डा. रत्नेश कातुलकर (Dr. Ratnesh Katulkar)
‘टू बी और नॉट टू बी’ (To be or not to be) शेक्स्पीयर (shakespeare) के एक नाटक का एक अद्भुत और बहुत प्रसिद्ध सम्वाद है. हम में से बहुत से लोगों को अपने जीवन में कभी न कभी इस स्थिति का सामना हुआ होगा. यह एक ऐसी स्थिति होती है, जब इंसान यह निर्णय नहीं ले पाता कि जो काम वह करना चाह रहा है उसे वह करे या ना करे. क्या इस काम को भला कोई समझ पाएगा? ऐसा करना ठीक है या नहीं है? इसे किया जाए या फिर ना किया जाये? जब मन में इस तरह की शंकाएं और सवाल बुलबुलाने लगते हैं और इनका उत्तर नहीं मिल पाने से मन निष्क्रीय सा हो जाता है, ऐसी मनोस्थिति को किंकर्त्व्यमूढ होना भी कहा जाता है.
बुद्ध के जीवन में ऐसी अवस्था उनके बुद्धत्व की प्राप्ति के कुछ दिनों बाद ही हुई. इसका कारण था कि उन्हें जिस ज्ञान की प्राप्ति हुई थी, उससे सारा मानव समाज अनजान था. यह इतना अनोखा अनुभव था, इसे किसे बताया जाये, कि वह इसे पूरी तरह समझ सके? बुद्ध की यह चिंता थी. उन्हें ऐसा भी लग रहा था कि इस ज्ञान को साधारण इंसान के द्वारा समझ पाना एक टेढ़ी खीर है. क्योंकि एक आम व्यक्ति से लेकर बुद्धिजीवी जिन मिथकों में अपना जीवन बिता देते हैं जो ईश्वर, आत्मा, पुनर्जन्म, कर्मकांड, पुरोहितगिरी, तप, व्रत-उपवास और कर्मकाण्ड से भरा होता है, वे इन्हें ही सत्य और शाश्वत मानते हैं. लेकिन धम्म में इन मान्यताओं का रत्ति भर भी स्थान नहीं है. और तो और जो किसी भी मुसीबत या चुनौती के पीछे हमेशा दोष किसी बाहरी ताकत पर ही मढ़ने की इन्सानी फितरत है, उसकी धम्म में कोई जगह नहीं. बुद्ध ने जिस सत्य को खोजा उसमें अधिकांश परेशानियों और गलतियों के पीछे कोई बाहरी ताकत नहीं बल्कि खुद इनको झेलने वाला व्यक्ति ही जिम्मेदार है. उनकी यह खोज थी कि किसी सहारे को मत ढूँढो बल्कि अपना द्वीप खुद बनाओ या अपना दीपक खुद बनों.[1]
अपनी परेशानियों को दूसरों पर मढ़ने के बजाए उसकी जड़ें खुद में खोजना भला किसी आम और खास आदमी को कैसे सहन हो पाएगा? अपनी मुक्ति सिर्फ खुद के आचरण को सुधार कर पाना क्या कोई इंसान समझ पाएगा! इन वास्तविक चिंताओं से वाकिफ होते हुए, बुद्ध को यह लगने लगा कि शायद ही इस दुनिया में कोई मेरी शिक्षा (धम्म) को समझ पाएगा, इसलिये बेहतर होगा कि बस खुद ही मेरी इस खोज (धम्म) का पालन करता रहूँ, और अपने इस धम्म को किसी को भी बताने की चेष्टा नहीं करूँ.
विनयपिटक में बुद्ध की इस उहापोह का अलंकारिक वर्णन है साथ ही यहाँ उस घटना का भी वर्णन है कि तब कैसे ब्रह्मलोक से एक ब्रह्मसहम्पति नाम का देवता बुद्ध के इस निर्णय से चिंतित होकर अपने ब्रह्मलोक को छोड़ कर बुद्ध के सामने प्रकट होकर उनसे हाथ जोड़कर निवेदन करता है कि ‘हे बुद्ध, यदि आपने अपने इस अनमोल धम्म को सिर्फ खुद के कल्याण के लिये अपने ही आचरण में उतारेंगे लेकिन लोगों तक इसका प्रचार नहीं करेंगे तो इस संसार का क्या होगा? लोगों को कैसे मुक्ति मिल पाएगी? दुनिया से दु:ख़ का अंत कैसे होगा? इसलिये हे बुद्ध आप विश्व के कल्याण के लिये, जन-जन के कल्याण के लिये अपने इस अनमोल धम्म का प्रचार ज़रूर करें वर्ना यह संसार हमेशा के लिये अंधकार में डूबा रह जाएगा.’ ब्रह्मसहम्पति के इस निवेदन को सुनकर बुद्ध को अपनी भूल का एहसास होता है और फिर वे सोचने लगते हैं कि ज़रूर मैं मानव कल्याण और संसार के हित के लिये अपने धम्म का प्रचार करुंगा.
