अयोध्या तो बस झांकी है, काशी-मथुरा बाकी है

ratnesh katulkar

डा. रत्नेश कातुलकर (Dr. Ratnesh Katulkar) 90 के दशक में भारत दो ऐसे आंदोलन हुए जिन्होंने देश की राजनीति की दशा हमेशा के लिये बदल दी। वे थे मंडल और कमंडल। वीपी सिंह के नेतृत्व में मंडल आंदोलन सामाजिक न्याय पर आधारित था जबकि कमंडल यानी रामजन्मभूमि मंदिर आंदोलन ने बहुसंख्यक हिंदुओं की भावनाओं को भड़काया। इसका प्रभाव जनमानस पर […]

बुद्ध के प्रथम उपदेश की पृष्ठभूमि

ratnesh katulkar

बुद्ध के जीवन में ऐसी अवस्था उनके बुद्धत्व की प्राप्ति के कुछ दिनों बाद ही हुई. इसका कारण था कि उन्हें जिस ज्ञान की प्राप्ति हुई थी, उससे सारा मानव समाज अनजान था. यह इतना अनोखा अनुभव था, इसे किसे बताया जाये, कि वह इसे पूरी तरह समझ सके? बुद्ध की यह चिंता थी. उन्हें ऐसा भी लग रहा था कि इस ज्ञान को साधारण इंसान के द्वारा समझ पाना एक टेढ़ी खीर है. क्योंकि एक आम व्यक्ति से लेकर बुद्धिजीवी जिन मिथकों में अपना जीवन बिता देते हैं जो ईश्वर, आत्मा, पुनर्जन्म, कर्मकांड, पुरोहितगिरी, तप, व्रत-उपवास और कर्मकाण्ड से भरा होता है, वे इन्हें ही सत्य और शाश्वत मानते हैं. लेकिन धम्म में इन मान्यताओं का रत्ति भर भी स्थान नहीं है. और तो और जो किसी भी मुसीबत या चुनौती के पीछे हमेशा दोष किसी बाहरी ताकत पर ही मढ़ने की इन्सानी फितरत है, उसकी धम्म में कोई जगह नहीं. बुद्ध ने जिस सत्य को खोजा उसमें अधिकांश परेशानियों और गलतियों के पीछे कोई बाहरी ताकत नहीं बल्कि खुद इनको झेलने वाला व्यक्ति ही जिम्मेदार है. उनकी यह खोज थी कि किसी सहारे को मत ढूँढो बल्कि अपना द्वीप खुद बनाओ या अपना दीपक खुद बनों.

विश्व के कोइतूर लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस- भारत में एक नई क्रांति का आग़ाज़

अगर हम कोइतूर शब्द को और गहरे अर्थ में समझें तो आज की अनुसूचित जनजातियों (Schedule Tribes), अनुसूचित जातियों (Schedule caste), पिछड़ा वर्ग (Other Backward Classes) और धार्मिक अल्पसंख्यकों (Religious Minorities) को मिलकर जो समूह बनता है वह भी कभी इसी कोइतूर (Indigenous) समाज का हिस्सा था लेकिन कालांतर में बाहर से आने वाले लोगों की संस्कृतियों के प्रभाव और संपर्क में आकर अपनी मूल संस्कृति, रहन-सहन, भाषा बोली, तीज त्योहार, खान पान, पूजा पाठ, जीवन संस्कार इत्यादि को त्याग दिया और अपने कोइतूर होने के अधिकार को खो दिए। भारत की मात्र कुछ जनजातियाँ जैसे गोंड, प्रधान, कोया, इत्यादि ही अपने उस प्राचीन मूल कोयापुनेमी सभ्यता और संस्कृति को बचाए रहने में सफल रहे हैं और आज भी कोइतूर होने का अधिकार रखते हैं।

‘भीमबाबा’ वर्तमान और भावी पीढ़ी के लिए एक बहुमूल्य पुस्तक

जब भी हम किसी किताबों की दुकान पर जाते हैं, तो हमें काल्पनिक चरित्रों और अवास्तविक कहानियों पर आधारित किताबों और कॉमिक्स का भंडार दिखाई देता है। हालाँकि महान सामाजिक नेताओं पर साहित्य की हमेशा कमी रहती है, जिन्होंने सामाजिक असमानता को दूर करने और सभी मनुष्यों के लिए एक बेहतर दुनिया की स्थापना के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।

