आशा सिंह (Asha Singh)
मैं दलित नहीं हूँ लेकिन मैं एक ‘बेहतरीन जाति’ की भी नहीं हूँ इसका एहसास मुझे बचपन से ही था. मेरा बचपन (नब्बे का दशक) एक कोलियरी-टाउन सिंगरौली की चीप हाउसिंग कॉलोनी में बीता जहाँ मेरे पिता सिक्यूरिटी गार्ड की नौकरी करते थे. बैरक-नुमा यह कॉलोनी सिंगरौली के आख़िरी छोर पर है, जिसे ‘नीचे कॉलोनी’ भी कहा जाता है. यहाँ कोलियरी के स्वीपर, सिक्यूरिटी गार्ड, ड्राइवर आदि को रहने के लिए एक कमरे का सरकारी क्वार्टर दिया गया था, जिसमे शुरूआती दिनों में टॉयलेट-बाथरूम की सुविधा नहीं थी, शौच आदि के लिए हम पीछे की ओर खाली मैदान जाया करते थे.
पिता की सरकारी नौकरी की वजह से मुझे केंद्रीय विद्यालय में दाखिला मिल गया था जहाँ सिंगरौली के ‘ऊपर’ कॉलोनी के लड़के-लड़कियां भी पढ़ते थे. अक्सर मेरी सहेलियां कहा करती थी कि तुम्हारा घर ‘नीचे कॉलोनी’ में है, वहां जाने से मम्मी डांटती है. ऊपर कॉलोनी की सहेलियों के घर जाने पर एहसास-ए-कमतरी हो जाती थी. कौन किस जाति का है इसको लेकर कुछ भी दबा-छिपा नहीं था. मेरी सवर्ण सहेलियों की माताएं कुछ कम-ज्यादा लेकिन साक्षर थीं, उनके पास ज्यादा सलीके वाले कपड़े थे, उन्हें ठीक-ठाक हिंदी आती थी. मेरी माँ बिलकुल निरक्षर थी, ठेठ भोजपुरी के अलावा कुछ नहीं आता था. मुझे एक प्रकार का एहसास था कि इन सभी बातों का जाति से कुछ ना कुछ लेना-देना तो ज़रूर है.
जाति को लेकर एक राजनीतिक समझ पिता की वजह से विकसित हुई. सिक्यूरिटी गार्ड की नौकरी से पहले वो 15 साल फ़ौज में रहे थे. सन 1971 के भारत-पाक लड़ाई में बिहार-उत्तर प्रदेश के तमाम दलित-बहुजन एवं अन्य गरीब युवकों को फौज़ में भर्ती होने का अवसर मिला. लड़ाई ख़तम होने के बाद वहां पढ़ाई-लिखाई के अवसर भी मिले. मुझे ठीक-ठीक तो मालूम नहीं लेकिन मेरे पिता के राजनीतिक चेतना की नींव शायद वहीँ पड़ी. और शायद बिहार में हो रहे राजनीतिक बदलावों जैसे राष्ट्रीय जनता दल और लालू यादव के उदय ने उनके विचारों को और मजबूत किया. उनके मुंह से अक्सर मैंने ‘ब्राह्मणवाद’ शब्द सुना था. उनके दोस्तों से होने वाली चर्चाओं में मैंने ‘जातिवादी’, ‘भेदभाव’ जैसे शब्द सुन रखे थे.
इसके अलावा रोज़मर्रा के जीवन में होने वाली कुछ और घटनाओं ने इस समझ को गहरा किया. जब मैं ग्यारहवीं में पढ़ रही थी, गणित और भौतिकी का ट्यूशन पढ़ने जाया करती थी. मेरे शिक्षक अक्सर सबके सामने मेरी तारीफ़ किया करते थे क्योंकि मैं दसवीं में अव्वल आई थी. शिक्षक के पिता ने मुझसे पूछा कि तुम कौन जाति कि हो, मैंने बता दिया. वो मानने को तैयार नहीं थे कि अहीर की लड़की दसवीं पास हो गई. उन्होंने कहा कि तुम झूठ बोल रही हो, तुम अहीर नहीं कायस्थ हो, अहीर लोग कहाँ अपनी लड़कियों को दसवीं तक पढ़ाते हैं. हालाँकि मुझे मालूम था कि उनका observation सही है कि अहीर लोग अपनी लड़कियों को नहीं पढ़ाते, पूरे खानदान ही नहीं बल्कि अपने गाँव कि मैं एकमात्र लड़की हूँ जिसको पढ़ने का मौका मिला है.
