लेनिन मौदूदी (Lenin Maududi)
आतंक से आतंकवाद का सफर लम्बा है. आदिकाल से मनुष्य आतंकित होता आ रहा है और आतंकित करता आ रहा है. मनुष्यों ने अपनी सत्ता को लेकर जो भी संस्था बनाई उसमे अक्सर आतंक को एक उपकरण के रूप में प्रयोग किया. धर्म में ईश्वर का आतंक, परिवार में पितृसत्ता का आतंक, राज्य में सर्वभौमिक्ता का आतंक अर्थात सेना, पुलिस का आतंक. बहरहाल हम यहाँ जिस आतंक की बात कर रहे हैं उससे दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश से लेकर व्यक्ति दोनों आतंकित हैं.
भारतीय परिप्रेक्ष्य में आतंकवाद पर अनुभव सिन्हा निर्देशित फिल्म ‘मुल्क’ आई है जिसकी वजह से दुबारा आतंकवाद पर चर्चा शुरू हो गई है. इससे पहले भी बॉलीवुड आतंकवाद पर केंद्रित फ़िल्में बनाता रहा है. सुभाष गई की कर्मा,मेहलू कुमार की तिरंगा पर आप गौर करें कि 80 के दशक में बनने वाली फिल्मों में आतंकवाद का विशेषत: कोई धर्म नहीं होता था पर 90 के दशक में बनने वाली फिल्मों में आतंकवाद को पूरी तरह से पकिस्तान द्वारा आरोपित एक छदम युद्ध के रूप में दिखाकर एक नया रुख दे दिया जैसे रोज़ा, सरफरोश, दिल से, माँ तुझे सलाम, जाल आदि. फिर अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड टॉवर पर अमेरिका के डॉलर पर पले आतंकवादियों ने हमला कर दिया; और इसके साथ ही शुरू हो गया अमेरिकी प्रोपोगंडा. अब साफ़ तौर पर आतंकवाद को इस्लाम से जोड़ दिया जाता है. हमारे बॉलीवुड ने भी इस बात को अंगीकार कर लिया. फना, धोखा, मुखबिर, आमिर, ए वेडनेस्डे आदि फिल्मों में अब न सिर्फ आतंकवाद का एक धर्म था बल्कि अब आतंकवाद राष्ट्र-देशों की सीमा पार कर के एक अंतर्राष्ट्रीय हैसियत हासिल कर चुका था. किसी गैर-मुस्लिम मासूम बच्चे से एक आतंकवादी का चेहरा बनाने को कहा जाए तो बहुत संभव है वह एक धार्मिक मुस्लिम (जिसकी दाढ़ी है, जो टोपी लगता है, जो नमाज़ पढ़ता है) का चेहरा बना बैठे. इस तरह की धारणा ने खासी हद तक अवचेतन में जगह बना ली है. इस प्रकार अमेरिका का मकसद पूरा होता है और दुनिया को एक शत्रु मिल जाता है. ऐसे में अमेरिका के लिए आतंकवाद का आरोप लगा कर किसी भी मुस्लिम देश पर हमला कर उसे बर्बाद करना और उसके खनिज संसाधनों को लूटना न्यायोचित हो जाता है जैसे इराक, अफगानिस्तान, सीरिया आदि पर उसने इस नेरेटिव का भरपूर इस्तेमाल किया है. इस प्रकार हम देखते हैं कि फ़िल्में परसेप्शन बनाने का काम करती हैं कि ‘हर मुस्लिम आतंकवादी नहीं होता पर हर आतंकवादी मुस्लिम होता है.’
