लेनिन मौदूदी (Lenin Maududi)
मेरा भाई अल्तमश मुझे आज कल बहुत से नए शायरों से रूबरू करा रहा है. यह शायर इतने प्रगतिशील और क्रांतिकारी हैं कि ये “ख़ुदा की ज़ात” पर भी शेर लिखने से नहीं डरते. लेकिन इन में से किसी का भी शेर ‘जाति व्यवस्था’ के ख़िलाफ़ मैंने नहीं पढ़ा है. ऐसा कैसे मुमकिन है कि वह दुनिया-जहान के विषयों पर लिख रहे हैं पर “जाति” उनसे छूट हो जाती रही है. यह शायर और कवि जीवन के इस पहलू पर वैसे ही प्रगतिशील क्यों नहीं है? शायरों, कवियों को संवेदनशील माना जाता है. कहा जाता है कि जो काम समाजशास्त्री अपने सिद्धांत दे कर या अर्थशास्त्री अपने आँकड़े दे कर नहीं कर सकता, वह काम लेखक-शायर अपने गीत, ग़ज़लों और कहानियों से कर जाते हैं. हम कभी कोई आकड़ें पढ़ कर दुःखी नहीं होते लेकिन किसी संवेदशील मुद्दे पर कविता-ग़ज़ल या कहानी पढ़ कर रो देते हैं.
जयप्रकाश कर्दम अपने लेख ‘समकालीन हिंदी कविता और दलित चेतना’ में लिखते हैं, ‘साहित्य संवेदना का क्षेत्र है’, ‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से निकला होगा गान’ सुमित्रानंदन पंत की कविता के ये शब्द संवेदना की ओर ही संकेत करते हैं. इस कविता पंक्ति के अनुसार कविता आह या दर्द से निकलती है. इससे यह आशय या अर्थ निकलता है कि अच्छी या सार्थक कविता वही होगी जो आहत मन या पीड़ा के गर्भ से निकलेगी और वही कविता जीवंत होगी. दर्द की अनुभूति जितनी गहरी और तीव्र होगी कविता उतनी ही अच्छी या उत्कृष्ट होगी. कविता के संदर्भ में आह मुहावरा नहीं सत्य है और दलित कविता पर एकदम सटीक बैठता है. दलित कविता दर्द से निकलती है, क्योंकि सदियों से दलितों ने दर्द ही सहा है, दर्द का ही अनुभव किया है. दर्द के अलावा उन्हें कुछ नहीं मिला है. दलित कविता में दर्द की अभिव्यक्ति प्रमुख है. दर्द के रूप में वस्तुतः दलित कवि की संवेदना ही अभिव्यक्त होती है जो पाठक को भी संवेदनशील बनाती है.
अगर वाकई यह अशराफ़ शायर-लेखक संवेदनशील हैं तो ऐसा कैसे है कि गुजरात-यूपी से ले कर देश भर में दलितों को पीटा जाता है और यह शायर पारलौकिकता पर कविताएं लिख रहे हैं! कुरैशी समाज पर सरकार ज़ुल्म करती है, उनके रोज़गार को समाप्त किया जा रहा है और यह शायर हज़रात महबूब की कमर पर शेर लिख रहे हैं. राईन समाज के सब्ज़ी और फलों की दुकानों को कोरोना के नाम पर लगाने नहीं दिया जाता है. बुनकरों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है और यह मोहब्बत के इज़हार के लिए नए-नए ज़ाविये तलाश कर रहे हैं.
