विकास वर्मा (Vikas Verma)
पिछ्ले कई सालों से बहुत लोगों को बोलते और लिखते हुए देखता आ रहा हूँ कि डॉ. आंबेडकर किताबों में रहते हैं, मूर्तियों में नहीं। और ये विचार हर साल आंबेडकर जयंती के दौरान लोगों की लेखनी और कथनी में उफान मारने लगता है।
पहली नज़र में ये बात जायज़-सी दिखती है। किसी महापुरुष की वैचारिकता ही उनके विज़न (दृष्टि) का आधार होता है, और वैचारिकता, जाहिर सी बात है, उनके लेख-संग्रहों में रहती है, उनकी मूर्तियों मे नहीं। मूर्तियाँ तो एक नायक-पूजा का माहौल बनाती हैं। नायक-पूजा में ये ज़रूरी नही कि आप उनके बताए गए रास्ते को समझें और उस पर चलें। मूर्ति पर फूल-माला चढ़ाकर, चार गानों पर नाचकर, रस्म अदायगी करके आदमी अक्सर जैसे अपने कर्तव्य से भारमुक्त हो जाता है। तो ऐसे मे ‘किताब’ और ‘मूर्ति’ मे ‘किताब’ हमारी सहयोगी और ‘मूर्ति’ अनुपयोगी लगने लगती है।
मैं भी पहले इस बात का पक्षधर हुआ करता था, लेकिन समय के साथ ये तर्क बहुत सतही लगने लगा। दरअसल जब अपने समाज पर अनालिटिकली नज़र डाली तो किताबों से बाबा साहेब आंबेडकर को ढूँढने की बात दूर की कौड़ी लगी।
फिलहाल हमारा समाज इतना प्रिविलेज्ड (सुविधा-संपन्न) नहीं है, कि सभी लोग बाबा साहब की किताबें पढ़कर उनके बारे मे जानें, कल्चरल कैपिटल की कॉम्प्लेक्सिटी समझ सकें, शोषण के इतिहास का आकलन करने बैठें। समाज का ऐसा एक बड़ा अंडर-प्रिविलेज्ड तबका उनसे या उनके विचारों से अनजान है। ऐसे मे पहली ज़रूरत है कि उनको लोगों की नज़रों के सामने ज्यादा से ज्यादा लाया जाए ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग अपने समाज के आईकॉन को जानें। ये काम मूर्तियाँ बखूबी कर सकती हैं। मूर्तियों से लोगों को उनके विचार और आदर्श भले न समझ आएँ, लेकिन उन्हें इतना जरूर समझ आ जाता है कि कोई था जिसने समाज के शोषितों के लिए लड़ाई लड़ी और देश-दुनिया के लिए हीरो बन गया।
इस स्टेप तक आने के बाद ही वो उनके संदेशों के प्रति उत्सुक होंगे और समझेंगे कि उन्होंने समाज को क्या करने और क्या न करने के लिए बोला। इन संदेशों के लिए फिर वे उनकी किताबों लेखों और भाषणों की तरफ मुड़ेंगे। कुल मिलाकर ये मूर्तियाँ बहुतों को धीरे-धीरे बाबा साहब की किताबों और उनके विचारों की ओर ले जा सकती हैं। आप मूर्ति हटा के समाज को सिर्फ किताब देखने का संदेश देंगे, तो शायद आपके हाथ कुछ न लगेगा।
“आंबेडकर किताबों में हैं, मूर्तियों में नहीं” ये शायद उस परिस्थिति मे तथ्य माना जा सकेगा, जब हम वैसा समाज बना सकें जैसा बाबा साहब बनाना चाहते थे। ऐसा समाज जिसमे कोई शोषित न हो, सबके पास समान अधिकार व शिक्षा-स्तर हो, और सब अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हों। लेकिन अभी हम उस स्तर से बहुत दूर हैं। वहाँ तक पहुँचने के रास्ते मे बाबा साहब के मार्गदर्शन की जरूरत होगी, उनके मार्गदर्शन के लिए उनकी किताबों की जरूरत होगी, उनकी किताबों के बारे मे जानने के लिए उनके बारे मे जानना होगा, और उनके बारे मे जानने का रास्ता उनकी मूर्तियों से होकर ही जाएगा। इसलिए फिलहाल, मूर्तियाँ और किताबें दोनों ही जरूरी हैं हमारे समाज के लिए और दोनों मे ही बाबा साहब बसते हैं।
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विकास वर्मा पेशे से एक इंजिनियर हैं एवं सामाजिक न्याय के पक्ष में लिखते हैं।
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