‘मुल्क’ फिल्म पर फिर से लौटते हैं. इसमें भी जो आतंकवादी है वह मुस्लिम है. फिल्म की कहानी कुछ यूं है कि एक मुस्लिम परिवार है, जो मॉडर्न दिखाई पड़ता है, उर्दू बोलता है और जिसकी एक बहु आरती (तापसी) हिन्दू है. इस परिवार का मुखिया है- मुराद अली मोहम्मद (ऋषि कपूर)। जिसके दो हिन्दू दोस्त हैं- चौबे और वर्मा. गंगा-जमुना संस्कृति में रचे-बसे इस संयुक्त परिवार में रहने वाले सभी सदस्य एक दूसरे से बेहद प्यार करते हैं मगर छोटे भाई बिलाल मोहम्मद (मनोज पाहवा) का बेटा शाहिद (प्रतीक बब्बर) ‘आतंकवादी’ बन जाता है और मारा जाता है. इसके बाद इस परिवार पर आफत टूट पड़ती है. जो लोग कल तक उसके घर में खाना खा रहे थे वही लोग मुराद अली मोहम्मद के घर के आगे लिख देते है ‘गो टू पाकिस्तान’ (पाकिस्तान जाओ). बेटे के किये की सज़ा पुरे परिवार को दी जाती है. उसके बाद शुरू होता है अदालत का ड्रामा जहाँ सरकारी वकील संतोष आनंद (आशुतोष राणा ) मुराद अली मोहम्मद के परिवार पर देशद्रोही होने का आरोप लगाते हैं. ये फिल्म ऐसे ही आरोपों का जवाब है. पर कुछ जवाब ऐसे हैं जिनपर बात होनी ज़रूरी है.
फिल्म में दानिश जावेद (रजत कपूर) जो कि एक आतंकवाद विरोधी दस्ते के इंस्पेक्टर है, से आरती मोहम्मद (जो उनकी वकील है) सवाल करती है कि आतंकवाद की परिभाषा क्या है? रजत कपूर जवाब देते हैं कि ‘आतंकवाद राजनैतिक या सामाजिक उद्देश्य के लिए एक हिंसक व्यवहार है जो समाज या उसके बड़े भाग में भय पैदा करने के लिए किया जाता है.’ गौरतलब है कि ये परिभाषा इस मायने में आधी अधूरी है कि वह गैर-राज्य कारकों द्वारा की जाने वाली हिंसा पर तो आतंकवाद की मोहर लगाती है लेकिन सरकार द्वारा की जाने वाली हिंसा को इस परिभाषा से बाहर रखती है. इसका कारण ये है कि जिसे आतंकवाद कहा जाता है वह ‘स्वीकृत हिंसा’ के दायरे में नहीं आता. पर दिलचस्प बात यह है कि इस ‘अस्वीकृत हिंसा’ जिसे आतंकवाद की श्रेणी में रखा गया है और ‘स्वीकृत हिंसा’ जिसमे सरकार चाहे तो किसी भी प्रकार का दमन कर सकती है, के बीच विभाजक रेखा बेहद झीनी है. गुलाम भारत में अंग्रेज़ सरकार भगत सिंह को आतंकवादी कहती थी लेकिन आज भगत सिंह को स्वतंत्रता सेनानी की हैसियत हासिल है. कब कौन सी सरगर्मी आतंकवाद के खाते में डाल दी जाए और किसे ‘स्वाभाविक प्रतिक्रिया’, ‘बड़े पेड़ गिरने से धरती थोड़ी तो कांपती है’ या ‘क्रिया की प्रतिक्रिया’ कह कर नवाज़ा जाए यह तैय करने का काम ख़ास तबकों के ही अधिकार में रहा है.
छत्तीसगढ़, पूर्वोत्तर राज्यों या कश्मीर में सेना द्वारा की गई हिंसा स्वीकृत हिंसा है. आज के दौर में स्वीकृत हिंसा का एक नया रूप भी सामने आया है, कुछ उदाहरण लें- गाय की हत्या की अफवाह पर 30-32 पसमांदा मुसलमान मार दिए जाते हैं और किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता, उल्टा हत्यारों को मंत्री जी माला पहनाते हैं. कश्मीर में बकरवाल समुदय की लड़की ‘आसिफा’ का बलात्कार होता है और बलात्कारियों के पक्ष में रैलियाँ निकाली जाती हैं. राजस्थान में एक शेरशाहाबादी जाति के अफ़राजुल को शम्भू लाल रैगर मारता है और उसकी वीडियो भी बनाता है. फिर भी उसके पक्ष में चंदा जमा किया जाता है. राजस्थान उच्य न्यायालय की छत पर चढ़ कर भगवा फैराया जाता है. इन सारी हिंसाओं को हमारे बहुसंख्यक समाज ने अपनी मौन स्वीकृति दी है. क्या इस स्वीकृत हिंसा को आतंकवाद नहीं कहना चाहिए या कहा जाएगा?