इन्हीं दिनों मेरे पिता मुझे एक स्थानीय श्रीकृष्ण समिति सम्मलेन (यादव सम्मलेन ) में लेकर गए थे. चूँकि मैं स्कूल में भाषण प्रतियोगिता आदि में भाग लिया करती थी, मेरे पिता ने मुझे मंच से कुछ बोलने को उकसाया. उनकी बड़ी लालसा रहती थी कि समाज उनकी तारीफ़ करे कि उन्होंने बच्चों को पढ़ाया-लिखाया. मैंने भी भाषण प्रतियोगिता समझ कर कुछ-कुछ बोल दिया, जिसका मुझे एक शब्द भी याद नहीं. वहां उपस्थित लोग भी इस बात से संतुष्ट हो गए कि एक लड़की बड़ा अच्छा बोली, वो लड़की क्या बोल रही है इस बात से किसी को कोई लेना-देना नहीं था. बल्कि मुझे भी उस उम्र में कुछ लेना-देना नहीं था, मेरा मकसद भी सिर्फ ‘भाषण-कला’ के लिए वाहा-वाही लूटना था. महत्वपूर्ण होने की लालसा थी. मेरे पास खुद की उपयोगिता साबित करने का इससे अच्छा अवसर नहीं था. क्योंकि हमें ऐतिहासिक रूप से non-meritorious समझा जाता था. मेरी माँ जैसा नहीं बनाना था मुझे, जिसे गंवार महिला की संज्ञा के अलावा कुछ और हासिल नहीं हुआ. मैं इस गंवार-देहाती दुनिया से बाहर निकलने को बेचैन थी.
धीरे-धीरे ये समझ बनी की अहीर समाज खुद को तरह-तरह से बेहतर साबित करने में लगा हुआ है. इनमे से एक तरीका ‘कृष्ण’ नामक एक किरदार को अपनी जाति का साबित करना भी शामिल था और गोवर्धन पूजा व कृष्ण समिति सम्मलेन के ज़रिए समाज के लोगों को जोड़ना था. बचपन और किशोर उम्र में ये सब एक मेला सा लगता था लेकिन बाद में खटकने लगा.
जब मैंने उच्च शिक्षा की पढ़ाई के फ़ैसले खुद लेने चाहे, अपने लिए साथी चुनने की आज़ादी चाही और भरपूर विरोध झेला तब जाकर समझ आया कि ये यादव सम्मलेन, गोवर्धन पूजा आदि मेरे काम के नहीं हैं. बार-बार ये सवाल खटकने लगा कि अहीर महिलाओं के लिए इन सम्मेलनों का क्या औचित्य है? इन सम्मेलनों में इनकी क्या भूमिका है? सिंगरौली में हुए उस यादव सम्मलेन में मैं performance देने वाली बालिका थी, लोग सिर्फ इस बात से संतुष्ट थे कि ‘फलना यादव’ ने अपनी लड़की को पढ़ाया-लिखाया, लेकिन लड़की कहीं चुनौती न बन जाये इसके लिए एहतियात बरतने की समझाइश भी मिलती रही. और अपवाद के लिए हर समिति या सम्मलेन में जगह होती है. उसका एक मनोरंजक पक्ष होता है. अगर यह अपवाद न रहे है और यादव सम्मलेन के मंचों पर महिलाओं का कब्ज़ा हो जाए तो क्या होगा? लड़कियां सिर्फ पिताओं के संतुष्टि के मुताबिक पढ़ाई का रास्ता न चुनकर अलग सपने देखने लगें तो क्या होगा? अगर अहीर लड़कियां अंतरजातीय विवाह कर लें और अपनी जाति के बच्चे ना पैदा करके संख्याबल में इजाफ़ा ना करें तो क्या होगा? संख्या बल यादव जाति का सबसे मजबूत पक्ष माना जाता है.