इस अलंकारिक विवरण को अगर कोई शब्दश: सच मानता हो, तो हमें सवाल उठाना चाहिये कि आखिर बुद्ध के धम्म से सबसे बडा खतरा किसे था? इसका जवाब है ईश्वर यानी ब्रह्मा की सत्ता को (यहाँ हमें समझना होगा कि बुद्ध के काल में भारत में सबसे बडा देवता ब्रह्मा ही माना जाता था). वहीं बुद्ध के धम्म का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत अनीश्वरवाद या निरीश्वरवाद है यानी ईश्वर ( ब्रह्मा ) के अस्तित्व को खारिज करना. अब सवाल है कि जिस धम्म के प्रचार से ब्रह्मा के अस्तित्व पर सवाल उठना शुरु हुआ उस धम्म के प्रचार के लिये खुद ब्रह्मा सहम्पति ने बुद्ध से निवेदन कर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने की कोशिश क्यों की? क्या वह इतना मूर्ख था जो खुद बुद्ध के माध्यम से अपनी कब्र खुदवाना चाहता था? इन दोनों ही सवालों का उत्तर के सामान्य बुद्धि वाला इंसान भी समझ सकता है कि वह बेशक ‘नहीं’ है. फिर ऐसा क्यों हुआ कि ब्रह्म सहम्पति को बुद्ध से धम्म प्रचार का निवेदन करते हुये बताया गया. तो इसका कारण सिर्फ यह है कि ये घटना कोई वास्तविक नहीं है बल्कि भाणक भिक्खुओं द्वारा मामले को चटपटा बनाने और ब्रह्मा के अनुयायियो को नीचा दिखाने की चेष्टा भर है.[2]
दरअसल उस दौर में और बाद के लम्बे समय तक भारत में विभिन्न धर्मों के बीच कड़ी प्रतिद्वंदिता थी. हरेक धर्म अपने-अपने संस्थापकों या ईश्वर को दूसरे धर्म के देवता से ऊपर दिखाने की कोशिश करता था और उस धर्म के देवता को अपने ईष्ट से नीचा. जैसा की हम देखते हैं कि भागवत पुराण और अन्य ब्राह्मणी ग्रंथों में बुद्ध को विष्णु से नीचा दिखाने के लिये उन्हे विष्णु का एक अवतार बताया गया. हालांकि इस विषय में कुछेक आधुनिक लेखकों का मत है कि इस मान्यता से यह स्पष्ट होता है कि बुद्ध के धम्म और हिंदू धर्म में कितना मेलजोल और बराबरी वाला रिश्ता था.[3] लेकिन उनकी यह मान्यता तार्किक नहीं प्रतीत होती क्योंकि अवतारवाद की इस मान्यता में सुअर तक को विष्णु का अवतार बताया गया है, यानी कुल मिलाकर अनुसार बुद्ध और सुअर दोनों एक ही रूप हुए.
खैर इस ब्रह्मसहम्पति की घटना को हटा कर समझा जाए तो साफ होता है कि अपनी पहले की सोच कि धम्म आम और खास इनसान की समझ से परे की चीज़ है, किंतु इस भास के साथ कि इसे मानव कल्याण के लिये प्रसारित और प्रचारित करना भी ज़रूरी है. बुद्ध ने खुद निर्णय लिया कि नहीं धम्म यदि व्यक्तिगत लाभ के लिये ही इस्तेमाल किया जाये तो भला यह विश्व का कैसे भला कर पायेगा. अपनी इस नई सोच के साथ बुद्ध ने धम्म प्रचार की ज़रुरत समझी.