ऐसे में यही सवाल उठता है कि ऐसा क्यों है? इसका साधारण सा जवाब यह है कि अशराफ़ (सवर्ण) शायर जिस समाज से आते हैं उस समाज की समस्या, पसमांदा (पिछड़े) समाज की समस्या से बिलकुल अलग हैं. यह अशराफ़ शायर निहायत ही धूर्त लोग हैं जो सब कुछ जानते हुए भी चुप हैं. चूंकि इन लोगों के पास तमाम संसाधन हैं और यही तय करते हैं कि ग़ज़ल के मौज़ूअ (मुद्दे) क्या हों! यही वजह है कि पसमांदा समाज से आने वाले शायर भी उन्हीं मुद्दों पर शेर कहते हैं जिन पर अशराफ़ शायर अपनी ग़ज़लें कह रहे हैं. एक पसमांदा शायर अपने लूम, साड़ी, कपड़े, बानी,खेती-किसानी, अपने मवेशी, कपड़े और अपने समाज की परेशानी वगैरह पर शेर न लिख कर अशराफ़ों की तरह औरतों की कमर उनकी ज़ुल्फों पर शायरी करता नज़र आ जाएगा. आज कल इन अशराफ़ शोअरा ने एक नया ट्रेंड चलाया है कि पसमांदा शायरों को उनके समाज की वास्तविक समस्याओं पर बात नहीं करने देंगे बल्कि उन्हें परलोक, स्वर्ग-नर्क, ईश्वर आदि में उलझाए रखेंगे. यह ‘बेवकूफ़’ पसमांदा शायर और लेखक इसे ही अपनी कामयाबी मानेंगे कि ये भी अपने आक़ाओं की तरह उन्हीं के मुद्दों पर शायरी कर रहे हैं. कितना सही लिखते हैं कांचा इलैया कि “ब्राह्मणों (अशराफ़ों) द्वारा उगाए हुए यह बगीचे (साहित्य, कला इत्यादि) भी इतने स्वार्थी होते हैं कि यह कुछ ऐसा पैदा नहीं करते जो मनुष्य समाज के काम आए.”
अगर यह कुछ लिखते हैं तो समस्याओं को रोमांटिसाइज़ कर देते हैं. कितना ख़तरनाक होता है समस्याओं को रोमांटिसाइज़ करना. सब कुछ अच्छा-अच्छा दिखाइए, ग़रीब होने को महिमामंडित करिए जैसे बॉलीवुड करता आया है. ऐसा कर के आप न सिर्फ़ असल मुद्दों को दबाते हैं बल्कि उस जाति में पनपने वाले विद्रोह को भी दबा देते हैं. जैसे प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि, “भंगी का काम करने से आध्यात्मिक आनन्द की प्राप्ति होती है” [कर्मयोगी, पेज 101] परन्तु मोदी जी ख़ुद इस आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति नहीं करना चाहेंगे. वहीं गांधीजी भी वर्ण-व्यवस्था को बनाए रखने के लिए कहते हैं कि, “भंगी का काम पुण्य का काम है. इससे अगला जन्म सुधरता है.” गांधी मान कर चल रहे थे कि उनका पुण्य काफ़ी है अगला जन्म सुधारने के लिए तभी तो उन्होंने सार्वजनिक रूप से भंगी का काम नहीं किया. दलित कवि एन. आर. सागर के शब्दों में उनसे क्या नहीं पूछना चाहिए:-
यदि- तुम पर डाल दिया जाए
कर्तव्यों का भार
निषेध-प्रतिबन्धों का अम्बार
अवश हो जिनसे
करनी पड़े दासता-बेगार
दिन-रात की हाड़-तोड़ मेहनत
और तब बदले में
खाने को दिया जाए बासी जूठन
या दो मुट्ठी सड़ा-गला अनाज
तन ढकने को पुराने बसन-उतरन
ऊपर से डाँट-फटकार
भद्दी-अश्लील गालियों की बौछार
लात-घूँसों-डंडों की मार
तब तुम्हें कैसा लगेगा ?
