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अरविंद शेष और राउंड टेबल इंडिया (Arvind Shesh & Round Table India)

संदर्भ में मनमानी छेड़छाड़ के जरिए दुराग्रहों और धूर्त कुंठाओं का निर्लज्ज प्रदर्शन
बाबा साहेब आंबेडकर के खिलाफ राजकमल प्रकाशन और अशोक कुमार पांडेय का
दुराग्रही एजेंडा और धूर्ततापूर्ण अभियान

इतिहास की किताब कोई कविता, कहानी, उपन्यास या गल्प लेखन नहीं है, जिसके पाठक अपनी सुविधा और समझ के मुताबिक उसमें दर्ज प्रसंगों की व्याख्या करें और एक ही प्रसंग के एक से ज्यादा और अलग-अलग अर्थ हों।

कुछ समय पहले दिल्ली स्थित जाने-माने प्रकाशन राजकमल प्रकाशन से एक किताब छापी गई, जिसका शीर्षक है- ‘उसने गांधी को क्यों मारा’। इस किताब के लेखक का नाम अशोक कुमार पांडेय है।

इस किताब को समकालीन इतिहास के रूप में प्रस्तुत किया गया, प्रचारित किया गया और इसी आधार पर इसे इतिहास-संदर्भ के रूप में स्वीकार करने की घोषित-अघोषित मांग भी की गई। जाहिर है, इतिहास के रूप में प्रस्तुत किसी भी किताब का पाठ करते हुए कोई भी व्यक्ति उसमें दर्ज तथ्यों को आमतौर पर सच मानता है और उसी के मुताबिक उसकी व्याख्या करता है, उसके आधार पर अपनी राय या धारणा बनाता है, या फिर निष्कर्ष भी निकालता है। यानी उसकी ऐसी प्रतिक्रिया की आधार-भूमि वह किताब होती है, जिसे इतिहास बता कर प्रस्तुत किया गया होता है।

यही वजह है कि इतिहास लेखन के तथ्यों की कसौटी पर सौ फीसद सही होने की शर्त नत्थी है। अगर किसी भी शक्ल में अतीत के किसी ब्योरे या घटना के लिए संदर्भ से उठाए गए तथ्यों में तोड़-मरोड़ की जाती है, तथ्यों में से सुविधा के मुताबिक पंक्तियां उठाई और छोड़ी जाती हैं तो तो वह किसी भी हाल में इतिहास नहीं होगा, वह बेईमानी, नफरत और कुंठा होगी, दुराग्रह होगा या एजेंडा लेखन होगा।

किसी एक पूरी किताब में किसी एक जगह भी लेखक ने अगर यह बेईमानी या धूर्तता की है, तो वह उसके समूचे कथित इतिहास लेखन की मंशा और योग्यता या मेरिट पर सवाल उठाती है और उससे यही पता चलता है कि वह किसी एजेंडे के साथ इस मैदान में उतरा है..!

इस भूमिका का संदर्भ दरअसल यह है कि अशोक कुमार पांडेय लिखित किताब ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ में एक घटना का ब्योरा दिया गया है, जिसमें गांधी की हत्या के बाद बाबा साहेब आंबेडकर और बाद में उनकी पत्नी बनीं सविता रमाबाई आंबेडकर के बीच तत्कालीन परिस्थितियों में पत्र-व्यवहार में से एक पत्र के आधार पर लेखक ने अपना फैसला या निष्कर्ष दिया है कि ‘आंबेडकर कितने हृदयहीन थे…’ और कि ‘आंबेडकर ने नाथूराम की विचारधारा के खिलाफ एक शब्द नहीं बोला।’

दरअसल, इस निष्कर्ष के लिए संदर्भ के तौर पर बाबा साहेब द्वारा सविता रमाबाई को लिखा गया पत्र का इस्तेमाल किया गया है, जो सुरेंद्र कुमार अज्ञात नामक लेखक द्वारा संपादित किताब से लिया गया। समस्या यहां खड़ी हुई कि ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ किताब में आंबेडकर के जिस पत्र को संदर्भ के तौर पर पेश किया गया है, उसमें लेखक अशोक कुमार पांडेय ने बेहद दुराग्रहपूर्ण और धूर्ततापूर्ण तरीके से तोड़-मरोड़ किया है। घटना का ब्योरा देते हुए पत्र का संदर्भ दिया जाता है और संदर्भ के स्रोत का जिक्र किया जाता है तो इसमें कोई दिक्कत नहीं है। बल्कि यही प्रक्रिया है। लेकिन उस संदर्भ के आधार पर अगर लेखक को कोई निष्कर्ष देना होता है तो उस संदर्भ को पूरा रखा जाता है। संदर्भ के कुछ चुने हुए टुकड़े के आधार पर निष्कर्ष नहीं दिया जाता है। खासतौर पर इतिहास लेखन के दावे में यह पक्ष बिल्कुल शर्त की तरह काम करती है कि अगर लेखक को कोई निष्कर्ष देना है तो उसे संबंधित संदर्भ की कुछ पंक्तियों के आधार पर निष्कर्ष देने की छूट नहीं है।

दरअसल, पत्र में आंबेडकर ने साफतौर पर गांधी की हत्या के बाद दुख जाहिर किया था और उन्होंने उस समय की परिस्थितियों का ब्योरा लिखा था। लेकिन अशोक कुमार पांडेय ने उस पत्र में अपनी सुविधा के मुताबिक कुछ पंक्तियों को उठा लिया और उसे अपनी किताब में प्रस्तुत कर दिया और उन्हीं पंक्तियों के आधार पर एक इतिहासकार के रूप में अपना फैसलाकुन निष्कर्ष प्रस्तुत कर दिया कि ‘आश्चर्य होता है कि (आंबेडकर का) यह हृदयहीन कथन उस गांधी के लिए है’ और (आंबेडकर ने) ‘…हत्यारे (नाथूराम गोड्से) की विचारधारा पर एक शब्द नहीं‘ कहा। इस लिहाज से देखें तो अशोक कुमार पांडेय (Ashok Kumar Pandey) इतिहास के किसी प्रसंग को दर्ज नहीं कर रहे, बल्कि उसे अपनी सुविधा के मुताबिक चयनित तरीके से कुछ पंक्तियों के आधार पर आंबेडकर के व्यक्तित्व के बारे में राय बनाने के एजेंडे को अंजाम दे रहे हैं।

