Manisha Mashaal
हवा के खिलाफ यहां तक…
मेरा नाम मनीषा मशाल है। मैं जमीनी स्तर की जाति-विरोधी कार्यकर्ता, वक्ता और गायक हूं और फिलहाल अखिल भारतीय दलित महिला अधिकार मंच के हरियाणा राज्य की संयोजक हूं। मैं हरियाणा के एक छोटे-से गांव से हूं। आज जहां मैं हूं, वहां पहुंचने के लिए एक दलित स्त्री होने के नाते मुझे बहुत सारी ऐसी मुश्किलों से जूझना पड़ा है, जिन्हें सामान्य स्थितियों में अलग से देखने की जरूरत नहीं समझती जाती। मेरे परिवार का जो अतीत रहा है, उसमें किसी तरह पढ़ाई-लिखाई करने वाली मैं पहली पीढ़ी की लड़की हूं। हालात चाहे जो रहे, लेकिन आज मेरे पास दो डिग्रियां हैं- कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से महिला अध्ययन (वीमेन स्टडीज) में स्नातकोत्तर और वहीं से जनसंचार में स्नातकोत्तर। और इसी अनुभव से मैं आपको यह बताना चाहती हूं कि #JusticeForRohith के लिए लड़ाई खत्म नहीं हुई है।
जिस दिन मैंने पहली बार रोहित वेमुला की आत्महत्या, उसकी वजहों और पृष्ठभूमि के बारे में सुना, तो मेरे अपने अतीत के संदर्भ मेरी आंखों के सामने नाचने लगे और तब रोहित के लिए मैं गहरे दुःख में चली गई। लेकिन इसके बाद मैं जितना ज्यादा उसके मेधावी और प्रभावशाली व्यक्ति होने के बारे में जानती गई, मेरा सदमा और गहरा हुआ। यह एक व्यक्ति नहीं, एक सपने, एक उम्मीद का जाना है। मुझे लगा कि अगर हैदराबाद यूनिवर्सिटी तक पहुंचने के रास्ते में जाने कितनी बाधाएं पार करने वाले और हिम्मती मानस वाले रोहित को आत्महत्या करनी पड़ गई तो निश्चित रूप से यह उसकी “कमजोरी” की वजह से नहीं हुआ, बल्कि उसे अमानवीयता के उस स्तर तक परेशान किया गया, जहां उसके पास लड़ने का कोई विकल्प शायद नहीं बचा था। मैं रोहित की कहानी जानती हूं, क्योंकि यह मेरी अपनी हो सकती थी। मैं भी वहां तक पहुंची हूं। मेरी पढ़ाई के दौरान कई ऐसे मोड़ आए जब मैंने वास्तव में सोचा कि ऐसे अपमानों को सहने से बेहतर है मर जाना। लेकिन मैं बची रही…!
