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गुरिंदर आज़ाद (Gurinder Azad)

अलग सिख राज्य की मांग जो काफी समय से खालिस्तान के लिए जद्दोजेहद में तब्दील हो चुकी है, एक काबिल-ए-गौर प्रश्न है.  

खालिस्तान की जद्दोजेहद में अगर ब्राह्मणवाद को सेलेक्टिव या अपनी सहूलियत के मुताबिक ही एड्रेस करना है तो मुझे अपने अनुभव से कहना होगा कि इस लड़ाई में लगे लोग गोल गोल ही घूमेंगे और इस लड़ाई को निर्णायक परिस्थितियों तक नहीं ले जा पाएंगे. ये बात वह लोग भी जानते हैं जो सिख आन्दोलन में लगे हैं कि अब उनकी लड़ाई मुग़लों या पहाड़ी राजाओं के साथ नहीं है बल्कि उस ‘सेंटर’ से है जहाँ ब्राह्मण बैठा है और जिसके विरुद्ध गुरु नानक बोले थे. मौजूदा हालातों में यह एक बात है. दरअसल, खालिस्तान के दर्शन में अगर, पंजाब में दलित और पछडी जातियों, घुमंतू जातियों, सिकलीगर सिखों आदि के इंसानी हकों एवं उनके ज़मीनी अधिकार के मामलात नहीं हैं तो खालिस्तान के बनने की संभावनाएं भी बेहद कमज़ोर ही साबित होंगी.

उन ऊंची जाति सिखों जिन्होंने अपने क्लास इंटरेस्ट ब्राह्मणवादी स्टेट से जोड़ लिए हैं वह इस लड़ाई का सबसे बड़ा रोड़ा है. वह सिख कहने को सिख हैं और अपनी फितरत में इस हद तक गिर चुके हैं कि दलित अपने तजुर्बे में उन्हें ब्राह्मण कहकर संबोधित करने लगे हैं. यह उन सिखों के लिए सबसे बड़ी गाली होनी चाहिए थी, क्यूंकि, सिख पंथ ब्राह्मण और उसके ‘वाद’ के खिलाफ ही एक रास्ते के रूप में जन्मा था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

खालिस्तान के चाहतमंदों को अपनी सिख ज़मीन से मानवता, विभिन्नताओं, सभ्यचारों की व्यापकता की ओर देखने और पूरी तरह से समझने की ज़रुरत है.

एक बढ़िया सिख इंटेलेक्चुअल मैं उसे मानता हूँ जिसे अपने इतिहास की जानकारी और सिख-उद्देश्यों के साथ साथ, इस कथित मुल्क में ब्राह्मण द्वारा सताई गई जातियों की समझ हो और वह अपना जूता उतारकर और उनका जूता पहनकर सोचने की तहज़ीब रखता हो. उनके दर्द से सांझ बनाने की इंसानी समझ रखता हो. उसमें अपने गरेबां में में झांक लेने की दलेरी हो. यह एक मझे हुए आन्दोलनकारी का एक ज़रूरी हुनर या गुण होता है. यह भी ज़रूरी है कि वह केवल सिखाने या जजमेंटल होकर सोचने के लिए न सीखे बल्कि नई रौशनी को अपने आन्दोलन की समझ पर पड़ने दें. वर्ना बहुत बार देखा है, ऊँची जाति का व्यक्ति या समूह ब्राह्मण के खिलाफ होते होते अपने जातिये गुरुर का ही दोहन करने लगता है और इस तरह ब्राह्मण को अनजाने में मजबूत करने लगता है.

आजकल सिख उस ‘लेफ्ट’ को ब्राह्मणवाद के खिलाफ लड़ता हुआ देख आत्मविभोर हो जाते हैं. वह नहीं जानते या जानना चाहते कि जिनका खुद का इतिहास ब्राह्मणवाद केrss and sikh दोहन का रहा है उन्होंने क्या वाकई में खुद को जाति-विहीन कर लिया है! वह नहीं समझते कि ब्राह्मण बाएं हाथ के दस्ताने में दरअसल हाथ ब्राह्मण का ही है और उनका जातिये अहम और भी जटिल रूप से बाहर निकल रहा है. उसको समझने में अगर अस्पष्टता है तो वह और भी खतरनाक है. 

सभाओं में बोलते हुए सिख इस बात को समझने में कोरे जान पड़ते हैं कि किस तरह ‘लेफ्ट’ के ऊंची जाति के लोग अपनी सांस्कृतिक पूँजी से भारत के बहुजनों की आवाज़ को दबा कर और उनकी ‘जुबान’ बनकर अपनी ब्राह्मणवादी मोनोपली यानि इजारेदारी को ही मजबूत कर रहे हैं और अपने राजनीतिक आकाओं की रोटियां सेंक रहे हैं.

इन बातों की समझ उन्हें बाबा साहेब और कांशी राम साहेब द्वारा चलाये अन्दोलोनों से लेनी होगी. फिलहाल तक मुझे उनकी वाणी में इस ज़रूरी सीख का ख़ास तजुर्बा नहीं हुआ है. वो सीधे स्टेट से उलझना चाहते हैं. ऐसा लगता है उन्होंने अभी भी ज़मीनी काम या तो नहीं ही किया है या इसे अपनी लड़ाई के लिए ज़रूरी नहीं समझा है.