इसे इतिहासकार या इतिहास लेखन करने वाले के तौर पर नहीं देखा जा सकता, भले ही साहित्य का सत्ताधारी तबका उसे इतिहासकार बता कर पेश करने का अथक प्रयास कर रहा हो। दिलचस्प यह है कि खुद को इतिहास लेखन के विद्वान के तौर पर पेश करते हुए अशोक कुमार पांडेय ने अपने लिखे को कठघरे में खड़ा किए जाने पर इतिहास और इतिहास लेखन की समझ नहीं होने का दंभ भरते हुए सवाल उठाने वालों के प्रति एक तरह से दमन की भाषा का उपयोग किया। जबकि खुद इतिहास लेखन की कसौटी पर ही लेखक की ओर से संदर्भ-प्रस्तुति और उसकी व्याख्या के पीछे धूर्तता की मंशा स्पष्ट होती है।
किताब लेखक अशोक कुमार पांडेय की मंशा का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि कथित संदर्भ के आधार पर उसने अपना निष्कर्ष दिया कि आंबेडकर ने नाथूराम गोडसे की विचारधारा बारे में एक शब्द कुछ नहीं कहा। यह एक तरह से आंबेडकर को नाथूराम गोडसे की विचारधारा यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा के साथ खड़ा करने की कोशिश है। जो आंबेडकर घोषित तौर पर हिंदुत्व और ब्राह्मणवाद की विचारधारा के खिलाफ थे, जिन्होंने इस पर केंद्रित किताबें लिखीं, जिन्होंने सार्वजनिक घोषणा की थी कि ‘मैं हिंदू पैदा हुआ, लेकिन हिंदू मरूंगा नहीं‘, जिन्होंने हिंदुत्व की समूची राजनीति के खिलाफ संविधान में महिलाओं और वंचित वर्गों के अधिकारों को दर्ज कराया, जिन्होंने अपने आखिरी समय में भी लाखों लोगों को लेकर हिंदू धर्म का त्याग किया, उस आंबेडकर के बारे में ‘नाथूराम गोडसे की विचारधारा पर चुप रहने’ का आरोप लगाना किसी भयानक आपराधिक साजिश से कम नहीं है!

जाहिर है, यह एक ऐसा खेल है, जो बाबा साहेब के व्यक्तित्व और उनके काम की छवि को धूमिल करने की कोशिश संगठित रूप से इस देश की ब्राह्मणवादी ताकतें लंबे अरसे से करती रही हैं। इस क्रम में अशोक कुमार पांडेय लिखित कथित इतिहास पुस्तक ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ के उपर्युक्त प्रसंग पर ध्यान जाने पर आंबेडकर विचार से प्रेरित, जागरूक और सजग लेखकों ने इस पर अपनी आपत्ति प्रकट की, इस प्रसंग को किताब से हटाने या सुधार करने की मांग की।

इस संदर्भ में शिक्षाविद, लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता अनीता भारती ने इस किताब को प्रकाशित करने वाले राजकमल प्रकाशन को पत्र लिखा और किताब में तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किए गए प्रसंग की ओर ध्यान दिलाया। उनके पत्र का कुछ दिनों बाद राजकमल प्रकाशन ने जवाब दिया। इसके बाद अनीता भारती और राजकमल प्रकाशन के मालिक अशोक माहेश्वरी के बीच पत्रों के माध्यम से संवाद हुआ, जिसमें आखिरकार प्रकाशक ने लेखक के माध्यम से एक तरह से यह साफ माना कि आंबेडकर के प्रसंग में उल्लेख किए गए पत्र का पूरा अंश नहीं दिया गया था और उसे अगले संस्करण में ‘परिशिष्ट में’ दे दिया जाएगा। यानी एक तरह से लेखक और प्रकाशक ने अपने ऊपर उठे सवालों के सामने अपनी गलती स्वीकार की। लेकिन सवाल है कि जो किताब बाजार के जरिए बहुत सारे लोगों के हाथ और दिमाग से लेकर पुस्तकालयों तक पहुंच गई होगी, उसके पाठकों या विद्यार्थियों के भीतर लेखक अशोक कुमार पांडेय द्वारा उल्लिखित प्रस्तुत संदर्भ और उसके आधार पर व्यक्ति निष्कर्ष को पढ़ने के बाद बाबा साहेब को लेकर किस तरह की धारणा बनेगी?

जहां तक संदर्भ के लिए उसके स्रोत को देखने की सलाह का सवाल है, उल्लिखित पत्र का पूरा हिस्सा देखने के बाद लेखक अशोक कुमार पांडेय के निष्कर्ष के पीछे छिपी मंशा और खुल कर साफ होती है। संदर्भ के लिए उपयोग किया गए पत्र का पूरा हिस्सा लेखक के चंद लाइनों के आधार पर परोसे गए निष्कर्ष को सिर के बल खड़ा करता है और झूठ पर आधारित दुराग्रह ठहराता है।

अफसोस की बात यह है कि इस समूचे प्रसंग पर ध्यान दिलाने के बावजूद राजकमल प्रकाशन के मालिक अशोक माहेश्वरी गलती स्वीकार करने के बावजूद लेखक अशोक कुमार पांडेय के बचाव में ही खड़े रहे, जबकि यह एक प्रसंग उनकी मंशा को कठघरे में खड़ा करता है। कायदे से होना यह चाहिए कि अगर किसी लेखक से किसी वजह से चूक हो गई हो या उसने जानबूझ कर कोई धूर्तता की हो तो प्रकाशन उसे अपने स्तर पर सुधारे या उस किताब को खारिज करे। लेकिन हिंदी के साहित्य जगत के पास यह अध्याय शर्मिंदगी के तौर पर दर्ज हो गया है।

इस मसले पर अनीता भारती और अशोक माहेश्वरी के बीच पत्रों का आदान-प्रदान अनीता भारती के पत्र पर आकर ठहर गया, जिसका जवाब अशोक माहेश्वरी ने नहीं दिया। यहां क्रम से वह पत्र-व्यवहार क्रम से प्रस्तुत किया जा रहा है, ताकि सनद रहे कि बाबा साहेब की छवि की मनमानी की व्याख्या करने और उसे धूमिल करने के प्रयासों पर दलित-वंचित तबकों की ओर से ठोस और सशक्त आपत्ति दर्ज की गई थी।

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ए – अशोक कुमार पांडेय लिखित किताब ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ के विवादित अंश के पृष्ठ की तस्वीर


बी- संदर्भ में प्रयुक्त पत्र का मूल अंग्रेजी हिस्से के पृष्ठ की तस्वीर


सी- अशोक कुमार पांडेय द्वारा उपयोग किए गए संदर्भ का अंश-
– ‘मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूं कि गांधी की हत्या एक मराठी द्वारा नहीं की जानी चाहिए थी। मैं यह भी कह सकता हूं कि किसी के लिए भी यह गलत कार्य करना सही नहीं था…!’


