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यह आर्टिकल सरदार अजमेर सिंह की किताब ‘बीसवीं सदी की सिख राजनीती – एक गुलामी से दूसरी गुलामी तक’ से लिया गया है।

 

 

(पंजाब के विभाजन के बाद बनी परिस्थितियों और अलग सिख राज्य पर)

पंजाब के विभाजन के बाद पूरबी पंजाब में अलग अलग वर्गों की जनसँख्या के अनुपात में खासी तब्दीली आ गई थी। पश्चिमी पंजाब और उत्तर पश्चिमी सरहदी इलाके की हिन्दू और सिख जनसँख्या को अपने घर-बार छोड़, काफ़िलों के रूप में सरहद पार करने के लिए मजबूर होना पड़ा। इधर, पूरबी पंजाब में मुस्लिम जनसँख्या पश्चिमी पंजाब में तब्दील हो गई। लायलपुर, मिंटगुमरी और शेखुपुरा से उजड़े सिख परिवार ज्यादाकर जालंधर डिवीज़न में अपने पुश्तैनी जिलों में आ बसे। पाकिस्तान से उजड़ी हिन्दू जनसँख्या के बड़े हिस्से घग्गर (एक नदी का नाम) पार इलाकों में जा टिके। आबादी के इस तबादले ने हिन्दू और सिख, दोनों भाईचारों की पोजीशन को मुख्य रूप से प्रभावित किया। पूरबी पंजाब की कुल एक करोड़ पच्चीस लाख की आबादी में हिंदुओं की जनसँख्या 62 फ़ीसदी तक जा पहुंची जबकि सिखों की 35 फ़ीसदी के करीब हो गई। यूं हिन्दू वर्ग को इतिहास में पहली बार पंजाब में बहुसँख्या नसीब हो गई। साथ ही, इतिहास में पहली बार सिख भाईचारे को एक संगठित इलाके (रावी और घग्गर के बीच के हिस्से) में अपनी बहुसँख्या हासिल हो गई।

बेशक़ पंजाब के बंटवारे के साथ सिख कौम को, जान-माल के हिसाब से बेहिसाब नुक्सान झेलना पड़ा लेकिन इस तबाही ने उसकी राजनितिक संयोग के जो नए दर खोले, उसका सही अनुमान डॉ. भीमराव अंबेडकर जैसा प्रतिभाशील मन ही लगा सकता था। फरवरी 1948 में जब एक सिख डेपुटेशन ने बंटवारे के चलते सिख कौम को झेलनी पड़ रही मुश्किलों से डॉ. अंबेडकर को अवगत करवाने के लिए विशेष मुलाक़ात की तब सिख मुलाकातियों की बात सुनने के बाद डॉ. अंबेडकर ने जो गंभीर और गहरा जवाब दिया वह यूं था :

“साझे पंजाब में आपकी आबादी 13 फ़ीसदी थी। इस तरह आप राज्य में भी जहाँ आपकी जनसंख्या ज़्यादा संगठित थी, एक माइनॉरिटी के तौर पर हिंदुओं और मुसलमानों के रहमो-करम पर थे। आपने अपनी पैदाइशी शक्ति, गतिशीलता, उधम और सख्त मेहनत के होते भी, आपसे गिनती में कहीं अधिक इन दो समुदायों के आस पास पहुँचने को ही तड़पते रहे। परंतु राजनितिक तौर पर आपके दामन में कुछ नहीं था।

बेशक़ देश के बंटवारे का हासिल एक बड़ी त्रासदी थी जिसमे माल के नुक्सान के साथ साथ लोगों को बड़े कहर झेलने पड़े हैं। परंतु इस आबादी के तबादले, भले ही यह ज़बरदस्ती हुआ है, से आप सिख लोगों ने आज राजनितिक तौर पर सब से ज़्यादा लाभ कमाया है और इसके बाद आर्थिक तौर पर भी आप सबसे ज़्यादा मुनाफे में रहोगे। जो मैं सुन और देख रहा हूँ, उस हिसाब से आपका समुदाय बारह हज़ार वर्गमील के इलाकों वाली छः रियासतों में बहुसंख्य हासिल कर चुका है। जालंधर डिवीज़न के सभी छः जिलों में भी आपकी बहुगिनती बन जाएगी। इस तरह जब यह जबरदस्ती तबादले का अमल पूरा हो जायेगा तब आपकी पचास हज़ार वर्गमील के इलाकों में बहुगिनती स्थापित हो चुकी होगी।

