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नाज़ खैर (Naaz Khair)

Naaz Khair 1देश भर में बहुजनों ने मान्यवर कांशीराम जी की 85वीं जयंती बहुजन दिवस के तौर पर मनाया. एक पसमांदा कार्यकर्ता के रूप में मैंने भी दिल्ली में आयोजित एक बहुजन दिवस समारोह में भाग लिया और प्रमुख बहुजन मुद्दों के बारे में अपने विश्लेषण प्रस्तुत किए.

जिन लोगों को पसमांदा आंदोलन के बारे में जानकारी नहीं है उनके लिए संक्षिप्त में: पसमांदा आंदोलन ऐतिहासिक रूप से वंचित मुसलमानों का आंदोलन है. पसमांदा एससी/ एसटी/ ओबीसी मुस्लिम धर्मान्तरित हैं. दूसरे शब्दों में मुस्लिम आबादी के भीतर पसमांदा बहुजन वर्ग है. पसमांदा एक फ़ारसी शब्द है जिसका मतलब है ‘उत्पीड़ित’. मुस्लिम आबादी का 85% पसमांदा मुसलमान है.

कांशीराम जी का सम्बन्ध पसमांदा के साथ कैसा जुड़ा, उन्हीं की ज़ुबानी: कांशीराम जी कहते हैं,

“मुसलमानों में मैंने नेत्रत्व के स्तर से जाना ठीक समझा. उनके 50 नेताओं से मैं मिला इनमें भी ब्राहम्ण्वाद देखकर मैं दंग रह गया. इस्लाम तो बराबरी और अन्याय के खिलाफ लड़ना सिखाता है लेकिन मुसलमानों का नेत्रत्व शेख़, सय्यद, मुग़ल, पठान यानि अपने को ऊंची जाति का मानने वाले लोगों के हाथ में है, वह यह नहीं चाहते कि अंसारी, धुनिया, कुरैशी उनकी बराबरी में आयें.

इलाहाबाद के उपचुनाव (1988) में यह बात एक दम साफ तौर पर उभरकर आई.विश्व हिन्दू परिषद, आरएसएस, बजरंग दल, भाजपा और राम जन्म भूमि मुक्ति समिति यानि हिन्दू कट्टरवादी और मुस्लिम लीग, मुस्लिम मजलिस, जमात-ए-इस्लामी, मौलाना बुखारी और सय्यद शहाबुद्दीन की बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी यानि मुस्लिम कट्टरपंथी वी. पी. सिंह को जिताने और कांशीराम को हराने के लिए कंधा से कंधा मिलाकर चल रहे थे.यहाँ पर दोनों का हित एक ही था. कांशीराम के जीतने से सवर्ण हिन्दू और सवर्ण मुसलमान दोनों को अपनी कुर्सी पर हमला होने की आशंका थी. इस चुनाव के बाद मैंने फैसला किया कि मुसलमानों में हिंदुओं की अनुसूचित जातियों से गए लोगों को ही तैयार किया जाए.

कांशीराम जी द्वारा कहे गए इन पंक्तियों को सतनाम सिंह द्वारा लिखी हुई किताब “कांशीराम की नेक कमाई जिसने सोती कौम जगाई”, गौरव प्रकाशन, में आप पढ़ सकते हैं.

प्रचलित राजनीतिक विचारधाराएं

मैं, एक ही सिक्के के दो पहलू के रूप में हिंदुत्व और जेहादी विचारधाराओं को देखती हूं. भारत का हिंदुत्व और पाकिस्तान का जिहाद (या कोई और मुस्लिम देश का जेहाद), या भारत का हिंदुत्व और भारत के ही अंदर भारत का  जेहादी इस्लाम (इस्लामिस्ट संगठनों जैसे जमात-ऐ-इस्लाम, सीओ, सिमी, इत्यादि और राजनीतिक दलों जैसे पी.ऍफ़.आई (PFI), एम्.आई.एम् (MIM) वेलफेयर पार्टी, इत्यादि, द्वारा प्रचारित इस्लाम) एक ही चीज़ है. और दोनों को एक दूसरे की ज़रूरत है. दोनों शासक वर्ग की विचारधाराएं हैं. दोनों, हिंदुत्व और जेहादी इस्लाम, का उपयोग लोगों का ध्यान आंतरिक संघर्षों, असमानताओं, जातिगत भेदभाव, विकास विफलताओं, भ्रष्टाचार आदि से  हटा कर उनका ध्यान बाहरी दुश्मन पर केंद्रित करने के लिए होता है. जेहादी को इस्लाम खतरे में नज़र आता है और हिंदुत्व को हिन्दू धर्म खतरे में दिखता है. जेहादी सही मुस्लमान होने का सर्टिफिकेट देता है और हिंदुत्व देश भक्त होने का सर्टिफिकेट देता है. और इस तरह एक तरफ ‘जेहादी’ तैयार होते हैं और दूसरी तरफ ‘भक्त’. और हम जानते हैं कि बहुजनों की तादात दोनों संगठनों में काफी ज्यादा है. ये आपको पसमांदा-बहुजन इस्लामिस्ट संगठनों में और हिन्दू बहुजन हिंदुत्व संगठनों में  आपको काफी मिलेंगे, वजह, बहुजनों का शोषित और अशिक्षित होना. धर्म निरपेक्ष बनाम सांप्रदायिक, अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक और हिंदुत्व बनाम जेहादी, इस तरह के जितने भी विरोधी जोड़े हैं, इनके आपस में सम्बन्ध हैं. यह सब शासक वर्ग विचारधाराएं एक दूसरे को मज़बूती प्रदान करते हैं.

