डी. अरुणा (D. Aruna)
आत्मकथा में आत्म का सम्बन्ध लिखने वाले से है और कथा का सम्बन्ध उसके समय और परिवेश से है. कोई लेखक जब अपने विगत जीवन को समूचे परिवेश के साथ शब्दों में बाँधता है तो उसे हम आत्मकथा कहते हैं. हिन्दी में अन्य विधाओं की तुलना में आत्मकथा कम ही लिखी गई है परन्तु पिछले तीन दशकों से इस कमी को पूरा करने का प्रयास सदियों से पुरुषवादी मानसिकता की पीड़ा सहने वाली कुछ स्त्री-लेखिकाओं एवं सवर्ण-वर्चस्ववाद की यातना झेलने वाले कुछ दलित-लेखकों द्वारा हुआ है. इसका कारण स्पष्ट है कि आत्मकथा अधिकतर शोषण की पीड़ा से उपजी है. इस दौर में विविध लेखकों द्वारा लिखी गई आत्मकथाएँ उनके दर्द या जीवन-संघर्ष के दस्तावेज समान है.
भारतीय साहित्य में दलित साहित्य का एक लंबा इतिहास रहा है. इस इतिहास के साथ ही दलित आत्मकथाओं का लेखन स्वरूप भी काफी समय से दलित साहित्य में देखने को मिलता है. जिसमें सबसे पहले मराठी दलित समाज के लोगों ने आत्मकथाएं लिखना शुरू किया है. इस आत्मकथाओं में लेखकों ने अपने जीवन की यातनाओं दुख-दर्द, पीड़ा, भूख-प्यास घटनाओं का वर्णन आदि को उजागर किया है साथ ही अपने समाज में रहने वाले उन लोगों के दुख-दर्द, पीड़ा, गरीबी तथा सवर्णों द्वारा किए गए / किए जाने वाले शोषण आदि को भी प्रस्तुत किया है. अतः दलित आत्मकथाएं निरंतर आ रही हैं. इन आत्मकथाओं के माध्यम से दलित आत्मकथा लेखक अपने समाज की जो नई पीढ़ी है उसे अपने समाज की पुरानी स्थितियों को दिखलाने का प्रयास कर रही है. जाति
मराठी दलित आत्मकथा लेखन केवल दलितों का बोध कराने वाली दलित पीड़ा को, दलित भाव-भावनाओं को, दलितों पर होने वाले जुल्म, अन्याय, शोषण, अत्याचार के प्रति घृणा, नफरत, विद्रोह, नकार की भावना जागृत करने वाला एक शास्त्र है. हिंदी की दलित आत्मकथाओं में दलित समाज की सांस्कृतिक और सामाजिक इतिहास चित्रित है. इनका लेखन इतिहास लेखन ही कहा जाएगा.उत्तर भारत में सामाजिक सुधार आंदोलनों की परंपरा उतनी सशक्त नहीं है, जितनी महाराष्ट्र की.
जिण आमुचं (जीवन हमारा) को मराठी स्त्री आत्मकथा लेखन परंपरा में एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है. अंत:स्फोट से लेकर अब तक कई आत्मकथाएँ लिखी जा चुकी है. ‘हमारा जीवन ‘ इस अर्थ में महत्त्वपूर्ण आत्मकथा है कि यह केवल बेबी कांबले के निजी सुख-दुख उतार-चढ़ाव का चित्र मात्र नहीं है बल्कि यह एक दलित स्त्री की दृष्टि और उन्होंने भोगे हुए यथार्थ के माध्यम से मरे हुए ढोर-डंगरों के जीवन के साथ-साथ पशु से भी बदतर जीवन जीने के लिए विवश दलित समुदाय के जीवन का प्रामाणिक साक्ष्य है. इसे हम दलित स्त्री की टेस्टीमोनी की संज्ञा दे सकते हैं.’जीवन हमारा’ में स्त्रियाँ विशेषतः दलित स्त्री जीवन के विविध प्रसंगों जीवन स्थितियों के साक्ष्य बिखरे हुए हैं जो एक ढंग से पाठक के समक्ष दलित समुदाय के जीवन स्थितियों के आँकड़े उपस्थित करते हैं. स्त्रियों की आर्थिक स्थिति कई प्रकार की रही हैं. स्त्रियों की आर्थिक परिस्थिति प्राचीन काल से लेकर आज तक समाधान कारक नहीं है. समाज में सर्वाधिक आर्थिक शोषण दलित स्त्रियों का ही होता हैं.
