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अरविंद शेष

दो बयान देखें:-

1-    तब के रावण, आज के नसीमुद्दीन/ तब के लक्ष्मण आज के दयाशंकर सिंह.
      तब की शूर्पनखा, आज की मायावती/ तब की दुर्गा, आज की स्वाति सिंह.       – इलाहाबाद में आरक्षण मुक्त महासंग्राम और भाजपा के छात्र नेता अनुराग शुक्ला की तरफ से लगाया गया पोस्टर.

2-    हिंदुओं के पाप के कारण ही दलित समाज मरी गाय या मरे पशुओं का मांस खाने को मजबूर है। – गुजरात के सुरेंद्रनगर में दलित विद्रोह के अगुआ नाटूभाई परमार.

 

ऊपर के दोनों बयान छब्बीस जुलाई, 2016 को लोगों के सामने आए। नाम के टाइटिल के हिसाब से अनुराग शुक्ला ब्राह्मण हैं और नाटूभाई परमार दलित समुदाय से आते हैं। तो क्या इन दोनों बयानों को आमने-सामने रख कर आने वाले दिनों में सीधे सामाजिक टकराव की तस्वीर की भूमिका बनने के कयास लगाए जा सकते हैं?

हालांकि भारतीय हिंदू समाज का जो ढांचा है, उसमें पहले बयान पर हैरान होने की जरूरत नहीं है। दूसरा बयान, हिंदुत्व यानी ब्राह्मणवाद की राजनीति करने वालों, सत्ताधारी सामाजिक जातियों के लिए चौंकाने वाला है और तमाम दलित-वंचित जातियों के लिए अधिकारों के संघर्ष का एक रास्ता खोलता है। लेकिन जब देश की आजादी और समानता के अधिकारों को तय करने वाले संविधान के लागू होने के तकरीबन साढ़े छह दशक के बाद 2016 के जुलाई महीने में भी अगर इस तरह की बातें सार्वजनिक तौर पर दर्ज हो रही हैं, तो यह एक ओर तो चिंता और दूसरी ओर राहत का मामला है।

चिंता इस बात की, कि इस देश के आधुनिक लोकतंत्र के लगभग सत्तर साल के दरवाजे पर पहुंचने के दौर में भी कोई तबका नफरत से भर कर एक महिला दलित नेता मायावती को शूर्पनखा कहके संबोधित कर रहा है। इस तरह तुलना करने वाले जातीय तबके ने एक बार फिर बताया कि उसके सपनों के समाज में अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाते दलितों और स्त्रियों के लिए क्या जगह है। मायावती के लिए अनजाने में शूर्पनखा का बिम्ब चुनते समय यह शायद नहीं सोचा गया कि यह करने वाले जातीय तबके की सोच और चेतना आज भी स्त्रियों और ‘नीच’ कही जाने वाली जातियों को गुलाम मानने के मानस में जड़ होकर सड़ रही है। सैकड़ों या हजार सालों में इस जातीय तबके के दिमाग का इतना ही विकास हो सका है कि देशकाल के मुताबिक और मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य के अनुकूल उसे प्रतीक या बिम्ब भी चुनना नहीं आता।

दूसरी ओर, राहत का मामला यह है कि मायावती की नुमाइंदगी वाले जातीय-सामुदायिक तबके की चेतना का स्तर यहां तक आता दिख रहा है कि उसे अब मायावती को शूर्पनखा कहने पर गुस्सा नहीं आएगा, बल्कि उलटे  वह इस सवाल के साथ खड़ा हो जाता है कि शूर्पनखा पर तुम्हारे भगवान कहे जाने वाले राम और लक्ष्मण ने भयानक जुल्म ढाए! यानी सैकड़ों सालों से एक कहानी में नकारात्मक पात्र के रूप में जानी जाने वाली शूर्पनखा अब संघर्ष और सशक्त स्त्री की छवि में मौजूद है। इसमें दलित समुदाय में बढ़ती हुई और आक्रामक चेतना का सबसे बड़ा हाथ रहा है।