आज बुनकरों की हालत किसी से छुपी नहीं है. कपड़ा बुनने वाले बुनकर खुद नंगे बदन काम करते हुए दो जून की रोटी को तरस रहे हैं. गंदगी और बीमारियों के साथ तालेमल बिठाते हुए काम कर रहे इन लोगों ने शायद यह मान लिया है कि उनके हिस्से में इससे ज़्यादा कुछ भी नहीं. न तो न्यूनतम मज़दूरी मिलती है और न ही ‘लोककल्याणकारी राज्य’ की सुविधाएँ. हर रोज़ रोज़ी-रोटी में हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद यह सोच ही कहाँ पनपती है कि बच्चा स्कूल जाए! अगर स्कूल भेजें भी तो बस वहीं तक जहाँ तक सरकारी स्कूल है. बच्चे, बूढ़े, महिलाएं सब मिलकर काम करते हैं तो मुश्किल से गुज़र हो पाता है. घर में किसी के बीमार होने या बेटी की शादी जैसी कुछ भी बड़ी समस्या आई नहीं कि इनकी सारी बचत एक झटके में हवा हो जाती है और फिर वह उसी दरिद्रता के दलदल में चले जाते हैं जहाँ से बड़ी मुश्किल से निकले होते हैं. मगर इन तमाम बातों से गुलज़ार साहब को कोई दिक्कत नहीं है. वह जुलाहों की इन समस्याओं पर कभी ग़ज़ल नहीं लिखेंगे क्यों कि इन समस्याओं पर ग़ज़ल लिखना ग़ज़ल के मेयार में कभी शामिल ही नहीं किया गया. गुलज़ार साहब (सम्पूर्ण सिंह कालरा) लिखेंगे कि “मुझ को भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे!” गुलज़ार साहब अगर जुलाहा का पेशा अपनाना चाहते हैं तो उसमें क्या दिक्कत है! उनको बस घर-जायदाद दान कर के घर मे हैण्ड लूम लगवाना है, फिर सारी तरक़ीब समझ मे आ जाएगी मगर गुलज़ार साहब जुलाहा नहीं बनेंगे. पसमांदा समाज की समस्याओं को रोमांटिसाईज़ कर के बेचा तो जा सकता है मगर उसे अपनाया नहीं जा सकता. जो इंसान जाति का दंश झेलता है वह ‘ओम प्रकाश वाल्मीकि’ की तरह कविताएं लिखेगा:-
‘जाति’ आदिम सभ्यता का
नुकीला औज़ार है
जो सड़क चलते आदमी को
कर देता है छलनी
एक तुम हो
जो अभी तक इस ‘मादरचोद’ जाति से चिपके हो
न जाने किस हरामज़ादे ने
तुम्हारे गले में
डाल दिया है जाति का फ़न्दा
जो न तुम्हें जीने देता है
न हमें !
यही हाल हिंदी फिल्मों का भी रहा है. हिंदी फिल्मों में मुस्लिम पहचान दरसल अशराफ़ मुसलमानों की पहचान है. मुग़ले आज़म, महबूब की मेंहदी, पाकीज़ा, उमराव जान, डेढ़ इश्क़िया जैसी फिल्में इस श्रेणी में रख सकते हैं जिसका ज़्यादातर मुसलमानों यानी पसमांदा मुसलमानों से कोई तआल्लुक़ नहीं है. इसमें अशराफ़ जातियों के तौर-तरीके और भाषा को ‘मुस्लिम संस्कृति’ के रूप में दिखाया गया हैं. इन फ़िल्मों में जिस भाषा और शान-ओ-शौकत को दिखाया गया है वह असल में 85% मुस्लिम (पसमांदा) समाज के लिए एलियन थीं. दरसल इन फ़िल्मों ने पसमांदा समाज की रोटी-रोज़ी की समस्या को सिरे से ख़ारिज कर दिया. आप हिंदी फिल्मों में मुस्लिम पहचान के किरदारों के नाम ही देख लें कि कितने प्रतिशत किरदार अंसारी, राईन, मंसूरी, धोबी आदि नाम के हैं और कितने शैख़-सय्यद-मिर्ज़ा-ख़ान-पठान नाम से हैं! अशराफ़ों ने जो ट्रेंड सेट किया उसी पर आज भी हमारे पसमांदा लेखक और शायर अपनी कहानियां और गज़लें लिखते हैं. अगर किसी अशराफ़ शायर या लेखक ने पसमांदा समस्या पर लिखा भी है तो उसने उस समस्या को रोमांटिसाइज़ कर दिया है. सिर्फ़ ग़ज़लों में ही नहीं उर्दू अफफ़सानों में भी पसमांदा समाज का चित्रण बहुत ही भद्दे रूप में किया गया है. मिर्ज़ा हादी ‘रुस्वा’ के उपन्यास ‘उमराव जान अदा’ में एक जगह सैयदों की शान को ऐसे बयान किया गया है जैसे मनुस्मृति में ब्राह्मणों की शान का बखान किया जाता है. वाकया यूँ है कि नवाब छ्ब्बन साहब का एक दोस्त था ‘हुस्नु’ जो छाब्बन साहब से बईमानी करता है पर छ्ब्बन साहब की तवाएफ़ (नावेल में रंडी लिखा है) बिस्मिल्लाह को पता चल जाता है. इस पर बिस्मिल्लाह कहती है…
बिस्मिल्लाह :- कहिये तो नवाब हुस्नु को कोतवाली भिजवा दूँ?