‘माझ्या जल्माची चित्तर कथा’ में शांताबाई काम्बले अनेक समस्याओं का चित्रण किया. जैसे- सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनैतिक आदि समस्याएँ हमें दिखाई देती है. इस स्थिति को सुधरने के लिए महात्मा ज्योतिबा फुले और डॉ. बाबासाहेब ने कार्य किया है. दलितों की सामाजिक समस्या मुख्य थी. जहाँ इन्हें गाव से दूर रखा गया था वहां इनकी परछाइयों से भी नफ़रत करते थे ऊँची जाति के लोग. दलितों को मंदिर में जाने से मना किया गया था. इसका चित्रण हमें ‘माझ्या जन्माची चित्तर कथा ’ में दिखाई देती है. शांताबाई एक बार अपने माँ के साथ पंढरपुर जाती है, मगर बिना विठ्ठल के दर्शन लेते हुए वापस आ जाती है. उन्हें मंदिर नहीं जाने दिया जाता था. डॉ. बाबासाहेब कहते है- “अस्पृश्यता का होना किसी भी समाज के लिए सबसे भयंकर रोग है”
‘दोहरा अभिशाप’ आत्मकथा कौसल्या बैसंत्री के विगत जीवन की अभिव्यंजना है. उनमें इस आत्माभिव्यक्ति की आकांक्षा जीवन में सार्थकता के बोध से जन्मी है. एक सामान्य दलित कन्या के रूप में जन्म लेने वाली लेखिका अपनी शिक्षा और संघर्ष के चलते समग्र दलित जाति के लिए प्रेरणा का स्रोत बनकर उभरी हैं. आत्म-सन्मान से लबालब लेखिका अपने ही व्यक्तित्व का पुनरावलोकन करती हैं. ऐसे में कहीं पर वह तीव्र भावाभिव्यक्ति से पाठक को आकृष्ट करती हैं तो कहीं विविध शिल्पगत उपकरणों का उपयोग करके पाठक को लुभाती हैं. आत्मकथा का आरंभ तो लेखिका की दस-बारह वर्ष की आयु से होता है परन्तु विशिष्ट कथा-प्रविधि अपनाते हुए उन्होंने अपनी नानी (आजी) के जीवन की घटनाओं को भी विस्तृत रूप से गूँथ लिया है –“आजी का रंग एकदम गोरा था और नैन-नक्श तीखे थे. आँखे भूरी थीं और काले घने बाल. आजी छह भाईयों की इकलौती बहन थीं और सबसे छोटी.” लेखिका ने आजी के बाह्य व्यक्तित्व को वे इस तरह उभारती हैं मानो यह उनकी अनुभूति का अभिन्न हिस्सा हो. लेखिका ने अभिव्यक्ति की इस नूतन पद्धति को अपनाकर पाठक को यह बोध कराया है कि उनके जीवन की प्रेरणा स्रोत आजी और माँ थीं. उस आजी के स्वाभिमानी व्यक्तित्व का यह चित्र देखिए; विधि इस लिए भी विशिष्ट है कि लेखिका ने अतीत के भी अतीत को माँ की -“आजी हरदम कहा करती थी कि वह अपनी लड़ाई खुद लड़ेंगी, किसी पर बोझ नहीं बनेंगी. अपने कफन का सामान भी वह स्वयं जुटाएँगी और उन्होंने अपनी बात पूरी करके दिखाई. कफन का सारा सामान उनकी गठरी में मौजूद था. वह मानिनी स्वाभिमान से रहीं, किसी के आगे नहीं झुकीं.”- यह कथा-प्रस्मृति माध्यम से जीवंत किया है.