हक़-ओ-हुकूक की जद्दोजेहद के लिए साफगोई एक प्राथमिक चीज़ है. उसके बाद दुश्मन की समझ और ताक़त को आंकना होता है. उसके बाद आसपास के वातावरण को समझने और भांपने की ज़रुरत होती है. इन्हीं से रास्ते निकलते हैं.

पंजाब में दलित 32 फ़ीसदी हैं. जट्टों के हाथ रही सत्ता और उनके ज़मीन के मरने-मारने वाले मोह ने ज़मीन सुधार और बंटवारे की सिख विचारधारा के मद्दे-नज़र कभी बात नहीं की. अहंकार ने उससे वो काम करवाए हैं जो सिख विचारधारा के मानदंडों से मीलों दूर लेकिन ब्राह्मणवाद के करीब दिखेंगे. ये बात माननी पड़ेगी कि वह ब्राह्मण को पसंद नहीं करता. इतिहास उन्हें अक्सर बौध करवाता रहता है कि ब्राह्मण ने उनके गुरुओं के खिलाफ मुग़लों के यहाँ मुखबरी करके कई बार गद्दारी की है. लेकिन ब्राह्मण की चालाकी की समझ को वह लट्ठ-मार सोच से निपट लेना सोचता है. ब्राह्मण की कुटिल चालों की गंभीरता को समझने में अभी भी उनका समाज समझ के स्तर पर परिपक्व नहीं हुआ है.

दूजी ओर पंजाब के खत्री सिख आर आर एस की बनाई राष्ट्रिय सिख संगत से जा मिले हैं. ऐसा नहीं सभी ही जा मिले होंगे. लेकिन पंजाब से बाहर अन्य राज्यों में बसे लोग बड़ी तादात में अपनी जड़ों से टूट के अनजाने ही दुश्मन से जा मिले हैं और हिन्दू-सिख एकता की बात करने लगे हैं. लेकिन ये एकता किस काम की है? इसका मतलब क्या है? हिन्दू धर्म तो है ही ब्राह्मण के कब्ज़े में! एक सिख की उससे कैसी सांझ?

जिस हिसाब से 1877 में गुजरात से आये दयानन्द से लेकर भारतीय सल्तनत की गद्दी पर बैठी इंदिरा गाँधी तक और अब नए रूप में ब्राह्मण द्वारा घालमेल की राजनीति ने सिख पंथ पर अलग अलग मोर्चों से जो प्रहार किया है उससे पंजाब को झेलने पड़ रहे मौजूदा नुक्सान सीधे रूप से जुड़े हैं. पंजाब के पानी का मसला, हिन्दू के मुखौटे में बैठे ब्राह्मणवाद की मजबूत पकड़ होना, स्टेट के अधिकारों की कांटछांट करके केंद्र के पास बड़े फैसलों का अधिकार और उद्योगीकरण एवं खेती को लेकर घटिया नीतियाँ ये सब रास्ते की बड़ी खाईंआँ साबित होने वाली हैं. दयानंद ने आकर जो आर्य समाज का बीज बोया था वह सिख परंपरा पर भारी पड़ गया है. बहुत सी बड़ी चुनौतियों के समक्ष उनके दर्शन में जातिवाद का काँटा दरअसल उनके आन्दोलन के पैर में चुभा काँटा है. उसे उन्हें निकालना चाहिए. ऊंची जाति के सिखों को उनके गुरु ग्रन्थ साहेब में दर्ज संत रविदाव महराज की भी बाणी और बेगमपुरा का ध्यान करना होगा. खालिस्तान अगर होगा भी तो बेगमपुरा से अलग कैसे हो सकता है?

रास्ते तो बहरहाल निकल आते हैं अगर आरज़ू में ईमानदारी और मानवता हो. लेकिन अहम बात यह भी होती है कि दुश्मन को अलग अलग नकाबों में भी पहचान लेने में आपकी नज़र धोखा तो नहीं खाती!? कहीं ऐसा तो नहीं दुश्मन जंगे-मैदान में आपकी ही सेना, यहाँ तक कि आप ही के भीतर घुसकर बैठ गया हो? सिख समाज के ऊंची जात के लोग संपन्न परिवारों से हैं. सिख राजनीती उन्हीं के हाथ है. उनके द्वारा गच्चा खाने का कारण जो भी हो, कितना ही उचित हो, हलक से नहीं उतरता.

बहरहाल, कुछ सिख अपने ज़मीनी मुद्दों पर ब्राह्मणवाद को समझकर व्यापक दृष्टिकोण सेबातचीत कर रहे हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि वह सांझ का कोई नया इतिहास लिखेंगे.

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गुरिंदर आजाद राउंड टेबल इंडिया, हिंदी के संपादक हैं.

तस्वीर साभार: इन्टरनेट 

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