‘भीमबाबा’ पुस्तक निश्चित रूप से इस अंतर या खाई को भरती है। यह पुस्तक केवल बच्चों के लिए ही नहीं बल्कि उनके माता-पिता के लिए भी है क्योंकि लेखक ने भारतीय समाज में जाति व्यवस्था और पितृसत्ता जैसे गंभीर और महत्वपूर्ण मुद्दों को समझदारी के साथ सामने रखा है। उन्होंने बच्चों में प्रश्न पूछने के चलन को भी बढ़ावा दिया है।

आंबेडकर किताबों में हैं, (और) मूर्तियों में भी।

विकास वर्मा (Vikas Verma) पिछ्ले कई सालों से बहुत लोगों को बोलते और लिखते हुए देखता आ रहा हूँ कि डॉ. आंबेडकर किताबों में रहते हैं, मूर्तियों में नहीं। और ये विचार हर साल आंबेडकर जयंती के दौरान लोगों की लेखनी और कथनी में उफान मारने लगता है। पहली नज़र में ये बात जायज़-सी दिखती है। किसी महापुरुष की वैचारिकता […]

मज़दूरों का एक स्कूल और एक टीचर का कामकाजी सफ़र

झरना साहू (Jharna Sahu)  मैंने इस लेख को इसीलिए लिखना शुरू किया क्योंकि लिखने से हमें हमारे काम व् जीवन पर पुनर्विचार करने में काफी मदद मिलती है। अपने काम की परिस्थितियों व् एक टीचर बने रहने के संघर्ष के कारण, हम कुछ टीचर जो रायपुर के औद्योगिक इलाके के एक छोटे से प्राइमेरी स्कूल में पढ़ाते हैं, ने इस […]

कौन हैं ये बाबा साहेब को ‘हृदयहीन’ और ‘गोड्से का समर्थक’ बताने वाले?

अरविंद शेष और राउंड टेबल इंडिया (Arvind Shesh & Round Table India) संदर्भ में मनमानी छेड़छाड़ के जरिए दुराग्रहों और धूर्त कुंठाओं का निर्लज्ज प्रदर्शनबाबा साहेब आंबेडकर के खिलाफ राजकमल प्रकाशन और अशोक कुमार पांडेय का दुराग्रही एजेंडा और धूर्ततापूर्ण अभियान इतिहास की किताब कोई कविता, कहानी, उपन्यास या गल्प लेखन नहीं है, जिसके पाठक अपनी सुविधा और समझ के […]

क्या सैयदवाद ही ब्राह्मणवाद है?

अब्दुल्लाह मंसूर (Abdullah Mansoor) मुस्लिम समाज में जातिवादी व्यवस्था पूरी तरह से मौजूद है पर आज तक किसी सैयद ने सैयदवाद शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। उन्होंने इस आधार पर पसमांदा समाज की ज़िन्दगी में हर पहलु पर होने वाले भेदभाव के खिलाफ बात नहीं की है। यह कहना न होगा कि ऊँच-नीच और सामाजिक बहिष्कार भारतीय समाज के जातिवाद […]

‘पठान’ के पर्दे में क्या-क्या छिपा है?

अरविंद शेष (Arvind Shesh) ‘पठान’ फिल्म शुरू ही होती है कश्मीर में अनुच्छेद 370 खत्म होने की खबर पर पाकिस्तानी सत्ता तंत्र के भीतर भारत के खिलाफ नफरत और दुश्मनी के सीन के साथ। इतने से यह समझ लेना चाहिए कि यह फिल्म क्या है। लेकिन चूँकि औसत और शासित दिमागों को थोड़ा मसाज-सुख देना था, इसलिए रॉ (RAW) से […]

कवि कृष्णचंद्र रोहणा की रचनाओं में सामाजिक न्याय एवं जाति विमर्श

Deepak Mevati

डॉ. दीपक मेवाती (Dr. Deepak Mewati) सामाजिक न्याय सभी मनुष्यों को समान मानने पर आधारित है। इसके अनुसार किसी भी व्यक्ति के साथ सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक आधार पर किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। मानव के विकास में किसी भी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं की जानी चाहिए। सामाजिक न्याय की अवधारणा का अर्थ भारतीय समाज […]