
जनकवि सचिन माली
प्रिय लोकतंत्र बता
अपनी भूख को हम कैसे मिटायें ?
भूख से बिलबिलाते एड़ियां घिसकर मरते लोगों का आक्रोश खाएँ ?
या उनकी अंतिम विधि के लिए सूद से लिया कर्ज़ खाएँ ?
आत्महत्या करने वाले किसानों की पेड़ों से टंगी लाशों का फ़ांस खाएँ ?
या आत्महत्या करने के बाद मिलने वाला सरकारी पैकेज खाएँ ?
किसानों की आत्महत्या का दरवाज़ा खोलने वाला गेट करार खाएँ ?
या एकाध डंकल एग्रीमेंट या डब्ल्यू.टी.ओ. करार खाएँ ?
प्रिय लोकतंत्र,
किसानों की मौत के फंदे से झूला झूलकर बता
अपनी भूख को हम कैसे मिटायें ?
दिनबदिन दुःख की तरह बढ़ती ही जा रही झोपड़पट्टी खाएँ?
या उस झोपड़पट्टी में नंगी हो गई, मानवता की नग्नता खाएँ?
इस नग्नता की सर्वोच्चता का स्लमडॉग मिलेनियर खाएँ?
या इंसानों को कुत्ता समझकर दिया गया ऑस्कर पुरस्कार खाएँ ?
प्रिय लोकतंत्र,
अपनी जातिय नंगेपन का सिनेमा देख कर बता,
अपनी भूख को हम कैसे मिटाएँ ?
यह सुजलाम-सुफलाम भूमि जब बुझा नहीं पाती पापी पेट की गर्मी,
तब खुद भारत माता ही खड़ी रहती है नाके-नाके पर देह बेचने के लिए,
वो रेडलाइट एरिया के रास्ते में खड़ी लाखों भारत माता के शरीरों की भाड़ खाएँ ?
या बुधवारपेठ, गोकुलनगर, कुम्भरवाड़ा, फॉकलैंड रोड और गोलपेठ की देहमण्डी में बिकने के लिए खड़ी रहने वाली रांड खाएँ ?
प्रिय लोकतंत्र,
इस बाज़ार में ज़िंदा कलेजे से एक रात्रि फ़ेरी करके बता
अपनी भूख को हम कैसे मिटाएँ ?
देव-धर्म के नाम पर फांसने वाला फ़ासिज़्म खाएँ ?
या हिंदुत्व के नाम पर ज़हर उगलने वाले खूँखार भाषण खाएँ ?
‘इस्लाम ख़तरे में है’ का नारा देकर बोये जाने वाला आतंक खाएँ ?
या निरपराधियों के खून माँगने वाला त्रिशूल, छुरा, आर.डी.एक्स. , गुजरात, मालेगाँव, समझौता एक्सप्रेस, पूना, जर्मन बेकरी खाएँ ?
मुंबई लोकल, सी.एस.टी, झावेरी बाज़ार खाएँ ?
कि एक साथ किये हुए कई सीरियल बम ब्लास्ट खाएँ ?
प्रिय लोकतंत्र,
सार्वजनिक स्थानों पर एकाध बम प्लांट करके बता
अपनी भूख को हम कैसे मिटाएँ ?
ऋग्वेद में लिखा हुआ चातुर्वर्ण का पुरुषसूक्त खाएँ ?
या धूर्तता से भरी मनुस्मृति खाएँ ?
दलितों के खून से रंगे हुए अँधरे से भरे गाँव खाएँ ?
या गाँव के बाहर बसे बंधक बने हुए महादलितों के आँसू खाएँ ?
विद्यापीठ नामांतरण विरोध की लड़ाई में जला के ख़ाक किये दलितों के झोपड़ों की राख खाएँ ?
या अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए आत्मदहन करने वाले गौतम वाघमारे के देह में भड़की हुई आग खाएँ ?
पोचिराम काम्बले के शरीर पर किए गए कुल्हाड़ी के घाव खाएँ ?
या पैंथर भागवत जाधव के सिर में घुसाए हुए पत्थर खाएँ ?
देश का एकदम खरा नाम खैरलांजी खाएँ ?
कि बेलछी, झज्जर, रमाबाईनगर, लक्ष्मणपुर बाथे खाएँ ?
या गाँव-गाँव से बलात्कार के बाद बारात की तरह निकलने वाली सुरेखा-प्रियंका की नंगी लाशें खाएँ ?
प्रिय लोकतंत्र,
सामाजिक न्याय की मौत की ये बारात निकाल कर बता
अपनी भूख को हम कैसे मिटायें ?
प्रिय लोकतंत्र,
सवालों की इन झड़ियों से नाराज़ मत हो,
हम पर देशद्रोही होने का ठप्पा लगाने की जल्दी मत कर,
तू नरभक्षक की तरह रक्त पीकर तृप्त मत हो,
तू पहले ही पत्थर है, और पत्थर मत हो।
ये देख ! ये देख यह भूख ज्वालामुखी की तरह धधक रही है,
ये भूख हमें चैन से रहने नहीं देती,
ये भूख हमें जीने-मरने नहीं देती,
ये भूख हमें मौन रहने नहीं देती,
ये भूख केवल रोटी की होती तो राशन के कुछ दाने खाकर शांत हो जाती,
पर ये भूख केवल भूख नहीं
ये स्वतंत्रता की चाह है, शोषणमुक्त समाज का स्वप्न है,
ये विषमता के हर किले का समूल नाश का ख़्वाब है,
इसलिए ही इस भूख ने भूख के एक नए तत्व दर्शन का निर्माण किया है,
इस भूख ने प्रकाशित किया है सामाजिक न्याय का अनुमान,
इस भूख के साथ निर्माण हो रही है एक संघर्ष कथा,
इस भूख के साथ तैयार हो रही है समरभूमि की अमर कविता,
यह भूख ही है स्वतंत्रता-समानता-बंधुत्व का ध्येय वाक्य,
यह भूख ही जातिमुक्त समाज की लोक क्रांति की दुंदुभि की आवाज़,
इसलिए ही इस जनकवि ने तेरे गर्व के घर को लात मारकर,
तुझे निरुत्तर करने वाला भेदक सवाल किया है,
प्रिय लोकतंत्र,
बोल, अपनी भूख को हम कैसे मिटाएँ ?
बता, अपनी भूख को हम कैसे मिटाएँ ?
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सचिन माली जनकवि हैं, कबीर कला मंच के सदस्य रहे हैं और पूरे भारत में अपने गीतों के माध्यम से दलित एवं अन्य वंचित तबकों को जगाने का काम कर रहे हैं. प्रस्तुत कविता उनके मराठी काव्य संग्रह ‘सध्या पत्ता भूमिगत’ से ली गई है जिसका हिंदी अनुवाद दीपाली तायड़े ने किया है.