दोनों ही बयान जिन मौजूदा राजनीतिक संदर्भों से आए हैं। इनमें दूसरे बयान की मौजूदा हवा के तूफान में तब्दील हो जाने की आशंका को थामने के लिए इस पर से ध्यान बंटाने के हथियार के तौर पर पहला बयान या मायावती के लिए दयाशंकर सिंह के ‘वेश्या-बयान’ जैसे शिगूफे मैदान में उतारे गए। अव्वल तो दयाशंकर सिंह ने मायावती के लिए जिन शब्दों का चुनाव किया, वह कोई तात्कालिक और हड़बड़ी में अनायास निकले हुए शब्द नहीं थे। मेरा खयाल है कि उस हड़बोंग के पीछे एक सुनियोजित खेल था। आरएसएस-भाजपा को अच्छे से पता है कि भारतीय राजनीति में इस तरह के शाब्दिक खेलों का क्या और कितना जोखिम है और इसका किसी भी पार्टी के एजेंडे पर कितना असर पड़ता है, सिवाय कुछ दिखने वाली तात्कालिक कार्यवाहियों  के..! इसी तरह, आरएसएस-भाजपा को गुजरात में हुए दलित-विद्रोह की घटना की तीव्रता और गंभीरता का पूरा अंदाजा था। मरी गाय की खाल उतारते चार दलितों की सार्वजनिक रूप से पिटाई से शायद ही कोई ‘हिंदू मन’ आहत हुआ था। लेकिन उसके वीडियो के चारों तरफ फैल जाने के बाद गुजरात के दलितों की ओर से जैसी प्रतिक्रिया हुई, उसकी कल्पना न केवल आरएसएस-भाजपा और उसके राजनीतिक साथियों ने नहीं की थी, बल्कि तमाम गैर-भाजपाई राजनीतिक दलों को भी आरएसएस की गाय-राजनीति का जवाब नहीं सूझ रहा था। एक मरी हुई गाय की खाल उतारने के लिए चारों दलितों पर जुल्म ढाया गया था, सुरेंद्र नगर के दलितों ने इसका ऐसा जवाब दिया कि वह दलित-आंदोलन का एक मॉडल बन सकता है।

ऊना की घटना के बाद सुरेंद्रनगर में दलितों ने मरी गायों और उनके अवशेष सरकारी दफ्तरों के सामने ले जाकर फेंक दिया, इस संदेश के साथ कि अब इन गायों का अंतिम संस्कार भी वही करें, जिनकी माता हैं ये गाएं..! लेकिन इस छोटे-से संदेश का असर इतना गहरा हो सकता है, जिसके बाद आरएसएस-भाजपा की मौजूदा सामाजिक राजनीति की चूलें हिल सकती हैं। ब्राह्मणवादी जाति-व्यवस्था का जीवन जाति-आधारित पेशों से कायम है। तो दलित समुदाय की अलग-अलग जातियों के लिए जिस तरह के पेशे निर्धारित किए गए हैं, अगर वे सारे काम करना दलित छोड़ दें तो क्या हालत होगी, सिर्फ कल्पना की जा सकती है! यह केवल जानवरों की सड़ी हुई लाशों से पैदा होने वाली दिक्कत या ‘गाय-राजनीति’ का मामला नहीं है, बल्कि इसके मूल संदेश के फैलने के साथ पहले पेशे से बंधी जाति, फिर जाति के दम पर कायम हिंदू समाज का ढांचा ढहना शुरू हो सकता है।

जाहिर है, सामाजिक वर्णक्रम पर आधारित जाति-व्यवस्था और उसकी दीवारों को मजबूत करने की जो राजनीति आरएसएस करता है, गुजरात का दलित-विद्रोह उसकी जड़ पर चोट है। यह बाबा साहेब के करीब नब्बे साल पहले चलाए गए अभियान का एक बार फिर जमीन पर उतरना है। इसलिए समूची सामाजिक-राजनीतिक सत्ता-व्यवस्था इस कोशिश में लग गई कि किसी भी हाल में गुजरात में दलितों की अपनी जातिगत पेशों से बगावत पर से देश और समाज का ध्यान तुरंत हटाया जाए। इसलिए मायावती को लेकर दयाशंकर सिंह का बयान प्री-स्क्रिप्टेड नहीं भी था, तो वह अपने मकसद में कामयाब हुआ। जिस दिन और उसके बाद समूचे देश और दुनिया भर बहस के केंद्र में गुजरात में मरी गायों को सरकारी दफ्तरों में फेंकने की घटना के जरिए घिनौनी जाति-व्यवस्था और उसके त्रासद दंश को होना चाहिए था, समूची विपक्षी राजनीति मायावती के अपमान और फिर बसपा की ओर से कथित गाली-गलौज में केंद्रित होकर रह गई।