डी- संदर्भित पत्र के इस हिस्से में छोड़ा गया जरूरी अंश-

– ‘जैसे ही मैंने गांधी की हत्या की खबर सुनी मैं व्यथित हो गया। मेरे प्रति उनकी तमाम शत्रुता के बावजूद मैं शनिवार की सुबह बिरला हाउस पहुंचा। उनकी मृत देह मुझे दिखाई गई। मैं उनके जख्मों को देख सका, वे सीधे उनके दिल पर थे। उनकी मृत देह देखकर मैं द्रवित हो गया। मैं थोड़ी दूर तक उनकी शवयात्रा में शामिल हुआ, आगे पैदल जाने में असमर्थ था, तो वापस घर आ गया। दुबारा राजघाट पहुंचा, वहां काफी भीड़ को चीरकर उन तक पहुंचने की असफल कोशिश की।’


अनीता भारती 

1- अनीता भारती की ओर से राजकमल प्रकाशन को लिखा गया पत्र (12-11-2022)-

प्रिय अशोक माहेश्वरी जी,
राजकमल प्रकाशन

उम्मीद है आप इस पत्र की गंभीरता को समझेंगे।

आपके प्रकाशन से एक किताब छपी है ‘उसने गांधी को क्यों मारा?’ इसे पढ़कर मैं गुस्से और क्षोभ से लिख रही हूं और मेरा सवाल है कि क्या आपका प्रकाशन बाबा साहेब डॉ आंबेडकर के खिलाफ किसी मुहिम का हिस्सा है?

उक्त किताब में पेज नंबर 157-158 पर गांधी जी की हत्या के बाद बाबा साहेब आंबेडकर द्वारा अपनी दूसरी पत्नी माई साहेब सविता आंबेडकर को लिखा गया एक कथित पत्र शेयर किया गया है और उसपर लेखक ने हिकारत भरी टिप्पणी की है।
वह लिखता है, ‘आश्चर्य होता है कि यह हृदयहीन कथन उस गांधी के लिए है जिसने मुस्लिम लीग के समर्थन से बंगाल से चुनकर आए आंबेडकर के कानून मंत्री बनाए जाने के किए दवाब डाला था। आश्चर्य यह भी है कि इसमें हत्यारे के मराठी होने पर दुःख है, लेकिन उस विचारधारा पर एक शब्द नहीं है, जिसके प्रतिनिधि ने गांधी की हत्या की थी।’ इस दो वाक्य के कथन में ही कई दुष्टतापूर्ण ऐतिहासिक छेड़छाड़ है। और लेखक व प्रकाशक के इरादे स्पष्ट होते हैं।

आंबेडकरी समाज में सबको पता है कि हमारे बीच से ही कुछ संकीर्ण मानसिकता वाले लोग हैं, जिन्होंने माई साहेब को बदनाम किया। माई साहेब को बाबा साहेब की हत्यारिन तक बताया है। उक्त पत्र का बाबा साहेब के वांग्मय में कोई उल्लेख नहीं है। बाबा साहेब के पत्रों के संपादक अनिल गजभिये भी इस पत्र को मान्य नहीं मानते। इस पर बहस कर आंबेडकरवादियों ने पहले ही इसे खारिज कर दिया है। एक स्त्रीवादी होने के नाते मैं माई साहेब को इस अभियान से पहुंची पीड़ा को समझती हूं। आंबेडकरवादियों ने उन्हें इस पीड़ा और इन आरोपों से मुक्त कराने के बड़े प्रयास किए हैं।

बाबा साहेब और माई साहेब की शादी गांधी जी की हत्या के तीन महीने बाद हुई थी। सवाल है कि क्या उनकी शादी के पहले वे पत्राचार में थे?

लेखक ने बहुत हिकारत के साथ इस पत्र पर टिप्पणियां की है। मेरी नज़र में लेखक महोदय इतिहासकार नहीं हैं। उनके इतिहास ज्ञान के बारे में बहुत कुछ सोशल मीडिया में लिखा जा चुका है। माई साहेब का नाम शारदा कबीर था। उन्हें बाबा साहेब अपनों पत्रों में शरू (Sharu) लिखते थे। लेखक ने माई साहेब का एक नाम लक्ष्मी लिखा है। क्या स्रोत है?

क्या एक जिम्मेवार प्रकाशक के रूप में आपको यह नहीं लगता कि आप ऐसी किताबें इतिहास या विषय-विशेषज्ञ से लिखवाएं या उनसे एक बार दिखवा लें।

अब मैं अपने सवाल पर आती हूं। यह किताब क्या कट्टरवादियों के उस एजेंडे के पक्ष में नहीं लिखी गई है, जो बाबा साहेब को अपने खेमे में खींचना चाहते है? आखिर उनको और बाबा साहेब को एक साथ रखने का क्या इरादा है? क्या छिपे कट्टरतावादियों से आप बाबा साहेब पर हमला करवाने की मुहिम में हैं? यह पांडे नामक आपका तथाकथित स्टार इतिहासकार क्या ऐसी मुहिम का छिपा एजेंट है? समय-समय पर डाक्टर आंबेडकर के प्रति इसकी नफरत सामने आती रहती है।

मैं आपसे आग्रह करती हूं कि आप इस किताब को वापस लें और बाबा साहेब व देश से माफी मांगें। किताबों में दर्ज इतिहास ही कल का सच बनेगा। पूर्वाग्रह से ग्रसित ऐसी किताबें पाठकों को गुमराह करती हैं, जिससे लेखक के साथ प्रकाशक की भी विश्वसनीयता पर सवाल उठना वाजिब है।

अनिता भारती,
लेखिका

2- अनीता भारती के पत्र का राजकमल प्रकाशन के मालिक अशोक माहेश्वरी की ओर से आया जवाब (23-11-2022)-