कांग्रेसी धर्म निरपेक्षता मुस्लिम समुदाय के अंदर मुस्लिम सवर्णों का तुष्टिकरण करता है और बीजेपी का सांप्रदायिकता हिन्दू समाज के अंदर हिन्दू सवर्णों का तुष्टिकरण करता है. अल्पसंख्यक समुदाय और राजनीति पर सवर्ण मुस्लिमों का नियंत्रण है और बहुसंख्यक समुदाय और राजनीति पर सवर्ण हिन्दुओं का नियंत्रण है. इसलिए बहुजनों  और पसमांदा-बहुजनों को ऐसे सभी शासक वर्ग विचारधाराओं और गतिविधि से खुद को दूर रखना होगा और अपने बहुजन विचारधारा और मुद्दों पर क़ायम रहना होगा. वर्ना इन बाइनारीस या विरोधी जोड़ों के बीच में बहुजन पिस कर रह जायेगा जो आज तक हुआ है. बाबा कबीर का दोहा है: “चलती चक्की देखकर दिया कबीरा रोये, दो पाटन के बीच में साबुत रहा ना कोए”. इसी तरह इन बाइनारीस में फँस कर बहुजन की पहचान ख़त्म हो चुकी है. अगर लेफ्ट या साम्यवादी या मार्क्सिस्ट विचारधाराओं को देखते हैं तो श्रमिकों को उनके अधिकार दिलवाने में लेफ्ट उतना सक्षम नहीं रहा है जितना उनसे उम्मीद था. अमीर और गरीब के बीच की खाई बढ़ती ही जा रही है. इसके आलावा जिन जिन प्रदेशों में लेफ्ट लम्बे समय से सक्रिय है, उद्धारण के तौर पर वेस्ट बंगाल और केरल, उन प्रदेशों में जेहादी इस्लाम और हिंदुत्व ज़मीनी स्तर पर सक्रिय हैं या हो जाते हैं.  इसलिए लेफ्ट विचारधारा भी शासक वर्ग विचारधारा की मदद ही करता है.

बहुजनों और पसमांदा बहुजनों को बहुजन विचारधाराओं और शासक वर्ग विचारधाराओं के बीच अंतर करना सीखना होगा. अगर शासक वर्ग विचारधारा के साथ बहुजन/पसमांदा बहुजन जाता है तो वहाँ उसको शासक का नहीं, एक अधीन व्यक्ति का ही स्थान मिलेगा.

ओबीसी आरक्षण: ‘क्रीमी लेयर’ कंडीशन लगाना ग़लत

आर्थिक आधार पर या क्रीमी लेयर OBC को आरक्षण से बाहर रखना बिलकुल ही ग़लत कानून बनाया गया है क्योंकि जब तक भारत में जाति व्यवस्था रहेगा, जाति आधारित भेद-भाव छोटी जातियों के साथ होता रहेगा, भले ही कुछ छोटी जातियों के परिवार आर्थिक रूप से मजबूत हो गए हों . यही वजह है कि ‘ओपन केटेगरी’ या अनारक्षित श्रेणी में लगभग सारी सीटों में सवर्णों का क़ब्ज़ा है. इसीलिए मैं समझती हूँ कि OBC पर क्रीमी लेयर कानून नहीं लगना चाहिए बल्कि OBC का उप वर्गीकरण होना चाहिए ताकि अति पिछड़ों को भी आरक्षण का लाभ पहुँच पाए. अति पिछड़ों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में OBC श्रेणी के अंतर्गत आरक्षण मिलना चाहिए. 

