
(मोहम्मद जावेद अलिग) Mohammad Javed Alig
देश के गृहमंत्री अमित शाह ने सोमवार को नागरिकता संशोधन अधिनियम को लोकसभा में प्रस्तुत किया जिसे लोकसभा में पूर्ण बहुमत (311) मत के साथ उस अधिनियम को संशोधित करने की अनुमति दी गई है. इसके बाद इस बिल को राज्यसभा से भी मंजूरी मिल गयी है. इस अधिनियम को लाने की वजह जो बताई जा रही है वो किसी भी स्तर पर उचित नहीं है.
हमारे ग्रहमंत्री का तर्क यह रहा कि 1947 में देश का बँटवारा धर्म के आधार पर हुआ था, और जब हम इस अधिनियम को धर्म के आधार पर लागू कर रहे हैं तो इन लोगों के पेट मे दर्द क्यों हो रहा है? दरअसल गृहमंत्री वे जानना नहीं चाहते ये दर्द इसलिए हो रहा है क्योंकि यह संविधान के ख़िलाफ़ है मानवता के ख़िलाफ़ है सिर्फ एक समुदाय को टारगेट किया जा रहा है.
सांसद में सभा को संबोधित करते हुए देश का ग्रहमंत्री झूठ बोलता है और वहाँ बैठे तमाम लोग और स्पीकर चुपचाप तालियां बजाकर इस झूठ का साथ देते हैं, जो निंदनीय है. झूठ ये बोला गया कि पाकिस्तान और बांग्लादेश की अल्पसंख्यक जनसंख्या की प्रतिशत में गिरावट जैसे, 1947 में बांग्लादेश में 22% अल्पसंख्यक लोग रहते थे, जो 2011 में सिर्फ 7.8% बचे तब बाकी के लोग कहाँ गए?
सबसे पहले मैं यह बात साफ कर दूँ कि बांग्लादेश 1947 में नहीं बल्कि 1971 में बना था इससे पहले इसे पूर्वी पाकिस्तान कहा जाता था. अब बात करते हैं अल्पसंख्यक जनसंख्या में इतनी गिरावट कैसे आई तो, बुद्धिजीवियों ! इतना तो आप लोग जानते होंगे कि जब जनसंख्या बढ़ती है तब प्रतिशत में भी गिरावट आती है. बांग्लादेश की आबादी 1947 में 4,00,00,000 (4 करोड़) थी जिसमें 88 लाख लोग अल्पसंख्यक थे. जब इसका प्रतिशत निकलेंगे तब 22% आएगा.
2011 में बांग्लादेश की आबादी 4 करोड़ से बढ़कर 16 करोड़ के आसपास आ गई, और अल्पसंख्यकों की संख्या 88 लाख से बढ़कर 1,28,70,000 (1.30 करोड़) के आसपास पहुँच गई और जब हम इसका प्रतिशत निकालेंगे तो यह 7.8% आएगा.
भारतीय संस्कृति कहती है कि वासुदेव कुटुम्बकम यानी पूरी दुनिया मेरा परिवार है. लेकिन देश का गृह-मंत्री एक ऐसा विधेयक लेकर आता है कि जो पीड़ित और असहाय लोगों में भी धर्म के नाम पर भेद करता है. सवाल यह है कि नए क़ानून के वजूद में आने से जैन, बोद्ध, पारसी, सिंधी, हिंदू, सिख, ईसाई, को तो नागरिकता मिल जाएगी लेकिन म्यांमार, मालदीव, श्रीलंका से आए शरणार्थियों का क्या किया जाएगा?
यह नागरिकता संशोधन अधिनियम सिर्फ एक समुदाय को सताने के लिए लाया जा रहा है. CAB के ज़रिए पूरे देश से एक पूरी कौम को आबादी से निकालने की कवायद शुरू करदी गई है. मुसलमानों को खुले-आम गालियाँ दी गईं पर वह शाँतं रहा. गाय के नाम पर मोब-लिंचिग की गई, पर वह शांत रहा. मुसलमान अयोध्या और कश्मीर पर भी शांत रहा. मुसलमानों द्वारा मुसलमानों से शांति बनाए रखने की अपील की गई. लेकिन वह अपने सहनशील होने का इम्तिहान आखिर कब तक देता रहेगा? यह सहनशीलता उस बात का संकेत रही है कि वह अमन और भारत की न्याय और संसदीय प्रणाली पर भरोसा करता आया है. लेकिन उसे इसके बदले में वापिस क्या मिल रहा है… बेगानगी, तिरस्कार, मार!
जमूहरियत की मर्यादा किसी भी भेदभाव के खिलाफ संघर्ष करने की ज़मीन देती है. यही ज़मूहरियत का एक खूबसूरत गुण भी है. लेकिन अब इसकी भी गुंजाईश भाजपा छीन ले रहा है. ऐसे में जवाब एक बड़ा जनांदोलन ही हो सकता है. और इसके बारे में हरेक व्यक्ति को सोचना पड़ेगा. JNU के छात्र अगर फ़ीस में बढ़ौतरी को लेकर सड़कों पर आँदोलन कर सकते हैं, यहाँ तो मामला वतन तक को छीन लेने का है जिसकी तैयारी पुरज़ोर चल रही!
माननीय राम मनोहर लोहिया कहते थे, अगर सड़कें लोगों से सूनी हो जाएँ (यानी यदि सरकार की गलत नीतियों का विरोध लोगों द्वारा सड़क पर उतर कर न हो) तो संसद आवारा हो जाती है. अकबरुद्दीन ओवैसी शायद इसी बात को, आज के सन्दर्भ में, आगे बढ़ाकर कह रहे हैं- ऐ, मुसलमानों ! तुम्हारी तबाही और बर्बादी के नापाक़ मंसूबे कानून की शक्ल में और कहीं नहीं बल्कि देश की संसद में बनाए जाते हैं. इसलिए मुसलमानों तुमको भारी तादाद में सियासत में हिस्सा लेना पड़ेगा.
लेकिन यहाँ तो सियासत में हिस्सेदारी के रास्ते भी बंद किये जा रहे हैं. हर न्यायपसंद व्यक्ति के भीतर बेचैनी इस कद्र तारी है कि वह अपनी आँखों के सामने जम्हूरियत के घुटते हुए गले को देख रहा है, उसकी चीख सुन रहा है, संघर्ष की आवाज़ों को क़त्ल होते देख रहा है. सहमा हुआ है. दर्द में मुब्तिला है.
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मोहम्मद जावेद अलिग एक शौधार्थी व् सवतंत्र पत्रकार हैं.