फिल्म में बताया गया है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता. ये बात इसलिए बताई जाती है ताकि इस्लाम को या मुसलमानों को आतंकवाद से न जोड़ा जाए. यह एक सुनियोजित गणित पर आधारित गढ़ी गई कहानी होती है ता कि एक मुस्लिम खुद को कथित मुस्लिम आतंकवादी से परे कर के सोचे और खुद को उनसे अलग कर के देखे. ऐसा करने पर सवर्ण हिन्दू राष्ट्रवादीयों को अपना खेल खेलना आसान हो जाता है. लेकिन सरकार ने जो खालिस्तान के विरुद्ध किया उसे वह कभी उस शिद्दत से पटल पर नहीं लेकर आती जितनी शिद्दत से कश्मीर के आतंकवाद को. जबकि कश्मीरी आतंकवाद से पहले असम का उल्फा और बोडो संघर्ष भी उभरा था. आज भी बंगाल में गोरखा संघर्ष, पूर्वोत्तर में नागा संघर्ष, कश्मीर कश्मीर के संघर्ष के साथ-साथ ही चल रहा है.
पर इन आतंकवादों की एक क्षेत्रीय प्रकृति थी. लेकिन पिछले कुछ समय में राष्ट्रिय स्तर पर आतंकवादी गतिविधियाँ भी बढ़ी हैं. यह गौर करने वाली बात है कि भारत में ये गतिविधियाँ न्यायालय की लचर प्रकृति के साथ-साथ बढ़ी हैं. अर्थात साम्प्रदायिकता के उभार ने आतंकवाद को बल दिया है. पर भारत में साम्प्रदायिक और जातिये आतंक (हाशिये के समाज पर होने वाला सवर्णों का आतंक) को आतंकवाद की कैटेगरी में नहीं रखा जाता क्योंकि जो लोग इसको बढ़ावा दे रहे हैं वे सवर्ण समाज से आते हैं और जैसा कि कहा गया है कि ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ उसी प्रकार इन सवर्णवादी संगठनों द्वारा की गई हिंसा, हिंसा नहीं है तो आतंकवाद के खाने में भला कैसे फिट होगी फिर! सवर्णवादी संगठनों ने पहले राजनीति का साम्प्रदायिकरण किया फिर साम्प्रदायिकरण का अपराधीकरण किया और अब अपराधीकरण को देशभक्ति से जोड़ रहे हैं. कोई भी गुंडा हाथ में तिरंगा लिए किसी को भी मार सकता है. उसके द्वारा की गई हिंसा को राष्ट्र हित में उचित ठहरा दिया जाएगा. हमारे प्रधान सेवक का मौन उनकी हिंसा को स्वीकृति प्रदान करता है. यह पूरा मामला लाभ हानि को ध्यान में रखते हुए खेला गया खेल है.
मै माफ़ी चाहूंगा अगर अब आप को बुरा लगे पर यहाँ मै आतंकवाद का जातिय चरित्र भी देखना चाहता हूँ. मुस्लिम पहचान की आड़ में ये बातें छुप जाती है कि इस आतंकवाद की जड़ में कौन है? इन हिंसाओं से किसे लाभ पहुँच रहा है? क्या साम्प्रदायिक आतंकवाद का लाभ सवर्ण हिंदूवादी संगठनों को नहीं मिल रहा? एक ज़रा चुभता हुआ सवाल पूछता हूँ- जितने भी ‘स्वघोषत इस्लामी आतंकवादी संगठन‘ हैं उनका मुखिया किस जाति विशेष का है? कितने आतंकवादी संगठनो के मुखिया पसमांदा समाज से आते हैं? हाँ, दोनों ओर के फुट-सोल्जर पसमांदा और दलित समाज से ज़रूर आते हो सकते हैं. एक उदाहरण से समझाता हूँ- पसमांदा समाज से आते समाजशास्त्री प्रो. खालिद अनीस अंसारी एक मज़ेदार बात बताते हैं. वे कहते हैं कि-
“कश्मीर के आतंकवाद का भी जातिय रूप है. उनके शब्दों में, ‘थोड़ा कश्मीर पर नज़र डालें जहाँ पर हिंसा एक तौर-ए-ज़िन्दगी बन गई है. अभी कश्मीर में एम.एच.ए. सिकंदर जो वहाँ के रिसर्च स्कॉलर एंव एक्टिविस्ट हैं, ने 10 मई 2017 को डेली ओपिनियन में ‘The Brahmins among Muslims We Don’t Talk About’ शीर्षक के तहत एक आर्टिकल लिखा है. यह आर्टिकल कश्मीर पर है एक कश्मीरी सय्यद द्वारा. वे लिखते हैं, ‘To this day the Syeds dominate the bureaucracy and the invisible apartheid continues. The Islamic revivalist movements that spread their network in Kashmir, including Jamaat-e-Islami, too were dominated by the Syeds.’ यानि ‘पूरे प्रशासन पर सय्यद हावी हैं और ये अदृश्य रंगभेद जारी है. और जो इस्लामी पुनरुद्धार आंदोलन जिन्होंने जमाते-इस्लामी समेत पूरे कश्मीर में अपना नेटवर्क फैलाया है, वह सभी सय्यद द्वारा शासित हैं.”
