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एड0 नुरुल ऐन ज़िया मोमिन (Adv. Nurulain Zia Momin)

सैयद व आले रसूल शब्दों का प्रयोग अजमी (ईरानी और गैर-अरबी) विशेषकर भारतीय उपमहाद्वीप के विद्वानों द्वारा जिस अर्थ में किया जाता है उसका अपने शाब्दिक अर्थ व इस्लामिक मान्यताओं से कोई सम्बन्ध नही है। अधिकांश अजमी विद्वानों द्वारा अपने लेखो,पुस्तको व भाषणों में “सैयद व आले रसूल” शब्द का प्रयोग हजरत मोहम्मद सल्ल0 के तथाकथित वंशजो के लिए किया जाता है, और दोनों शब्दों को एक दूसरे का पर्यायवाची बना दिया गया है। हालाँकि दोनों शब्द अपने माना (अर्थ) के ऐतबार से बिल्कुल अलग है तथा इनका किसी वंश, नस्ल, खानदान अथवा क़ौम से कोई सम्बन्ध नही है। किन्तु फिर भी अधिकांश अजमी विद्वानों द्वारा ऐसा किया गया। फलस्वरूप हिन्दू धर्म के ब्रहमणवाद की तरह मुसलमानो में भी इबलीसवाद (जन्म के आधार पर श्रेष्ठता) का सिद्धांत स्थापित करके तथाकथित सैयद/आले रसूल की वंश के आधार पर औरों पर उनकी श्रेष्ठता घोषित कर दी गयी और हिन्दू वर्ण व्यवस्था (ब्रहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) की तरह मुसलमानों का भी अशराफ,अजलाफ व अरजाल के रूप में वर्गीकरण कर दिया गया जिसकी इस्लाम में कल्पना तक नहीं है।

इस्लाम इस इबलीसवादी विचारधारा (वंश, जन्म आधारित श्रेष्ठता) के स्थान पर कर्म को श्रेष्ठता का आधार निर्धारित करते हुए एलान करता है कि- “हमने तुमको एक मर्द और एक औरत से पैदा किया है…….तुममें सबसे ज़्यादा श्रेष्ठ/ प्रतिष्ठित वह है जो तुममे सबसे ज़्यादा परहेजगार (धर्मपरायण) है।” (सूरः हजरात आयत नं0-13) 

क़ुरआन की उक्त आयत की स्पष्ट व्यख्या आप सल्ल0 का हज्जतुलवेदा पर दिया गया वह भाषण है जिसे आखिरी ख़ुत्बे के नाम से जाना जाता है जिसमें आप सल्ल0 ने फ़रमाया था कि- “आज अहदे जाहिलियत (अज्ञानता काल) के तमाम दस्तूर (विधान) और तौर तरीके खत्म कर दिए गए। ईश्वर एक है और तमाम इंसान आदम (अलैहि0) की सन्तान हैं और आदम की हकीकत इसके सिवा क्या है कि वह मिट्टी से बनाये गए। किसी गोरे को न किसी काले पर और न किसी काले को किसी गोरे पर कोई श्रेष्ठता प्राप्त है, न किसी अरबी को किसी अजमी पर और न ही किसी अजमी को किसी अरबी पर कोई श्रेष्ठता प्राप्त है, तुम में वही श्रेष्ठ है जो अल्लाह से अधिक डरने वाला है और जिसके कर्म श्रेष्ठ हैं।” सैयद शब्द का तहक़ीक़ी जायज़ा (शोधात्मक विश्लेषण)

अहले अरब ने अपनी ज़ुबान के इस मशहूर लफ्ज़ (सैयद) को न कभी नसब व क़ौमियत (जातीय) के इज़हार में इस्तेमाल किया और न कोई अरब व कुरैशी कबीला व खानदान कभी सैयद कहलाया। सैयद लफ्ज़ का सही मफ़हूम (भाव) उर्दू ज़ुबान में सरदार, सरबराह, मालिक, आका, मखदूम, मोहतरम जैसे शब्दो से अदा होता है, जिसका किसी धर्म अथवा वंश से कोई सम्बन्ध न कभी था और न है। जैसे-नजरानी ईसाईयो का लीडर जो उनके  क्रियाकलापों का व्यवस्थापक था वह सैयद कहलाता था। यहूदी और ईसाई जो अरब में सदियो से आबाद थे उनकी भी मातृ भाषा अरबी ही थी। उनके सरदार व सरबराह भी सैयद कहलाते थे। सातवीं सदी हिजरी तक किसी भी हाशमी (क़ुरैश कबीले की वह शाखा जिसमें हजरत मोहम्मद सल्ल0 का जन्म हुआ) ने वह अब्बासी हो या जाफरी, अकीली हो या अलवी, हसनी हो या हुसैनी, ने न कभी सैयद होने का दावा किया और न ही कभी खुद अपने नाम के साथ सैयद शब्द का प्रयोग किया। (तहक़ीक़ सैयद-ओ-सादात लेखक महमूद अहमद अब्बासी)

