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जयप्रकाश फाकिर

अम्बेडकर , पेरियार, ललई यादव, कयूम अंसारी जैसे दलित बहुजन नेता इसी सवर्णवादी समझ से जूझते हुए दलित बहुजन प्रश्न को सियासी दायरे में लाने में सफल रहे और १९९० के बाद का साइलेंट इन्कलाब मुमकिन हो सका. अब सवर्ण राजनीति के बाएं और दायें दोनों बाजू के धड़े इस क्रांति को उल्ट देना चाहते हैं. इसके लिए दक्षिण पंथी लोगो ने धर्म का सहारा लिया है तो वामपंथी लोगो ने धर्म में तब्दील कर दिए गये मार्क्सवाद को जरिया बनाया है.

 

इतिहासकार आदित्य मुखर्जी ने अपने एक लेख में एरिक होब्सबम जैसे पश्चिमी इतिहासकारों पर उनके यूरो-केन्द्रित होने का आरोप लगाया है और काल विभाजन के समय बीसवीं शताब्दी को अतिवाद  का  युग मानने को एशिया के दृष्टिकोण से त्रासदी  होने के रूप में पहचाना है. उनका मत सही भी है . मगर मुश्किल तब पेश आती है जब वे खुद के लिखे इतिहास को ब्राह्मण-सवर्ण केन्द्रित होने की नोटिस नही ले पाते. दलित आन्दोलन को वे और उनके गुरु बिपन चन्द्र महज अस्मिता की राजनीति कह कर ख़ारिज करते हैं. वे भारतीय राष्ट्र नाम के अपनी निर्मिती से किसी भी अन्य राजनीतिक दावे को ख़ारिज करने की कोशिश करते है जो उनके भारत राष्ट्र के सवर्ण कल्पना से अलग हो .

अपने हितो को भारत राष्ट्र के रूप में पेश करने की यह रणनीति संघ परिवार से अलग नहीं है सिवाय इसके की ये तमाम सवर्ण प्रगतिशील साहित्यकार अपने तर्को में बाहरी तौर पर ज्यादा प्रतिभा और विद्वता का परिचय देते हैं. ये ब्रिटिश शोषण-उत्पीड़न के विरुद्ध जिन तर्कों को पेश करते है और जिन न्याय और बराबरी के मूल्यों का हवाला देते हैं दलितों, पसमांदा मुसलमानों, औरतों आदि निचले तबके के लोगो के सन्दर्भ में उन्ही मूल्यों के खिलाफ ब्रिटिश उपनिवेशवादी तर्कों से लैश हो जाते हैं. मसलन ब्रिटिश लोग भारत पर अपने शासन को मेरिट के आधार और नस्ली श्रेष्ठता के आधार पर सही ठहराते है तो ये उसका विरोध करते हैं मगर मंडल कमीशन और आरक्षण का विरोध करते हुए उन्हीं उपनिवेशवादी मेरिटवादी तर्को का सहारा लेते हैं. आंद्रे और बिपन चन्द्र जैसे लोग ऐसे कुतर्को के अगुआ हैं.

दलितों बहुजनों को न्याय के समान मूल्यों का अधिकारी होने से रोकने के लिए इनके पास राष्ट्र का तर्क है. राष्ट्र होने के नाते ‘इंडिया’ या भारत पर जो घटित है वह राष्ट्र का विशेषाधिकार है. न्याय के वही तकाजे दलित बहुजन को उपलब्ध नही. न्याय और बराबरी का मुद्दा सवर्ण राष्ट्र की कल्पना अर्थात इंडिया से जुडकर बड़ा राजनीतिक प्रश्न है मगर बराबरी का वही मुद्दा दलित बहुजन के प्रसंग में सामाजिक है ,और इसलिए कमतर महत्व का है. इसलिए इसे राजनीतिक महत्व के हित में टाल दिया जाना चाहिए या दोयम दर्जे का समझा जाना चाहिए. दलित विरोधी तर्को का यह सिलसिला दलितों बहुजनों के शोषण-उत्पीड़न के आन्दोलन, राजनीतिक आन्दोलन को महज अस्मिता की राजनीति कह कर  ख़ारिज कर देने में होती है.

जिस तरह भारत की आज़ादी की तारीख सिर्फ भारतीय पहचान के लिए आन्दोलन नही थी. यह उपनिवेशवाद के खिलाफ, शोषण उत्पीड़न के खिलाफ आन्दोलन था. इसी तरह दलित बहुजन का आन्दोलन शोषण उत्पीड़न और राजनीतिक भागीदारी के लिए आन्दोलन है.