“Few Syeds and Khojas lost their lives or took part in the insurgency”. यानि ‘भारत के खिलाफ जो इंसर्जेंसी है उस में बहुत कम सय्यद परिवार और बहुत कम [सय्यद] लोगों ने अपनी जानें दीं हैं. (कश्मीर में Khojas दूसरी अमीर जातियों को कहते हैं)
“But both United Jihad Council and Hurriyat Conference was dominated by Syeds, who want the sacrifices from the non-Syeds and luxurious lives for their wards and extended family” यूनाइटेड जिहाद और हुर्रियत कांफ्रेंस दोनों सय्यद के कब्ज़े में है जो कि दूसरों (यानि पसमांदा) द्वारा कुर्बानियाँ चाहते हैं जबकि अपने और अपने विस्तृत परिवार
परिवार के लिए सुविधाओं भरी ज़िन्दगी चाहते हैं.
“They have used every mechanism to keep the masses occupied with the conflict so that they don’t engage with the larger questions associated with it, including caste and privileges”. (उन्होंने (सय्यदों ने) सभी तंत्रों का इस्तेमाल लोगों को एक झगड़े में उलझाये रखने के लिए किया है ता कि वे, जाति और सुविधाओं समेत इससे जुड़े बड़े सवालों की तरफ न मुड़ सकें)
इतिहास में यह पहला आर्टिकल आया है जिसने कश्मीर के मुसलमानों की जातीये समस्या को खोलकर रखा है. इन सब बातों पर हमारा तथाकथित सेक्युलर ख़ेमा कभी चर्चा नही करेगा. यह समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि आतंकवाद का भी जातिय चरित्र होता है.
मुल्क फिल्म की और मुड़ते हैं. फिल्म में आरती(तापसी) कहती है कि जब भी वकील संतोष आनंद (आशुतोष राणा) मुस्लिमों पर कोई फ़िक़रा कहते थे तो वहां (अदालत परिसर में) बैठे लोग हँसने लगते हैं, जैसे जब संतोष आनंद कहते हैं कि मुसलामनों में शिक्षा का स्तर कम है या मुसलमान ज़्यादा बच्चे पैदा करते हैं तो लोग मज़ाक बनाते हैं. यक़ीनन इससे मुझे भी दुःख होता है पर इस सवाल का जवाब तो देना होगा न कि मुसलमानों का 85% पसमांदा समाज आज अगर गलाज़त में जी रहा है तो कसूरवार कौन है? सरकार को तो हम जी भर के गालियां देते ही हैं पर अब हमें अशराफ मुस्लिम रहनुमाओं से सवाल करने होंगे. हमारे मुसलिम समाज के धार्मिक और राजनीतिक रहनुमाओं ने कौन-सी रणनीति बनाई है जिस पर चल कर यह समाज अपनी गलाज़त से निकल सके? शिक्षा और रोज़गार क्या हमारी मुस्लिम राजनीति का हिस्सा है भी? ये समस्याएं आखिर कभी राष्ट्रीय बहस का हिस्सा क्यों नहीं बन पाती हैं? तलाक के मुद्दे पर तो सड़कें भर देने वाले हमारे धार्मिक रहनुमा क्या इन मुद्दों पर कभी सड़कों पर निकले हैं? हिंदुत्व (फासिस्ट ताकतों) को मुसलमानों का सबसे बड़ा खतरा बताने वाले हमारे रहनुमाओं ने उससे लड़ने के लिए कौन-सी लोकतांत्रिक रणनीति समाज को दी है? कैसे हम इस खतरे का मुकाबला करें? क्या कोई तरीका है मुसलिम समाज के पास? दरअसल, हमारे रहनुमा (धार्मिक और राजनीतिक