शिक्षा के मेरे अपने अनुभवों को मैं विस्तार में साझा करना चाहती हूं, क्योंकि हम फिलवक्त जहां हैं, इस देश की हमारी जातिवादी शिक्षा प्रणाली की हिंसा के पूर्ण प्रभाव की कल्पना तक नहीं कर पाते हैं। लोग अभी भी आरक्षण और हाशिये के लोगों की “योग्यता” की कमी के बारे में बहस में लगे हुए हैं। मैं चाहती हूं हम सब पूछें कि आखिर वे किस तरह की शिक्षा हम वंचित तबकों के छात्रों को प्रदान कर रहे हैं? शिक्षा जो हम लोगों को मर्माहत करने और हमें उनके संस्थानों से बाहर निकाल देने के मकसद से आधे-अधूरे मन का प्रयास है? फौरी और ऊपरी तौर पर कोई तकनीकी वजह गढ़ ली जाती है और जातिगत जहर में डूबे कारणों पर परदा डाल लिया जाता है।
जाति केवल उच्च शिक्षा के क्षेत्र में काम नहीं करती है। यह हमारे जीवन में हर जगह है और बहुत पहले स्कूल में अपना सिर उठाना शुरू कर देती है। जब मैं किंडर-गार्टन में थी, मेरे शिक्षक द्वारा बताया गया था कि मैं “एक निम्न जाति” से हूं और मुझे कक्षा में सबसे पीछे बैठना चाहिए। उन्होंने चिल्ला कर कहा- “तुम चूहड़े ( वाल्मीकि) की आगे बैठने की हिम्मत कैसे हुई? पीछे जाओ! तुम स्कूल क्यों आती हो? खेतों में घास क्यों नहीं काटती जो तुम्हारा काम है?” इस तरह मुझे पता चला कि मैं किस जाति से हूं। उस समय मैं पूरी तरह से समझ नहीं पाई कि इसका क्या मतलब है, लेकिन जिस तरह से मेरे शिक्षक उत्तेजित हुए और मेरे साथ जैसा व्यवहार किया गया, मुझे अहसास हुआ कि शायद वाल्मीकि होने में कुछ बुरा है। स्कूल के शिक्षकों द्वारा सीखने से हतोत्साहित करना एक ऐसी हकीकत है, जिसे मेरे जैसे जाति-वर्ग की पहली पीढ़ी के शिक्षार्थियों को सामना करना ही पड़ता है। हमारे परिवार खेतों में काम करते हैं। हम समूचे भारत में जाति के चलते जमींदारों के गिरमिटिया रहे हैं। इन ‘उत्पीड़कों’ के बच्चों के साथ-साथ स्कूल जाना और फिर उनके सामने भी अपमानित किया जाना- एक बर्बर अत्याचार से कम नहीं है। एक बच्चे के रूप में आप मुश्किल से यह समझ सकते हैं, जो मैं कहना चाह रही हूं।
हाई स्कूल तक मेरे साथ यह डराना-धमकाना जारी रहा। शिक्षक मुझे कभी मेरे नाम- यानी मनीषा से संबोधित नहीं करते थे। बल्कि वे मेरी पहचान- निम्न जाति को उजागर करने और मुझे शर्मिंदा करने के लिए नाम बनाते, जैसे “लेट एडमिशन वाली” या “ओए बिंदीवाली”। इसके उलट, उच्च जाति के लड़के और लड़कियों को उनके सही नाम से संबोधित किया जाता था। वर्षों से जारी गालियां अब मेरे लिए असहनीय हो चुकी थीं। घर में किसी गंभीर घटना की वजह से एक दिन मैं स्कूल नहीं जा पाई तो दूसरे दिन शिक्षक ने मुझे खूब गालियां सुनाईं। मेरे लिए यह इसलिए भी बर्दाश्त से बाहर था कि मुझे कई बार क्लास में घुसने से भी रोकने वाले मास्टर ने मेरे एक दिन की गैरहाजिरी को मुझे अपमानित करने का बहाना बनाया था। मैंने उनसे पूछ दिया- “आप केवल मुझे क्यों डांटते हैं? इस ऊंची जाति की लड़की से क्यों नहीं पूछते आप? वह भी तो कल नहीं आई थी?” जब मैंने पहली बार प्रतिवाद किया तो शिक्षक बौखला गया। उसने मेरा बस्ता और किताबें कक्षा के बाहर फेंक दी और मुझे पढ़ाने, परीक्षा लेने और कक्षा में फिर कभी भी बैठने देने से मना कर दिया। लेकिन मुझे अच्छी तरह याद है कि मैंने हार नहीं मानी। मैं रोज स्कूल गई। मैं रोज अपने बैग और किताबों के साथ कक्षा के बाहर बैठती थी और सुनती थी। इसके बावजूद, स्कूल वर्ष के अंत में, उस मास्टर ने मुझे फेल कर दिया।
उच्च शिक्षा संस्थानों के प्रवेश द्वार के आसपास पहुंचने से बहुत पहले ही दलित बच्चे वास्तव में जहरीले जातिवाद से सामना करते हैं। यह पहले से ही सामाजिक पीड़ा से अभिशप्त हमारे परिवारों के अलावा है। इसलिए यह पूछना वाजिब है कि क्या आरक्षण की नीतियां उत्पीड़न की भयावहता को बेअसर करना भी शुरू करती हैं जो मेरे जैसे छात्रों को अन्य छात्रों के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए पार करना पड़ता है?
