Surya Bali
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डॉ सूर्या बाली ‘सूरज धुर्वे’ (Dr. Surya Bali ‘Suraj Dhurve)

भारतीय इतिहास में सूर्य के समान अलौकिक, प्रतिभाशाली, महानायक और परमवीर भगवान बिरसा मुंडा का आज जन्मदिन है। आज के ही दिन यानी 15 नवंबर 1875 को झारखंड के रांची जिले के उलीहाटा गांव में आपका धरती पर अवतरण हुआ था। आपकी माता का नाम करमी हातू और पिता का नाम सुगना मुंडा था। चूंकि आप वृहस्पतिवार (बीरवार) को पैदा हुए थे इसलिए आपका नाम बिरसा रखा गया। बिरसा का बचपन अपने मामा और मौसी के साथ बीता। बिरसा को बांसुरी बजाना बहुत भाता था। वे बचपन से ही धनुष बाण चलाने में पारंगत थे। 

आपकी प्रारम्भिक शिक्षा साल्गा गाँव में हुई और बाद में आप चाईबासा के मिशनरी स्कूल से मिडिल स्कूल में दाखिला लिया। जब वह अपने चाईबासा मिडिल स्कूल में पढ़ते थे तब मुण्डाओं/मुंडा सरदारों की भूमि छीन ली गयी थी जिसके लिए मुंडा परिवारों में एक विरोध व्याप्त था। बिरसा के बालमन पर उस दुख और विपत्ति का गहरा असर पड़ा। बिरसा मुण्डा ने जनजातियों के भूमि आंदोलन को समर्थन करना शुरू कर दिया और छोटी सी उम्र में ही प्रखरता के साथ जनजातियों के जल, जंगल और जमीन के अधिकार के लिए लड़ने लगे। 

उन्हीं दिनों एक पादरी डॉ. नोट्रेट ने लोगों को लालच दिया कि अगर वह ईसाई बनें और उनके अनुदेशों का पालन करते रहें तो वे मुंडा सरदारों की छीनी हुई भूमि को वापस करा देंगे लेकिन 1886-87 में मुंडा सरदारों ने जब भूमि वापसी का आंदोलन किया तो इस आंदोलन को न केवल दबा दिया गया बल्कि ईसाई मिशनरियों द्वारा इसकी भर्त्सना भी की गई इससे बिरसा मुंडा को गहरा आघात लगा। बिरसा ने बहुत से मुंडा परिवारों को इकट्ठा किया और ईसाई मिशनरियों का विरोध करना शुरू कर दिया जिसके कारण उन्हें विद्यालय से निकाल दिया गया। इस तरह अपने बगावती सुरों के कारण उन्हे अपने पिता के साथ चाईबासा से अपने पैतृक गाँव उलिहाटा वापस आना पड़ा।

मुंडाओं की गरीबी, दुर्दशा, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक अस्मिता को खतरे में देखकर उनके मन में क्रांति की भावना जाग उठी। वर्ष 1890 में जब वो महज 15 वर्ष के थे तभी से अंग्रेजों और मिशनरियों के खिलाफ बिगुल फूँक दिया और मुंडा लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ इकट्ठा करना शुरू किया और एक व्यापक आंदोलन की शुरुवात कर दी। उन पर संथाल विद्रोह, चुआर आंदोलन, कोल विद्रोह का भी व्यापक प्रभाव पड़ा। उन्होंने मन ही मन यह संकल्प लिया कि मुंडाओं का शासन वापस लाएंगे तथा अपने लोगों में जागृति पैदा करेंगे। 

बिरसा ने ‘अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज’ (हमार देश में हमार शासन) का नारा दिया और 1890 में एक सामाजिक आंदोलन राजनीतिक आंदोलन का रूप धरण कर लिया। बिरसा गाँव गाँव घूमकर जनजातियों को एकट्ठा करते रहे और अपने आंदोलन को मजबूत करते रहे। अपने पाँच साल के अथक प्रयासों से बिरसा ने वन संबंधी बकाया राशि को प्राप्त करने के लिए एक बृहद आंदोलन चलाया जिसने अंग्रेजों की नींद हराम करके रख दी। बिरसा के अथक प्रयासों के बावजूद अंग्रेजों ने इस आंदोलन को कुचलने के लिए कमर कस ली और बिरसा और उनकी टीम की एक भी बात नहीं मानी। 