1. क़ुरआन में प्रयुक्त सैयद शब्द का भाव- सम्पूर्ण क़ुरआन में सैयद शब्द मात्र तीन स्थानों पर आया है-

(1) सूरः आले इमरान की 39वी,

(2) सूरः अहज़ाब की 67वीं और

(3) सूरः युसूफ की 25वीं आयत में।

इन तीनो में सूरः आले इमरान व अहज़ाब में प्रयुक्त “सैयद” और “सादतना” के माना सरदार के है और सूरः युसूफ में प्रयुक्त सैयद से तात्पर्य आका (पति) से है इन तीनो आयतो में किसी में भी सैयद शब्द का प्रयोग किसी नस्ल या क़ौम के लिए नही किया गया है।

2. हदीस में प्रयुक्त सैयद शब्द का भाव-

क़ुरआन ही की तरह हदीस अर्थात मोहम्मद साहब के कथनो में भी सैयद शब्द सरदार,सरबराह व आक़ा ही के अर्थो में आया है किसी खानदान या किसी शख्स के इजहारे नसब व क़ौमियत के अर्थ में हरगिज नही आया है। उदारणार्थ-

(1) आप सल्ल0 का आदेश है कि- “कूमू इला सैयदिकुम औखैरेकुम” अर्थात अपने सरदार की पजीराई करो। (बुखारी 1/346,537)

(2) कैश बिन आसिम के सम्बन्ध में मोहम्मद सल्ल0 फरमाते है कि- “सैयदे अहललवबर” अर्थात वह सम्मानित सरदार थे। (अल मारूफ़ पेज 131, अल अकदुलफरीद जिल्द 2 पेज 267)

(3) गजवै हुनैन (हुनैन का युद्ध) में बनी कनाना (कनाना क़ाबिले या जाति) के एक जवान के शहीद होने की खबर मिलने पर आप सल्ल0ने फ़रमाया- “क़त्ललयौम सैयदे शबाबे शकीफ” अर्थात आज शक़ीफ़ के जवानो का सरदार क़त्ल हो गया। (तबरी 3/130)

(4) इसी तरह गजवै ओहद में हजरत हमज़ा रज़ी0 की शहादत पर आप ने उनके लिए “सैयदुस शोहदा” अर्थात शहीदों के सरदार का शब्द प्रयोग किया। (अल असाबा-1/354)

3. सहाबा द्वारा प्रयोग किये गए सैयद शब्द का भाव-

जिस प्रकार आप मोहम्मद सल्ल0 ने सैयद शब्द का प्रयोग किसी नस्ल के लिए न कर के सरदार  के माना में किया ठीक उसी प्रकार उनके सहाबा (साथियो) ने भी सैयद शब्द का प्रयोग सरदार के अर्थ में ही किया है। उदाहरणार्थ-

(1) सुलहे हुदैबिया के सिलिसिले में अबू सूफियान के मदीने आने पर हजरत अली रज़ी0 ने अबू सूफियान के सम्बन्ध में कहा- ” वला किन्नका सैयदू बनी कनाना” अर्थात लेकिन तुम बनी कनाना के सरदार हो। (तबरी-3/113)

(2) हजरत अबू बक्र रज़ी0 ने रूमी ईसाईयो के विरुद्ध जंग के अवसर पर कैश बिन हुबैरा के सम्बन्ध में कहा- “इन्नका शरीफुन बायसुन सैयदुन मुजर्र्बुन” अर्थात तुम तो शरीफ,बहादुर,सरदार और अज़मूदाकार हो। (फुतूहुश्शाम पेज 21)

(3) हजरत उमर फारूक रज़ी0 ने एक ताबई (वह मुसलमान जिसने मोहम्मद सल्ल0के साथी को देखा हो) अहनफ बिन कैश की तक़रीर सुनकर एक मौके पर उनके लिए कहा था कि- “हाज़ा वल्लाहिस सैयद हाज़ा वल्लाहिस सैयद” अर्थात ये शख्स वल्लाह सरदार है ये शख्स वल्लाह सरदार है। (अलअक़दुलफरीद-1/119 )

(4) हजरत उबइ बिन काब रज़ी0 के इंतेक़ाल के अवसर पर हजरत उमर रज़ी0 ने फ़रमाया “अल यौमा माता सैयदुल मुसलेमून अर्थात मुसलमानो के सरदार की आज वफ़ात (मौत) हो गयी। (अलमारूफ़ 113)