दलित आन्दोलन को अस्मितावादी कहना एक बड़ा ही विरोधाभासी मामला है. पहचान की राजनीति सांस्कृतिक होती है. इसमें भूगोल इतिहास के कारण उत्पन्न सांस्कृतिक भेद मुख्य भूमिका में होता है. पहनावे से लेकर जन्म मरण के संस्कारो के अंतर से पहचान के अंतर जन्म लेते है. इसलिए यह मूलतः ब्यौरे (details) के बारे में होता है. यह मानवीय उत्स (human essence ) के बारे में नहीं होता. इसलिए अस्तित्ववादी दर्शन पहचान की राजनीति से जुदा है (existence precedes essence-J P Sartre ) जबकि essence पर जोर देने वाली राजनीति मार्क्सवाद से. वह essence आर्थिक रूप से निर्धारित वर्ग है. ऐसी स्थिति में दलित आन्दोलन पर एक साथ essentialist और अस्मितावादी होने का आरोप लगाना शरारतपूर्ण ही नहीं, अहमकाना भी है. दलित बहुजन या हाशिये के लोगो का कोई भी आन्दोलन न्याय और बराबरी के मूल्यों पर आधरित है. अस्मिता उसका मूल आधार नहीं है. यह उत्पीड़क वर्ग के लोगो द्वारा गढ़ा गया शब्द है. इसे पहचान की राजनीति के रूप में चिन्हित करने के फायदे उत्पीड़क के लिए यह है कि तब यह राजनीतिक प्रश्न नहीं रह जाता और यह सांस्कृतिक समस्या के रूप में रेडयुस हो जाता है. और चूँकि सांस्कृतिक प्रश्न इतने महत्पूर्ण नही है और वे व्यापक मुक्ति के प्रश्न के प्रत्यय मात्र है इसलिए उन्हें टाल दिया जाना चाहिए.

अम्बेडकर , पेरियार, ललई यादव, कयूम अंसारी जैसे दलित बहुजन नेता इसी सवर्णवादी समझ से जूझते हुए दलित बहुजन प्रश्न को सियासी दायरे में लाने में सफल रहे और १९९० के बाद का साइलेंट इन्कलाब मुमकिन हो सका. अब सवर्ण राजनीति के बाएं और दायें दोनों बाजू के धड़े इस क्रांति को उल्ट देना चाहते हैं. इसके लिए दक्षिण पंथी लोगो ने धर्म का सहारा लिया है तो वामपंथी लोगो ने धर्म में तब्दील कर दिए गये मार्क्सवाद को जरिया बनाया है.

दलितों बहुजनों के हितो पर दक्षिण पंथी हमला कमजोर है क्योंकि यह धर्म के अफीम जैसे हो सकने के शक्ति और लोगो के कम पढ़े लिखे और कम जागरूक होने पर आधारित है. इससे एक औसत आधुनिक शिक्षा से निपटा जा सकता है.यह सत्ता के पारम्परिक औज़ारो को काम में लाता है.यह या तो बेवकूफ बनाता है या लालची. बेवकूफी के द्वारा एक बहुत बड़ी आबादी को काबू में लाया जा सकता है लेकिन बहुत देर तक नहीं. वही लालच को देर तक काम में लाया जा सकता है लेकिन यह बहुत बड़ी आबादी के लिए मुमकिन नहीं. उदित राज, रामविलास गिने चुने ही हैं .

ब्राह्मण शोधकर्ता  : निधिन शोभना द्वारा चित्रण

ब्राह्मण शोधकर्ता  : निधिन शोभना द्वारा चित्रण 

 

इसके बरक्स वामपंथी सवर्ण दलित बहुजन पर ज्यादा पावरफुल हमला करता है. फिलहाल उसने ये हमले और तेज कर दिए हैं. इसका पहला चरण बजरंग बिहारी तिवारी, बदरी नारायण तिवारी, अभय कुमार दूबे जैसो का प्राच्यवादी (orientalist)प्रोजेक्ट है. जैसे प्राच्यवादी उपनिवेशवादी लोगो ने एशियाई समाजों का कीटविज्ञानी की तरह इस समाज को नियंत्रित करने के उद्देश्य से अध्ययन किया सवर्ण भी दलित समाज का अध्ययन कर रहे. तमाम विश्व विद्यालयों में दलित अध्ययन केंद्र खुल चुके है जैसे कभी एशियाटिक सोसाइटी खुली थी. सिर्फ दलित बहुजनों को भ्रष्ट मानने वाले आशीष नंदी के इन चेलो का उद्देश्य दलित आन्दोलन और दलित लेखन साहित्य वैचारिकी आदि को subvert करना और नियंत्रित करके नष्ट और dilute कर देना है जैसा एक समय शंकराचार्य ने बौद्ध आन्दोलन के साथ किया.