Birsa Munda Original

जब अंग्रेजी हुकूमत ने बिरसा की मांगों को ठुकरा दिया तब बिरसा ने भी ऐलान कर दिया कि अंग्रेजों की सरकार खत्म हो गई है और अब हम उनकी बात नहीं मानेंगे और अब से जंगल जमीन पर हमारा राज होगा। उनके इस बगावती तेवर के कारण अंग्रेजों ने बिरसा को 9 अगस्त 1895 को चलकद में गिरफ्तार कर लिया, लेकिन उनके साथियों ने उन्हें छुड़ा लिया। बिरसा और उनके साथियों की ये बगावत अंग्रेज़ अधिकारियों को रास नहीं आई और बिरसा के आंदोलन को कुचलने के लिए षणयंत्र रचना शुरू कर दिये। 

बिरसा और उनके साथियों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और यही कारण रहा कि अपने जीवन काल में ही उन्हें एक महापुरुष का दर्जा मिला। बिरसा को छोटा नागपुर इलाके के लोग “धरती आबा” के नाम से पुकारते थे और उनकी पूजा करते थे। जैसे जैसे उनका प्रभाव छोटा नागपुर और आसपास के पूरे इलाके में बढ़ने लगा वैसे वैसे मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी। 

सन 1894 में भयंकर अकाल और महामारी फैली जिसने जनजातीय आंदोलनों की कमर तोड़ दी। हर तरफ भुखमरी और महामारी का दानव मुंह बाए खड़ा था फिर भी बिरसा ने हिम्मत नहीं हारी और पूरे मनोयोग से अपने लोगों की सेवा की।

बिरसा की बढ़ती लोकप्रियता और बढ़ते संगठन से अंग्रेज़ परेशान हो गए थे और उन्हें किसी भी तरह से नियंत्रण में करना चाहते थे लेकिन सफल नहीं हो पा रहे थे। एक दिन 24 अगस्त 1895 की रात जब वो लोगों को संबोधित कर रहे थे तभी अंग्रेजों ने धोखे से बंदी बना लिया और लोगों को भड़काने के आरोप में जेल भेज दिया। मुंडा और कोल लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ भड़काने के आरोप में उन्हें दो साल की सश्रम कारावास की सजा हुई। 

जेल में दो साल तक उन्हे प्रताड़ित और पीड़ित किया गया और काफी दबाव बनाया गया कि बिरसा आंदोलन का रास्ता छोड़ दें लेकिन बिरसा ने अंग्रेजों के हर प्रस्ताव को ठुकरा दिया और जेल में अपनी दो साल की सजा पूरी की। उसी समय बिहार और बंगाल में भीषण अकाल पड़ा और साथ में चेचक की महामारी भी फैल गयी थी जिससे हजारों की संख्या में लोग मौत के मुंह में समा रहे थे और बिरसा का आंदोलन भी धीमा पड़ गया था।

इसी दौरान 30 नवम्बर 1897 के दिन बिरसा की जेल से रिहाई हुई और वे चलकद वापस आकर अकाल तथा महामारी से पीड़ित लोगों की सेवा में जुट गए। उनका यह कदम अपनी टीम को पुनः संगठित करने का आधार बना। लगभग तीन महीने बाद ही बिरसा ने फरवरी 1898 में डोम्बारी पहाड़ी पर मुंडा बिरादरी की एक बहुत बड़ी सभा को संबोधित किया और आंदोलन को नए सिरे से शुरू करने की रणनीति बनाई। उन्होने जनजातियों के अधिकारों, वन अधिकारों, मालगुजारी में छूट, जमीन वापसी जैसे मुद्दों को लेकर 1898 में एक बार फिर से लोगों को एकत्रित किया और नए आंदोलन का बिगुल फूंका। फिर क्या था जगह जगह अंग्रेजों के विरोध में बैठको का सिलसिला चल पड़ा। 

बिरसा रात दिन लोगों को एकट्ठा करने के लिए प्रयास करने लगे और सभाओं को संबोधित करते रहे। उनके इन प्रयासों से 24 दिसम्बर 1899 को रांची से लेकर सिंहभूमि जिले तक आंदोलन की आग फैल गयी और लोग सड़कों पर उतर आए। इस आंदोलन से अंग्रेज़ डर गए और बिरसा को पकड़ने के लिए जाल बिछाने लगे। बिरसा की गिरफ्तारी के लिए अंग्रेजों ने बहुत सारे इनाम घोषित किए। 

