Vidyasagar
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विद्यासागर (Vidyasagar)

Vidyasagarपिछले कुछ दिनों से हैदराबाद रेप मामले के विरोध में संसद से सड़क तक विरोध प्रदर्शन हुआ है. इस अपराधिक घटना ने मीडिया का ध्यान खींचा है. निर्भया काण्ड फिर से ताज़ा हो गया है. जहाँ निर्भया बलात्कार मामले में पूरी प्रिक्रिया को निभाया गया वहीँ हैदराबाद में हुई घटना में चारों आरोपियों को तुरंत सज़ा मल चुकी है. चारों कथित आरोपी पुलिस की गोली से दम तोड़ चुके हैं. ऐसे ‘न्याय’ की पैरवी जया बच्चन के साथ साथ साहित्य की दुनिया की कई हेसियत वाली महिलाएं भी इसे सही ठहरा चुकी हैं. लेकिन इसका विरोध भी जमकर हुआ है. इस पुलिसिया कार्यवाही की परछाई में कहा जा रहा है कि न्याय ने दम तोड़ा है. दूसरी और उन्नाव बलात्कार पीड़िता को आरोपियों ने जेल से ज़मानत मिलने के बाद जलाकर मार डाला. बहुजनों और कुछ और लोगों के इलावा हर और लगभग सन्नाटा है? फ़िल्मी सितारों से लेकर कथित हेसियत वाला तबका शायद कहीं और मसरूफ हो गया है. उन्नाव बलात्कार का शिकार लड़की के आरोपी, जो सभी ब्राह्मण तबके से हैं, उनपर ऐसे ही ‘न्याय’ को लेकर चुप्पी है जो हैदराबाद के बलात्कार केस पर पुलिस की पीठ ठोक रहे हैं. 

बहरहाल, हम इन सवालों के पहले इस सवाल पर आते हैं कि “क्या बलात्कारों का भारतीय संस्कृति से कोई लेना देना है?” 

विगत कई वर्षों से ऐसी कई जघन्य घटनाएं घटीं लेकिन न तो सरकार ने कुछ ठोस कदम उठाया है और ना ही समाज के बुनियादी मानसिकता में कोई बदलाव आया है. ये सवाल हज़ारों दफा पूछा जाता रहा है कि आखिर क्यों भारतीय समाज में दिन प्रतिदिन में इस तरह की घटनाएं बढ़ती जा रहीं हैं. आखिर क्यों भारतीय समाज खासकर तथाकथित हिन्दू समाज जिनका दर्शन इस बात पर जोर देता है कि “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता”, अर्थात जहां स्त्रियों का सम्मान होता है, वहां देवता निवास करते हैं. जिस रामराज्य की आदर्श कल्पना करके तथाकथित हिन्दू समाज गर्वान्वित महसूस करता है, उसी रामराज्य के बारे में रामचरितमानस में कहा गया है कि “ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी सकल ताड़ना के अधिकारी”. 

जिस समाज की बुनियादी संरचना हीं स्त्री विरोधी हो तो उस समाज में स्त्री भला कैसे सुरक्षित हो सकती है. दरअसल स्त्री विरोधी संस्कृति को सामान्यतः पितृसत्तात्मक विचारधारा से जोड़ कर देखा जाता है लेकिन पितृसत्तावाद की जड़ें ब्राह्मणवाद के भूमि पर हीं जन्म लेती है. ब्राह्मणवाद का सम्बन्ध किसी खास वर्ग या जाति समुदाय से नहीं है बल्कि अंबेडकर के अनुसार यह एक मानसिक अवस्था है. अंबेडकर लिखते हैं कि “ब्राह्मणवाद अपने लालच और स्वार्थी राजनीतिक लाभ के लिए धर्म को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करता है. यहीं ब्राह्मणवाद हिंदू धर्म का अभिन्न हिस्सा बन गया है और हजारों वर्षों तक शूद्रों, अति-शूद्रों और महिलाओं को नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर किया.” अंबेडकर अपनी पुस्तक ’रिवॉल्यूशन एंड काउंटर-रिवोल्यूशन इन एन्सिएंट इंडिया’ में लिखते हैं कि मनु ने स्त्री की सामाजिक स्थिति को शूद्रों के समकक्ष माना है. मनुस्मृति में शूद्रों की भांति, महिलाओं को भी वेदों के अध्ययन पर प्रतिबंध लगाया गया है. ब्राह्मणवाद और पितृसत्तावाद के रिश्ते शुरू से ही बड़े गहरे रहें हैं. पंडिता रमाबाई के अनुसार, उन्नीसवीं सदी के दौरान स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को समझने के लिए, पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना को समझना अनिवार्य है. भारतीय समाज में सदियों से विद्यमान पितृसत्तावाद की जड़ें पुरातन एवं रूढ़िवादी परम्पराओं में हैं, जिनका आधार ब्राह्मणवादी शास्त्र एवं उनके सिद्धांत हैं. ब्राह्मणवादी सिद्धांत इस बात पर बल देता है कि समाज में पुरुष का स्थान सर्वोच्च है और स्त्री मात्र एक दास की  भांति है जिसका कर्तव्य है कि वो पुरुष के हर आदेश का पालन करे.

