एड0 नुरुलऐन ज़िया मोमिन (Adv. Nurulain Zia Momin)
निःसन्देह इस्लाम में इबलीसवाद【1】के लिए कोई स्थान नहीं है किन्तु ये भी सत्य है कि कुछ लोगों द्वारा मुसलमानों में इबलीसवाद घुसड़ने व उसे इस्लाम का सिद्धांत सिद्ध करने का सदैव से प्रयास किया जाता रहा है जिसके लिए उनके द्वारा इस्लामी सिद्धान्तों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया जाता रहा है जिसमें बहुत हद तक उनको सफलता भी मिली, जिससे इस्लाम के प्रसार को भी बहुत बड़ा बल्कि सबसे बड़ा धक्का इसी कारण लगा. इन्ही सिद्धान्तों में-से एक सिद्धान्त ज़कात का सिद्धांत है. इस्लाम में ज़कात की अहमियत क्या है? ज़कात न देना कैसा है? इसका अंदाज़ा प्रथम खलीफा हजरत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ी0 के काल में घटित उस घटना से लगाया जा सकता है जिसमें कुछ लोगों ने ज़कात खुद देने को कही थी अर्थात ज़कात देने से इनकार नहीं किया था बल्कि वह सिर्फ ये चाहते थे कि हम अपने माल (धन) पर ज़कात खुद निकालकर जिसे चाहे दे दें बस हमसे हुकूमत स्वयं न वसूले. इस पर हजरत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ी0 ने कहा था कि “अगर ये आप सल्ल0 के ज़माने में ऊँट देते थे ज़कात में और साथ में उसको बांधने वाली रस्सी भी देते थे अब अगर ये कहेंगे कि ऊँट ले जाओ रस्सी नही देंगे तो भी मैं (इनसे) जंग (जिहाद) करूंगा.”
ज़कात इस्लाम की एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अंतर्गत हर साहिबे नेसाब आकिल (जो पागल न हो) व बालिग़ (वयस्क) मुसलमान पर उसके बचत वाले माल पर जिस पर साल (वर्ष) गुज़र जाये ज़कात देना अनिवार्य है. साहिबे नेसाब या मालिके नेसाब उस व्यक्ति को कहते हैं जो धन की उस न्यूनतम मात्रा【2】का मालिक हो जिसपर ज़कात निकालनी अनिवार्य की गयी है. ताकि उससे गरीब, परेशान, असहाय आदि【3】लोगों की सहायता की जा सके. जब तक मालिके नेसाब ज़कात नहीं निकालेगा तब तक उसका माल (धन) इस्लाम के अनुसार साफ़ (पवित्र) नहीं होगा. दुर्भाग्यवश जिस ज़कात का उद्देश्य असहाय, गरीब, मिसकीन की सहायता करना है जिसमें कोई मोहताज, गरीब, मिसकीन, लाचार परेशान न रहे और उसकी कम से कम भोजन, कपड़ा इत्यादि जैसी बुनियादी जरूरतें पूरी होती रहें, उस ज़कात के सम्बन्ध में भी इबलीसवादियों द्वारा ये प्रचारित किया जाता रहा है कि बनू हाशिम (तथाकथित सैयद)【4】चाहे भूखा मर जाये मगर जकात नहीं ले सकता क्योंकि वह आला नसल (श्रेष्ठ वंश) का है और उस पर ज़कात हराम है. इसी तरह ज़कात को बनू हाशिम पर हराम सिद्ध कर के उसकी वंशीय श्रेष्ठता को सिद्ध करने के लिए निकाह के सम्बन्ध में पूरी तरह गैर इस्लामी तरीके से कहा गया कि सैयद (बनू हाशिम) ज़ाति की लडकी अन्य किसी (ज़ाति) के साथ नही ब्याही जा सकती है क्योंकि अगर वह जकात का मुस्तहक (हकदार) होगा तो जकात खायेगा और इस तरह सैयदानी को भी ज़कात खाना पड़ेगा जो कि उसपर हराम है. इस तरह उससे जो औलाद (सन्तान) होगी वह हराम (अकलहराम) होगी.【5】
बनू हाशिम (कुरैश कबीले की वह उपशाखा जिसमें मोहम्मद सल्ल0 का जन्म हुआ) पर जकात हराम होने के सम्बन्ध में इनका तर्क है कि आप सल्ल0 ने स्वयं बनू हाशिम के लिए ज़कात को हराम करार दिया है. ये सत्य है कि आप सल्ल0 ने बनू हाशिम के लिए जकात को हराम करार दिया है लेकिन साथ ही ख़ुम्स (युद्ध में प्राप्त माल/धन का पाँचवाँ भाग) को हलाल करार दिया है,【6】आप सल्ल0 माले गनीमत (युद्ध में प्राप्त माल) का पाँचवाँ भाग (ख़ुम्स) जोइल कुरबा (करीबियों अर्थात अपने निकटम लोगों) के लिए रखते थे.