अब उनके सामने बड़ी चुनौती यह थी किसे अपना धम्म समझाया जाए? बहुत सोचने पर बुद्ध के दिमाग में आलार कालाम का नाम याद आया. जो कि एक प्रसिद्ध शिक्षक-दार्शनिक और गम्भीर अभ्यासक थे और एक समय खुद सिद्धार्थ गौतम ने अपने बुद्ध बनने से पूर्व उनसे शिक्षा हासिल की थी. आलार कालाम सांख्य दर्शन के अभ्यासक थे, जो कई अर्थों में आधुनिक और तार्किक दर्शन था.
जाहिर था उनकी इसी विशेषता के कारण बुद्ध ने उन्हें अपने धम्म को समझने के काबिल समझा. आलार कालाम की एक और खासियत यह थी कि वे स्वभाव से बहुत ईमानदार और अहम-रहित थे. इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि जब सिद्धार्थ गौतम ने उनके पास अपनी शिक्षा आरम्भ की थी तो उन्होने बिना किसी हिचक के अपनी सम्पूर्ण शिक्षा जिसमें दर्शन के अलावा ध्यान मार्ग भी था का पूरा ज्ञान और अभ्यास उन्हें कराया. गौतम ने जब जल्द ही इस कठिन ध्यान और दर्शन में महारत हासिल कर ली और आलार कालाम से पूछा कि क्या इसके अलावा भी ऐसा कुछ है जो सीखना बाकि रह गया हो? तब आलार कालाम ने बडी ईमानदारी के साथ गौतम को उत्तर दिया कि ‘नहीं मित्र मेरे पास इससे अधिक सिखाने के लिये कुछ नहीं है.’ भारत में प्राचीनकाल से लेकर अब तक ऐसे बिरले ही शिक्षक होते हैं जो अपने शिष्यों के सामने अपने ज्ञान को बघारने की कोई कसर नहीं छोडते हो, और अपने कम ज्ञान के बावज़ूद भी कभी जाहिर न होने देते हो कि उनका शिष्य उनसे ज़्यादा जानता है. जाहिर है कि आलार कालाम के ज्ञानी होने के साथ-साथ उनका विनम्र होना बुद्ध को प्रभावित कर गया था. इसलिये उन्होंने अपने धम्म को समझने के लिये आलार कालाम को सबसे उपयुक्त समझा. अपने इस चुनाव के बाद बुद्ध ने उनके पास जाना चाहा किंतु तब उन्हें पता चला कि आलार कालाम की पहले ही मौत हो चुकी है.[4]
अब क्या किया जाए. यह सवाल आने से पहले ही उनके मन में तुरंत इन्हीं गुणों से युक्त उद्दक रामपुत्त जिन्हें संस्कृतनिष्ठ हिंदी में उद्रक रामपुत्र भी कहा जा सकता है का नाम आया. किंतु उन्हें ज्ञात हुआ कि इनकी भी मृत्यु हो चुकी है.[5]
चुंकि अब वे धम्म प्रचार के लिये अपना दृढ मन बना चुके थे. इसलिये निराश नहीं हुए और सोचने पर उन्हे अपने उन पांच तपस्वी साथियों की याद आई जो उन्हें पथभ्रष्ट समझ कर छोड़ चुके थे. यह बात उस समय की है जब सिद्धार्थ गौतम ने अपने अभ्यास के लिये कठोर तप का निर्णय लिया था. उस वक्त उन्हें लगा था कि ज्ञान प्राप्ति के लिये शरीर को कष्ट देना ज़रूरी है. बिना शरीर को तपाए कभी ज्ञान नहीं मिल सकता.