दोनों) सिर्फ जज्बाती बातों पर अपनी रोटियां सेंकने का काम करते हैं. हर चुनाव में ये इन पसमांदा मुसलामनों की भीड़ दिखा कर अपने बेटों और दामादों के लिए सीट मांग लेते हैं. बिहार का शरीयत बचाव आंदोलन तो अभी हाल का उदाहरण है. इनके पास समाज की स्थिति को सुधारने की कोई रणनीति नहीं है. इसलिए ये पसमांदा समाज को तालीम, रोजगार और विकास जैसे मुद्दों से भटकाने के लिए बुरका, मदरसा, अलीगढ़, ईशनिंदा, समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों में उलझाए रखते हैं. अगर फिर कोई मज़ाक बनता है तो ये अपना सीना भी पीटते हैं कि हमारा मज़ाक बनाया जा रहा है.
फिल्म में बार-बार पाकिस्तान/बटवारे की बात आती है. बताया जाता है कि भारतीय मुसलामनों ने ‘मुल्क और मज़हब‘ में से मुल्क को चुना अर्थात उन्होंने भारत में रहना पसंद किया. सही बात है पर इस ‘मुल्क और मज़हब‘ में चुनाव की नौबत क्यों आई? किसने मज़हब चुना? यहाँ मै फिर से पसमांदा समाज से आये सामजशात्री प्रो. खालिद अनीस अंसारी को quote करूँगा. खालिद अपने लेख “हाँ, मुसलमानो का तुष्टिकरण हुआ है, लेकिन अशराफ़ मुसलमानों का” में लिखते हैं कि-
“अगर आप आज़ादी से पहले देखें तो यहाँ पर कई तरह की ताकतें संघर्ष कर रही थीं. मैं बात सिर्फ मुस्लिम बॉडीपोलीटिक [Muslim bodypolitic] पर ही करूँगा. बंटवारे की जो पूरी राजनीति है, एक पेचीदा राजनीति है. लेकिन बहुत सारी बातें वहां से निकलती है जो कहीं आज आते-आते गुम हो गयीं और उन पर आज दोबारा बहस करना जरुरी है. अगर आप देखेंगे तो आज़ादी से पहले मुसलमानों के अन्दर दो तरह के [महत्वपूर्ण] संगठन थे. एक ‘मुस्लिम लीग’ जो कि सवर्ण या अशराफ़ मुसलमानों का संगठन था जो ‘दो राष्ट्रों के सिद्धांत’ को मान रहा था, टू नेशन थ्योरी [two nation theory] का समर्थन कर रहा था. दूसरी तरफ ‘मोमिन कांफ्रेंस’ थी जो पसमांदा मुसलमानों का संगठन था और वह टू नेशन थ्योरी का विरोध कर रही थी. जब 1946 का इलेक्शन आता है जिसे कन्सेंसस ऑन पाकिस्तान [consensus on Pakistan] कहा जाता है…और उस वक़्त अगर आप जानते हैं तो भारत में यूनिवर्सल एडल्ट फ्रैंचाइज़ [universal adult franchise] नहीं था, सब लोगों को वोट देने का अधिकार नहीं था. एक रिस्ट्रिक्टेड इलेक्टोरेट [restricted electorate] था भारत में. वही लोग वोट दे पाया करते थे जो साहिब-ए-हैसियत हुआ करते थे, जिनके पास संपत्ति हुआ करती थी या कुछ ख़ास डिग्री बी.ए…ये सब कर रखा होता था.तो अगर आप मुसलमानों को देखें तो इस तरह के लोग जिनको वोट देने का अधिकार था उनकी आबादी सिर्फ 12 से 15 प्रतिशत थी और ये [ज़्यादातर] लोग सवर्ण या अशराफ़ मुसलमान थे. 