नेत्रपाल,
जैसे ही चुनाव का समय आता है और चुनावी हलचल तेज होने लगती है वैसे ही नेता और कार्यकर्ता पार्टियों की अदला-बदली शुरू कर देते हैं. भारतीय चुनावों का यह एक ख़ास पहलू है. हालाँकि अभी उत्तर प्रदेश के चुनावोँ में लगभग दस महीने बाकी हैं, लेकिन सभी पार्टियों ने जोर-शोर से चुनावी तैयारियां शुरू कर दी हैं.
इस दौरान बहुजन समाज पार्टी से दो नेताओंस्वामी प्रसाद मौर्या और आर. के.चौधरी ने हाल ही में इस्तीफा दे दिया. प्रिंट और टेलीविज़न मीडिया में इस घटना को लेकर काफी चर्चा हो रही है. मीडिया द्वारा यह दर्शाया जा रहा है कि बहुजन समाज पार्टी को बड़ा नुकसान हो गया है.
मीडिया हमेशा ही बसपा और मायावती के बारे में निगेटिव ख़बरों की तलाश में रहता है. उदाहरण के तौर पर हाल ही में तृणमूल कोंग्रेस के विधायक द्वारा पूरी उत्तर प्रदेश यूनिट का बसपा में विलय कोई समाचार नहीं बना. स्वामी प्रसाद मौर्या के पार्टी छोड़ने से कुछ दिन पूर्व ही भारी संख्या में लगभग 8 नेताओं और विधायकों को पार्टी से निष्काषित किया गया था, इस ख़बर को भी कुछ ख़ास कवरेज नहीं मिला.
स्वामी प्रसाद मौर्या और आर. के. चौधरी के बसपा छोड़ने पर, आगे चलकर इनका क्या भविष्य होगा, हम इसी बात से अंदाज लगा सकते हैं कि बसपा से अलग होने के बाद आज तक कोई भी नेता अपना स्वतंत्र अस्तित्व बना के रख पाने में नाकामयाब रहे हैं. एक लंबी लिस्ट है: सोने लाल पटेल, बाबू सिंह कुशवाहा, फूल सिंह बरैया, दादु सिंह, जंग बहादुर या फिर , जुगल किशोर या प्रदीप कुरील आदि.
चुनाव में मतदाता मायावती के नाम पर वोट डालते हैं. मायावती जब चाहे, नया स्वामी प्रसाद मौर्या और आर.के. चौधरी खड़ा कर देंगी. मायावती राजनीति का पारस पत्थर है. जिसने सब कुछ पाया ही मायावती से हो वह उन्हें छोड़कर जाएगा तो नुकसान किसका होगा यह समझना मुश्किल नहीं है.
स्वामी प्रसाद मौर्या की बात करें तो उनके जाने से भला मायावती या बसपा को क्या नुकसान हो सकता है. सनद रहे कि वे अपने बेटे-बेटी के राजनीतिक करियर को संवार नहीं सके. स्वामी प्रसाद मौर्या प्रतापगढ़ जिले में बाघराय थाना इलाके के चकवढ़ गांव के रहने वाले हैं. आज सभी स्वामी प्रसाद मौर्या को रायबरेली का जानते हैं, जबकि मौर्या रायबरेली महज इसलिये आये थे क्योंकि वह मौर्या बाहुल्य इलाका है. उन्हें रायबरेली के ऊंचाहार से 2007 में टिकट दिया गया था और वह बुरी तरह से चुनाव हार गए थे, जबकि बसपा को पूर्ण बहुमत मिला था. चुनाव हारने के बाद उन्हें एमएलसी के रूप में लाया गया था. 2012 के चुनाव में ऊंचाहार को छोड़कर उन्हें उनकी विनती पर बसपा की सुरक्षित सीट कुशीनगर से चुनाव लड़ाया गया था.
मौर्या को बसपा में महासचिव का पद मिला था और वह नेता प्रतिपक्ष भी थे. इन पदों पर रहते हुए स्वामी को लगने लगा था कि पार्टी के कोई भी फैसले करने का हक उन्हें मिलना चाहिए. जाहिर है कि जिसका न वोट बैंक हो और न ही अपनी कोई पहचान उसे पार्टी के महत्वपूर्ण फैसले लेने का हक भला मायावती कैसे दे देतीं. स्वामी प्रसाद मौर्या को लगने लगा कि उनकी इस पार्टी में इज्जत नहीं हो रही. उधर माया को लगने लगा कि स्वामी पार्टी से ज्यादा खुद के स्वाभिमान को महत्ता दे रहे हैं. मायावती अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं करती हैं. चाहे जनसभाओं में सोफा लगवाने की बात रही हो या पार्टी के विधायक मंत्रियों को फर्श बिठाने की बात मायावती प्रतीकात्मक तरीके से अहंकार तोड़ती हैं.
पार्टी कैसे आगे बढ़ेगी या सीटें कैसे आयेंगी वह खूब जानती हैं. एक कैडर वाली पार्टी होने की वजह से टिकट वितरण और संगठन में नियुक्ति का फैसला पार्टी कार्यकर्ताओं और संगठन के फीडबैक के आधार पर लिया जाता है. सहयोगियों को गलतफहमी तब हो जाती है जब किन्हीं कार्यकर्ताओं से राय मांग लेती हैं. इन्हीं गलतफहमियों की वजह से अक्सर ही कई लोगों को स्वामी प्रसाद टिकट दिलवाने का वायदा कर देते थे.
आरके चौधरी कांशीराम के साथ रहे थे. 2002 में पार्टी छोड़कर गए थे. कहीं ठौर नहीं मिला तो राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी बनाई जो गुमनाम ही रह गयी. पासी समाज के लोग जब भी हाथी पर मोहर लगाते हैं तो उनके सामने आर.के. चौधरी नहीं बल्कि मायावती का चेहरा होता है. 2012 में आर.के. चौधरी बसपा में वापस आए. एक बार फिर उनकी पूछ होने लगी और वह खुद उस डाली को काटने में लग गए जिस पर बैठे थे. तीस जून को आर.के. चौधरी ने फिर बसपा छोड़ दी.
पिछले कुछ सालों से यह एक फैशन हो गया है कि जो भी बसपा छोड़कर जाता है वह यह आरोप लगा देता है कि बसपा में टिकट बेचे जा रहे है. लेकिन वह यह कभी नहीं बताते कि अगर ऐसा है तो खुद उन्होंने बसपा में रहते हुए,कितने रुपये देकर टिकट खरीदा? बसपा छोड़कर गए दोनों नेता फिलहाल पेण्डुलम बने हैं और मायावती नए नेता और कार्यकर्ता तैयार करने में लगी हैं.
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नेत्रपाल एक सफल दलित उद्यमी है और साथ ही सामाजिक कार्यकर्ता हैं।
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