कोटा उप-वर्गीकरण आरक्षण के प्रावधान के कार्यान्वयन को मजबूत करता है. इससे OBC का ‘घर’ और मज़बूत होता है ना की टूटता है. इसके विपरीत आरक्षण में ‘आर्थिक आधार’, ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदायों के लिए, आरक्षण के पूरे विचार को कमजोर करता है. और क्रीमी लेयर OBC को आरक्षण के उसके संवैधानिक अधिकार से वंचित करता है.

शिक्षा का अधिकार कानून – राज्यों के नियमों का विश्लेषण: एससी / एसटी आरक्षण पर आर्थिक मापदंड का उपयोग

शिक्षा का अधिकार कानून के तहत निजी गैर सहायता प्राप्त स्कूलों में और स्पेसिफ़िएड केटेगरी स्कूलों (केंद्रीय विद्यालय, सैनिक स्कूल, इत्यादि ) में  २५% सीट वंचित समूह और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए आरक्षित है. अगर हम शिक्षा का अधिकार कानून को लागू करने के लिए अलग अलग राज्यों के नियमों का अध्यन करते हैं तो यह पाते हैं की आर्थिक आधार का प्रयोग SC / ST  आरक्षण पर भी हुआ है. उद्धारण के तौर पर, राजस्थान राज्य ने SC  / ST को RTE कोटा में रखा है आये सीमा के साथ. इस तरह के कई उद्धारण मिलते हैं राज्यों का शिक्षा का अधिकार कानून से सम्बंधित नियमों का अध्यन करने के बाद. कई राज्यों ने तो OBC को RTE कोटा के तहत रखा ही नहीं है. इसमें उत्तर प्रदेश भी शामिल है, जब कि सभी भारतीय राज्यों में सबसे अधिक ओबीसी आबादी उत्तर प्रदेश में ही है.  अफ़सोस की बात यह है की उत्तर प्रदेश में बहुजन सरकार थी जब शिक्षा का अधिकार कानून को लागु करने के लिए नियमों को बनाया गया था . उसके ठीक बाद उत्तर प्रदेश में एक और बहुजन सरकार आयी लेकिन उसके शासन के दौरान भी  RTE कोटा के तहत ओबीसी को शामिल करने के लिए नियमों में कोई संशोधन नहीं किया गया. मैं समझती हूँ की बहुजन पार्टियों को बहुजन समाज के लिए हमेशा  एक होकर सोचना चाहिए. एक दूसरे का कभी घाटा नहीं करना चाहिए. शिक्षा का अधिकार कानून से सम्बंधित ऐसे सभी  मुद्दों पर बहुजन समाज को काम करने की ज़रूरत है. इसके अलावा अलाहाबाद हाई कोर्ट का स्कूली शिक्षा से सम्बंधित अगस्त २०१५ का निर्देश का पालन अभी तक नहीं हुआ है.   अलाहाबाद हाई कोर्ट ने अगस्त २०१५  में उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को निर्देश किया था की  वे सुनिश्चित करें कि सरकारी अधिकारियों/नौकरों, स्थानीय निकायों में सेवारत लोगों और न्यायपालिका के प्रतिनिधियों आदि अपने बच्चे सरकारी स्कूलों में भेजें. तब जाकर सरकारी स्कूलों की आवश्यकताओं पर गौर करने के लिए सरकार गंभीर होगी. इलाहाबाद उच्च न्यायालय की ओर से यह एक ऐतिहासिक फैसला है जिसका पालन के लिए बहुजन समाज को ज़ोर लगाना चाहिए.

जातिगत जनगणना

जातिगत जनगणना नहीं होने के कारण सरकारों के पास OBC वर्ग से सम्बंधित कोई आंकड़ा नहीं है जब कि OBC एक संवैधानिक श्रेणी है. ना सरकार के पास OBC का जनसंख्या के आंकड़े हैं, ना साक्षरता दर, ना आर्थिक गतिविधि के आंकड़े, इत्यादि. ऐसे में सरकारें OBC वर्ग के लिए योजना और नीतियां कैसे बनाती है ये आप सोच ही सकते हैं.