जहाँ तक ज़कात के हराम होने का सम्बन्ध है तो आपने बनू हाशिम पर मात्र ज़कात ही हराम नहीं की थी बल्कि आप सल्ल0 ने बनू हासिम को आमिले ज़कात (ज़कात वसूलने वाला पदाधिकारी) की खिदमत से भी मना फ़रमाया है. हजरत अब्बास रज़ी0 ने आमिले ज़कात की खिदमत हासिल करनी चाही तो आप ने इनकार फरमा दिया【7】लेकिन उसके साथ ये बड़ा महत्वपूर्ण विषय है कि आप सल्ल0 ने समस्त बनू हाशिम के लिए ज़कात हराम नहीं की थी और उससे महत्वपूर्ण विषय ये है कि आपने बनू हाशिम के जिन लोगों पर ज़कात हराम की थी उनके साथ-साथ उनके मवाली (ग़ुलाम, आज़ादशुदा ग़ुलाम) के लिए भी ज़कात व आमिले ज़कात की खिदमत को भी जायज़ नहीं रखा अर्थात आपने सम्पूर्ण बनू हाशिम पर ज़कात हराम नहीं की थी बल्कि बनू हाशिम के कुछ लोगों पर ज़कात हराम की थी साथ ही साथ बनू हाशिम के जिन लोगों पर ज़कात हराम की थी उनके मवालियों (ग़ुलामों, आज़ादशुदा ग़ुलामों) पर भी ज़कात के साथ आमिले ज़कात (ज़कात वसूलने) के कार्य से भी मना कर दिया था. आप सल्ल0 के खादिमें ख़ास हज़रत अबू राफे रज़ी0 ने एक आमिले ज़कात के साथ मिलकर काम करना चाहा ताकि ज़कात में-से जो उजरत (पारिश्रमिक) मिले अबू राफे भी उसमे शरीक (सम्मिलित) हों तो आप सल्ल0 ने मना फरमा दिया.【8】
उक्त आदेश (समस्त बनू हाशिम के लिए ज़कात हराम न होने और बनू हाशिम के मवाली अर्थात ग़ुलाम/आज़ादशुदा ग़ुलाम के लिए भी ज़कात हराम होने तथा बनू हाशिम के साथ-साथ उनके मवाली को भी आमिले ज़कात के भी कार्य से मना करने) के आधार पर मोहद्दिसे कबीर मौलाना हबीबुर्रहमान आज़मी साहब ने अपनी पुस्तक “अन्साबो केफाअत की शरई हैसियत” में साक्ष्यों व तर्कों को प्रस्तुत करते हुए इबलीसवादियों के ज़कात से सम्बन्धित सारे दावों की हवा निकाल दी है. आज़मी साहब अपना मत व दलील रखते हुए सवाल करते हैं कि-
“अहादीस में बनू हाशिम को जकात के लिए मुमानियत (मनाही) का आधार नसब की फजीलत (वंशीय श्रेष्ठता) नहीं है, अगर ऐसा होता तो-
1- क्या वजह है कि अब्दुल मुत्तलिब बिन हाशिम की सिर्फ तीन औलादें (सन्तानें) अब्बास, हारिस और अबू (तालिब) ही की औलादों (सन्तानों) पर जकात हराम है तथा अब्दुल मुत्तलिब के बाकी नौ लड़कों की औलाद पर जकात हलाल है?
2-अगर नसबी फजीलत (वंशीय श्रेष्ठता) इस हुक्म का आधार होता तो बनू हाशिम के मवाली (ग़ुलाम, आज़ादशुदा ग़ुलाम) पर जकात क्यों हराम होती?”
हबीबुर्रहमान आज़मी साहब आगे लिखते हैं कि- “दरअसल इस हुक्म का कारण गलत समझा गया, सच्चाई ये है कि जिन पर जकात हराम की गई थी वह लोग आप सल्ल0 से ऐसा ताल्लुक रखते थे कि उनका नफा (लाभ) आपका नफा था, इसलिए अगर आप उनके लिए जकात लेना जायज़ करार देते तो गैर मुस्लिमों को ये कहने का मौक़ा मिल जाता कि आप इस्लाम की दावत रूपया जमा करने के लिए देते हैं और ऐसा करना क़ुरआन (सूरः शूरा की 23वीं आयत) के इस ऐलान, मैं तुमसे किसी अज्र (लाभ) का तालिब नहीं हूँ अलबत्ता कुराबत (निकटता) की मोहब्बत जरूर चाहता हूँ, के खिलाफ होता जैसा कि हाफ़िज़ इब्ने हजर और अल्लामा अयनी ने शरह बुखारी (बुखारी की टीका) में लिखा है.”【9】
खुद अल्लाह रब्बुलइज़्ज़त के द्वारा नबी सल्ल0 की जुबान से कुरआन में बार-बार ये कहलवाया गया है कि- “मैं तुमसे किसी अज्र (लाभ) का तालिब नहीं हूँ.”【10】