मनुस्मृति में वर्णित एक श्लोक के अनुसार एक स्त्री को पुरुष के अधीन हीं सुरक्षित रखा जा सकता है. जब वह बालिका है तो उसकी रक्षा की जिम्मेदारी उसके पिता की है. विवाह के बाद वह अपने पति और उसके बाद पुत्र की जिम्मेदारी है कि उसकी सदैव रक्षा करे. सामाजिक संरचना की नीवं हीं इस बात पर आधारित है कि स्त्री शारीरिक एवं मानसिक रूप से पुरुषों की तुलना में कमजोर है और इसीलिए उसकी स्वतंत्रता पुरुष के विवेकाधीन है. हिन्दू परम्परा में जहाँ विवाह को एक मात्र ऐसा संस्कार माना गया है जिसमे स्त्री को सिर्फ एकल विवाह का अधिकारी माना गया है तो दूसरी तरफ पुरुष को एक से अधिक विवाह का अधिकारी माना गया है. ब्राह्मणवादी शास्त्रीय विचारों के अनुसार एक स्त्री सिर्फ विवाह के माध्यम से हीं आध्यात्मिक प्रतिभा को प्राप्त कर सकती है और जो स्त्री इस पवित्र संस्कार को प्राप्त किये बिना मर जाती है तो वो एक बुरी आत्मा के रूप में बदल जाती है. 

हिन्दू समाज में विद्यमान शुद्धता या पवित्रता का तत्व ब्राह्मणवादी परम्पराओं का ही हिस्सा है. शुद्धता और पवित्रता का यह विचार ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था में भी अंतर्निहित है, जिसमें तथाकथित ‘शुद्ध’ या उच्च-जाति के लोगों को ‘अशुद्ध’ या निम्न जाति के लोगों के साथ बातचीत करने या किसी तरह का सम्बन्ध बनाने से रोका जाता है. 

हिन्दू परम्परा में मासिक धर्म वाली उच्च जाति की स्त्री को ‘अशुद्ध’ माना जाता है और उन्हें सामान्यतः उस दौरान रसोई और मंदिरों में प्रवेश करने की अनुमति नहीं होती है. इस तरह के ब्राह्मणवादी विचारों ने न सिर्फ सामाजिक मनोवृतियों को संकुचित किया है बल्कि कानूनी और न्यायिक प्रक्रियाओं को भी बुरी तरह प्रभावित किया है. उदाहरण के तौर पर दलित महिला भंवरी देवी के बलात्कार के मामले में न्यायालय का फैसला ब्राह्मणवादी हिंदू धारणाओं पर आधारित था. इस फैसले में, न्यायालय ने तर्क दिया कि चूंकि कथित बलात्कारी सवर्ण थे और क्योंकि “एक उच्च-जाति का पुरुष एक निचली जाति की स्त्री का बलात्कार करके खुद को अपवित्र नहीं कर सकता है.” इस तरह की मनोवृति आखिर किस तरह के समाज को जन्म देगी? 