 

 

चार सो वर्षों से भी अधिक के लंबे इतिहास में आपके समुदाय को पहली बार ऐसा घर (होमलैंड) नसीब हुआ है जिसको आप अपना कह सकते हो। अब आपके पास एक ऐसा भूगोलीय क्षेत्र है जहाँ आप बहुसंख्यक हो। आपके पास एक ऐसा धर्म है जो आपको आपस में जोड़ता है; कौमियत के सभी मानदंडों के अनुसार आप एक ऐसी कौम बन गए हो जिनका अपना घर है और अभी भी आप मुझे बताते हो कि आपका बेशुमार नुक्सान हुआ है!इतिहास दर्शाता है कि ऐसे उद्देश्यों के लिए हमेशा ही बड़े कष्ट उठाने पड़ते हैं। अब जबकि आपके पास अपना एक ऐसा भूगोलीय क्षेत्र है जहाँ आप समय और हालात के अनुसार, सवैनिर्णय के प्रवानित नियमों के मुताबिक अलग होने के अधिकार का इस्तेमाल कर सकते हो तो भारत में कोई भी दल आपको कुचलने में या आपके साथ बुरा सलूक करने में कब तक सफल हो पायेगा!”

डॉ. अंबेडकर के इस कथन से तीन बातें स्पष्ट होती हैं।  एक यह कि वह सिख समुदाय को महज़ एक धार्मिक अल्पसंख्य के तौर पर नहीं बल्कि “कौमियत के सभी मानदंडों अनुसार” एक कौम के रूप में परवान करते थे।

दुसरे यह कि वह सवैनिर्णय के अधिकार को हर कौम का जन्मसिद्ध अधिकार समझते थे। और साथ ही उनकी यह दृढ़-धारणा थी कि “सवैनिर्णय के प्रवानित नियमों अनुसार” कोई भी कौम समय और हालात की मांग के अनुसार अलग होने का हक़ रखती है।

तीसरी बात, सिख कौम की तरफ से एक एकत्रित भूगोलीय क्षेत्र  में बहुगिनती हासिल कर लेने के बाद, वह इस क्षेत्र में सिख कौम द्वारा अपना स्वतन्त्र भविष्य निर्माण का दावा और हक़ तस्लीम करते थे।

डॉ. आंबेडकर के दृष्टिकोण से देखें तो सन सैंतालीस का बंटवारा सिख कौम के लिए वरदान साबित हो सकता था बशर्ते कि सिख कौम इसके लिए चेतन और अडोल-मन होती। अविभाजित पंजाब में सिख कौम को अपनी कौमी आज़ादी के राह की जिस बड़ी व्यावहारिक रूकावट का सामना करना पड़ रहा था, पंजाब के विभाजन के साथ वह मुश्किल खुद-ब -खुद दूर हो गई।

लेकिन जैसा कि हम चर्चा कर चुके हैं कि अविभाजित पंजाब में सिख कौम के लिए अपनी आज़ादी के रास्ते की मुख्य मुश्किल व्यावहारिक नहीं बल्कि सिख लीडरशिप की एक सैद्धान्तिक कमज़ोरी थी। विभाजन के बाद भी सिख लीडरशिप की यह सैद्धान्तिक मर्ज़ जस की तस कायम रही। सिख मसले पर उनकी सोच मूल रूप से ही डॉ. अंबेडकर से अलग थी। वह ‘सिख कौम’ की भी बात करते थे लेकिन व्यवहारिक तौर पर सिख पंथ को एक अल्पसंख्य धार्मिक वर्ग भी मानकर चलते थे। उनका मुख्य सरोकार आज़ाद भारत में सिख कौम के एक अल्पसंख्य वर्ग के तौर पर हक़ों और हितों की सुरक्षा करना था। आम सिख जनता की तरह ही सिख लीडरशिप के भीतर कुछ हिस्सों में सिख कौम की आज़ादी की बेक़रारी और जज़्बा तो था पर उनके अंदर सैद्धान्तिक स्पष्टता और निश्चय की चुभनिए कमी थी। इस कौमी चेतना की कमी के चलते वह सिख कौम के हितों और उनकी मांगों को लेकर कौमी-आज़ादी के दृष्टिकोण से निपटने की जगह एक अल्पसंख्यक वर्ग के दृष्टिकोण से देखने के नज़रिये का शिकार होते रहे। ‘जज़्बे’ और ‘चेतना’ में एक बड़ी खाई के कारण अक्सर वह कई आवाज़ें निकालते और डगमगाती पोजिशनें लेते रहे।