माननीय अनिता भारती जी,

सादर नमस्कार

‘उसने गांधी को क्यों मारा’ किताब में उद्धृत बाबा साहेब आंबेडकर के एक उद्धरण के संदर्भ में आपका पत्र मिला। इस किताब के लेखक श्री अशोक कुमार पांडेय ने इसे ससंदर्भ पेश किया है। उन्होंने जिन पुस्तकों का हवाला दिया है, उन्हें हमने देखा। आपने उस उद्धरण की प्रामाणिकता पर सवाल उठाया है। मगर उसके अप्रामाणिक होने की कोई वजह नहीं बताई है। वाङ्गमय में शामिल नहीं होना कोई ठोस आधार नहीं है। अभी हाल ही में हमने ‘रेणु की पाती’ किताब प्रकाशित की है, जिसमें रेणु जी की कई ऐसी चिट्ठियां शामिल हैं जो रेणु रचनावली में बरसों से नहीं हैं। ऐसा ही मुक्तिबोध के प्रसंग में हमने देखा है। अगर आप इस बारे में कोई ठोस संदर्भ/प्रमाण प्रस्तुत कर सकें तो हम विचार करने को प्रस्तुत हैं। बाबा साहेब के प्रति हमारे मन में बहुत आदर है। हमने उनके जीवन और काम के बारे में जितनी अच्छी किताबें प्रकाशित की हैं, उतना कोई एक-दो प्रकाशनों से ही सम्भव हुआ होगा। यह बाबा साहेब के अविस्मरणीय योगदान के सम्मान में ही हुआ है।

आप तार्किक और तथ्यात्मक रूप से उस उद्धरण को अप्रामाणिक बता सकें तो हमें पुन:विचार में कोई संकोच नहीं।
ज्ञान की दुनिया में परस्पर वैचारिक मतभेद स्वभाविक हैं। वैचारिक असहमति शालीनता से, तथ्यपरक ढंग से ही जताई जाए, यह हम आपसे भी और अशोक जी से भी निवेदन करते हैं।

शुभकामनाओं के साथ.
भवदीय
अशोक महेश्वरी
प्रबंध निदेशक
राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड

3- अनीता भारती का राजकमल प्रकाशन के मालिक अशोक माहेश्वरी के पत्र का जवाब (27-11-2022)-

माननीय अशोक माहेश्वरी जी,
नमस्कार!

आपको धन्यवाद कि आपने देर से सही, मगर विवाद बढ़ने पर पत्र का उत्तर दिया। आपको फिर धन्यवाद कि आपने बाबा साहेब की अच्छी किताबें छापने का दावा किया। हम आंबेडकरवादी कृतार्थ हैं। वैसे आप जैसे बड़े प्रकाशकों ने ऐसा किया ही होता और नए बनते पाठक वर्ग की भावनाओं से, उनकी जिज्ञासाओं से खुद को जोड़ा होता तो परिणाम भी दिखते और आंबेडकरवादियों को अपने प्रकाशन समूह खोलने की जरूरत नहीं पड़ती। फुले-अम्बेडकरी परम्परा की किताबें उनके विचारों के प्रति समर्पित लोग आम और जरूरतमंद जनता की पहुंच की कीमत पर गांव-शहर में घूम-घूम कर पहुंचाते रहे हैं।

मुझे उम्मीद थी कि मेरे पत्र के उत्तर में बौद्धिक विमर्श के स्तर का खयाल रखा जाएगा। लेकिन आपने चालाकी से बचने की कोशिश की। आप आंबेडकरवादियों की भावनाओं को समझते, इतिहास के प्रति खुद को उत्तरदायी महसूस करते तो आपका जवाब इस तरह नहीं होता। आपके उत्तर से ऐसा लगता है कि आप इस धारणा के शिकार हैं कि हमें किताबें पढ़नी नहीं आतीं। आपको क्यों ऐसा लगा कि अशोक कुमार पांडेय नामक कथित इतिहासकार ने एक प्रसंग के उल्लेख के लिए जिस पत्र को संदर्भ में भी रखा है, उसे हमने नहीं पढ़ा होगा?

बहरहाल, हमारी मुख्य आपत्तियां वह नहीं हैं, जिस पर आप और कथित लेखक इतिहास से अपने खेल को जारी रखने के लिए खेल रहे। हमारी आपत्तियों के कुछ बिंदु हैं :
1 .
– पत्र विवादित है। इसलिए कोई भी सुलझा हुआ और किसी दुष्ट इरादे से रहित लेखन करने वाला उस पत्र के प्रसंग में विवाद को भी समझेगा, पेश करेगा। उसका स्रोत चाहे कोई भी हो। किसी अन्य किताब में अगर पत्र की विश्वसनीयता सुनिश्चित हुए बिना उल्लेख किया गया हो तो उसे स्रोत के रूप में इस्तेमाल करना किसी भी लेखन को संदिग्ध बनाएगा।
2 .
– संदर्भ में जिस पत्र का उल्लेख किया गया है, उसके विवाद से परे अगर उसे फिलहाल संदर्भ मान भी लेते हैं, तो इस पत्र से शुरू की एक-डेढ़ पंक्तियां उठाने के बाद बीच की कुछ पंक्तियां जानबूझ छोड़ दी गईं। फिर बाद की कुछ और पंक्तियां लेकर लेखक ने उसके आधार पर बाबा साहेब आंबेडकर के बारे में निष्कर्ष पेश कर दिया। लेखक ने बाबा साहेब को एक तरह से गोडसे के साथ खड़े करने की कोशिश की है। संदर्भ के पत्र में से सुविधा के मुताबिक चुने गए वाक्यों के आधार पर लेखक ने आंबेडकर को ‘हृदयहीन’ और प्रकारांतर से कृतघ्न बताते हुए उन्हें नाथूराम गोड्से की विचारधारा के प्रति सचेतन चुप रहने वाला व्यक्ति बताया है।

– सच यह है कि लेखक ने जिन पंक्तियों को सुनियोजित तरीके से और सचेतन हटा दिया, उन्हें बाबा साहेब की गांधी जी के प्रति सहृदयता के संदर्भ में कोट किया जाता रहा है। इसे और कोई नहीं, बाबा साहेब के सहयोगी रहे नानक चंद रत्तू जी ने कोट किया है और वे ही मूल स्रोत हैं इस पत्र के। क्या आपको यह छेड़छाड़ और बाबा साहेब पर हमला लेखक की एक योजनाबद्ध दुष्टता नहीं दिखती है?

