी नहीं है मेरी!!
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धम्म दर्शन निगम ‘सफाई कर्मचारी आन्दोलन’ के नेशनल कोऑर्डिनेटर हैं, लेखक हैं व् The Ambedkar Library के फाउंडर हैं. उनसे ddnigam@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
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