दीपाली तायडे
वैसे तो लड़कियों के इनबॉक्स में रोज़ तमाम तरह के मैसेज आतें हैं, पर बीते दिनों कुछ लड़कियों के जो मैसेज आए उन्होनें मुझे लिखने पर मजबूर कर दिया। पहाड़ों पर घुमक्कड़ी की कई फ़ोटो के अपलोड के दौरान बहुत से कॉमेंट और मैसेज मिले, लेकिन मेरी लड़की दोस्तों ने जो लिखा वो लगभग कई बहुजन लड़कियों के अतीत-वर्तमान और रोज़मर्रा से जुड़ी प्रेक्टिसेस, उनके सपनों की ऊंचाइयों, समाज की खाइयों, गढ़ रहे व्यक्तित्व, बनते-बिगड़ते विश्वास-आत्मविश्वास की बात है।
एक लड़की ने लिखा है कि मैं आपकी ही तरह साँवली हूँ, बचपन से लेकर आज तक भी हमेशा सबने इग्नोर ही किया, मेरे साँवले रंग के पीछे मेरी तमाम योग्यतायें फीकी ही मानी जाती रही है, मैं खुद भी सबकी सुन-सुन कर इतनी दब्बू हो गई हूँ कि मान ही लिया है कि मैं सुंदर नहीं हूं इसलिए ही फ़ेसबुक पर भी कभी अपनी फ़ोटो लगाने की हिम्मत नहीं कर पाई। पर आपको देखकर एक नया हौसला मिला है, आप साँवले होते हुए भी कितना स्मार्टली-बोल्डली ख़ुद को कैरी करती हैं, आपके कॉन्फिडेंस की क़ायल हूँ मैं। आपको देखकर एक नया आत्मविश्वास मिला कि खूबसूरती गोरी चमड़ी की मोहताज़ नहीं। अब मैं भी अपने काले रंग को लेकर हीन नहीं महसूस करूँगी।
दूसरा मैसेज एक और लड़की ने किया है कि दीदी मेरा रंग भी आपकी तरह काला है, हम तीन बहनें हैं और सभी का रंग साँवला ही है। काले रंग की वज़ह से हर जगह लोग नाक-मुँह सिकोड़ते हैं। और यह कि मैं एक दलित हूँ, लोग रंग देखकर ही अंदाजा लगा लेते हैं। मेरी दीदी की शादी में बहुत मुश्किल आ रही है, सिर्फ़ रंग की वज़ह से बहुत दहेज़ मांग रहें हैं लड़के वाले, जबकि मेरी दीदी गवर्मेंट जॉब में है। मैं जानती हूँ मेरे और मेरी छोटी बहन के साथ भी यही होगा। पर मैं ऐसे नहीं चाहती, मुझे मंजूर नहीं कि लोग मुझे मेरे रंग से नापें। आपको फ़ेसबुक पर बहुत दिनों से पढ़ रही हूँ, आपसे हिम्मत मिलती है, आपमें बहुत कॉन्फिडेंस है, मैं भी ऐसे ही बनना चाहती हूँ।
अगला मैसेज, जो मराठी में है, उसका हिन्दी अनुवाद करके लिख रही हूँ। मैम आप बहुत अच्छा लिखती हो, मेरे पापा को मैंने ही बताया था कि अपने समाज की ही है यह लड़की। पापा स्मार्ट फोन नहीं चला पाते हैं पर हमेशा आप जो भी लिखती हो, मुझसे पढ़वाते हैं। मैंने आपके मनाली टूर की फ़ोटो भी दिखाई है घर में सभी को। आपकी वजह से मुझे भी कॉलेज से जा रहे ट्रिप पर माथेरान जाने की परमिशन मिल गई है। इसलिए आपको बड़ा वाला थेंक्स। आपसे ज़िंदगी जीना सीख रही हूं।
एक और मैसेज मिला जो एक शादीशुदा लड़की का है, जो लिखती है कि मेरा सपना था कि पूरी दुनिया देखूँ…. घूमना चाहती थी, पढ़ना चाहती थी पर बारहवीं के तुरंत बाद घरवालों के दबाव में शादी करनी पड़ी. मैं अपने सपने जी ही नहीं पाई. अब बस हॉउस वाइफ हूँ, घर, बच्चे और पति… बस। काश! कि पैसे होते तो मैं भी आपकी तरह पढ़ पाती, नौकरी करती और पूरी दुनिया घूम पाती। आपको इस तरह घूमते देख रही हूँ तो ऐसे लग रहा है कि हम साथ-साथ घूम रहें हैं। आप पूरी दुनिया घूमना, आपके पीछे-पीछे ही सही मेरे सपने भी पूरे हो जाएंगे।
ये मैसेज चार अलग-अलग लड़कियों के थे, नाम डिस्क्लोज नहीं कर रही हूँ। ये सभी बहुजन लड़कियाँ ही हैं. ये चार मैसेज चार परिस्थितियों को आपके सामने रखतें हैं। इनबॉक्स में जवाब तो दे चुकी हूँ पर पोस्ट लिखा आप सभी के लिए।