– आपका कहना है कि ‘आपने उस उद्धरण की प्रामाणिकता पर सवाल उठाया है। मगर उसके अप्रामाणिक होने की कोई वजह नहीं बताई है।’ उन पत्रों पर विवाद के किसी निष्कर्ष पर पहुंचने तक फिलहाल उस पत्र को प्रामाणिक ही मानते हैं। लेकिन क्या आप बताएंगे कि उस पत्र के संबंधित हिस्से के बीच में मौजूद ये निम्नलिखित पंक्तियां क्यों छोड़ दी गईं और फिर बाद की पंक्तियां उठाई गईं-

‘उनकी मृत देह को देख कर मैं द्रवित हो गया। मैं थोड़ी दूर तक उनकी शवयात्रा में शामिल हुआ, आगे पैदल जाने में असमर्थ था, तो वापस घर आ गया। दुबारा राजघाट पहुंचा, मगर वहां काफी भीड़ को चीर कर उनक तक पहुंचने की असफल कोशिश की।’

– क्या इन्हीं पंक्तियों को अपने उद्धरण में से गायब करना जानबूझ कर और दुष्ट इरादे से की गई हरकत नहीं है, जिसके बाद प्रस्तुत हिस्से के आधार पर लेखक को यह निम्नलिखित फरमान परोसने की सुविधा मिली-

‘आश्चर्य होता है कि यह हृदयहीन कथन उस गांधी के लिए है, जिसने मुस्लिम लीग के समर्थन से बंगाल से चुनकर आए आंबेडकर के कानून मंत्री बनाए जाने के किए दवाब डाला था। आश्चर्य यह भी है कि इसमें हत्यारे के मराठी होने पर दुःख है, लेकिन उस विचारधारा पर एक शब्द नहीं है, जिसके प्रतिनिधि ने गांधी की हत्या की थी।’

– इस साजिश और दुराग्रह से भरे दुष्टतापूर्ण निष्कर्ष, ऐतिहासिक तथ्यों के तोड़-मरोड़ पर टिप्पणी मैंने अपने पहले पत्र में की थी। अगर आप उसको नहीं समझ सके होंगे, तो कृपया उसे दोबारा पढ़ें। लेकिन किसी भी बुद्धिजीवी से लेकर सामान्य या फिर औसत समझ वाले व्यक्ति की नजर में भी यह हरकत क्या अपने दुराग्रह को ऐतिहासिक तथ्य के रूप में परोसने के लिए तथ्यों के साथ खिलवाड़ और दुष्टतापूर्ण साजिश नहीं कही जाएगी?

– दुखद यह है कि आप स्रोत पर जवाब दे रहे हैं, उद्धरण का जिक्र आपने नहीं किया, जिसमें से लिए गए हिस्से में सचेतन और गलत इरादे से छेड़छाड़ की गई है।

3.
– आप जैसे प्रकाशक जब बिना प्रतिबद्धता के सिर्फ व्यवसाय के लिए काम करेंगे, तो इतिहास में गलत तथ्य दर्ज हो सकते हैं। आपकी क्षमता इन किताबों को देश भर के पुस्तकालयों में रखवाने की है, जो अब तक आप कर चुके होंगे। यानी इतिहास के जो विद्यार्थी अपने संदर्भों के लिए इस किताब तक पहुंचेंगे, उन्हें इस किताब से गलत तथ्य, व्याख्या और धारणाएं मिलेंगी। अगर गलत तथ्यों पर आधारित उन धारणाओं और वास्तविकता के बीच टकराव सामने आएगा तो क्या आप प्रकाशक होने के नाते इसकी जिम्मेदारी लेंगे?

– दुनिया भर में लेखकों के बीच मतभेद को हम भी समझते हैं। लेकिन क्या यह सिर्फ मतभेद भर का मामला है? आप तथ्य नहीं देखना चाहेंगे तो तथ्य नहीं मिलेंगे। मेरी चिट्ठी में स्रोत सिर्फ माई साहेब सविता आंबेडकर के नाम को लक्ष्मी बताए जाने पर पूछा गया है। बाबा साहेब माई साहेब को ‘शरू’ लिखते थे। वे शारदा कबीर थीं। लेखक को यदि कहीं किसी स्रोत में लक्ष्मी नाम मिला तो एक इतिहासकार के रूप में क्या उसे अन्य स्रोतों, बाबा साहेब के अन्य पत्रों से भी पुष्टि नहीं करना था?

4.
– आपने कहा कि ‘आप तार्किक और तथ्यात्मक रूप से उस उद्धरण को अप्रामाणिक बता सकें तो हमें पुन:विचार में कोई संकोच नहीं।’

– आपके इस वक्तव्य का अर्थ यह है कि मैंने जो आपत्तियां उठाई हैं, वे तर्कों और तथ्यों पर आधारित नहीं हैं और इसलिए वह विचार योग्य नहीं हैं। आपके मुताबिक, अगर मैं ‘तार्किक और तथ्यात्मक रूप से उस उद्धरण को अप्रामाणिक बता सकूं तब आप उस पर पुनःविचार करेंगे’।

– कथित लेखक ने जिस पत्र को संदर्भ के रूप में इस्तेमाल किया है, उसके विवादित होने का प्रश्न फिलहाल छोड़ दिया जाए तो भी वह पत्र और उसमें दर्ज वाक्य तथ्य हैं।

– उसमें लेखक द्वारा अपने पूर्वाग्रहों के मुताबिक चुने गए वाक्य और दुष्टता की मंशा से छोड़ दिए गए वाक्य तथ्य हैं।

– साजिशन छांटे गए हिस्से की किताब में प्रस्तुति और उस पर लेखक का अम्बेडकर के व्यक्तित्व और विचारधारा के बारे में मनमाना निष्कर्ष तथ्य है।

– और इस समूची प्रस्तुति पर संदर्भ, पत्र के पूरे हिस्से को रखना, उसकी व्याख्या और उदाहरणों सहित अम्बेडकर के विचारों और फैसलों के साथ गतिविधियों के जिक्र के साथ किताब के संबंधित हिस्से पर उठाई गई आपत्तियां तर्क हैं।

– इसके बावजूद आपके विचार से ये बातें ‘तार्किक और तथ्यात्मक’ नहीं हैं।

5.
– सदियों से यह समाज जिस जातिगत ढांचे के तहत संचालित होता रहा है, उसमें सत्ताधारी तबकों की यह भाषा से अब हैरानी नहीं होती। सत्ताधारी तबके शासित तबकों की ओर से उठाए गए सवालों को खारिज करने, उसके मनोबल को तोड़ने, उसकी वाजिब बातों को दफ्न करने और इस तरह दमन का सामाजिक मनोविज्ञान तैयार करने के लिए ऐसी भाषा के प्रयोग की कोशिश हमेशा करते रहे हैं।