यादव जाति के लिए संख्या बल कि राजनितिक महत्ता पर इस आलेख में चर्चा करने से पहले एक विराम लेकर, कुछ और विवरण देना चाहूंगी.
मेरे पिता जो पहली पीढ़ी के पुरुष साक्षर और मैट्रिक पास व्यक्ति थे उनके लिए बेटी की पढ़ाई-लिखाई महत्वपूर्ण थी लेकिन एक सीमा में. बेटी ऐसी पढ़ाई पढ़े कि समाज में ही उसकी शादी हो पाए. उन्होंने अपने परिवार, गाँव, समाज की गालियाँ खाकर अपनी बेटी को पढ़ाया-लिखाया. मैं उनके प्रगतिशीलता की बहुत बड़ी प्रशंसक हूँ क्योंकि उनके गाँव के किसी व्यक्ति ने अपनी बेटी के लिए इतना सपना भी नहीं देखा था. खुद उनके पिता यानि मेरे दादा उनको जबरदस्त गालियाँ दिया करते थे क्योंकि वो आगे पढ़ना चाहते थे. मेरे निरक्षर और भूमिहीन दादा चाहते थे कि उनका लड़का मजदूरी करे और ये पढ़ाई-लिखाई के फालतू सपने छोड़ दे. ऐसे सन्दर्भ से आए एक व्यक्ति का अपनी लड़की को पढ़ाने का सपना देखना और उसके लिए भरपूर मेहनत करके सुविधा मुहैया कराना तारीफ़-ए-काबिल है. ख़ास तौर पे ऐसे भोजपुरी समाज में जहाँ आज भी पिछड़ी जातियों के मर्द जब कमाने के लिए शहर जाते हैं तो औरतों और बच्चों को गाँव में घर ‘अगोरने’ के लिए छोड़ जाते हैं. यह मामला केवल मजदूरी करने वाले बिहारी मर्दों का नहीं है. जहाँ तक मैंने देखा है कि सिंगरौली में बिहार के क्लास फोर कर्मचारियों में कुछेक ही अपने बीवी-बच्चों को अपने साथ रख कर पढ़ाने-लिखाने की ज़हमत उठाते थे. उनका उद्देश्य पैसा जुटाकर गाँव में ज़मीन खरीदना होता है. ऐसे समाज का कोई व्यक्ति अगर गाँव में ज़मीन खरीदने के अपने सपने के साथ समझौता करता है, अपने बच्चों ख़ासकर बेटी पढ़ाने के लिए तो यह acknowledge किया जाना चाहिए. ख़ास तौर पे तब जब पिछली पीढ़ी तक आप भूमिहीन थे और इस पीढ़ी के आपके साथी-समाजी व परिजन लोग बाहर से कमाए पैसों को बच्चों कि पढ़ाई लिखाई के बजाए गाँव में खेत खरीदने में लगा रहे हैं
गाँव से निकल कर ‘शहर’ या क़स्बे पहुंचे ये पहली पीढ़ी के पुरूष जिनके पास सरकारी नौकरी और थोड़ी फुर्सत है अपनी राजनितिक चेतना खंगालने लगते हैं. जाहिर है कि जातीय हीनता को जातीय महात्म्य में तब्दील करने वाला कोई संगठन उन्हें ज्यादा आकर्षक लगेगा. अहीर समाज के पुरूषों के लिए यादव सम्मलेन एक ऐसा विकल्प रहा है.