आधुनिक भारतीय समाज जो तथाकथित प्रगतिशील होने का दम्भ भरता है लेकिन वास्तविकता यह है कि यह समाज आज भी उन्हीं ब्राह्मणवादी परम्पराओं को आधुनिकता का मुखौटा पहना रखा है. आज भी एक स्त्री का जीवन घर और परिवार के अंदर सिमटा हुआ है और कुछ स्त्रियाँ जो इन पितृसत्तामक बंदिशों को तोड़कर उनकी बराबरी करने का साहस करती हैं तो उन्हें रेप, शारीरिक एवं मानसिक प्रताड़ना और हिंसा का शिकार होना पड़ता है. आज भी ज्यादातर परिवारों में आयु और जेंडर का निर्धारण, परिवार का वरिष्ठतम पुरुष सदस्य के द्वारा होता है. भारतीय समाज में परिवार की संरचना इस प्रकार है कि उसमे एक स्त्री को इस बात का अहसास हरदम कराया जाता है कि वो एक स्त्री है.  प्रसिद्ध नारीवादी लेखिका सिमोन डी बेवॉयर, ‘द सेकेंड सेक्स’ में लिखती हैं कि “औरतें पैदा नहीं होती हैं, बल्कि औरतें बनाई जाती हैं.” नारीवादी चिंतन के भारतीय परम्परा में पश्चिम के अवधारणाओं की हीं झलक दिखती है लेकिन भारतीय समाज के सम्बन्ध में स्त्रियों की स्थिति पश्चिमी समाजों की तुलना में बहुत अलग है. पश्चिमी राष्ट्रों में उदारवाद के जन्म ने स्वतंत्रता और समानता के बहस को स्त्री अधिकारों पर केंद्रित रखा. उपयोगितावादी राजनीतिक विचारक जे एस मिल का मानना है कि स्त्रियों की अधीनता, “न केवल अपने आप में गलत है” बल्कि “मानव सुधार के लिए प्रमुख बाधा है.” मिल मानते हैं कि स्त्रियों को पुरुषों के समान अवसरों से वंचित करते हुए, समाज न केवल आधी आबादी के विकास को बाधित करता है, बल्कि खुद को उनकी प्रतिभा का लाभ लेने से इनकार करता है. मिल के अनुसार हमारे समाज में प्रचलित रीति-रिवाज और कानून, समाज के सबसे ताकतवर समुदाय के रीति-रिवाज़ और कानून को ही दर्शातें हैं और समाज में पुरुष को ही ताकतवर और बेहतर माना गया है. परिणामतः समाज के सभी नियम कानूनों में पुरुषवादी तत्व जो पितृसत्तावाद का हीं हिस्सा है हरदम प्रभावी रूप से विद्यमान रहतें है. 

भारत में नारीवादी चिंतन परम्परा ने अंबेडकर के योगदान को उतना अधिक महत्व नहीं दिया जितना देना चाहिए था. स्वतंत्र भारत में अंबेडकर प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने हिन्दू कोड बिल की पेशकश की और जब इसे मूर्त रूप देने में तात्कालिक विधायिका नाकामयाब रही तो अंबेडकर ने मंत्रिमंडल से अपना त्यागपत्र दे दिया. मंत्रिमंडल से अपने इस्तीफे को पेश करते हुए अम्बेडकर ने माना कि वे  कभी-कभी मंत्रिमंडल और सरकार के कामकाज से असहज हुए, लेकिन इससे पहले उन्होंने कभी इस्तीफा नहीं दिया क्योंकि वे चाहते थे कि हिंदू कोड बिल कानून बन सके और भारतीय समाज खासकर हिन्दू समाज में विद्यमान असमानता को ख़त्म किया जा सके, और उन्होंने हिंदू पर्सनल लॉ को सहिंताबद्ध करके स्त्रियों को समान नागरिक के रूप में कानूनी मान्यता प्रदान की. उन्होंने स्त्रियों को तलाक का अधिकार, विरासत का अधिकार प्रदान किया और उन्होंने अंतर-जातीय विवाह को कानूनी मान्यता प्रदान की.

