मनीष कुमार चांद (Manish Kumar Chand)
आजकल अशरफ समाज के पढ़े-लिखे लड़के धार्मिक सुचिता और कट्टरता की बात क्यों करते हैं? दरअसल, वे चाहते हैं कि समाज में अलगाव पैदा हो, जिससे गरीब और हैसियत विहीन लोग समाजिक अलगाव और अत्याचार के शिकार हों.
इससे इनको दो फायदे है –
पहला- अजलाफ, यानि छोटी जाति और अरजाल, यानि जाति व्यवस्था में सबसे नीचे वाले लोग, जब समाज से कट जायेंगे तो उनकी आर्थिक स्थिति डगमगा जायेगी तब इनके धर्म के वर्चस्व की आड़ में खुद को मुसलमान का नेता बनने में सहूलियत होगी.
दुसरे- मुसलमान का नेता बनना आसान है क्योंकि इनके पास ऐसा कोई दर्शन और कार्यक्रम नहीं कि गैर मुसलमान की राजनीति कर सकें.
इसमें हानि यह है कि केवल मुस्लिम-मुस्लिम कहने से इनका अशरफिया वर्चस्व तो कायम रहता है, लेकिन पसमांदा समाज को नुकसान हो जाता है. वजह यह कि ये अशरफ अपने धार्मिक-आर्थिक-राजनितिक वर्चस्व में पासमांदा समाज को तो कुछ देने से रहे। उल्टे अपनी उटपटांग हरकतों से पसमांदा समाज को गैर-मुस्लिम से अलग-थलग करने का अभियान चलाते हैं. खुद भाजपा के प्रवक्ता बनने में इनको कोई उज्र (आपत्ति) नहीं.
इर्रफान से इनकी नफरत को इसी पसमंजर (पृष्ठभूमि) में देखना चाहिये.
इर्रफान (irrfan) ने अपना नाम बदला. उन्होंने कहा कि मुझे एक r के बदले दो r पसंद है, क्योंकि इसके उच्चारण में आपको जीभ टेढ़ी करनी पड़ती है.
उन्होंने अपने नाम के पीछे से खान हटा लिया यह कहते हुए कि मैं चाहता हूं कि मुझे मेरी अदाकारी की वजह से जाना जाय! मैं खानदान का विज्ञापन करने नहीं बैठा!!
कुर्बानी के विषय में उन्होंने कहा- कुर्बानी तो अपने अजीज़ को कुर्बान करने के लिये, अपने हिस्से का बंटवारा करने के लिये बनाया गया है. यह कौन सी बात हो गई कि आप बाजार से बकरा खरीद लेते हैं और उसकी कुर्बानी करते हैं. इससे आपको कौन -सा सबाब मिलेगा?
सवाल तो सही है. अब आपके पास जवाब नहीं तो गाली दीजिये. तरह -तरह के झूठ गढ़ इसको गलत ठहराइये. लेकिन सवाल तो जस-का-तस है. उसका उत्तर कहाँ है आपके पास?
ख्यालों का रोजा- रोजा में लोग दिनभर लोग उपवास रह शाम को छककर खाते हैं. इरफान ने कहा कि रोजा में लोगों को अपना आत्मविश्लेषण भी करना चाहिये, केवल रोजा रखने से कुछ नहीं होता. रोजा खुद को पवित्र रखने के लिये बनाया गया है इसमें तन के आलावा मन भी शुद्ध और पवित्र होना चाहिये. सवाल मे क्या गलत है? यह विचार कैसे गैर-इस्लामिक हो गया?
अब अली शोहराब जैसा कुंठित आदमी रोजा में भी दूसरे को गालियां देते फिरे तो वह पवित्र कैसे हो गया?
वे कहते हैं- ऐसे ही मुस्लिम हैं जिन्होंने मुहर्रम का मजाक बना रखा है. यह दिन मातम मनाने के लिये बनाया गया. लेकिन मुसलमान करते क्या हैं? ताजिया निकालकर उत्सव मनाते हैं. (इसे ऐसे भी समझिये जैसे मुहर्रम के दिन नये कपड़े सिलवायेंगे, जलेबी और मिठाई खायेंगे, मीट-मुर्गा खायेंगे) यह कौन सा शोक हुआ?
यहाँ तो उन्होंने कट्टर मुसलमान वाली बात कर दी है. फिर क्यों नाराज़ हो भाई?
सवाल धार्मिकता से नाराजगी का नहीं धर्म के नाम पर जिन चीजों का आपने वर्चस्व स्थापित किया है, उसके ध्वस्त होने का है. इर्रफान ने आपकी hypocrisy यानि ढोंग की पुंगी बजा दी है.
आप बलबलाइये, चाहे अलबलाइये. वह शख्स तो चला गया सवाल छोड़कर. अब आप उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते.
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मनीष कुमार चांद स्वतंत्र सामाजिक राजनीतिक चिंतक हैं. आरा (बिहार) में रहते हैं.
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