(5) हजरत बेलाल रज़ी0 को हजरत अबू बक्र रज़ी0 ने आज़ाद कराया था जिसके सम्बन्ध में उमर फारूक रज़ी0 ने एक बार कहा था कि–“अबू बक्रो सैयद-न व तका सैयद-न यू रीदू बेलाल” अर्थात अबू बक्र हमारे सरदार थे और उन्होंने हमारे (दूसरे) सरदार बेलाल को आज़ाद कराया था। (सहीह बुखारी, अल अक़दुलफरीद-3/65)

आले रसूल शब्द का तहक़ीकी जायज़ा (शोधात्मक विश्लेषण)

क़ुरआन सूरः अहज़ाब में स्पष्ट शब्दों में एलान करता है कि- “मोहम्मद (स0अ0) तुम्हारे मर्दों में-से किसी के बाप नही हैं।” क़ुरआन के इस एलान के बाद भी  इबलीसवादियों ने आप सल्ल0 की तरफ ये झूठा कथन गढ़ कर प्रचारित कर दिया कि मोहम्मद सल्ल0 ने कहा था कि- “मेरा वंश मेरी पुत्री फातिमा (रज़ी0) से चलेगा।” इस्लाम को प्राकृतिक धर्म का दावा करने वाले उपरोक्त कथन को उदधृत करते हुए इस सार्वभौमिक सत्य को भूल जाते है कि प्राकृतिक नियम के साथ दुनिया के तमाम धर्मो, विज्ञान व स्वयं इस्लाम के अनुसार भी इंसानों में वंश नर से व जानवरो में मादा से चलता है।

सैयद शब्द ही की तरह आले रसूल शब्द का प्रयोग भी इबलीसवादियो ने बिल्कुल मनमाने तरीके से मोहम्मद सल्ल0 की तथाकथित औलाद के अर्थ में ख़ास कर दिया है जबकि इस्लामिक सिद्धान्तों के अनुसार आल लफ्ज़ अहलो अयाल के लिए भी इस्तेमाल होता है और पैरोकार के लिए भी। जब तरका (वरसा, जायदाद का बँटवारा) वगैरह का मसला हो तो वहाँ आल से मुराद अहलो अयाल होंगे और जब बात दीन व शरीयत की कोई अन्य बात हो तो आल से मुराद पैरोकार के होंगे। जिसका प्रमाण निम्नवत है :-

(1) कुरान में कई सूरतो (अध्यायों) में (जैसे- बकरा-49-50, आले इमरान-11, आराफ-130, मोमिन-46 आदि) आले फ़िरऔन लफ्ज़ का इस्तेमाल हुआ है और ये कोई साबित नहीं कर सकता कि आले फिरऔन लफ्ज़ का इस्तेमाल फिरऔन की औलाद के लिए हुआ है। सूरः बकरा में तो फ़िरऔन और आले फ़िरऔन के सम्बन्ध में कहा गया है कि हमने फ़िरऔन व आले फ़िरऔन को दरिया में गर्क (डुबो) कर दिया और क़ुरआन व ऐतिहासिक तथ्यों से निर्विवादित रूप से साबित है कि दरिया में फ़िरऔन के साथ उसकी सेना, पैरोकार, हमनवां डूबे थे न कि उसकी कोई औलाद (सन्तान)।

(2) आप सल्ल0 ने इरशाद फ़रमाया कि- “जिसने मेरे तरीके की पैरवी की वह मेरी आल है।” (शरहुल मोहज़्ज़ब-लेखक इमाम नववी)

(3) दीनी हैसियत से सभी मुत्तक़ी (परहेजगार, अच्छे कर्म करने वाले) मुसलमान आले नबी (रसूल) हैं जैसा कि मोहम्मद सल्ल0 ने फ़रमाया था जब आल के सम्बन्ध में आप सल्ल0 से सहाबा द्वारा सवाल किया गया था।” (कुल्लियाते अबील बक्का)

उपरोक्त साक्ष्यों से स्पष्ट है कि सैयद शब्द का प्रयोग किसी वंश अथवा क़ौम के लिए करना व आले रसूल शब्द का प्रयोग रसूल सल्ल0 की तथाकथित औलाद के लिए ख़ास करना उसके शाब्दिक अर्थ के साथ-साथ क़ुरआन के कथनों, हदीस के वर्णनों और  सहाबा (मुहम्मद के साथियों) के कथनों, विचारों व सिद्धान्तों के भी खिलाफ है और इबलीसवादी विचारधारा का द्योतक है ऐसे व्यक्ति के लिए मैं मात्र एक ही शब्द उपयुक्त पाता हूँ और वह शब्द है “आले इबलीस।”

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नुरुल ऐन ज़िया मोमिन ‘आल इण्डिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ ‘ (उत्तर प्रदेश) केराष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं. उनसे दूरभाष नंबर 9451557451, 7905660050 और nurulainzia@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

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