नवाब (छ्ब्बन) :- नहीं , मेरे सर की क़सम! ऐसा न करना, वह सैयद है.
बिस्मिल्लाह :- सैयद काहे का! उस के बाप का तो पता नहीं.
नवाब :- ख़ैर, वो तो अपने मुँह से कहता है.
मतलब कोई अपने मुंह से भी ख़ुद को सैयद कहे तब भी उसका अदब करना चाहिए. साहित्य-ग़ज़लों को इन्होंने अपने समाज, अपने दर्शनिक संसार को गढ़ने के रूप में इस्तेमाल किया. इन्होंने पसमांदा समाज के दिमाग़ पर क़ब्ज़ा कर लिया ताकि यह बस वही देखें जो अशराफ़ देख रहे हैं, वही सोचें जो अशराफ़ सोच रहे हैं. जैसा कि कांचा इलैया लिखते हैं कि, “आर्य इतने रंगभेदी-नस्लवादी थे कि इन्होंने सुंदर काले लोगों को भद्दे-राक्षस के रूप में चित्रित किया. उन्होंने भैंस और गाय में भेद भी रंग के आधार पर किया क्योंकि गुण के आधार पर भैंस ज़्यादा लाभदायक होती है. रंग के आधार पर भैंस को असुरी पशु कहा, यमराज की सवारी. यह महज़ इत्तेफ़ाक़ नहीं है कि उर्दू गज़लों में भी इसी तरह रंगभेद नज़र आता है, ग़ज़लों में महबूबायें चांद जैसी गोरी हुआ करती हैं.
उर्दू अदब में एक अशराफ़ लेखक के लिए 3 प्रकार की औरतें उसकी ज़िन्दगी में आती हैं, पहली तवायफ़, दूसरी नौकरानी और तीसरी उसकी बीवी. हम यह देखते हैं कि तवायफ़ और अपनी बीवी यानी अपने घर की संस्कृति और अपने वर्ग की चेतना पर तो इन लोगों ने ख़ूब लिखा है पर बात जब नौकरानियों की होती है तो इनकी क़लम शांत हो जाती है. समाजशास्त्री एवं लेखक जय प्रकाश ‘फ़ाकिर’ कहते हैं कि मंटो को बहुत संवेदनशील लेखक माना जाता है मगर उनका नज़रिया भी पसमांदा समाज के प्रति कभी बहुत उदार नहीं रहा. मंटो औरतों के बारे में लिखते हैं कि, “मेरी ज़िन्दगी में दो तीन लड़कियाँ ज़रुर आई थीं मगर वह नौकरानियां थीं. उनसे मेरा टकराव ऐसे ही हुआ था जैसे सड़क पर राह चलते दो अंधे एक दूसरे से टकराकर इस मुठभेड़ से फ़ारिग़ हों और अपनी-अपनी राह लें.” यहाँ इस बात को समझें कि भारत के इतिहास में वर्ग और जाति तक़रीबन एक जैसी ही रही हैं. जब हम नौकर या नौकरानियों की बात करते हैं तो दरअसल हम उस वक़्त पसमांदा समाज की बात कर रहे होते हैं.अगर इतिहास के आईने में हमें अपनी अपमानित छवि नज़र नहीं आती तो हम बौद्धिक अपंग हो चुके हैं. आपको तेलुगु शायर शेख़ पीरन बोरेवाला बनना पड़ेगा जो कहतें हैं-
कसाब, पिन्जारी, लद्दाफ़, दुदेकुला, घोड़ेवाला, लकड़ेवाला, चमड़ेवाला-
और मैं हूँ बोरेवाला
एक अनजान मुसलमान
मुसलमानी तवारीख में मेरी कहीं जगह नहीं
ख़ानदानी मुसलमानों द्वारा अँधेरे में धकेला हुआ
अपने काम के चलते तिरस्कृत
किन्तु फिर भी एक मुसलमान
बोरेवाला मुसलमान…
…चटाइयां बनाता था
इस तरह मैं बोरेवाला कहलाने लगा
तुम मुझसे परहेज़ करते रहे
क्यों कि मेरी जाति और जीने का अंदाज़ ही ऐसा था
तुम मुझे नाक़ाबिल समझते रहे
भूखे पेट रह कर भी मैं ने क़लमा सीखा
तुम मुझसे दूरी रखते हो
फिर भी मैं सूरह रटता हूँ
तुम्हारी तरह नमाज़-रोज़ा और ज़कात करता हूँ
कभी-कभी तुम्हारे बीच होता हूँ
किन्तु तुम्हारी आँखों में फिर वही घृणा
अजीब सी बातें करते हो
ठंडापन होता है तुम्हारे व्यवहार में
और हंसी उड़ाते हो
मेरी, मेरे काम और मेरी भाषा की.