– इसके अतिरिक्त आपकी यह सीमा समझी जा सकती है कि आप प्रकाशक हैं और आपके पास अपनी व्यस्तता, वक्त के अभाव, विषयों को समझ पाने में मुश्किल आदि कारणों में कोई एक या अनेक कारण हो सकते हैं। आपसे संपादकीय दृष्टि की अपेक्षा बहुत ज्यादा नहीं की जा सकती। लेकिन आप पर यह जिम्मेदारी जरूर है कि आप अपने प्रकाशन में पर्याप्त ज्ञान, दृष्टि और वस्तुपरक समझ के आधार पर लेखन को कसौटी पर रख कर किताबें तैयार करने वाले संपादक पर भरोसा करें। इसका मुख्य कारण यह है कि कोई लेखक हर कसौटी पर पूर्ण किताब लिख सकता है तो कई बार कोई लेखक अपनी कम समझ, कम ज्ञान, दुराग्रह, सौदेबाजी आदि के कारण कुछ ऐसा भी लिख सकता है, जिसे एजेंडा आधारित लेखन कहा जाता है। इन सब पहलुओं का ध्यान रखना किसी भी बड़े प्रकाशक की जिम्मेदारी होती है।

बहरहाल, मैं आपको एक वीडियो का लिंक भेज रही हूं। कृपया आधे घंटे का समय दें उसे। यदि आप लिखित में मेरी मुख्य आपत्ति नहीं समझ पा रहे, तो शायद सुनकर समझ लें।

पुनश्चः किसी भी पूर्वाग्रह-दुराग्रह के आधार होते हैं। आपत्तिजनक अंश वाली किताब के लेखक का इरादा इसलिए भी बाबा साहेब और अम्बेडकरी जमात के प्रति घृणा से प्रेरित है कि यह अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि के मानस से अब तक छुटकारा नहीं पा सका है और अक्सर बहुजन महापुरुषों के खिलाफ लिखता है। दलित पृष्ठभूमि के दो-तीन बड़े लोग बताते हैं कि यह उन्हें गालियां दे चुका है। जानना चाहेंगे कौन-सी गाली?

हम सहृदयी परम्परा के लोग हैं। इसलिए अपनी सम्पूर्ण सहृदयता के साथ आपसे आग्रह करते हैं कि अपने प्रकाशन की प्रतिष्ठा के मद्देनजर आप यह किताब वापस ले लें और भविष्य में ऐसे किसी प्रकाशन के लिए अम्बेडकरवादी सलाहकारों को भी अपने साथ रख सकते हैं। आपने कहा कि बाबा साहेब के प्रति आपके मन में बहुत आदर है। तो अपने संस्थान में डायवर्सिटी लाने के प्रति शायद आप सचेत होंगे ही।

धन्यवाद और शुभकामनाओं के साथ

अनिता भारती
लेखिका

4- उपर्युक्त पत्र का उत्तर नहीं आने पर अनीता भारती द्वारा लिखा गया पत्र (07-12-2022)

– माननीय अशोक महेश्वरी जी,

आपके राजकमल प्रकाशन से आई पुस्तक उसने गांधी को क्यों मारा पुस्तक में लेखक अशोक कुमार पांडे द्वारा साजिशन बाबा साहेब की छवि खराब करने के संदर्भ में, अपनी आपत्ति दर्ज करते हुए मैने आपको 27 नवम्बर को मेल भेजा था परंतु आज तक आपकी तरफ से उसका कोई जबाव नहीं आया है। इसलिए अब हम इस पर उचित मंचों पर बात करने जा रहे हैं।

धन्यवाद और शुभकामनाओं के साथ

अनिता भारती
लेखिका

5- अनीता भारती के उपर्युक्त पत्र के बाद अशोक माहेश्वरी की ओर से आया पत्र (12-12-2022) –

माननीय अनिता जी,

श्री अशोक कुमार पांडेय द्वारा उद्धरित पत्र प्रामाणिक है। उस पत्र को सविता आंबेडकर जी ने अपनी आत्मकथा में शामिल किया है। किसी भी शोध में पत्र/लेख आदि के हिस्से ही संदर्भित किए जाते हैं। साथ में संदर्भ दिया जाता है ताकि पाठक पूरा पढ़ सके। हमने लेखक से इस विषय में चर्चा की है कि अगले संस्करण में परिशिष्ट में पूरा पत्र दे दिया जाए।

अशोक कुमार पांडेय ने हाल के वर्षों में इतिहास पर विश्वसनीय पुस्तकें लिखी हैं। इनका व्यापक स्वागत हिंदी पाठक समाज में हुआ है। उनका कई भाषाओं में अनुवाद भी हो रहा है। प्रतिष्ठित अकादमिक इतिहासकारों द्वारा भी उन्हें संस्तुति मिली है। ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ पुस्तक पर उन्हें महाराष्ट्र के एक आंबेडकरवादी संगठन ने सम्मानित भी किया है। इसी पुस्तक में जाति के सवाल पर उन्होंने महात्मा गांधी के बरक्स डॉ आंबेडकर की प्रशंसा की है। ‘सावरकर: काला पानी और उसके बाद’ पुस्तक में उन्होंने डॉ आंबेडकर की तारीफ़ की है, सावरकर द्वारा की गई उनकी आलोचना का जवाब भी दिया है।

हमने ऐसी कई किताबें प्रकाशित की हैं, जिन पर गांधीवादी लेखकों/विचारकों ने आपत्तियां दर्ज की हैं। वैचारिक सहमति-असहमति ही बौद्धिक जगत का प्राण है। राजकमल प्रकाशन हर तरह के विचारों का सदा स्वागत करता है। इस पुस्तक में दिए गए तथ्यों का लेख/समीक्षा के रूप में जवाब आप या कोई भी देना चाहे तो स्वागत है। हमारी सम्पादन टीम में विद्वान संपादक हमेशा से रहे हैं। आपकी सलाह पर भी हम विचार कर रहे हैं।

हमारी दृष्टि में सोशल मीडिया पर हाल में जारी एक पत्र भी आया है । इसमें विभिन्न पार्टियों तथा सरकारों से पुस्तक के बहिष्कार की अपील की गई है। यह बौद्धिक जगत में दुर्भाग्यपूर्ण कार्यवाही है। विचारों का उत्तर विचार से दिया जाता रहा है, प्रतिबंध या निषेध से नहीं।