इस मकसद के लिए सवर्ण हितो के घनघोर योद्धा ये साहित्यकार वर्ग बनाम जाति या सहानुभूति बनाम स्वानुभूति जैसे बखेड़ा खड़ा करते है और अपनी इस सवर्ण –ब्राह्मण problematization में दलितों को भी हिस्सा लेने, वक्त बर्बाद करने और भटकाने की कोशिश करते हैं. मेरिट के सवाल को अगर दक्षिण पंथी सड़क पर उछाल रहा होता है तो उसकी सैद्धांतिकी गढ़ उसे समाज में  वैज्ञानिक मान्यता देने का काम बिपन चन्द्रा जैसा सवर्ण इतिहासकार कर रहा होता है. ये और इनके उतराधिकारी वामपंथी दलित बहुजन को नेतृत्व देने से इंकार करने के हज़ार बहाने इस पूरी प्रक्रिया में ढूंढते हैं. ये पियरी बोर्दू जैसे समाज वैज्ञानिक बौद्धिकों को पढ़ाते है, उसपर तमाम metaphysical चर्चा चलाते हैं लेकिन उसके सोशल कैपिटल के सिद्धांतो को तथाकथित मेरिट के गढ़ंत को विखंडित करने के लिए इस्तेमाल नही करते. मेरिट की परिभाषा किस तरह उत्पीड़क की देवी डेल्फी बनाती है जहाँ प्रोलेतारिअत को प्लेबियन से हमेशा हार जाना है.

एक मोटा उदाहरण  सिविल सेवा के परीक्षा का है. इसके सामान्य अध्ययन के पाठ्यक्रम में गाँधी नेहरु टैगोर भरे पड़े हैं. एक सवर्ण बचपन से ही इनका गुणगान सुनते हुए बड़ा होता है. मेरे जैसा छोटी जाति का आदमी आल्हा उदल और पचड़ा सुनते हुए बड़ा होता है. जिस तरह के उत्तर पर प्राप्तांक मिलते है वह सवर्ण प्रतियोगी के मानस और कथन से हू ब हू मिलता है लेकिन छोटी जाति के प्रतियोगी के लिए वह अपने दुश्मन विचारों को सेलिब्रेट करना है. इस तरह मेरिट को इस तरह से गढ़ा गया है कि आटोमेटिक सवर्ण ही मेरिट वाला साबित हो. जैसे गोरे रंग को सुन्दरता का पैमाना बनाने से काले स्वयमेव असुन्दर ठहरेंगे. ऐसे में आत्मनिषेध ही छोटी जाति के प्रतियोगी के लिए सफलता और मेरिट की शर्त बन जाता है. वह खुद को मिटा कर जितना ही सवर्ण जैसा बनता जाता है सफलता की उसकी संभावना उतनी ही बढती है. इस तरह एक संरचनात्मक पक्षपात हमेशा छोटी जाति के विरुद्ध काम करता है. उसे सवर्ण जैसा होने के लिए बाध्य किया जाता है. उसे स्कूलों में संस्कृत पढाई जाती है. एक बार संस्कृत से उसे वंचित कर और संस्कृत के सोशल कैपिटल पर अकुंठ ब्राह्मण वर्चस्व कायम कर उसपर संस्कृत थोपने के यह रणनीति घिनौनी सवर्ण राजनीति का ज्वलंत उधाहरण है और मेरिट के पीछे का रहस्य है.

इस तरह दलित बहुजन राजनीति सिर्फ पहचान की राजनीति नहीं है यह वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों सवर्ण धडो के हमले के खिलाफ, उनके वर्चस्व के खिलाफ न्याय और बराबरी की लड़ाई है.

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लेखक, जयप्रकाश फाकिर ,मूलतः बिहार के सिवान से है और कोलकता में भारत सरकार में अधिकारी के रूप में कार्यरत हैं । वह  स्त्री ,दलित जैसे subaltern मुद्दों पर लिखते हैं और उनकी कहानियां, कवितायेँ हिंदी और अंग्रेजी में प्रकाशित हो चुकी हैं । 

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