अपनी इस सोच के साथ उन्होने भोजन लेना धीरे-धीरे बेहद कम कर दिया था. एक समय ऐसा आया कि वे पूरे दिन वे महज़ एक मुट्ठी चावल ही लेने लगे. लेकिन वे इतने पर ही नहीं रुके बल्कि उन्होने अपना भोजन, चावल के एक दाने तक ही सीमित कर लिया. तप को और महत्व देते हुए कुछ दिनों में उन्होने एक और कदम बढ़ कर भोजन का पूरी तरह ही त्याग कर दिया. उनकी इस ज़िद से उन्हें कितनी आध्यात्मिक उन्नति मिली यह तो नहीं पता चला किंतु इससे उनका शरीर इतना कमज़ोर हुआ कि उनका चलना-फिरना तो दूर, उठना-बैठना तक भी दु:श्वार हो गया. हालत ऐसी हुई कि उनकी कोमल और चमकीली त्वचा बेजान, ढीली और झुर्रीदार पड़ गई जैसे किसी बहुत अधिक बूढे-गरीब की त्वचा. मुँह पिचक गया. पेट इतना दुबला गया कि वे जब उस पर हाथ रखते थे तो वह रीढ़ की हड्डी को छू जाता था. बाल झाड़ गए और पूरा शरीर हड्डी का ढाँचा भर रह गया. हरदम कमज़ोरी और चक्कर महसूस होना इस अवस्था की स्वाभाविक प्रकिया बन गया. इतने सब के बावज़ूद भी गौतम ने अन्न त्याग और तपस्या की अपनी जिद नहीं छोड़ी. अपनी इस कठिन तपस्या में वे अब तक पूरे छ: साल बिता चुके थे. एक बार की बात है वे अपनी कमज़ोरी से चक्कर खाकर गिर पडे और फिर होश आने पर कुछ सम्भल कर किसी तरह एक बरगद के पेड़ के नीचे टिक कर बैठने में सफल हुए. तभी वहाँ एक धनिक या ग्वाले की बेटी सुजाता का आना हुआ. उसके पास में एक पात्र में खीर थी. गौतम की हालत देखते हुए उसने उन्हें वह खीर भेंट कर दी. इस घटना का भी पालि साहित्य में अलंकारिक वर्णन है कि उसे ऐसा लगा मानो वृक्ष का देवता खुद अवतरित हुआ और बस फिर क्या था, सुजाता ने अपनी खीर गौतम को अर्पित कर दी. जो भी हो खीर खाने के बाद गौतम के शरीर में उर्जा का संचार हुआ और जान बच गई. यदि इस वक्त उन्हें यह भोजन नहीं मिला होता तो इसमें थोड़ा भी शक नहीं होना कि भूख और कमज़ोरी से उनकी जान ही चली जाती. इस भोजन के साथ ही गौतम को इस बात का ज्ञान हो गया कि शरीर को हद से अधिक तपाने से कुछ भी फायदा नहीं मिल सकता. वहीं वे अपने सन्यास से पहले भौतिक सुख के चरम का खासा आनंद अपने बचपन से युवावस्था तक भोग चुके थे. बुद्धत्व की राह में उनके ये दोनों चरम अनुभव अच्छी सीख बनकर सामने आए. वे समझ गए कि अति चाहे वह भौतिक सुख-सुविधाओं की हो या फिर हरेक सुख-सुविधा को छोड़ कर शरीर को कष्ट देने की वह शारीरिक और मानसिक रूप से सिर्फ और सिर्फ नुकसानदायक ही है. यदि किसी को आध्यात्मिक या भौतिक उन्नति करना हो तो उसे संतुलित जीवन यानी इन दोनों अतियों के बीच का रास्ता ही चुनना होगा.
लेकिन ठीक इसी समय उनके पांच तपस्वी मित्रों ने देखा कि सिद्धार्थ गौतम अपने तप को छोड़ चुके हैं तो उन्हें बहुत दु:ख हुआ. यह स्वाभाविक भी था क्योंकि उन्होने गौतम से बहुत ज़्यादा उम्मीदें पाल रखी थीं. और जैसा कि उपर ज़िक्र कर चुके हैं वे सिद्धार्थ को पथभ्रष्ट मानकर खरी-खोटी सुनाकर छोड़ कर चल दिए.
बुद्धत्व प्राप्ति के बाद सिद्धार्थ ने उनके इस व्यवहार को स्वाभाविक मानते हुए उन्हें अपने धम्म को समझने के उपयुक्त पाया. वे उनकी तलाश में चलते हुए आज के सारनाथ की ओर चल दिए. ये पॉच तपस्वी अश्वजीत, महानाम, वप्प, कौण्डिन्य, भद्द थे. इन पाँचों ने जब बुद्ध को अपनी ओर आता देखा तो वे उन्हें गौतम के रूप में पहचान गए. उन्होनें तुरंत निश्चय किया कि भले ही पथभ्रष्ट गौतम हमसे मिलने आ रहा हो लेकिन हम उसका बहिष्कार जारी रखेंगे. उसे खाने-पीना पूछ्ना तो दूर की बात हम न उसकी तरफ देखेंगे न उससे बात-चीत करेंगे.