डॉ. आम्बेडकर के प्रति हमारे मन में जो सम्मान है, वह अमिट है। आपके लेखन और जुझारू व्यक्तित्व के भी हम प्रशंसक हैं। इसी साल हमारे एक सम्पादक महोदय ने आपसे आपकी नई किताब की मांग की थी। हम लोग किताबों की दुनिया में विविधता और लोकतांत्रिकता बढ़ाने के प्रति निरंतर सचेत हैं। आप सबके सहयोग से ही यह प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ेगी।

धन्यवाद

भवदीय
अशोक महेश्वरी
प्रबंध निदेशक
राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड

5- अशोक माहेश्वरी के उपर्युक्त पत्र के बाद अनीता भारती द्वारा भेजा गया जवाब (22-12-2022)

प्रिय अशोक माहेश्वरी जी,

आपका पत्र मिला।

1- आपने पत्र की शुरुआत में कहा है कि ‘हमने लेखक से इस विषय में चर्चा की है कि अगले संस्करण में परिशिष्ट में पूरा पत्र दे दिया जाए।’ इसका मतलब यह है कि आखिर आपने और लेखक ने यह स्वीकार किया है कि प्रकाशित किताब ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ में बाबा साहेब आंबेडकर के पत्र का मन-मुताबिक चुने हुए अंश को पेश किया गया और मनमर्जी से कुछ लाइनें छिपा दी गईं। और अब आपत्तियां उठाए जाने के बाद उपजे विवाद का निष्कर्ष यह होगा कि ‘अगले संस्करण में परिशिष्ट में पूरा पत्र दे दिया जाए।’

2- यह हम पहले कह चुके हैं कि जब तक पत्रों पर विवाद किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुंच जाता है, तब तक पत्रों को एक उद्धरण के रूप में प्रयोग किए जाने को लेकर हमें आपत्ति नहीं है। दरअसल, हमारी मुख्य आपत्ति यह है पुस्तक में प्रस्तुत पत्रांश को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया, कुछ पंक्तियां जानबूझ कर छोड़ दी गईं। संबंधित पत्र में से अपने दुराग्रहों के मुताबिक चुनी गई पंक्तियों के आधार पर लेखक या किसी भी व्यक्ति को यह निष्कर्ष देने में सुविधा होगी कि वह यह कह सके कि ‘आंबेडकर हृदयहीन थे’ और ‘आंबेडकर ने नाथूराम गोड्से की विचारधारा पर कुछ नहीं कहा’। लेखक ने जानबूझ कर यही शरारत की है। यह लेखक के दुराग्रह, कुंठा, अज्ञानता अथवा किसी छिपे एजेंडे का नतीजा हो सकता है।

3- गौरतलब है कि लेखक ने जिस पत्रांश का संदर्भ के रूप में जिक्र किया है, उस पत्र में मुख्य वाक्य ये हैं, जो छोड़े गए हैं- ‘जैसे ही मैंने गांधी की हत्या की खबर सुनी मैं द्रवित हो गया। मेरे प्रति उनकी तमाम शत्रुता के बावजूद मैं शनिवार की सुबह बिरला हाउस पहुंचा। उनकी मृत देह मुझे दिखाई गई। मैं उनके जख्मों को देख सका, वे सीधे उनके दिल पर थे। उनकी मृत देह देखकर मैं द्रवित हो गया। मैं थोड़ी दूर तक उनकी शवयात्रा में शामिल हुआ, आगे पैदल जाने में असमर्थ था, तो वापस घर आ गया। दुबारा राजघाट पहुंचा, वहां काफी भीड़ को चीरकर उन तक पहुंचने की असफल कोशिश की।’

4- अब जब लेखक यह मान रहा है कि ‘अगले संस्करण में परिशिष्ट में पूरा पत्र दे दिया जाए’, तो क्या आप या लेखक हमें यह समझाएंगे कि वह विशेष पूरा पत्र परिशिष्ट में देने के बजाय प्रस्तुत संदर्भ या उद्धरण के रूप में पूरा रख दिया जाता है, (सिर्फ तीन-चार पंक्तियां छोड़ी गई हैं।) तब उसके बाद लेखक को या किसी को भी यह निष्कर्ष निकालने की सुविधा कैसे और किस आधार पर मिल जाएगी कि ‘आंबेडकर हृदयहीन थे’ या ‘आंबेडकर ने नाथूराम गोड्से और उसकी विचारधारा पर कुछ नहीं कहा?’

5- आपने कहा कि ‘किसी भी शोध में पत्र/लेख आदि के हिस्से ही संदर्भित किए जाते हैं।’ ऐसा बिल्कुल हो सकता है। लेकिन किसी शोध या इतिहास केंद्रित किताब या लेख में यह छूट नहीं मिलती है कि संबंधित पत्र या लेख के मूल आशय को गायब कर उसमें मन-मुताबिक पंक्तियां निकाल कर पेश कर दिया जाए और बात यहीं खत्म नहीं हो, बल्कि उसी पेश हिस्से के आधार पर प्रस्तुत निष्कर्ष में लेखक अपने दुराग्रह भी चुपके से शामिल कर दे।

6- ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ नामक किताब को किसी मिथ्या गल्प या उपन्यास या कहानी या कविता जैसी रचना के रूप में पेश नहीं किया गया है कि उसके पाठक किताब में प्रस्तुत सामग्री की सुविधा के मुताबिक व्याख्या कर सकें। यह किताब एक शोध और इतिहास की पुस्तक के रूप में तैयार की गई है, जिसका अध्ययन भी इतिहास और तथ्य मान कर ही किया जाएगा। यह किताब बाजार की दुकान से लेकर पुस्तकालयों तक में जा सकती है। ऐसे में कोई भी स्वतंत्र व्यक्ति या इतिहास का विद्यार्थी अगर संबंधित अंश को पढ़ेगा तो उसे लेखक द्वारा प्रस्तुत पत्रांश के आधार पर निकाले गए लेखक के निष्कर्ष बिल्कुल ही स्वाभाविक लगेंगे, वह बाबा साहेब को ‘हृदयहीन’ और ‘नाथूराम गोड्से की विचारधारा पर चुप रहने वाले’ के तौर पर बिना किसी हिचक के स्वीकार कर लेगा। यानी वह आधे-अधूरे पत्रांश के आधार पर प्रस्तुत निष्कर्ष को अपनी धारणा या राय भी बना लेगा। जब एक विद्वान माना जाने वाला कथित लेखक यह ‘चूक’ कर सकता है, तो यही चूक पाठकों से क्यों नहीं हो सकती है?