‘शिकंजे का दर्द ’ दलित नारी के शोषण के विरुध्द एक संघर्ष की गाथा हैं. जंगल में शिकारी द्वारा कसे गए शिकंजे में, जब कोई जानवर फंस जाता है. मुक्ति के लिए उसके भीतर से दर्दनाक चीख बाहर निकलती है. वह जितना अपने आपको मुक्त करने के लिए छटपटाता है, दर्द उतना ही बढ़ते जाता है. दर्दनाक चीख, सिसकियाँ और कराह में ठाठ सिसकियाँ एवं कराह मूक वेदना में कब परिवर्तीत होती है पता ही नहीं चलता. वह मजबूर, लाचार, विवश होकर दर्द, पीड़ा, दुःख, को लगातार सहता पड़ा रहता है, जंगल के किसी एक कोने में तड़फ-तड़फकर मरने के लिए. दलितों में भी दलित समझे जानेवाली नारी मनुवादी समाज, दलित समाज, मनुवादी मनोवृत्तिवाले पुरुषीय समाज के शिकंजे में वह कई वर्षों से फंसी भीतर से मुक्ति के लिए छटपटाती अपने नारी जीवन को कोसने के लिए विवश दिखाई देती है. जन्म से लेकर मृत्यु तक आत्मापीड़न, संत्रास, घुटन, अन्याय, अत्याचार, दुःख, दर्द, उपेक्षा को सहते-सहते मनुवादी समाज और मनुवृतिवाले पुरषों के विरुध्द आज की दलित नारी में आक्रोश और विद्रोह प्रकट हो रहा है. वह समझ चुकी है कि यदि इस शिकंजे से मुक्ति पाना हो तो शिक्षा ग्रहण करनी होगी.
दलित स्त्री आत्मकथाओं में अभिव्यक्ति संदर्भ, परिवेश, समस्या और संघर्ष का स्वरूप मुख्य रूप से उजागर हुआ है. दलित स्त्री का जीवन में शिक्षित होने के लिए संघर्ष, जातिगत पहचान की वजह से प्रगति के हर कदम पर आनेवाली कठिनाईयों से जूझना, आर्थिक सबलता के लिए कठिन प्रयास, भूख से लड़ाई, स्त्री होने के कारण घर और बाहर होने वाली अवहेलना, अपमान और शोषण की तिहरी मार को झेलना पड़ता है, लेखिकाओं ने अपनी आत्मकथा में इन प्रसंगों, घटनाओं, संघर्षों का चित्रण प्रमुख्ता से किया है. लेखिकाओं ने स्वयं अपने जीवन में भी एक स्त्री होने के कारण सारी पीड़ा को सहा है जो एक स्त्री सदियों से सहती आ रही है.
भारतीय समाज में सबसे निचली सीढ़ी पर खड़ी दलित स्त्री ने सामाजिक निषेधार्थ को लाँघते हुए ब्राह्मणवादी व्यवस्था के आधार खड़े स्तंभ पितृ-सत्ता, धर्म और जाति को हमेशा टक्कर दी है. देश में दलित स्त्रियों की स्थिति बहुत दयनीय रही है . दलित स्त्री की समस्या और स्वाभिमान जब एक दलित महिला व्यक्त करती हैं तो वहां महिला भी उस समस्या को अनुभव करती हैं. अनेक दलित लेखिकाओं ने अपने-अपने ढंग से आत्मकथाओं के माध्यम से इनके दर्द को उठाने की कोशिश की है.
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डी. अरुणा, जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली के हिंदी विभाग में पी.एच-डी. कर रही हैं.
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