बहुजन महिलाओं के अधिकार

जहाँ तक बहुजन महिलाओं के अधिकारों का सवाल है, इस पर बहुत ज़्यादह ग़ौर करने की ज़रूरत है. बहुजन महिलाएं, सवर्ण महिलाओं के बराबर नहीं हैं, ख़ास करके ग़रीब बहुजन महिलाएं, जिनकी संख्या बहुजन महिलाओं में काफी ज़्यादह है. अधिकतर ग़रीब बहुजन महिलाएं घरों में  नौकरानी का काम करती हैं, जिससे अमीर महिलाएं तो घर का काम से आज़ाद हो जाती हैं और उनके बच्चे भी पढ़ जाते हैं, लेकिन ग़रीब बहुजन महिला ग़ुलाम ही रह जाती है और उसके बच्चे, खासकर के उसकी बेटी/बेटियां पढ़ नहीं पाती है क्योंकी वे घर और छोटे भाई- बहनों को संभालती हैं. उसका पढ़ाई छूट जाता है और आगे जाकर वे अपनी माँ की तरह नौकरानी बनती हैं और यही चीज़ पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है. जब की माँ का शिक्षित होना बहुत ज़रूरी है, क्योंकि जब माँ शिक्षित होगी तो पूरा परिवार शिक्षित होगा. 

कुछ दिन पहले कांग्रेस पार्टी का बयान आया था की पार्टी महिलाओं को 33% आरक्षण सरकारी नौकरियों में देगी. लेकिन कांग्रेस पार्टी ने यह नहीं बताया कि 33% महिला आरक्षण में बहुजन/पसमांदा बहुजन महिलाओं का हिस्सा कितना होगा. महिला आरक्षण का उपवर्गीकरण बहुत ज़रूरी है क्योंकि जब तक जाति व्यवस्था रहेगी, बहुजन महिलाओं के साथ भेद-भाव होना तय है.

बहुजन विरोधी आर्थिक क्षेत्र

‘मेक इन इंडिया’ आजकल चल रहा है. जिसमें विदेशी कंपनियां पूँजी और टेक्नोलॉजी लेकर आ रही है. भारत सरकार इन कंपनियों और इनके इण्डिया प्राइवेट प्लेयर्स को कच्चा माल (रॉ मटेरियल), इंफ्रास्ट्रक्चर, कर में छूट और सस्ता स्किल्ड लेबर प्रदान कर रही है. सस्ता स्किल्ड लेबर में ज़्यादातर परंपरागत रूप से कुशल श्रम आते हैं और हम जानते हैं कि ये लोग बहुजन/पसमांदा-बहुजन समाज से हैं. पारंपरिक कौशल बहुजन समाज की पूँजी है. सरकार कभी ऐसा क्यों नहीं सोचती कि पारंपरिक कौशल के साथ बहुजनों को मध्यम और बड़ा बिज़नेसमैन-बिज़नेसवीमेन, उद्योगपति बनाएं, इसके लिए उन्हें तैयार करें और पूरी तरह से सहयोग करें, जैसे विदेशी कंपनियों और भारत का प्राइवेट सेक्टर का मदद सरकार करती है. उल्टा सरकार ने इनकी दुकानें बंद कर दी है जो वे अपने बल बूते चला रहे थे. उदहारण के तौर कुरैशियों (पसमांदा-बहुजन) के छोटे-छोटे मीट शॉप्स और जाटवों (बहुजन) के leather प्रोडक्ट्स की दुकानें. क्या बहुजन आर्थिक और अन्य छेत्रों में हमेशा अधीन स्थान पर ही रहेगा? इस फॉर्मेट को बदलना ज़रूरी है जिसमें सवर्ण हमेशा उच्च स्थान पर रहते हैं और बहुजन हमेशा अधीन स्थान पर.

अंतिम शब्द और अपेक्षाएँ

1. बहुजन सरकारों को अपने-अपने राज्यों में SC /ST /OBC आरक्षण को पूरी तरह से बैकलॉग के साथ लागू करना चाहिए. 

2. बारह राज्यों ने केंद्र सरकार से सिफारिश की है कि दलित, मुस्लिम और दलित ईसाई को SC का दर्जा दिया जाए. बहुजन पार्टियों से उम्मीद है कि वे दलित मुस्लिम और दलित ईसाई को उनका, लम्बे समय से पेंडिंग, यह हक़ दिलवाएंगे. 

3. बहुजनों/पसमांदा बहुजनों के मुद्दों पर काम करने के लिए मौजूदा स्वयंसेवी क्षेत्र में बहुजनों के लिए कोई जगह नहीं है,  कोई आर्थिक मदद नहीं है. इस पर ग़ौर करने की ज़रूरत है.

4. बामसेफ (संगठन मान्यावर कांशीराम जी द्वारा शुरू किया गया) को पसमांदा के साथ अलग से भाईचारा रखें क्योंकि पसमांदा की अपनी पहचान है जो मुस्लिम अल्पसंख्यक पहचान से भिन्न है.

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नाज़ खैर एक डेवेलोपमेंट प्रोफेशनल और पसमांदा एक्टिविस्ट हैं.

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