खैर, मैंने हाई स्कूल पास किया और कॉलेज के बारे में सोचना शुरू किया, मैं जानती थी यह मुश्किल होगा। मैंने सामाजिक और आर्थिक बाधाओं के लिए अपने आप तैयारी के साथ संघर्ष किया। हालांकि मैं जानती थी कि अगर मैं कॉलेज में एडमिशन नहीं ले पायी तो मेरे विकल्प एक अदद जल्दी शादी और ईंट भट्ठा में काम करने या घास काटने तक सीमित होंगे। मैं जानती थी कि मैं कुछ और अधिक के लिए बनी थी। मैं एक लीडर बनना चाहती थी जो मेरे लोगों के लिए परिस्थिति को बदल सके। इसलिए बड़ी मुश्किल से मैंने लाडवा, हरियाणा में इंदिरा गांधी नेशनल कॉलेज में दाखिला लिया।
कॉलेज के पहले ही दिन, मुझे तुरंत एहसास हुआ कि भारत में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अस्पृश्यता गुपचुप तरीके से, लेकिन अपनी हमलावर शक्ल में मौजूद है। अधिकांश स्टूडेंट दाखिले के बाद जातिगत आधार पर तुरंत समूहों में बंट गए थे। उच्च जाति के विद्यार्थियों ने मेरा नाम पूछने से पहले मेरी जाति पूछी। जब उन्हें पता चला कि मैं एक “कोटा” (आरक्षण) की छात्रा हूं, तो वे जान गए थे कि उन्हें मेरे साथ क्या करना है। उन्होंने मुझसे बात करने, मेरे साथ नोट्स साझा करने, मेरे साथ अध्ययन करने या मेरे साथ खाना खाने से मना कर दिया। मेरी कक्षा में तीन अन्य दलित लड़कियों का भी अनुभव यही थी। इस तरह हम चारों दोस्त बन गए और अपने दायरे में ही रहने लगे।
कॉलेज में जिस भेदभाव की शिकार मैं थी, वह सूक्ष्म से लेकर प्रत्यक्ष तक फैला हुआ था। एक एनएसएस (राष्ट्रीय सेवा योजना) शिविर के दौरान, हम लोगों को अपना काम, खाना बनाना और साफ-सफाई करने को कहा गया। जब हम सफ़ाई कर रहे थे, एक उच्च जाति लड़की ने शिकायत किया कि उससे ‘चूड़े’ और ‘चमारों का काम करवाया जा रहा था। मैं उसके अपशब्दों की रुखाई से अत्यंत आहत हुई और मैंने उस पर जातिवाद का आरोप लगाया। जैसे हमारी बहसें बढीं, प्रोफेसरों ने तार्किक होने के लिए मुझे डांटा, लेकिन उच्च जाति लड़की को सचेत करने का प्रयास तक नहीं किया। उस दिन, एक दलित प्रोफेसर मुझे एक तरफ ले गए और मुझे सांत्वना दी कि “हमारी लड़ाई इससे भी बड़ी है। हमें बहुत काम करना है। हमें रणनीति के तहत चलना है। इसे जाने दो।”
हालांकि, मेरे पास इन घटनाओं पर क़ानूनी प्रक्रिया करने या राजनीतिक रूप से उनका पता लगाने के लिए बैंडविड्थ नहीं थी, क्योंकि मेरा अधिकांश समय और ऊर्जा मेरे लिए वित्तीय जरूरतों को पूरा करने के प्रयास में लग जाता था। जहां मैं शहरी स्थिति में सुविधापूर्ण उच्च जाति उच्च वर्ग छात्रों द्वारा घिरी हुई थी, मैं बोझों के नए दल के साथ संघर्षरत थी। यहां तक कि छात्रवृत्तियों, मेरे परिवार के साथ भी मुझे दूसरे वर्ष की फीस का भुगतान के लिए बहुत कठिनायों को झेलना पड़ा। मेरा भाई किसी तरह पहले साल के भुगतान के लिए ऋण लेने में कामयाब