इस सैद्धान्तिक रोग से अगर कोई व्यक्ति सब से अधिक पीड़ित था तो वह मास्टर तारा सिंह थे।  मास्टर तारा सिंह के साठ बरसों के लंबे राजनितिक कॅरियर के दौरान अलग अलग मौकों पर अपनाये राजनितिक दावपेंच और जुदा जुदा मौकों पर कही उनकी बातों और बयानों की सरसरी छनाई करने पर ही यह बात तुरंत सामने आ जाती है कि उनका दिल (जज़्बा) कहीं और होता था और दिमाग (चेतना) किसी और जगह। अपने समकालीन ‘नेशनलिस्ट’ सिख लीडरों में वही एक मात्र ऐसे लीडर थे जिनका ‘दिल’, शुरू से लेकर आखिर तक, सिख कौम की आज़ादी के लिए धड़कता रहा और ‘दिमाग’ दिल से वफ़ा पालने से लगातार इनकार करता रहा। 1937-38 में, भारत की आज़ादी के संग्राम के दौरान उनके द्वारा सिख कौम की आज़ादी के मसले पर प्रकट किये विचार इस विरोधाभास का सही नमूना पेश करते हैं :

“मैं  ज़रूर सिख राज्य चाहता हूँ और स्वैराज अथवा साझे राज्य के भी हक़ में हूँ। लेकिन मैं ऐसा मूर्ख नहीं हूँ कि यह न समझ सकूँ कि सिख राज्य की कोई संभावना नहीं है। ….. केवल स्वैराज की या सांझे राज्य की संभावना है। इसी लिए इच्छा और जतन करने चाहिए ….।”

स्पष्ट है कि तारा सिंह पेट से सिख कौम की आज़ादी के इच्छुक थे। उनका यह पक्ष उनको अन्य ‘नेशनलिस्ट’ सिख लीडरों से, जो सिख कौम की आज़ादी की चाहत ही नहीं रखते थे और  मानसिक तौर पर अपने आप को हिन्दू धारा का ही अंग मान कर चलते थे, जुदा करता था। पर क्यूंकि मास्टर जी को अपने सैद्धान्तिक नज़रिये की गड़बड़ी के चलते सिख कौम की आज़ादी की संभावना नज़र नहीं थी आती, इसलिए उनकी व्यावहारिक बुद्धि उनको इस राह पड़ने से रोकती थी।

सन सैंतालीस के बाद भी उनको इस अंतरविरोध की तकलीफ झेलनी पड़ी है। जब जज़्बाती रौं में आकर वह दिल की बात करते थे तब हिन्दू लीडरों को मानो आग लग जाती थी। सैद्धान्तिक स्पष्टता की कमी के चलते जब मास्टर तारा सिंह को इस हिंदूवादी हमले को लेकर बचाव की मुद्रा में जाना पड़ता था तब उन्हें बार बार स्पष्टीकरण और सफाईयां देनी पड़ती थीं। इस तरह एक तो आत्मिक तौर पर उनका पहले ही मरण हो जाता था और दुसरे, उनको अपने ही सिख साथियों की नज़रों में भी गिरना पड़ता था। बार बार झेलनी पड़ती रही इस ज़लालत ने मास्टर जी की शख्सियत में गंभीर मनोवैज्ञानिक उलझने पैदा कर दी थीं। जिसके चलते उनको जितना गैरों का विश्लेषण झेलना पड़ा, उतनी ही ताने-शिकायतें अपनों से भी सुननी पड़ती रहीं।

(सरदार अजमेर सिंह पंजाब के जाने माने इतिहासकार हैं। वह अलग सिख राज्य के समर्थक हैं। सिख पंथ पर निरंतर हुए ब्राह्मणवादी हमलों से उनकी तकरीरें और उनके द्वारा लिखी गईं किताबें जगाती एवं चेताती हैं। सिख पंथ की स्थापना और उसके बाद उसपर ब्राह्मणवाद के हमलों से लेकर सिख पंथ को एप्रोप्रियेट करने तक के सरकारी-गैरसरकारी प्रयासों पर उनहोंने तफ्सील से लिखा है। )

 

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