मंशा के मुताबिक गुजरात दलित-विद्रोह की तीव्रता कम करने की कोशिश की गई और उसके बाद हर अगले तीसरे-चौथे घंटे किसी उत्तेजक और उन्माद पैदा करने वाली खबरों के जरिए हालात से निपटना आरएसएस-भाजपा के लिए आसान हो गया। इक्का-दुक्का को छोड़ दें तो चूंकि लगभग समूचा टीवी मीडिया आरएसएस-भाजपा के पक्ष में बतौर एक पार्टी काम कर रहा है, इसलिए गुजरात में दलित-विद्रोह की बेहद ज्यादा महत्त्व की खबर को ठीक से जगह नहीं मिली। हालत यह है कि इस मामले में खबर अगर सोशल मीडिया के जरिए नहीं आती तो दुनिया को यह पता भी नहीं चलता कि गुजरात में इतने ज्यादा महत्त्व का विद्रोह सामने आया है।

यानी कह सकते हैं कि चूंकि गुजरात में दलितों का विद्रोह ब्राह्मणवाद की फलती-फूलती राजनीति के सामने एक गंभीर और सबसे बड़ी चुनौती के रूप में सामने आई, इसलिए देश के दूसरे हिस्सों के दलित-वंचित तबके और दुनिया का ध्यान इस ओर से हटाना तुरंत जरूरी था। वरना अगर अपने संदेश के रूप में भी इस घटना का प्रसार दूसरी जगहों पर हुआ तो ब्राह्मणवाद की बुनियाद पर टिके हिंदू समाज का समूचा सामाजिक ताना-बाना बिखर जाएगा। इसीलिए तकरीबन दस दिन तक दबाई गई खबरें कथित मुख्यधारा के मीडिया में मजबूरी में चलने लगीं तब जाकर आरएसएस का यह डर और ज्यादा गहराया। इसके बाद एक दिन के भीतर उत्तर प्रदेश का दयाशंकर सिंह प्रसंग शायद लिखा गया और उससे जो नतीजे हासिल करने थे, कर लिए गए। लगभग समूचे मीडिया के जरिए गुजरात मामले पर पर्दा डाल कर उसके असर को सीमित करने के मकसद से पूरी तरह मायावती, उनके समर्थकों और दयाशंकर तक बहस को समेट दिया गया।

यह ध्यान रखने की जरूरत है कि दयाशंकर सिंह के बयान से उपजे तूफान और मायावती के साथ बसपा और दलितों की प्रतिक्रिया से निपटना आरएसएस के लिए बहुत मामूली काम है। यह साफ-साफ गुजरात से ध्यान भटकाने का खेल था, जिसमें मायावती, बसपा और इस मुद्दे पर अपने आक्रोश को केंद्रित करने वाले तमाम लोग उलझे।

जो हो, गुजरात में दलितों ने बगावत का जो रास्ता अख्तियार किया है, उससे लगता नहीं है कि उसका असर अब धीमा पड़ेगा। अभी तक ब्राह्मणवाद के खिलाफ सिर्फ बौद्धिक हलकों में यह बहस का मुद्दा था कि दलितों को इस हिंदू व्यवस्था में जो जगह दी गई है, उसकी मार से मरते दलितों को तो खुद को हिंदू मानना बंद कर देना चाहिए। जमीनी स्तर पर दलित होने की यातना झेलते हुए लोगों की ओर से इस बगावत की शक्ल में केवल मरी हुई गाय सरकारी दफ्तरों में फेंकने के ही रूप में नहीं, बल्कि अब ठोस प्रतिरोध भी सामने आया है। आखिर ब्राह्मणवाद की मार से उपजी किस पीड़ा के बाद गुजरात के सुरेंद्रनगर में दलित विद्रोह के अगुआ नाटूभाई परमार ने यह कहा होगा कि ‘हिंदुओं के पाप के कारण ही दलित समाज मरी गाय या मरे पशुओं का मांस खाने को मजबूर है।’

यानी साफ तौर पर अगर वे ‘दलित समाज’ और ‘हिंदुओं’ को अलग करके देख रहे हैं तो इसके लिए कौन जिम्मेदार हैं?