भारत के सामाजिक सन्दर्भ में इस बात को भले हीं एक बड़ा वर्ग मानने से इनकार कर दे कि रेप जैसी हिंसा को जातिगत रंग देना या इसे जाति के चश्में से देखना सही नहीं है लेकिन कड़वी सच्चाई यही है कि रेप जैसी हिंसा का भुक्तभोगी हमेशा वंचित और खासकर दलित वर्ग रहा है. सदियों से चली आ रही जातिगत भेदभाव के इस षड्यंत्र में शोषित हमेशा दलित और वंचित वर्ग ही रहा है और शोषक हमेशा उच्च जाति के लोग रहें हैं. आधुनिक भारत या मॉडर्न इंडिया की तस्वीर और ज्यादा भयानक है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के 2017 के वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार 2016 में उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जातियों के खिलाफ अत्याचार के मामलों की सबसे अधिक संख्या (10,426 मामले) दर्ज की गई जो की कुल मामलों के 24.6% था और बिहार में 14.0% (5,701 मामले) मामले दर्ज किये गए और राजस्थान में 12.6% (5,134 मामले). इन आंकड़ों के विश्लेषण से ये भी  पता चला है कि इन मामलों में 7.7% (3,172 मामले) मामले अनुसूचित जाति के स्त्रियों के खिलाफ हिंसा का है और इनमें से  6.2% (2,541 मामले) में स्त्री के साथ बलात्कार की घटना हुई थी. अनुसूचित जनजातियों के मामले में 974 रेप की घटनाएं हुईं जो उनके खिलाफ हुए कुल अपराधों का 14.8% है और 12.7% (835 मामले) ऐसी घटनाएं दर्ज की गईं जिनमे अनुसूचित जनजाति के स्त्रियों के साथ अन्य तरह की हिंसा हुई थी.

सदियों से दासता और प्रताड़ना का शिकार रहा दलित और वंचित वर्ग भले आर्थिक और सामाजिक रूप से निम्नतम श्रेणी पर हो लेकिन इन वर्गों में स्त्रियों को शुरू से स्वतंत्रता और समानता दी गयी है. आज भी आदिवासी समुदायों में पारिवारिक संरचना मातृसत्तामक आधारित होती है. अंबेडकर ने भारतीय संविधान की रचना कर सबको समानता और स्वतंत्रता का मूलभूत अधिकार प्रदान किया जो हर व्यक्ति को धर्म, भाषा, क्षेत्र, लिंग आदि के आधार पर अलग न मान कर, सबको एक नागरिक होने का दर्जा प्रदान करता है. भारत में उभरते रेप संस्कृति को ख़त्म करने के लिए ब्राह्मणवादी जाति संरचना को समूल नष्ट करना होगा. क्योंकि जबतक एक खास जाति या समुदाय को सर्वश्रेष्ठता का दम्भ रहेगा तबतक वो अपने से कमजोर और वंचित वर्गों का शोषण करता रहेगा.

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संदर्भ 
Ambedkar, Bhimrao Ramji. Riddles in Hinduism. 2008.
Ambedkar, Bhimrao Ramji. “Revolution and Counter Revolution in India.” Mumbai, Government of Maharashtra (2008).
Ambedkar, Bhimrao Ramji. Annihilation of caste: The annotated critical edition. Verso Books, 2014.
Bhatnagar, Gaurav Vivek. Data on SC/ST Atrocities Act Points to Weak Implementation, Not ‘Misuse’. Published by The Wire, March22, 2018.
Kosambi, Meera. “Women, emancipation and equality: Pandita Ramabai’s contribution to women’s cause.” Economic and political weekly (1988): WS38-WS49.
Lakshminarayan, Bhamini. Caste, Patriarchy, and their Annihilation. Published by Feminism in India (FII), April 25, 2016.
 
Mill, John Stuart. The subjection of women. Vol. 1. Transaction Publishers, 1869.
Sarasvati, Ramabai. The high-caste Hindu woman. Press of the JB Rodgers printing Company, 1887.
Waghule, Pradnya. Why Ambedkar Matters to the women’s rights movement Published by Feminism in India (FII), November 16, 2017.

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विद्यासागर दिल्ली विश्वविद्यालय में एक शोधार्थी हैं.

 

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