हो गया था, लेकिन हमारे पास उचित कपड़े, एक अच्छे बैग या यहां तक कि किताबों के लिए भी पर्याप्त पैसा नहीं था। स्थिति इतनी कठिन थी कि प्रति दिन कॉलेज के बाद, मैं घर जल्दी भागती थी ताकि सूट धोने के लिए कुछ समय मिल सके, जिसे मैं अगले दिन पहन सकूं। छात्रों में से कुछ ने मुझे “फूलों वाली लड़की ” (फूल पोशाक वाली लड़की) बुलाना शुरू कर दिया, क्योंकि मैं वही सूट अकसर पहनती थी।
पहले वर्ष के अंत में मैंने सोचा कि अन्य कई दलित स्टूडेंट्स की तरह, जो फीस का भुगतान करने में असमर्थ हैं, मुझे भी कोर्स छोड़ देना होगा। इसी दौरान मेरे चाचा ने मुझे सहायक उपायुक्त सुमिता कटारिया से मिलने जाने को बोला। सुश्री कटारिया एक दलित स्त्री थीं, जिन्होंने जीवन में शिक्षा के लिए कठिन संघर्ष किया था। जब मैं उनसे मिली, मुझे लगता है कि उन्होंने मुझमें अपनी ही छोटी उम्र का बचपन देखा। उन्होंने मेरी फीस का भुगतान करने की पेशकश की और यहां तक कि मुझे कुछ किताबें और एक साइकिल भी खरीद दी। जैसे सुश्री कटारिया मेरी मदद कर रही थीं, मैं जानती थी कि उन्हें अन्य सहयोगियों और ऊंची जाति के शिक्षकों से काफ़ी आलोचना का सामना करना पड़ रहा था जो उनको जाति के आधार पर काम करने का आरोप लगा रहे थे। लेकिन एक साथी दलित स्त्री से सहानुभूति के इस प्रेममय कृत्य ने वास्तव में मुझे उच्चतर शिक्षा का एक असली मौका पाने की गुंजाइश दी।
लेकिन मैं एक “भाग्यशाली” क्यों थी? मुझे शिक्षित बनने के लिए एक दमनकारी समाज से लड़ना पड़ा। क्या यह अपने आप में पर्याप्त नहीं है? हमारे समाज में वास्तव में जातिवाद का समाधान करने के लिए पहले हमें हमारे स्कूलों में जातिवाद का समाधान करना चाहिए। अन्यथा हम इस प्रणाली को समाप्त करने में असमर्थ होंगे। भाग्य सफलता की गारंटी नहीं होनी चाहिए। हमें हमारी तरह जरूरतमंद दलित विद्यार्थियों के लिए एक सहायता का तंत्र का विकास और व्यवस्था करनी चाहिए, ताकि न केवल उन्हें दाखिला मिले, बल्कि वे कामयाब हो सकें।
कॉलेज में मेरा अनुभव दलित छात्रों के एक विशाल भाग का प्रतिनिधित्व करता है जो JNU या IIT जैसे कुलीन संस्थानों में नहीं जाते। हम अपने गांव-कस्बों के करीब छोटे सरकारी और गैर-सरकारी संस्थानों में जाते हैं। मेरे सहित इन कॉलेजों में, कोई भी अत्याधुनिक प्रयोगशालाएं या केंद्र नहीं हैं। वास्तव में, उनके पास अकसर बहुत ख़स्ताहाल बुनियादी ढांचा और अपर्याप्त विभाग होता है। इसके अलावा, दलित छात्रों को भेदभाव के कारण प्रवेश में नुकसान सहना पड़ता है। शिक्षक और प्रशासन हमें प्रयोगशालाओं में प्रवेश, पुस्तकालय से पुस्तकें प्राप्त करने, नौकरी के अवसरों के लिए छात्रवृत्तियों से लेकर सभी कुछ में हमारे लिए मुश्किलें और बढ़ाते हैं। हमें छात्रवृत्तियों के निकलवाने के लिए,भोजन और अन्य सब के लिए, एक कार्यालय से दूसरे कार्यालय तक हस्ताक्षर के लिए दौड़ाया जाता है। मैंने हमेशा महसूस किया कि हमें जानबूझकर हमारी जरूरतों को पूरा करने के लिए एकदम किनारे पर हताशा में रखा जाता था।