क्या मानवीय है और क्या अमानवीय?
कौन सभ्य है और कौन असभ्य?
मैं बोरेवाला वंश मैं पैदा हुआ इन चीज़ों को नहीं जानता
मैं तो इतना ही जानता हूँ
कि मैं एक मुसलमान हूँ!
इस्लाम मेरा भी धर्म है!
[कविता अनुवादक: ख़ालिद अनीस अंसारी, पसमांदा क्रांति अभियान पर्चे से सभार]
इस बात को समझना होगा कि कौन क्या बोल रहा है और कब बोल रहा है! उनके बोलने के पीछे का मक़सद क्या है! पसमांदा समाज से आने वाले युवाओं को अपने समाज की समस्याओं के बारे में लिखना होगा. यह ज़रूरी काम भाड़े के शायर या लेखक के बूते का नहीं. वह तुम्हारी समस्याओं को वह ज़बान नहीं दे पाएंगे जो ख़ुद एक भुक्तभोगी दे सकता है. वह इन समस्याओं को रुमानियत से भर देंगे. तुम्हारे दर्द का, तुम्हारे आंसुओं का सौदा कर देंगे. तुम्हारे अनुभव से प्राप्त ज्ञान को अपना बना कर बेच देंगे. इन पर बिल्कुल भी भरोसा मत करो. सोचों अगर “साहित्य (कविता/ग़ज़ल/लेख/कहानी) समाज का दर्पण होता है” तो ये कैसा दर्पण है जिसमें तुम अपना ही समाज नहीं देख पा रहे हो! पसमांदा समाज जो भाषा बोलता और सुनता है, जिस भाषा में वह सपने देखता है उसे तो मुसलमानों की ज़बान समझा ही नहीं जाता. मुसलमानों (अशराफ़ों) की ज़बान उर्दू-अरबी है और अगर कोई पसमांदा शायर यह ज़बान सीख भी ले तो उसे अवसर नहीं मिलता. बाक़ी कोई शायर अपने स्तर से अपनी या अपने समाज की समस्याओं का अपनी गज़लों में ज़िक्र करे तो उसमें प्रयोग लोकल बोली के शब्दों को उर्दू के मेअयार से कमतर मान कर कहीं दर्ज नहीं किया जाएगा. प्रोफेसर कांचा इलैया अपनी किताब ‘हिंदुत्व-मुक्त भारत’ में विस्तार से इस बात को समझाते हैं कि, ”भारत में आधुनिक प्रजातांत्रिक राज्य बुद्धिजीवी गुंडों द्वारा ज़ब्त कर लिया गया है. जयप्रकाश कर्दम अपने लेख “समकालीन हिंदी कविता और दलित चेतना’ में आगे लिखते हैं ‘शोषित-पीड़ित व्यक्ति के दुख-दर्द और संघर्ष पर कई गैर-दलित कवियों द्वारा भी लिखा गया है. किंतु उनकी संवेदना और चेतना दलितों के प्रति दया, करुणा और सहानुभूति से आगे नहीं बढ़ पाती. वे दलितों के प्रति सहृदय हैं, किंतु उनके पक्षधर नहीं हैं. एक ओर वे दलितों के प्रति दया और सहानुभूति दिखाते हैं और दूसरी ओर दलितों के दलन और दुर्दशा का मूल-आधार वर्ण-जाति-व्यवस्था का किसी न किसी रूप में समर्थन करते हैं या उसके बारे में मौन रहते हैं. दलितों के प्रति उनकी चेतना ऊत्स, ऊर्जा, सक्रियता और परिवर्तनकामी चेतना से रहित