आरएसएस की असली चिंता यही है। पहले विद्रोह का तरीका, यानी मरी गायों को सरकारी ठिकानों तक फेंकना, मरे जानवरों के निपटान से इनकार करना और फिर दलित समुदाय को ‘हिंदू’ धर्म के दायरे से बाहर करके पेश करना। अगर किसी हालत में विद्रोह का यह सिरा समूचे दलित आंदोलन के एजेंडे में तब्दील होता है, तो इंसान को जन्म से गुलाम मानने वाली इस व्यवस्था यानी ब्राह्मणवाद के भविष्य की कल्पना की जा सकती है।

इसलिए पिछले दो-ढाई दशक से ब्राह्मणवाद अपने असभ्य और बर्बर शक्ल में पुनरोत्थान में लगा आरएसएस दलित विद्रोह के इस स्वरूप से निपटने के लिए सब कुछ करेगा। सत्ता हासिल करने के बाद वैसे ही उसके लिए बहुत कुछ आसान हो गया है। लेकिन फिलहाल सत्ता के लोकतांत्रिक ढांचे की मजबूरी की वजह से पहली कोशिश यह है कि प्रथम दृष्टया आरएसएस-भाजपा के लिए जोखिम दिखने वाली राजनीतिक गतिविधियों के साथ-साथ अपने पक्ष में एक पार्टी के रूप में काम करने वाले मीडिया के जरिए आरएसएस गुजरात से शुरू इस तूफान से समूचे देश और दुनिया का ध्यान बंटा दिया जाए। अगर यह सफल हुआ तो गुजरात में जमीनी लड़ाई के बजाय देश के बाकी हिस्सों के लोग बहस के दूसरे मुद्दों में उलझ जाएंगे या फिर धीरे-धीरे अपने काम में व्यस्त हो जाएंगे। दूसरी ओर, इसी एजेंडे के तहत जमीनी स्तर पर कम आबादी वाले गुजरात में अब मरे हुए जानवरों के निपटान से इनकार करने के बाद दलितों को जिस तरह की धमकियां मिल रही हैं, वह दूसरा मोर्चा है। इसके बाद बेहद गरीब और यहां तक कि मरे जानवरों को फेंक देने के बाद उसके मांस से गुजारा करने वाले लोगों को कानूनी बारीकियों के जरिए परेशान किया जा सकता है। फिर बहुत मजबूरी में वहां के दलित धीरे-धीरे अपनी पहले की स्थिति में लौट जा सकते हैं।

अगर किसी हाल में यह भी नहीं हुआ तो ब्राह्मणवाद के पुनरोत्थान का सुअवसर देख कर इसमें जी-जान से लगा आरएसएस लोभ-लालच का हथियार भी इस्तेमाल कर सकता है। यानी ‘पिछड़ी जाति’ के व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाने के बाद इस दौर में अगर आरएसएस अपने मुखिया के तौर पर किसी दलित चेहरे को बिठा दे या यहां तक कि शंकराचार्य भी किसी दलित को बना दे तो इसमें हैरान नहीं होना चाहिए। दलितों और महिलाओं के मंदिरों में प्रवेश पर यह ‘लोच’ और ‘समझौता’ शुरू हो चुका है। ब्राह्मणवाद ने अपने आपको बचाए रखने के लिए अतीत से लेकर आज तक हर तरह के समझौते किए हैं और वे तमाम समझौते आखिर में ब्राह्मणवाद की सत्ता बचाए रखने की धूर्त चाल साबित हुई है। आनंदीबेन पटेल का गुजरात के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा इसी की कड़ी भर है।