बिरसा ने सूदखोर महाजनों के ख़िलाफ़ भी जंग का ऐलान कर किया। ये महाजन, जिन्हें वे दिकू कहते थे, क़र्ज़ के बदले जनजातियों की ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेते थे। यह मात्र विद्रोह नहीं था यह जनजातीय अस्मिता, स्वायतत्ता और संस्कृति को बचाने के लिए कठिन संग्राम था। तीन सालों तक बिरसा ने अंग्रेजों की नाक में दम किये रखा। उन्होने आंदोलन की पुरानी रणनीति बदली, बहुत सारे नए ठिकाने बनाए। इसी दौरान बिरसा ने एक और नारा दिया “ऊल गुलान” जिसने मुंडा, संथाल, भील व अन्य जनजातियों को एक करने में मदद की और आंदोलन को एक नई ऊंचाई और ऊर्जा दी। 

संख्या और संसाधन कम होने की वजह से बिरसा ने छापामार लड़ाई का सहारा लिया। रांची और उसके आसपास के इलाकों में अंग्रेज़ पुलिस उनसे आतंकित थी। अंग्रेजों ने उन्हें पकड़वाने के लिए पांच सौ रुपये का इनाम रखा था जो उस समय बहुत बड़ी रकम थी। बिरसा मुंडा और अंग्रेजों के बीच अंतिम और निर्णायक लड़ाई वर्ष 1900 में रांची के पास डोमबाड़ी पहाड़ी पर हुई और हज़ारों की संख्या में मुंडा आदिवासी बिरसा के नेतृत्व में लड़े। पर तीर-कमान और भाले कब तक बंदूकों और तोपों का सामना करते? सैकड़ों लोगों को अङ्ग्रेज़ी सरकार द्वारा बेरहमी से मार दिया गया। 25 जनवरी, 1900 के स्टेट्समैन अखबार के मुताबिक इस लड़ाई में कुल 400 लोग मारे गए थे। अंग्रेज़ जीते तो सही पर बिरसा मुंडा हाथ नहीं आए लेकिन जहां बंदूकें और तोपें काम नहीं आईं वहां पांच सौ रुपये ने काम कर दिया। बिरसा की ही जाति के लोगों ने उन्हें पकड़वा दिया और इस तरह बिरसा अपनों से ही हार गए। 

3 फरवरी 1900 को सेंतरा के पश्चिम जंगल में बने शिविर से बिरसा को गिरफ्तार कर उन्हें तत्काल रांची कारागार में बंद कर दिया गया। बिरसा के साथ अन्य 482 आंदोलनकारियों को भी गिरफ्तार किया गया। उनके खिलाफ 15 आरोप दर्ज किए गए। शेष अन्य गिरफ्तार लोगों में सिर्फ 98 लोगों के खिलाफ आरोप सिध्द हो पाया। बिरसा के सबसे करीबी और विश्वासपात्र गया मुंडा और उनके पुत्र सानरे मुंडा को फांसी दी गई। गया मुंडा की पत्नी मांकी को दो वर्ष के सश्रम कारावास की सजा दी गई। मुकदमे की सुनवाई के शुरुआती दौर में उन्होंने जेल में भोजन करने के प्रति अनिच्छा जाहिर की। अदालत में तबियत खराब होने की वजह से जेल वापस भेज दिया गया। 1 जून, 1900 को जेल अस्पताल के चिकित्सक ने सूचना दी कि बिरसा को हैजा हो गया है और उनके जीवित रहने की संभावना नहीं है। 9 जून 1900 की सुबह सूचना दी गई कि बिरसा अब इस दुनिया में नहीं रहे। 

बिरसा की मौत से देश ने एक महान क्रांतिकारी, महान सेनानायक, एक सच्चा देश भक्त और एक उभरता नेता खो दिया जिसने अपने दम पर जनजाति समाज को इकठ्ठा किया था। बिरसा मुंडा को ऐसे ही क्रांतिवीर, क्रांतिसूर्य, भगवान, महामानव, या देवता का दर्जा नहीं मिला बल्कि उसके लिए उन्होंने अपने जीवन को समाज और देश पर कुर्बान कर दिया। उनका विराट व्यक्तित्व था जिसने अंग्रेजों को बता दिया था कि मिटटी की लड़ाई और उसके प्रति समर्पण की भावना क्या होती है। 