जब तक मैंने परास्नातक (वीमेन स्टडीज) में दाखिला लिया, मुझे अहसास हुआ कि कई मायनों में इन संस्थाओं में अस्तिव बचाए रखने के लिए व्यक्तित्व का लचीलापन और आंबेडकरवादी राजनीति का सशक्तीकरण आवश्यक है। मैं DAFSI (डॉ अम्बेडकर स्टूडेंट’स फ्रंट ऑफ़ इंडिया ) की अध्यक्ष चुनी गईं और दलित स्त्रियों की सक्रियता में गंभीर रूप से सक्रिय हो गयी। लेकिन यहां तक कि एक स्त्री के रूप में भी दलित स्त्री की राजनीति उच्च जाति स्त्री के बरक्स विषम गज्जब! जब दिल्ली में निर्भया से बर्बर बलात्कार की घटना हुई थी, तब मैंने ध्यान दिलाया था कि इस तरह के यौन हिंसा के मामले दलित स्त्रियों के साथ हमेशा होते रहते हैं। लेकिन वैसे मामलों पर वैसी चिंता कभी नहीं देखने को मिलती जो निर्भया को मिली। मैंने उन्हीं दिनों के एक मामले का उल्लेख किया कि एक युवा दलित स्त्री को हरियाणा के जींद में बलात्कार कर मार दिया गया। पूरी कक्षा और शिक्षक यह कह कर मेरा तीव्र विरोध करने लगे कि बलात्कार “स्त्री मुद्दा है” न कि “जातिगत मुद्दा”। मैंने यही सोचा कि एक महिला अध्ययन कार्यक्रम (वीमेन स्टडीज़ प्रोग्राम) में समझ का यह सड़ा स्तर था। स्त्री होने का मायने बहुत नहीं था जब वे भी एक दलित स्त्री की कमजोरियों के साथ सहानुभूति नहीं कर सकीं जो गंभीर हिंसा का शिकार हुई थी।
दरअसल, जाति-व्यवस्था से बाहर निकलने की हमारी कोशिशों को समायोजित करने के लिए एक सही संरचना नहीं है। शिक्षा प्राप्त करना हर रोज कई व्यावहारिक समस्याओं को प्रस्तुत करता है। उदाहरण के लिए, दलित लड़कियों के पास हरियाणा में कई हॉस्टल नहीं हैं। जो हॉस्टल हैं, हमारे पास उनके लिए भुगतान करने का साधन नहीं है। इसका मतलब यह है कि हमें लंबी दूरी की यात्रा करनी पड़ती है। मैं बस से लगभग 100 किमी, प्रति रास्ता 50 किमी की यात्रा करती थी। इस यात्रा से बचने के लिए, कई दलित पुरुष एक समय में कई दिन के लिए धर्मशाला में रुकते थे। लेकिन हम स्त्रियों को अंधेरा होने से पहले घर वापस भागना पड़ता था। इसका मतलब हमेशा होता था कि हमें एक विशेष समय पर एक विशेष बस में सवार होना पड़ता था। फलस्वरूप, हमारे पास पुस्तकालय में पढने जाने या पाठ्येतर गतिविधियों में भाग लेने के लिए कोई समय नहीं मिलता था। जब हम शाम में वापस घर पहुंचते, दिन खत्म नहीं होता। हमें साफ़-सफाई, खाना बनाना और हमारे भाई-बहन और परिवार के सदस्यों की देखभाल करना भी देखना होता है। हमें यह सब करना और अभी भी कॉलेज में अच्छा प्रदर्शन करना है। मैं अक्सर पूछती हूं- इन दशाओं में दृढ रहना क्या अपने आप में पर्याप्त योग्यता नहीं है?