7- किसी व्यक्ति, समुदाय या तबके के खिलाफ क्रूर और मिथ्या धारणाओं का निर्माण कैसे होता है? उसकी प्रक्रिया क्या होती है? क्या यह वही प्रक्रिया नहीं है कि एक तरफ तो कोई लेखक सामान्य बातचीत में आंबेडकर की प्रशंसा करने की बात की दुहाई दे, लेकिन जब तथ्य और इतिहास के रूप में दर्ज करने का मौका आए तब वह मनमानी तोड़-मरोड़ के आधार पर आंबेडकर को ‘हृदयहीन’ और गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे के पक्ष में खड़ा दिखा दे? इसके बड़ी क्रूर चालाकी और क्या हो सकती है?

8- आपने कहा कि ‘अशोक कुमार पांडेय ने हाल के वर्षों में इतिहास पर विश्वसनीय पुस्तकें लिखी हैं।’ यह संभव है कि ऐसा हो। लेकिन यहां संदर्भ इतिहास पर ही लिखी गई उसी लेखक की किताब ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ के एक हिस्से पर बहस है, जिसमें लेखक ने तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर एक खास राजनीति के तहत मनमाने तरीके से पेश किया और आंबेडकर को लेकर धूर्ततापूर्ण स्थापना दी। अब क्या गारंटी है कि अपनी बाकी इतिहास की किताबों में लेखक ने यही करामात या कलाकारी न की हो!

9- किसी किताब के स्वागत, उसका अनुवाद, संस्तुतियां आदि के जो समीकरण और उसकी जो रणनीतियां, समझौते होते हैं, इसका विस्तार बहुत ज्यादा है और साहित्य समाज इसे बखूबी समझता है। फिलहाल अगर यह सब मान भी लें तो स्वागत, अनुवाद, संस्तुतियां, सम्मानित आदि का आयोजन करने वाले लोग संभवतः तथ्यों और उसके आधार पर प्रस्तुत निष्कर्षों का विश्लेषण जरूर करते और तब उन्हें कम से कम ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ के इस विवादित हिस्से के रहते ऐसी किताब स्वागत करने लायक नहीं लगती। खासतौर पर विवादित उद्धरण को समझने के बाद किसी आंबेडकरवादी संगठन को यह किताब निश्चित रूप से सम्मानित करने लायक नहीं लगती। समझ में आने के बाद वे भी लेखक की मनमानी पर सवाल उठाते।

10- आप तथा लेखक इस किताब के ‘अगले संस्करण के परिशिष्ट में पूरा पत्र देने’ की बात करते हैं। सुविधा के मुताबिक चुनी गई प्रस्तुत छह पंक्तियां किताब के सामान्य पृष्ठों पर दी जाएं और पूरा पत्र ‘परिशिष्ट’ में, यह चालाकी और अपने पूर्वाग्रहों की कुंठा को कायम रखने का दुराग्रह नहीं तो और क्या है? फिर ‘अगले संस्करण’ में सुधार की बात के मुकाबले पहले संस्करण में जितनी प्रतियां किताब छपी होंगी, वह कितने बड़े दायरे में पहुंची होंगी और कितने लोग उसे पढ़ कर अपनी राय बनाएंगे? आपके संपादन टीम के विद्वान संपादकों की दृष्टि में उसका क्या समाधान है?

11- हम आपकी इस बात से बिल्कुल इत्तिफाक रखते हैं कि ‘वैचारिक सहमति-असहमति ही बौद्धिक जगत का प्राण हैं’। इसी क्रम में हमने आपके प्रकाशन से प्रकाशित किताब में जानबूझ कर की गई शरारत की ओर ध्यान दिलाया है। ऐसी किताबों की वजह से आपके प्रकाशन की प्रतिष्ठा और साख पर भी सवाल उठते हैं। आपने किताबों के प्रकाशन के क्षेत्र में जितना समावेशी काम किया है, उसमें कुछ खास हिस्सों को छोड़ कर अगर कोई व्यक्ति चंद किताबों के आधार पर आपको जनविरोधी और कुत्सित मंशा वाला हृदयहीन व्यक्ति और प्रकाशन ठहराए, तो यह आपराधिक स्तर तक अनुचित होगा। इसलिए हमारा आग्रह यही है कि आप इस किताब को वापस लेकर नए सिरे से फिर से इसी किताब को छापें, जिसमें आंबेडकर के संबंधित पत्रांश के संदर्भ में चूक को तथ्यगत रूप से पूरी तरह दुरुस्त किया जाए और उसके आधार पर लेखक के मनमाने, क्रूरतापूर्ण और बेईमानी भरे निष्कर्ष के हिस्से को हटाया जाए। अन्यथा यह सवाल राजमकल प्रकाशन पर ही उठेगा कि दुराग्रहपूर्ण और कुटिल मंशा से आंबेडकर की छवि बिगाड़ने के अभियान का माध्यम राजकमल प्रकाशन भी बना।

12- आपने कहा कि आप मेरे लेखन और जुझारू व्यक्तित्व के प्रशंसक हैं… इसी साल आपके एक संपादक महोदय ने आपसे आपकी नई किताब की मांग की थी। आपकी इस सहृदयता के लिए आपका धन्यवाद, लेकिन मौजूदा किताब पर विवाद के क्रम में इस संदर्भ के जिक्र में मुझे सौदेबाजी की झलक दिखी। आपकी इस सदिच्छा के और मुखर रूप में मजबूत होने की हम उम्मीद करेंगे कि आप लोग किताबों की दुनिया में विविधता और लोकतांत्रिकता बढ़ाने के प्रति निरंतर सचेत हैं। निश्चित रूप से हमारा इसमें सहयोग है और ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ के एजेंडा आधारित अंश पर आपत्ति जताना इसी का हिस्सा है, ताकि आपके प्रकाशन को बेहतर समावेशी समूह के रूप में जाना जाए।

धन्यवाद! 

अनिता भारती

7- अनीता भारती के उपर्युक्त पत्र के बाद राजकमल प्रकाशन की ओर से अब तक कोई जवाब नहीं आया है। अगर कोई पत्र आएगा तो इस लेख को अपडेट किया जाएगा।

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यह भी पढ़ें- बाबा साहेब के अपमान पर राजकमल प्रकाशन को खुला पत्र

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अरविंद शेष वरिष्ठ पत्रकार, लेखक व् फिल्म समीक्षक हैं।

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