इस निर्णय से बेखबर बुद्ध अपनी शांत और व्यवस्थित चाल से उनकी ओर बढ़ते रहे और उनके पास आ पहुँचे. इन पाँचों ने जब उन्हें अपने पास देखा तो वे बुद्ध के शांत चेहरे और कारुणिक चित्त से इस हद तक प्रभावित हुए कि वे अपने बहिष्कार के निर्णय को भूल बैठे. एक ने उनके भिक्षा पात्र को अपने हाथ मे लिया, तो दूसरे ने उनके पैर धोने के लिये पानी की व्यवस्था की, तीसरे ने उनके बैठने के लिये पत्थर खाली किया, तो चौथे ने उनका चीवर सम्भाला पाँचवां उनके पीने के लिये पानी लेकर आया. कुल मिला कर वहाँ तिरस्कार, बहिष्कार की जगह अपनेपन, सम्मान और मैत्री का माहौल निर्मित हो गया.
उन्होने बुद्ध से हालचाल जाना और पता किया कि आखिर अपने तप को बीच में ही भंग करने के बावज़ूद वे बुद्ध बनने में कैसे सफल हुए? तब बुद्ध ने उन्हें अपनी कठिन किंतु अर्थहीन तप की विफलता से लेकर उरुवेला (बोधगया) में उनके बुद्धत्व प्राप्ति की घटनाओं का वर्णन किया. इन पाँचों में अब धम्म के लिये और भी अधिक उत्सुकता हुई और उन्होनें बुद्ध से अपना प्रवचन सुनाने का अनुरोध किया. बुद्ध ने बड़ी खुशी से उन्हें अपने धम्म की व्याख्या की. चूंकि उनका यह पहला विस्तारित प्रवचन था, जिसे सुनकर ये पाँचों तपस्वियों ने बुद्ध के संघ में शामिल हो कर इतिहास में एक नींव का पत्थर स्थापित किया. इसलिये ये घटना धम्मचक्र प्रवर्त्तन कहलाई. क्योंकि यह पहला अवसर था जब इस प्रवचन के माध्यम से विश्व में पहली बार धम्म का पहिया घूमा यानी धम्म के प्रचार और प्रसार का आगाज़ हुआ. निश्चित ही ये उन पाँच तपस्वियों के लिये अनोखा और एकदम नया ज्ञान था.
लेकिन सवाल है कि वह क्या प्रवचन था जिसने अपने मत के कट्टर रहे इन पाँच तपस्वियों को इस हद तक प्रभावित किया कि वे न सिर्फ इस नए धम्म का आचरण करने लगे बल्कि उन्होनें इसका प्रचार-प्रसार करने का बीड़ा भी खुद आजीवन भिक्खु बनकर करने का प्रयास किया. यहां सवाल उठता है कि बुद्ध ने उन्हें क्या प्रवचन दिया? क्या उन्होनें सिर्फ उतना भर ही कहा जिसे आज हमें चार-पाँच पन्नों में सिमटे धम्मचक्कपवत्तन सुत्त में पाते हैं तो यह सही नहीं होगा. सच्चाई यह है कि उस समय बुद्ध और इन पाँच तपस्वियों के बीच एक लम्बा सम्वाद हुआ होगा. जिसमें प्रश्न, शंका और समाधान शामिल होगा. साथ ही हम यह भी देखते हैं कि बुद्ध अपनी कठिन शिक्षाओं को सरल रूप में समझाने के लिये किस्से, कहानियों और उदाहरणों का इस्तेमाल किया करते थे. जाहिर है कि इस समय भी उन्होने ऐसे कुछ तरीकों का इस्तेमाल किया होगा ताकि वे अपनी ऐसी शिक्षा जिसको लेकर वे खुद गम्भीर रूप से शंकित थे कि उसे कोई समझ भी पाएगा के लिये निश्चित रूप से किया होगा. किंतु वे सब इस सुत्त का भाग इसलिये नहीं बन पाए क्योंकि जैसा हमने पहले ज़िक्र किया कि कोई भी सुत्त यानी सूत्र किसी भी प्रवचन का शब्दश: विवरण नहीं बल्कि उसका निचोड या सार भर होता है. इसलिये यह सुत्त भी इतना छोटा है. इसको संक्षिप्त रखने के पीछे मूल कारण यह है कि उस काल में चुंकि लिपि विकसित नहीं हुई यानी लिखने की कला अस्तित्त्व में नहीं आई थी इसलिये इन लम्बी बातचीत और प्रवचनों को कैसे सुरक्षित रखा जाये यह बहुत बडी चुनौती थी.