1946 का इलेक्शन जिसमे मुस्लिम लीग ने बहुत मज़बूती से जीत हासिल की और पाकिस्तान का रास्ता साफ़ हुआ, उसमे अगर किसी की जिम्मेदारी [बनती] है तो ये अशराफ़ 12-13 प्रतिशत वर्ग की ज़िम्मेदारी है. अशराफ़ एज़ ए क्लास [as a class] ने पकिस्तान को वोट दिया. ये अलग बात है कि हर वर्ग में बग़ावती तेवर के लोग होते हैं. कुछ लोग ऐसे ज़रूर थे जिन्होंने टू नेशन थ्योरी का विरोध किया जैसे [मौलाना] अबुल कलाम आजाद साहब…और भी कई लोग थे इस तरह के. लेकिन वह महज़ व्यक्ति हैं, बुद्धिजीवी हैं, वो अपने वर्ग की नुमाइंदगी नहीं करते. तो पहली बात आज़ादी की…जो बंटवारे की पूरी राजनीती है, पेचीदा राजनीती है. मैं उस डिस्कशन में नहीं जाना चाहता हूँ. मैं सिर्फ इस फैक्ट [fact] की तरफ इशारा करना चाहता हूँ कि अगर 1946 का इलेक्शन कन्सेंसस ऑन पाकिस्तान है, अगर 1946 के इलेक्शन में मुस्लिम लीग भारी मतों से जीत कर आती है तो उसमे सारे मुसलमानों की ज़िम्मेदारी नहीं थी क्योंकि 85% मुसलमानों का वोट टेस्ट [test] ही नहीं हुआ था. ये एक बहुत important बात है. और हम आज़ादी के बाद देखें तो [शायद] राही मासूम रज़ा ने कहा है…एक जगह लिखा है कि वो पुराने मुस्लिम लीगी जो बंटवारे की पूरी राजनीती में लगे हुए थे, अचानक उन्होंने कांग्रेसी टोपी पहनी और जा के कांग्रेस से जुड़ गए. तो दोस्तों, बटवारे का विरोध किया पसमांदा—पिछड़े, दलित, आदिवासी—मुसलमानो ने और जिन लोगों ने पाकिस्तान का समर्थन किया एक वर्ग की तरह, जातीय वर्ग की तरह वह कांग्रेस से जुड़ गए और तब से भारत में जिसे हम मुस्लिम राजनीति बोलते हैं, उस पे उनका पूरी तरह से वर्चस्व है. और ये वर्चस्व आज तक जारी है!
मुस्लिम राजनीती से जुड़े जितने भी institutions [संस्थान] हैं, चाहे वो जमियत उलेमा-ए-हिन्द हो, चाहे वो जमात-ए-इस्लामी हो, चाहे वो पोपुलर फ्रंट ऑफ़ इंडिया हो, चाहे वह आल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड हो…सारे संगठनो को अगर आप उठा कर देखेंगे तो इन्हीं 15%…जो सवर्ण मुसलमान हैं…इन्हीं का दबदबा है, इन्हीं का कब्ज़ा है. ये बात आज तस्लीम करनी चाहिए हमें कि भारत में मुसलमानों के अन्दर according to People’s of India Project 705 जातियां है. इन 705 जतियों में सिर्फ 15 से 20 जातियां वैसी हैं सय्यद, शेख़, मुग़ल पठान…जिन्होंने सारे मुसलमानों के नाम पर जितने मुसलमान institutions हैं उन पर कब्ज़ा कर रखा है. ये बात आज खुल कर कहने ही जरुरत है. (https://bit.ly/2uYaG7w)
अंत में जज साहब को पता चल जाता है कि पुलिस और मीडिया मिल कर मुराद अली और बेलाल मोहम्मद को झूठे केस में फसा रही थी तो क्या न्यायालय इन पुलिस वालों पर कोई कार्यवाही करती है? ये फिल्म महज़ थी जज साहब, जो आप ने 3 घंटे में फैसला सुना दिया वर्ना हकीक़त में अदालतें 14-14 साल लगा देती हैं एक बेगुनाह मुस्लिम युवक को बा-इज़्ज़त बरी करते हुए. जो लोग 14 साल बाद आतंकवाद के मामले से रिहा हो रहे हैं. उनकी ज़िन्दगी के उन साल की क्षतिपूर्ति कैसे होगी? जिन पुलिस वालों ने इन