अहीर समाज की एक हास्यास्पद छवि रही है. अहीर जाति का नाम लेते ही लोगों को गाय-भैंस सूझने लगता है और हंसी छूटने लगती है. अहीर लोग तथाकथित सवर्ण, सभ्य और पढ़े लिखे समाज में चुटकुले की हैसियत रखते हैं. संभवतः इस संस्कृति-विहीन छवि को बदलने के प्रयास में खुद को क्षत्रिय साबित करने की होड़ में अहीर भी शामिल हो गए ताकि जाति भी ना जाए और छवि भी सुधर जाए.
बहरहाल, जब मैंने अहीर सम्मलेन के इतिहास यानि इसकी कब और कैसे शुरुआत हुई खोजना शुरू किया तो Christopher Jafferlot की किताब – India’s Silent Revolution: The Rise of the Low Castes in North Indian Politics हाथ लगी. हालांकि मुझे इस विषय में और विस्तार से पढ़ने की ज़रूरत है. इस किताब के मुताबिक पहली अहीर/यादव जातीय महासभा जिसे गोप जातीय महासभा नाम दिया गया था, बिहार में 1912 में आयोजित की गयी थी. इसका प्राथमिक उद्देश्य आर्थिक और सामाजिक शोषण के खिलाफ ज़मीदारों से लोहा लेना था. गोप जाति के लोगों को ज़मींदारों के घर बेगारी करनी पड़ती थी. ज़मींदार उनके उत्पाद भी बाज़ार के मुक़ाबले सस्ते दामों पर खरीदते थे. अहीर महासभा ने उनकी मुखालफ़त के लिए अहीरों को क्षत्रिय कहना शुरू किया और ब्राह्मणवादी सिंबल जनेऊ पहनने को कहा. इसकी वजह से अहीर जाति के लोगों को हिंसा और बहिष्कार का सामना करना पड़ा. और इसके साथ ही अहीर जाति के इतिहास को brahmanise और aryanise करने की कोशिश शुरू हुयी. यह caste hierarchy के भीतर छवि निर्माण क्रियाकलाप (image building activity) थी जो ब्राह्मण की सत्ता को चुनौती तो देती थी मगर पूरी तरह से ख़ारिज नहीं करती थी.
यह image building activity आज भी जारी है. इन्टरनेट पर तमाम यादव महासभाओं के वेबसाइट मिलेंगे. जिसमें निश्चित रूप से कृष्ण की दैवीय छवि होती है और ‘प्रमुख यादव पुरुषों’ की सूची और उनकी उपलब्धियों का बयान होता है. कुल मिलाके यह कोशिश दिखाई पढ़ती है कि एतिहासिक रूप से पिछड़ी और गंवार जाति ने काफ़ी तरक्की कर ली है. अहीर सम्मेलनों में महिलाओं की भूमिका के बारे में भी कुछ विशेष पढ़ने को नहीं मिलता है. इक्का-दुक्का महिलाएं दिखाई देंगी जिनकी पारंपरिक और पूरक भूमिका दर्शायी जाती है.
अब आते हैं संख्याबल के मुद्दे पर. जाहिर है कि अहीर जाति के राजनितिक उभार का आधार इस जाति का बहुसंख्यक होना है. यहाँ तक कि यूपी-बिहार को ‘यादव प्रदेश’ की संज्ञा दी जाती है क्योंकि यादव जनसँख्या का एक बड़ा प्रतिशत इस भगौलिक इलाके में रहता है. जनसँख्या बल को कायम रखने की ज़िम्मेदारी जाति की महिलाओं के ऊपर है. यहाँ मैं अपना उदहारण लेकर आना चाहूंगी. जब मैंने एक अन्य प्रदेश के गैर जाति और धर्म के युवक से विवाह किया तो यह कहा गया कि तुम पढ़ी-लिखी होकर भी राज्य और जाति के काम नहीं आई. हमने तुम्हें पढ़ाया और तुमने हमारे साथ धोखा किया. मेरा सवाल यह था कि मैंने भोजपुरी समाज पर PhD लिखी है, क्या वह अपने राज्य और समाज के काम आना नहीं होता? जाति के काम आना यानि लिखाई-पढाई के साथ-साथ जाति के पुरूषों की सेवा करना और उनके बच्चे पैदा करके संख्याबल बढ़ाना. मेरा दूसरा तर्क ये था कि यह युवक जिससे मैंने विवाह किया है, वह हमारे जैसा ही है, यानि बहुजन है. लेकिन यह बात जाति के लोगों के गले नहीं उतर रही. यादव सम्मेलनों से और पुरुषों से मेरा यह सवाल है कि अगर वे सामाजिक न्याय के पक्षधर हैं तो व्यापक बहुजनवाद से दूर क्यों हैं? वे केवल ‘राजनीतिक गठजोड़’ तक ही सीमित क्यों रहना चाहते हैं. क्या केवल ब्राह्मणों का विरोध और अपनी जाति के पुरूषों की स्थिति मजबूत करके आप बहुजनवादी हो सकते हैं?