जिस उम्र में लोग जिंदगी जीना शुरू करते हैं उस पच्चीस साल की छोटी सी उम्र में बिरसा का जीवन दीप हमेशा हमेशा के लिए बुझ गया था लेकिन उनके ढाई दशक के छोटे से जीवन दीप से हजारों सदियों के लिए प्रकाश उपलब्ध हो चुका है जिसके उजाले नें जनजातीय लोग आगे का सफर तय कर सकेंगे और अपनी अस्मिता, अस्तित्व, इतिहास, भाषा, संस्कृति, सभ्यता की सुरक्षा तय कर सकेंगे।

आज भी जनजातियों के हितों की अनदेखी बदस्तूर जारी है और उनके जल, जंगल और जमीन की लड़ाई अधूरी है और आज फिर से भगवान बिरसा की जरूरत आन पड़ी है जो जन जातियों के सीने में विद्रोह की ज्वाला जला सके और उन्हें एकजुट कर सके। आज सभी को भगवान बिरसा के जीवन-संघर्ष से सीख लेने की आवश्यकता है और जनजातियों के ऊपर हो रहे अन्याय और अपराध के खिलाफ जंग छेड़नी है। 

भगवान बिरसा द्वारा धार्मिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक जागृति स्थापित करने के लिए शुरू किये गए अभूतपूर्व अभियान को आगे बढ़ाना और उनके द्वारा दिखाये गए रास्ते पर निडर होकर चलना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। भगवान बिरसा के जन्म दिन के अवसर पर समस्त जन जातियों को एक कविता समर्पित है-

हे बिरसा !
क्या मैं मर गया हूँ ?
अब मुझे कोइतूरों पर हो रहे अत्याचारों पर 
गुस्सा क्यूँ नहीं आता?
अब मुझे अपने जल जंगल और जमीन 
की फिक्र क्यूँ नहीं होती ?
अब माँ-बहनों के साथ जबर्दस्ती और 
बलात्कार पर मेरा खून क्यूँ नहीं खौलता?
अब अपने पुरखों और पेन ठानों 
के उजड़ने पर मुझे दुख क्यूँ नहीं होता?
अब अपने सगे संबंधी और परिवारों के 
पिटने पर दर्द क्यूँ नहीं होता?
अब अपने घर द्वार और ज़मीनों से 
विस्थापित होने पर छटपटाहट क्यूँ नहीं होती ?
अब मुझे अपनी भाषा, पुनेम, संस्कृति को 
खत्म करने वालों पर गुस्सा क्यूँ नहीं आता ?
अब मैं न्याय, समता, बंधुत्त्व और स्वतन्त्रता 
के लिए आवाज क्यूँ नहीं उठाता?
शायद अब मैं मुर्दा हो गया हूँ !
लगता है मैं मर गया हूँ
शायद मैं मर गया हूँ
मैं मर गया हूँ !!

आज के इस पावन दिवस पर महामानव, क्रांतिसूर्य भगवान बिरसा मुंडा को कोटि-कोटि नमन और सेवा जोहार तथा समस्त भारतवासियों को भगवान बिरसा मुंडा के जयंती पर बहुत बहुत हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएँ !!

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डॉ सूर्या बाली ‘सूरज धुर्वे’ पेशे से शहर भोपाल स्थित ‘एम्स’ में एक प्रोफेसर हैं. साथ ही, वह अंतराष्ट्रीय कोया पुनेमी चिंतनकार एवं जनजातीय मामलों के विशेषज्ञ हैं.

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One thought on “भारतीय इतिहास के क्रांतिसूर्य, महामानव बिरसा मुंडा

  1. Bahut dukh ker baat haik ki Hamar Adiwasi samaj bahut piche aahe hame ke jagruk karek birsha Abha lekhen aij tak pyda ni hoy hai ! Lekin Hamar Adiwasi samaj me apne app ke sudhar karop hole hame apan jal jamin jangal Hamar hekkkkkkke Jai johar Jai Adiwasi

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