मौलाना हबीबुर्रहमान आज़मी साहब इस मत के अकेले विद्वान नहीं हैं बल्कि प्रमुख चारों स्कूलों (हनफ़ी, शाफ़ई, मालिकी, हाम्बली) से सम्बन्धित बहुत से कदीम (प्राचीन) व जदीद (आधुनिक) मोहद्द्सीन व फोकहा जैसे- इमाम अबू हनीफा, क़ाज़ी अबू यूसुफ, इमाम तहावी, अल्लामा अबहरी, इमाम इब्ने हज़र, इमाम राज़ी, इमाम असतखरी, इमाम इब्ने तैयमिया, काजी याकूब, एक कौल की रौ के मुताबिक इमाम मालिक, सैयद अनवर शाह कश्मीरी, यूसुफ अलकरज़ावी सहित अन्य तमाम विद्वानों ने दलीलों से ये सिद्ध किया है कि (तथाकथित) सादात को ज़कात की रक़म दी जा सकती है ये उसी तरह ज़कात ले सकते है जिस तरह कोई अन्य व्यक्ति ज़कात का हकदार होने पर ज़कात ले सकता है. जिनके मतों का वर्णन उनके साक्ष्यों व तर्कों के साथ मौलाना खालिद सैफुल्लाह रहमानी साहब ने अपनी पुस्तक “जदीद फिकही मसायल”【11】 में विस्तार पूर्वक किया है. जिनमे से कुछ प्रमुख विद्वानों उनके मतों व तर्कों का विवरण निम्नवत है-
बाज़ फोकहा ने बनू हाशिम (तथाकथित सैयद) के लिये खुद बनू हाशिम (तथाकथित सैयद) की ज़कात जायज़ करार दिया जैसा कि काजी अबू युसूफ और एक क़ौल (कथन) इमाम अबू हनीफा का है उनकी दलील (साक्ष्य) निम्नवत है :-
1- हजरत अब्बास रज़ी0 ने आप सल्ल0 से अर्ज़ किया (पूँछा) कि आपने लोगों के सदक़ात हमारे लिए हराम कर दिए हैं तो क्या हम (स्वयं) एक दूसरे को अपनी ज़कात दे सकते है? आप सल्ल0 ने फ़रमाया हाँ.【12】
2- इब्ने अब्बास रज़ी0 से मरवी है कि आप ने कुछ सामान खरीदा और उसको नफे के साथ फरोख्त (विक्रय) किया और उसको बनू अब्दुल मुत्तलिब (बनू हाशिम) के मोहताज लोगों पर सदका कर दिया.【13】
बाज फोकहा व मोहद्सीन के नजदीक ख़ुम्स न होने की वजह से सैयद ज़कात ले सकते हैं. इनके साक्ष्य (तर्क/दलील) निम्वत हैं :-
1- इमाम तहावी इमाम अबू हनीफा से नकल करते हैं कि- “बनू हाशिम पर हर तरह के सदक़ात में कोई मुजायका नहीं है और मेरे नजदीक इमाम अबू हनीफा इस मसले में इस तरफ गए हैं कि सदक़ात इन पर इसलिए हराम थे क्योंकि ख़ुम्स में जोवइलकुरबा (निकटम व्यक्तियों) का हिस्सा रखा गया था जब ये इससे महरूम (वंचित) हो गए और आप (सल्ल0) की मृत्यु के बाद ये हिस्सा भी दूसरों को मुन्तक़िल (स्थानांतरित) हो गया तो इसकी वजह से………ज़कात व सदक़ात जो इनपर हराम था अब हलाल हो गया【14】. ताहावी ने ये राय क़ाज़ी अबू युसूफ के वास्ते से नकल की है इमाम साहब की यही राय अबू असमा से भी मनकूल है.【15】
2-अनवर शाह कश्मीरी का ये दृष्टिकोण है कि ज़कात का लेना दस्ते सवाल दराज (किसी के सामने हाथ फ़ैलाने) से बेहतर है.【16】
3- इमाम अबहरी (मालिकी) से मनकूल है कि अगर ख़ुम्स का हिस्सा बनू हाशिम के लिए बाकी न रहे और वह उससे महरूम हो तो ज़कात उनके लिए जायज़ होगी.【17】
4- इब्ने हज़र का बयान है कि बाज शवाफे (शाफ़ई मसलक) के नजदीक भी इन हालात में कि अगर बनू हाशिम के लिए कोई मद मख़्सूस बाकी न रहे तो ज़कात लेनी जायज़ होगी.【18】, बकौल अल्लामा कश्मीरी के शाह वलीउल्लाह साहब ने अक़दुलजींद में यही दृष्टिकोण इमाम राज़ी का नकल किया【19】, असतखरी के बारे में भी इब्ने तैमिया की सराहत मिलती है कि वह मौजूदा हालात में बनू हाशिम के लिए इसकी इजाज़त देते है.【20】
5- इमाम इब्ने तैमिया फरमाते हैं कि- “बनू हाशिम ख़ुम्स से महरूम कर दिए जायें तो उनके लिए ज़कात लेनी जायज़ है यही काजी याक़ूब और हमारे दूसरे असहाब का क़ौल है और यही बात अबू युसूफ और शवाफे में असतखरी ने कही है.”【21】
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नुरुल ऐन ज़िया मोमिन ‘आल इण्डिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ ‘ (उत्तर प्रदेश) केराष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं. उनसे दूरभाष नंबर 9451557451, 7905660050 और nurulainzia@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
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