आप गूगल करेंगे तो पता चलेगा कि राजस्थान यादव महासभा कितनी तत्परता से ‘जातीय उत्थान’ का काम कर रही है. मेरा यह सवाल है कि विजातीय शादी करने वाली दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा भावना यादव जो मूलतः राजस्थान की है, उसके परिजनों ने उसकी हत्या (तथाकथित ‘honour killing’) कर दी. तब राजस्थान यादव महासभा कहाँ थी? क्या भावना यादव उनके लिए ‘यादव’ नहीं रही क्योंकि उसने विजातीय विवाह कर लिया?
जग जाहिर है कि पितृसत्तामक ढांचा हर संगठन, हर सभा, हर जाति में मौजूद है लेकिन यहाँ केवल अहीर समाज के पितृसत्तामक ढांचे को उजागर करना मेरा उद्देश्य नहीं हैं, और नाहीं मैं ये चाहती हूँ कि सवर्ण अकादमिक अपने dominant caste theory की और पुष्टि कर लें. मेरा उद्देश्य अपनी जाति से कुछ सवाल करना है.
• अहीर जाति के लोग, अपने समान अन्य पिछड़ी जातियों और अपने से नीचे समझी जाने वाली जातियों के साथ किस प्रकार का सामाजिक और राजनितिक संबंध बनाना चाहते हैं? जैसा कि डॉ बाबा साहेब अम्बेडकर ने मराठा समुदाय को सुझाव दिया था कि वे सवर्ण जातियों से हाथ मिलाना चाहते हैं या अपने से नीचे की जातियों के साथ मिलकर ब्राह्मणवाद ख़तम करना चाहते हैं (देखें: Dr. Babasaheb Ambedkar Writings and Speeches, Vol. 17, Part 2, pp: 81-82)? अहीर समाज को यह तय करना होगा कि ब्राह्मणवाद के फ्रेमवर्क में खुद को अपग्रेड करने की कोशिश के बजाए, इसका खात्मा करने के लिए दलित-बहुजन आन्दोलन ने जो राह सुझाई है, उस पर चलने की कोशिश करेंगे क्या?
• और दूसरा सवाल यह है कि अहीर पुरूष, अहीर महिलाओं के साथ किस प्रकार का ‘राजनीतिक’ संबंध बनाना चाहते हैं. यहाँ राजनीतिक शब्द एक ख़ास उद्देश्य से इस्तेमाल किया गया है. अहीर पुरुषों और महिलाओं के पारिवारिक और सामाजिक संबंध तो जातीय बंधनों के कारण हैं ही लेकिन क्या वे जातीय सीमाओं से उठ कर माँ-बहन-बेटी वाले संबंध के बजाए बहुजन और सामाजिक न्याय की राजनीति के साथी या मित्र बनना चाहेंगे?
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आशा सिंह ने टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान, मुंबई से ‘भोजपुरी लोकगीतों और महिलाओं’ पर पीएचडी की है. जेंडर स्टडीज़ की शिक्षक हैं और ‘नईदुनिया’ मध्यप्रदेश व ‘लोकमत’ महाराष्ट्र में पत्रकार रह चुकी हैं.
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