bal gangadhar bagi
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बाल गंगाधर बागी (Bal Gangadhar Bagi)

bal gangadhar bagiबाल गंगाधर बागी बहुजन आन्दोलन के कारवां में, एक कवि के रूप में, नया हस्ताक्षर हैं. अपने समाज की  दशा और दंश के लम्बे इतिहास को अपनी कविताओं के माध्यम से बयाँ करते हैं. यह जानना हमेशा दिलचस्प रहता है कि कला के झरोंखे से अपनी जड़ों ,आसपास बने और बदलते हालातों और अपने नायकों को एक युवा किस तरह देखता है और रियेक्ट करता है. उसकी समझ और उसका दर्द मिलकर शब्द में गल कर कैसे कला के सांचे में ढलते हैं. ‘बागी’ अपने इस सफ़र में बहुजन आन्दोलन को अपना काव्य संग्रह ‘आकाश नीला है‘ समर्पित कर चुके हैं. इसी काव्य संग्रह की तीन कविताओं को हम यहाँ दर्ज करने का गौरव ले रहे हैं. – राउंड टेबल इंडिया  

 

            बताओ मुझे (1)

अंधेरा आज भी घरों में जिनके क़ायम हो

उम्मीद की रोशनी भी जहाँ घायल हो

सदा उम्मीद जहाँ खाई में गिरती हो

जिनके आंख से हर वक़्त बहता काजल हो

 

तुम्हारे वजूद को अगर कोई नंगा कर दे

तो ऎसी हाल में करोगे क्या बताओ मुझे ?

 

फटे चिथड़ों में अगर मोनालिसा बनना पड़े

तारीफ में गालियाँ औ’  बेइज्जती सहना पड़े

मर्यादा अगर समाज में नंगी घुमाई जाये

बताओ फूलन देवी, क्यों न उन्हें बनना पड़े

 

जबरन तुम्हारी दुल्हन, पहली रात हो ठाकुर के घर

तब तुम्हारी दास्तां क्या होगी, ज़रा सुनाओ मुझे ?

 

जब हलवाही तुम्हारे ही नाम लिख दी गई हो

रेहन पे तुम्हारे घर की सारी संपति रखी गई हो

बच्चे पढ़ाई की जगह तुम्हारे जानवर चराते हों

हड्डियों के बल सवर्णों की चौखट पे घिस गये हों

 

तुम्हें पेट भर जब अनाज न मिले खाने को

तो किस हाल में जिन्दा रहोगे, समझाओ मुझे ?

 

गांव के बाहर कूड़े की तरह फेंक दिया जाये

पानी के लिये कूंए की जगत से, ढ़केल दिया जाये

पीड़ा में सने पसीने से, कड़ी ठंडक में नहाना पड़े

चिलचिलाती धूप में खेत में, कुदाल चलाना पड़े

 

ज़िंदगी बोझ-सा ढ़ोना पड़े परछाई जैसे

जीवन का राग क्या होगा, गा सुनाओ मुझे ?

 

आंसू कम न थे, पर बरसात घर पे वर्षा है

झोपड़ी सावन की, पुरवाई का जैसे झोंका है

कटी पतंग-सी, जिनकी जिन्दगी बे डोर हुई

डूबते बाढ़ में क्यों, किसी ने नहीं रोका है ?

 

सूनी पतीली में कुछ बनाऊँ क्या खिलाऊँ उन्हें ?

आंसू की भाप में पके चावल तो खिलाओ मुझे 

 

जब बेटा दूल्हा बने और बाप बाराती हो

शादी की डोली अर्थी सी सूनी जाती हो

माँ अपनी पीड़ा को गीतों में गुनगुनाती हो

शादी में पकवान न, बस साग भात बनाती हो

 

सजीव मानव का, निर्जीव चित्रण दिखायें किसे

यह किस समाज का दस्तावेज़ है, बताओ मुझे ?