इस तरह की समस्याएं दलित अभिभावकों को चाहते हुए भी विश्वविद्यालयों में अपनी बेटियों को भेजने से हतोत्साहित करती थीं। कई बार वे कहते थे कि वे अपनी बेटियों के शिक्षित और मारे जाने के बजाय अनपढ़ और जिंदा रखना पसंद करेंगे। स्नातकोत्तर के बाद मैंने ऐसी लड़कियों के परिवार वालों से मुलाकात शुरू कर दी। मैंने उनके माता-पिता को आश्वस्त किया कि वे कुरुक्षेत्र में मेरे दफ्तर में रह सकती हैं और यूनिवर्सिटी में क्लास करने जा सकती हैं। इस तरह वे रोज की लंबी और जोखिम भरे सफर से बच सकीं और अपनी पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित कर सकीं। अपने दफ्तर और विश्वविद्यालय परिसर में मैं उनके साथ जाती हूं और रास्ते में कई तरह की सलाह देती रहती हूं, उन्हें अपने सामाजिक कामों के बारे में बताती रहती हूं। मुझे बातें करते या काम करते देख कर उनके भीतर हिम्मत पैदा होती है। मैं बाबा साहेब और उनके संवैधानिक अधिकारों के बारे में जो भी जानती हूं, सब उन सबको भी समझाती हूं। अगर मैं उनके बात-व्यवहार में एक बदलाव देखना शुरू करती हूं, तो वे बोलना शुरू करती हैं। तब मुझे पता चलता है कि वे और अधिक सशक्त और सक्रिय महसूस करने लगी हैं। वास्तव में, मेरा यह मानना है कि उनके लिए असली शिक्षा यह है। वह ढोंग नहीं जो उन्हें हमारे विश्वविद्यालयों में शिक्षा के नाम पर सिखाया जाता है
यह देश अकसर आरक्षण और “योग्यता” के बारे में बहसों में उलझा रहता है। यहां वे रोहित की तरह के भाइयों के बारे में कई सवाल पूछना चाहते हैं। बड़ी ही बेशर्मी से वे उनकी योग्यता का भी सवाल उठा देते हैं। मैं पूछना चाहती हूं कि ये सवर्ण अपनी योग्यता कहां से प्राप्त करते हैं? उनकी बेहतर योग्यता या उनकी “बेहतर” जाति से? दलित पुरुष और मेरी जैसी दलित स्त्रियां हमारी ज़िन्दगी में पर्याप्त उत्पीड़न का सामना करते हैं जो किसी भी तथाकथित ऊंची जाति के चेहरे पर महसूस किया जा सकता है। और वे जला कर हड्डियों का ढेर बना देने के लिए पर्याप्त है। फिर भी हम न केवल बचे रहते हैं, बल्कि लगातार पीछे चमकते रहते हैं, एक हाथ बढ़ाने के लिए, एक और बहन, एक और भाई, एक मां, एक प्रेमी को पालने-पोसने के लिए- तब भी जब हम हमारे रास्ते पर सामंती फ़ासीवादी राक्षस को मार डालने के लिए लड़ाई में डूबे हैं। अपनी झूठी बहसें करो। मैं घोषणा कर रही हूं कि एक उज्ज्वल दलित छात्र की तुलना में कोई भी और आत्मा अधिक मेधावी नहीं है।
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