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अब्दुल्लाह मंसूर (Abdullah Mansoor)

गृह मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना के माध्यम से अवैध गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत पाँच साल के लिए रिहैब इंडिया फाउंडेशन (आरआईएफ) और कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया सहित पीएफआई और उसके सहयोगी संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। इस के साथ पूरे देश से अलग-अलग प्रतिक्रियाएँ आने लगींc पर मैं आपका ध्यान तथाकथित सेक्युलर-लिबरल समझे जाने वाले लोगों की ओर दिलाना चाहता हूँ। उनकी प्रतिक्रिया का सार कुछ यूँ है कि PFI पर प्रतिबंध लगा है तो RSS पर क्यों नहीं?

ये तर्क ऊपरी तौर पर सही भी लगता है। दोनों ही संगठनों के जो क्रियाकलाप हैं वो धार्मिक कट्टरपंथ को बढ़ावा देते हैं। जहाँ हिन्दू राष्ट्र का सपना रखने वाले आरएसएस को सत्तापक्ष का कवच प्राप्त है वहाँ एक मुस्लिम संगठन पर लगा हुआ प्रतिबंध इस नज़र से देखा जा रहा है कि ये मुस्लिम समाज पर आघात है। बड़ी बात नहीं कि मुस्लिम समाज का युवावर्ग सरकार के इस कदम को साम्प्रदायिक चश्में से ही देखे और पीएफआई के लिए धार्मिक निष्ठा के नाम पर उसे हमदर्दी भी पैदा हो। इसके लिए कौन जिम्मेदार होगा? यही सेक्युलर लिबरल तबका जो हिंदू मुस्लिम बाइनरी से आगे बढ़ना ही नहीं चाहते, ऐसा कर के वो मुस्लिम समाज पर कोई अहसान नहीं कर रहे बल्कि इस तरह वो प्रतिक्रियात्मक हिन्दू साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दे रहे हैं। फासीवादी सत्ता के खिलाफ लड़ते हुए वे मुस्लिम साम्प्रदायिक संगठनो को भी अपने साथ मिला लेते हैं। सुनने में ये बहुत अच्छा लगता है कि एक बड़ी बुराई को खत्म करने के लिए छोटी बुराई को नज़रअंदाज़ कर देना चाहिए। पर क्या वास्तव में हम फासीवाद को हराने के लिए साम्प्रदायिकता का चुनाव कर सकते हैं? एक लोकतांत्रिक राष्ट्र का अस्तित्व ही खोखला है अगर उसमें सांप्रदायिकता का दीमक लगा हो।

हालंकि ये पहली बार नहीं है कि सत्ता गिराने के लिए इन सेक्युलर-लिबरल लोगों ने विचारधारा की राजनीति को ताक पर रखा हो। आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी को सत्ता से हटाने के लिए इसी संगठन आरएसएस को उन्होंने मौका दिया। गौरतलब है कि उस वक्त सभी राजनीतिक दल आरएसएस से दूरी बनाकर चलते थे। यहाँ तक कि मुस्लिम समुदाय ने भी पहली बार कांग्रेस को छोड़कर कर, इंदिरा गांधी के खिलाफ, आरएसएस तक को वोट दिया। आज की तारीख में हम वापिस वही गलती दोहरा रहे हैं। फासीवाद को हराने की मंशा बिलकुल सही है पर जिन मुस्लिम सांप्रदायिक संगठनों से हाथ मिलाकर ये राजनीति खेली जा रही उसमें शहीद हमारे मुस्लिम पसमांदा युवा ही होंगे। एक तरफ अशराफ रहनुमा मुस्लिम एकता का नारा देते हैं और मुस्लिम होने के नाते वोट करने की बात करते हैं तो दूसरी तरफ दक्षिणपंथी संगठन हिन्दू होने के नाते एक होने और वोट करने की बात करते हैं। ये दोनों ही धर्मों के उच्च वर्ग अच्छी तरह समझते हैं कि उनकी अपने-अपने समुदायों में वर्चस्वता इस बात पर निर्भर करती है कि वो आपस में नफरत की राजनीति करते रहें और असल मुद्दों की जगह जज़्बाती मुद्दों की सियासत में आम जनता को उलझा कर रखें।

हिंदू और मुस्लिम धर्म के निचली जातियों के लोग उत्पादन के कार्यों में अग्रसर होते हैं और वो सामाजिक व् आर्थिक तंत्र में स्वाभाविक तौर पर सेक्युलर होते हैं। वहीं ये ‘ब्राह्मण’ और ‘अशराफ’ इन वर्गों पर परजीवी की भांति जीवन निर्वाह करते हैं। यह जानना और भी रुचिकर है कि ये दोनों आपस में सहजीवी तंत्र की भूमिका में रहते हैं।

ये सरल सा दिखने वाला फॉर्मूला इन दोनों धर्मों के हुक्मरानों ने आज़ादी के बहुत पहले ही समझ लिया था। यही वजह रही कि पाकिस्तान के समर्थन में हिंदू महासभा ने वोट दिया जबकि खुद मोमिन कॉन्फ्रेंस ने ‘टू नेशन’ थ्योरी का विरोध किया। ये मोमिन शब्द ही आगे चलकर पसमांदा डायलॉग का आधार बना। पसमांदा जिसकी आबादी भारत में मुस्लिम आबादी की लगभग 85% है।