[6] न ही तकनीक भी विकसित थी कि इसे ऑडिओ या विडियो रिकॉर्डिंग की सुविधा थी. नतीजतन इतने विशाल प्रवचनों को उनके उदाहरणों और कहानियों के साथ जस का तस रट कर पीढी दर पीढी तक रटवा के सुरक्षित रख पाना कितना कठीन कार्य होगा यह हम समझ ही सकते हैं. ऐसे में उस काल में भाणक भिक्खु ने दो तकनीक अपनाई पहली यह कि इन वचनों को अलंकारिक बनाकर रोचक बना दिया जाए जैसे देवता, चमत्कार, जादुई शब्दावली जोड़कर उसे याद रखने के काबिल बनाना, दूसरा यह कि उसे पूरा कर पूरा रटने के बजाय केवल उसके गूढ अर्थ को कम से कम शब्दों में सुरक्षित सहेज रखना. बस यही कारण था कि धम्म का पहिया घुमाने वाला यह कीमती उपदेश हमें महज 3-4 पन्नों में उपलब्ध हो पाया है.
अगले पन्नों में इस प्रथम उपदेश के विभिन्न भागों को आज के संदर्भ में विस्तार से समझने की कोशिश करेंगे ताकि इस उपदेश को हम व्यवहारिक रूप से अपने जीवन में इस्तेमाल कर सुख का आनंद उठा सके और सफलता हासिल कर सके.
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सन्दर्भ सूची :
[1] पालि में वर्णित ‘अत्त दीपो भव’ का प्रचलित अनुवाद ‘अपना दीपक स्वयं बनो’ (be your own light) है. किंतु कुछ विद्वान जैसे राहुल वाल्पोला इस अनुवाद को सही नहीं मानकर इसका सही अनुवाद ‘अपना द्वीप खुद बनाओं’ बताते हैं.
[2] भिक्खुओं का एक समूह जो बुद्ध के वचनों को याद रख कर उसके संरक्षण का जिम्मा लेते थे.
[3] प्रो. के टी एस सराओ ने अपने एक आलेख में इस बात पर जोर दिया है कि ब्राह्मण धर्म और बौद्ध धर्म में कभी दुश्मनी नहीं रही बल्कि उनमें हमेशा दोस्ताना रहा है, अपने इस मत की पुष्टि के लिये वे बताते हैं कि कैसे हिंदू धर्म में बुद्ध को विष्णु का अवतार मानकर सम्मान दिया गया है.
[4] इस मामले में भी पालि ग्रंथ यह कहते हैं कि खुद देवताओ ने बुद्ध के पास आकर उन्हें यह सूचना दी की आलार कालाम की मृत्यु हो चुकी है.
[5] इस बारे में भी तिपिटक ग्रंथों मे यह सूचना देवताओं द्वारा दी गई बताया गया है.
[6] तिपिटक का रचनाकाल या निर्माणकाल पहली सदी ईसवी से तीसरी सदी ईसवी तक माना गया है।
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डा. रत्नेश कातुलकर स्वतंत्र लेखक और नवयान बौद्ध शिक्षण के आचार्य हैं. इनके प्रवचन यूट्यूब पर navayana Buddhism https://www.youtube.com/@navayana14 चैनल पर उपलब्ध हैं. इनकी हालिया किताब ‘Outcasts on the Margins: Exclusion and Discrimination of Scavenging Communities in Education” पाठकों के बीच लोकप्रिय हुई है. प्रस्तुत आलेख इनकी ई-पुस्तक “बुद्ध का प्रथम उपदेश: धम्मचक्कपवत्तन सुत्त की आधुनिक, व्यवहारिक एवं प्रेरक व्याख्या” का एक अंश है. उनसे ratnesh.katulkar@gmail.com ईमेल पते पर संपर्क किया जा सकता है.