है. वर्ण-जाति-व्यवस्था का समर्थन या उसके विरोध के प्रति उदासीनता और मौन कदापि दलितों की पक्षधरता नहीं हो सकती. वर्ण-जाति-व्यवस्था के प्रतिकार में बोलने की आवश्यकता के समय मौन रह जाना भी उतना ही बड़ा अन्याय है जितना उसका समर्थन या पोषण करना. दलित के प्रति गैर-दलितों की सहानुभूति भी किसी काम की नहीं है यदि उन्हें दलित के दर्द की वैसी ही अनुभूति न हो जैसी दलित को होती है तथा उनको उस दर्द से मुक्ति दिलाने का प्रयास न हो. इसीलिए दलित कवि को दलितों के प्रति झूठी सहानुभूति प्रदर्शित करने वाले गैर-दलितों से कहना पड़ता है: ‘दो-चार दिन के वास्ते अछूत बनके देख.’ दलितों की पक्षधरता में खड़ा हुए बिना दलितों की बात करना या उनके प्रति सहानुभूति व्यक्त करना बेमानी है” इसी एहसास का इज़हार याक़ूब कवि ने अपनी नज़्म ‘अव्वल कलमा’ में कुछ इस तरह व्यक्त किया है-
आपको यक़ीन तो न आए शायद
लेकिन हमारी समस्याओं का सिरे से कहीं ज़िक्र ही नहीं
अभी भी, एक बार फिर से, उनकी दसवीं या ग्यारहवीं पीढ़ी
जिन्होंने खोई थी अपनी शानो-शौकत
बात कर रही है हम सब के नाम पर
क्या इसी को कहते हैं अनुभव की लूट!
सच तो यही है—नवाब, मुस्लिम, साहेब, तुर्क—
जिनको भी ख़िताब किया जाता है ऐसे, आते है उन वर्गों से
जिन्होंने खोई अपनी सत्ता, जागीर, नवाबी और पटेलिया शान-ओ-शौकत
लेकिन तब भी सुरक्षित कर ली उन्होंने, कुछ निशानियाँ उस गौरव की.
जबकि हमारी ज़िन्दगियाँ सिसकती रहीं हमारे हाथों और पेट के बीच
हमारे पास तो कभी कुछ महफ़ूज़ करने को था ही नहीं
आखिर हम बयाँ भी क्या करते!!!
हम, जो अपनी माँ को ‘अम्मा’ कहते थे
नहीं जानते थे कि उनको ‘अम्मीजान’ कहा जाता है
अब्बा, अब्बाजान, पापा—बाप को ऐसे ही संबोधित करते हैं, हमको बताया गया
आख़िर मालूम भी कैसे होता—हमारी आया ने तो कभी ये सिखाया ही नहीं
हवेली, चारदीवारी, ख़ल्वत, पर्दा—
हम फूस के महलों में बसर करने वाले क्या जानें?
कहा था मेरे दादा ने, नमाज़ का मतलब उठ्ठक-बैठक!
बिस्मिल्लाहइर रहमानिर रहीम, अल्लाह-ओ-अकबर, रोज़ा की भाषा
कहाँ सीखी हमने कभी!
[कविता के अनुवादक: खालिद अनीस अंसारी, पसमांदा क्रांति अभियान पर्चे से सभार]
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लेनिन मौदूदी लेखक हैं एवं DEMOcracyविडियो चैनल के संचालक हैं, लेखक हैं और पसमांदा नज़रिये से समाज को देखते-समझते-परखते हैं.
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