काला होना क्या होता है? दलित होना क्या होता है? लड़की होना क्या होता है? और इन सब बातों का एक साथ होने के क्या मायने हैं मैं जानती हूँ। बचपन से लेकर अब तक भी बहुत कुछ भुगता है और भुगत रही हूँ। इस दुनिया का सबसे वर्स्ट कॉम्बिनेशन है काली दलित लड़की होना। मैंने बचपन से ना केवल जातिवाद का दंश झेला है बल्कि अपने काले रंग के साथ लगातार रंग भेद भी झेल ही रही हूँ। बचपन से ही हमारे आसपास के लोग काले रंग को लेकर इतना हीन महसूस करा देतें हैं कि हम खुद को बदसूरत मान ही लेते हैं। मेरे साथ भी यही मामला था। लोग मेरा रंग देख कर बड़ी आसानी से मुझे ‘नीच जात’ की हूँ ‘रंग से जाति पता लगाओ प्रतियोगिता’ से जान लेते थे। बचपन में नवरात्रों में कन्या भोजन में खीर-पुड़ियाँ खिलाने के लिए लोग बुलाते तो रंग देखकर ही मैं और मेरी जैसी काली लड़कियाँ पहले ही बाहर रोक दी जाती। रंग से नीच जात पहचानना बड़ा आसान सा फंडा है हमारे सो कॉल्ड महान देश में। फिर बाहर ही दोना-पत्तल में खीर-पूड़ी मिलती जो उस वक़्त घोर ग़रीबी में मेरे लिये बहुत बड़ी बात थी, फ़िर भले ही वो दो हाथ दूर से फेंक कर दी जाती रही हो।
खैर जो दलित लड़कियाँ गोरी होती हैं, उनके साथ भी बड़ा बुरा व्यवहार होता है। लोग उनकी जात गोरे रंग की वजह से पहचान नहीं पाते हैं और फिर गोरी दलित लड़कियों को बोलते हैं कि जरूर उनकी माँ किसी सवर्ण के साथ सोई होगी। पर मैं तो काली हूँ इसलिए सीधे-सीधे पहचानी जाती रही हूँ।
बचपन में मैं भी पहनना चाहती थी चटख लाल रंग की फ़्रॉक और बनना चाहती थी लालपरी। बहुत मन होता था कि काश! डार्क नीले रंग के कपड़े पहन पाऊं पर मम्मी-पापा मार-पीट कर वही सफ़ेद, हल्का ग़ुलाबी, हल्का पीला रंग घुमा-फिराकर दिला देते थे। कॉलेज आने तक भी मुझमें कॉन्फिडेंस नहीं था कि डार्क या पसंद के रंग पहन पाऊं। क्योंकि तब तक काले रंग, नीच जात की लड़की होने से जुड़े तमाम भेदभाव को मैं नीचे सिर झुका कर स्वीकार की हुई थी।स्कूल-कॉलेज में यही एक मात्र यूएसपी थी कि पढ़ने में अच्छी थी और सरकारी स्कूल में अंधों में काना राजा टाइप हालात थे। चाहते हुए भी कभी स्कूल में मैडम ने किसी डाँस या नाटक में भाग नहीं लेने दिया क्योंकि उसमें सुंदर मतलब गोरी लड़कियां ही चलती थी। मैं कभी स्कूल में नाच ही नहीं पाई और ना ही कभी मुख्य अतिथियों का स्वागत करने मिला काले होने की वजह से।
बहुत छोटे से गाँव से दिल्ली तक के सफ़र में वो तमाम दिक़्क़तों से लड़ा है, अपने-परायों से जूझा है इस कॉन्फिडेंस तक आने में। पूरे समय खुद को छुपाती-बचाती नज़रें नीची रखी हुई हीनभावना से ग्रस्त दब्बू दीपाली से आज की दीपाली तक के सफ़र में बहुत कुछ झेल कर संघर्ष करके सीखा, बुना, गुना, पचाया और तचाया है। ये सब बातें इसलिए लिख रही हूँ दोस्तों क्योंकि ये सब तमाम लड़कियों/लड़कों के संघर्ष हैं अपनी-अपनी तरह के। बहुजनों के लिए समाज में ऐसी परिस्थियां या प्रिविलेज नहीं हैं कि उन्हें ज़िंदगी की ज़मीन उर्वर मिले। और मैं कोई विशेष नहीं हूँ. हाँ! ख़ुद को बेहतर इंसान बनाने की कोशिश लगातार कर रही हूँ।
रंग भेद के साथ जातिभेद का डबल टॉर्चर और लिंगभेद की वर्स्टनेस के साथ उनसे जुड़ी तमाम मुश्किलों से लड़कर आज वाला आत्मविश्वास ला पाई हूँ। बाबासाहेब का शुक्रिया कहने के लिए शब्द नहीं बचते मेरे पास कि कुछ भी कह पाऊँ। अगर पढ़-लिख नहीं पाती तो शायद ये दीपाली भी नहीं होती। मैं हूँ क्यूंकि वह (बाबा साहेब) थे.
तो, मेरे सभी बहुजन दोस्तों ख़ूब पढ़िए, लड़िए हम लोगों के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है और पाने के लिए पूरी दुनिया है।
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दीपाली तायडे सिविल सर्विसेज की तय्यारी कर रही हैं. सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं. उन्हें पढ़के एक दलित महिला के समाज को देखने-परखने के दृष्टिकोण से वाकिफ होने का एक ज़रूरी मौका मिलता है.
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