 

तुम्हारी माँ बहने, घसियारन बनी मर जायें गर  

फिर शादी में, शहनाई बजे और न हँसे कंगन

दुल्हन को पैदल ससुराल, शादी में जाना पड़े

उसी दिन ठाकुर का, मरा जानवर उठाना पड़े

 

सड़ा मांस खाना और फिर गंदगी उठाना पड़े

क्या मजा उस गंध का ले पाओगे बताओ मुझे ?

 

तुम्हें जाति के नाम पर लहूलुहान कर दिया जाये

नीच बोल समाज में, चारपई से उतार दिया जाये

जूठी पत्तलें उठाने और गाली देकर बुलाया जाये

दिन-रात बेगार-सा, हर मौसम में खटाया जाये

 

तुम्हारी खुशी का चिराग, फिर कभी न जले

अपने आप को देखोगे क्या, जरा बताओ मुझे ?

 

कचरे के ढ़ेर या फुटपाथ पर सोना पड़े

प्रदूषण में तड़पते जीवन ऎसे खोना पड़े

बीमारी से ग्रस्त दवा बिन तड़पना पड़े

पेट की आग को जब जूठन से बुझाना पड़े

 

इनकी यातनां का झंझावात दिखाऊँ किसे ?

किस महाकाव्य के ये पात्र हैं, समझाऊँ किसे ?

                                                                              

           मैं ज़िन्दा हूँ (2)

कुछ कहूं कैसे, मेरी ज़ुबान कट गई

अभिव्यक्ति के परिन्दों के कटे पंख सी

नहीं यह कटी नहीं है काटा गया है

यज्ञ की वेदी पे इसे बाँटा गया है

हवन कुण्ड में जला मशाल की तरह

इसे कई शताब्दी तक छांटा गया है

ताकि ये बोल न सकें, जुर्म के खिलाफ़

और कभी पढ़ ना सके वेद व पुराण

गौतम का ज्ञान, मेरे रक्त से किया दूर

जो स्याही बन सके न, ब्राह्म्णवाद के खिलाफ़

कानों में पड़ा सीसा अभी तक उबल रहा है

यज्ञ में लहू मेरा जितना भी जल रहा है

 

           सिसकियाँ गाँवों की (3)

वे महफिलें सजाते हैं, मस्तियों के शाम की

सूनी पड़ी हैं आज तक, गलियाँ हमारे गाँव की

जब पुरवाइयाँ हमारी, यादों को बींधती है

तब टाटियाँ खिसकती हैं, छप्परों से छाँव की

 

गिरते गुलाब जल नहीं, बारिश की बूंद से

बाढ़ में बहती हैं, चारपाईयाँ भी नाव की

पेड़ों पे हर किसी के तो मकान नहीं होते

बाढ़ में बांध पे बसे, या पगडण्डी दलान की

 

सदा आग के निवाले, छप्पर के फूस बनते हैं

बाकी अनर्थ होती हैं, तब नीदें भी चाँव की

बूढ़ी कमर नहीं झुकती, फिर धान लगे क्या

मूसल नही चलते, ओखल में किसी धान की

 

मेहमान उनके घर में आते हैं सोच समझ के

सोना जहाँ है भूखे दरिया में बहते नाव की

गट्ठर के गट्ठर उनकी यादों के बँध जाते हं

सिसकी में भूखी अँतड़ियाँ रोती हैं घाव की

 

मजदूरी कम पैसे में, क्यों वे लोग करते हैं ?

डाँट और लाठियाँ खाते हैं वो समाज की

भूख की आग को चूल्हा बुझा सकता नहीं

पर भूख के तवे पे ममता जलती है माँ की

 

मजबूरी के खूँटे में विचार बैल से चलते हैं

हैं पिसते असहाय दुखी जैसे चक्की अनाज की

उठती गिरती ‘बागी’ चीखें खामोश होती हैं

तस्वीर उन्हें दिखती है आदमी में साँप की

~~~

 

कवि बाल गंगाधर ‘बाग़ी’ जे.एन.यू. में एक शोधार्थी हैं एवं अंबेडकरवादी विचारधारा से जुड़े हुए हैं. उनसे 09718976402 एवं bagijnu@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

 

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