हम यह भलीभांति समझते हैं कि मुस्लिम समाज में अशराफ़ राजनीति से लड़ने की एकमात्र क्षमता पसमांदा राजनीति के पास है लेकिन हमारे सेक्युलर योद्धाओं को हिन्दू दलित नज़र आते हैं पर मुस्लिम दलित/ पसमांदा नज़र नहीं आते। अभी हाल ही में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री ने पसमांदा शब्द का प्रयोग किया इससे अशराफ संगठनों के साथ सेक्युलर हल्के में हाहाकार मच गया। पासमांदा समाज के नेता इनको भाजपा के एजेंट नज़र आने लगे। कहा जाने लगा कि भाजपा राजनीति कर रही है। भाजपा एक राजनीतिक पार्टी है वह राजनीति तो करेगी ही पर जो तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियां हैं उन्होंने पसमांदा के लिए अब तक क्या किया? आखिर क्या वजह रही कि ये पार्टियां मुस्लिम समाज की एकरूपता के मिथ को बनाए रखना चाहती हैं? इन पार्टियों ने भी अपनी राजनीतिक हितों की रक्षा हेतु पसमांदा की आवाज़ को दबा कर रखा ताकि उनकी मुस्लिम पहचान को भुनाया जा सके। इस तरह ये पार्टियां भी हिंदू-मुस्लिम साम्प्रदायिकरण में बराबर की कुसूरवार हैं। पसमांदा शब्द को राजनीति से दूर रखना इनकी सोची समझी चाल थी क्योंकि ये शब्द ही विचारधारा में परिवर्तन लाते हैं और ये भी तय करते हैं कि सत्ता की कमान किसके हाथों में होगी।

इस सवाल का जवाब तो देना होगा न कि मुसलमानों का 85% पसमांदा समाज आज अगर गलाज़त में जी रहा है तो कसूरवार कौन है? सरकार को तो हम जी भर के गालियां देते ही हैं पर अब हमें अशराफ मुस्लिम रहनुमाओं से सवाल करने होंगे। हमारे मुसलिम समाज के धार्मिक और राजनीतिक रहनुमाओं ने कौन-सी रणनीति बनाई है जिस पर चल कर यह समाज अपनी गलाज़त से निकल सके? शिक्षा और रोज़गार क्या हमारी मुस्लिम राजनीति का हिस्सा है भी? ये समस्याएँ आखिर कभी राष्ट्रीय बहस का हिस्सा क्यों नहीं बन पाती हैं? तलाक के मुद्दे पर तो सड़कें भर देने वाले हमारे धार्मिक रहनुमा क्या इन मुद्दों पर कभी सड़कों पर निकले हैं? हिंदुत्व (फासिस्ट ताकतों) को मुसलमानों का सबसे बड़ा खतरा बताने वाले हमारे रहनुमाओं ने उससे लड़ने के लिए कौन-सी लोकतांत्रिक रणनीति समाज को दी है? कैसे हम इस खतरे का मुकाबला करें? क्या कोई तरीका है मुसलिम समाज के पास? दरअसल, हमारे रहनुमा (धार्मिक और राजनीतिक दोनों) सिर्फ जज्बाती बातों पर अपनी रोटियाँ सेंकने का काम करते हैं। हर चुनाव में ये इन पसमांदा मुसलामनों की भीड़ दिखा कर अपने बेटों और दामादों के लिए सीट माँग लेते हैं। बिहार का शरीयत बचाव आंदोलन तो अभी हाल का उदाहरण है। इनके पास समाज की स्थिति को सुधारने की कोई रणनीति नहीं है. इसलिए ये पसमांदा समाज को तालीम, रोजगार और विकास जैसे मुद्दों से भटकाने के लिए बुरका, मदरसा, अलीगढ़, ईशनिंदा, समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों में उलझाए रखते हैं। अगर फिर कोई मज़ाक बनता है तो ये अपना सीना भी पीटते हैं कि हमारा मज़ाक बनाया जा रहा है।

यहाँ एक बात और समझने की है कि भारत में ‘सेक्युलरिज़्म‘ का अर्थ ‘मुस्लिम  तुष्टीकरण’ के रूप में किया जाता है। भाजपा आसानी से ये बात हिंदू-मतदाताओं को समझा पा रही है। ज़रूरत इस बात की है कि सेक्युलरिज़्म की नई व्याख्या की जाए जो भारत की ज़मीनी वास्तविकता पर आधारित हो। पसमांदा आन्दोलन इस ठोस हकीक़त पर टिका हुआ है कि जाति भारत की सामाजिक बनावट की बुनियाद है, और पसमांदा यहाँ के मूलनिवासी हैं। इसलिए सामाजिक-राजनीतिक विमर्श जाति को केन्द्र में  रखकर ही किया जा सकता है। जब तक हम अशराफ संस्कृति, उनके नायकों और उनकी विचारधारा को पसमांदा दृष्टिकोण से चुनौती नहीं देंगे तब तक हम PFI और RSS के ग़ैर-ज़रूरी संवाद में फंसे रहेगें। हमें अपना संवाद खड़ा करने की जरूरत है जहाँ हम जाति के उन्मूलन के प्रति प्रतिबद्ध रहें और यह सुनिश्चित करें कि जाति पर आधारित राजनीति महज साधन बन कर न रह जाए, अपितु यह साध्य बनकर भारतीय लोकतंत्र की सुरक्षा भी करे।

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लेखक, पसमांदा एक्टिविस्ट तथा पेशे से शिक्षक हैं और एक Youtube चैनल Pasmanda DEMOcracy के संचालक हैं।

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