संभव है कि यह चाल फिर कुछ काम आ जाए। लेकिन चेतना एक ऐसी चीज है कि जो एक बार जाग जाए तो पहले की जगह पर नहीं लौटती। हो सकता है कि ब्राह्मणवादी छल और सत्ता की शातिर चालों के सामने गुजरात के दलित फिलहाल किन्हीं मजबूर हालात में शांत होते दिखें। लेकिन बाबा साहेब आंबेडकर के विचारों से आगे बढ़ते हुए जमीनी स्तर तक अभी काफी काम बाकी है। लेकिन उन विचारों के साथ अब तक दलित आंदोलन जहां तक पहुंच सका है, उतने में ही यह ब्राह्मणवाद के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।

15.9.1956 को लिखी एक टिप्पणी में बाबा साहेब आंबेडकर ने कहा था-

“आज से तीस साल पहले मैंने यह आंदोलन चलाया था कि “महार-चमार मरी हुई गाय-भैंसों को न उठाएं और न मरी हुई गाय-भैसों का मांस ही खायें”। मेरे इस आंदोलन से सवर्ण हिंदुओं को बड़ी परेशानी हुई । मेरी बहस यह थी कि ‘जीवित गाय-भैसों का दूध तुम पीओ और मरने पर हम उठाएं, ऐसा क्यों? सवर्ण हिंदू अगर अपनी मृत मां की लाश को खुद उठाते हैं, तो मरी हुई गाय- भैंसों की लाशें, जिनका वे जन्म-भर दूध पीते है, मरने पर क्यों नहीं उठाते? मेरी दूसरी दलील यह थी कि “यदि सवर्ण हिंदू अपनी मृत मां को बाहर फेंकने के लिए हमें दे दें, तो हम अवश्य ही मरी हुई गाय को भी उठा कर ले जाएंगे। इस पर एक चितपावन ब्राह्मण ने पूना के ‘केसरी’ अखबार में (जो लोकमान्य तिलक का निकाला चितपावन ब्राह्मणों का मुखपत्र है) कई पत्र प्रकाशित करके हमारे भाइयों को बरगलाना शुरु किया कि मृत पशुओं के न उठाने से महार-चमारों का बड़ा नुकसान होगा। उसने ऊटपटांग आंकडे देकर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि मरे हुए पशु की हड्डी, दांतों, सींगों आदि को बेचने से 500-600 सौ रुपया वार्षिक लाभ होता है। डॉ. आंबेडकर उन्हें बहका कर उनका नुकसान कर रहा है।

एक बार ‘संगमनेर’ (बेलगाव-मैसोर) में वह ब्राह्मण मुझे मिला और उन्हीं बातों को कह कर मुझसे तर्क करने लगा। मैने ‘केसरी’ में प्रकाशित सभी प्रश्नों का खुली सभा में जवाब दिया । ‘मेरे भाइयों के पास खाने को अन्न नहीं है, स्त्रियों के पास तन ढकने को कपड़ा नहीं है, रहने को मकान नही है और जोतने के लिए जमीन नहीं है। इसलिए वे दलित हैं और महादुखी हैं। इस सभा में उपस्थित लोग बताएं कि इसका कारण क्या है?’ लेकिन किसी ने उत्तर नहीं दिया। वह ब्राह्मण भी चुप बैठा रहा। तब मैंने कहा- अरे भले लोगों, तुम हमारे लाभ की चिंता क्यों करते हो? अपना लाभ हम खुद सोच लेंगे। अगर तुम्हें इस काम में भारी लाभ दिखाई देता है, तो तुम अपने संबंधियों को क्यों नही सलाह देते कि वे मरे हुए पशुओं को उठा कर पांच-छह सौ रुपया वार्षिक कमा लिया करें?’ अगर वे ऐसा करें तो इस लाभ के अलावा उन्हें 500 रुपए इनाम मैं खुद दूंगा। तुम जानते हुए इस बड़े मुनाफे को क्यों छोड़ते हो? लेकिन आज तक कोई सवर्ण हिंदू इस काम के लिए तैयार नहीं हुआ। शायद खुद करने में मुनाफा नजर न आया होगा!
दूसरो को मिथ्या प्रलोभन देकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने को ‘धूर्तता’ कहा जाता है और इतना बडा सफेद झूठ ‘केसरी’ जैसे पत्र में छपना धूर्तता की पराकाष्ठा है।”

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अरविन्द शेष ,बिहार के सीतामढ़ी से हैं और दिल्ली में जनसत्ता (दैनिक हिंदी अखबार ) में सहायक सम्पादक  हैं

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