नौजवानों पे झूठे आरोप लगाकर चार्जशीट फ़ाइल की थी क्या उनपे कार्यवाही होगी? क्या आज तक किसी पुलिस अधिकारी पर इस बिना पर कोई कार्यवाही हुई है? उनके घरवाले (और वो खुद) जिन्होंने एक ‘आतंकवादी’ के रिश्तेदार के रूप में जो यातनाएं झेली है उसका मुआवज़ा क्या होना चाहिए? ऐसे ढेर सारे सवाल हैं जिनके जवाब न सरकार की ओर से न प्रशासन की ओर से कभी नहीं दिए जाएंगे. लेकिन इसका परिणाम क्या होगा ये सोचने वाली बात है. आज आलम यह है कि पूरे हिंदुस्तान में कहीं से भी जब किसी मुस्लिम युवक को पुलिस आतंकवादी कह कर उठाती है तो मुस्लिम समाज से पहली प्रतिक्रिया ये आती है कि ‘बेचारे निर्दोष को उठा लिया अब 6-7 साल जेल में यूँ ही रखेंगे’ या ‘जाने कब छूटेगा’ ये प्रतिक्रियाएं बहुत स्वभाविक हैं. ये प्रतिक्रिया ये भी बताती है मुस्लिम समाज का सरकार/प्रशासन पे कितना भरोसा है और सरकार और प्रशासन ने भरोसा कायम रखने के लिए क्या किया है? अगर सरकार और प्रशासन चाहते हैं कि भरोसा कायम हो तो उन अधिकारियों पर इमानदारी के साथ कार्यवाही की जानी चाहिए. मुस्लिम समाज का भरोसा जीतने के लिए सरकार और न्यायालय दोनों को पहल करने की आवश्यकता है. सिर्फ जज साहब द्वारा पुलिस वालों को नसीहत दे कर छोड़ने से तो काम नहीं बनने वाला.
जज साहब फैसला सुनाते हुए संविधान के महत्व की बात करते हैं. यह वही संविधान है जिसे कुछ दिन पहले कुछ सवर्ण लोगो ने सरेआम जलाया. उन्हें यह बल कहाँ से मिलता है? अक्सर मुद्दों पर स्वत: संज्ञान लेने वाली न्यायालय ने कोई संज्ञान नहीं लिया. क्यों? साथ ही हमारी राजनीतिक पार्टिया भी मौन बनी रही. इन आरक्षण विरोधी सवर्णों का मानना था कि आरक्षण अलग-अलग जातिय पहचान में देश को बाँट रहा है. ‘हम‘ और ‘वे‘ में देश को बाँटना गलत है. मै भी सहमत हूँ कि नफरत के आधार पर ‘हम‘ और ‘वे‘ में देश को बाँटना गलत है पर पहचान का अपना महत्व होता है. हमें भारत की अलग-अलग पहचानों को महत्व देना चाहिए ताकि उनकी समस्याओं को हम समझ सकें. हमारा ये स्पष्ट मानना है कि दो विरोधी वर्गों/पहचानों के हित एक सामान नहीं हो सकते वर्ना क्या वजह थी जो मार्क्स ने “दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ” कहा न कि “दुनिया के इंसानों एक हो जाओ?” ‘मुल्क’ फिल्म समस्याओं का सामन्यीकरण कर देती है, ये संरचना पर बात नहीं करती. हिन्दू-मुस्लिम एकता एक अच्छा नारा है पर इस नारे की आड़ में दलित और पसमांदा समाज की समस्या एंव उनकी मांगे अक्सर छुप जाया करती हैं जिसका लाभ होता है तो महज़ हिन्दू-मुस्लिम सवर्ण-अशराफों को.
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लेनिन मौदूदी लेखक हैं एवं DEMOcracy विडियो चैनल के संचालक हैं, लेखक हैं और अपने पसमांदा नज़रिये से समाज को देखते-समझते-परखते हैं.
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