0 0
Read Time:41 Minute, 12 Second

डॉ. सूर्या बाली ‘सूरज धुर्वे’ (Dr. Suraj Bali ‘Suraj Dhurve’)

भारत का दिल कहे जाने वाले मध्य भारत के प्राचीन गोंडवाना की माटी ने हजारों वीर सपूतों को जन्म दिया है जो देश की आन, बान और शान के लिए कुर्बान हो गए हैं. उसी गोंडवाना की माटी में पैदा हुए दो वीर सपूतों का आज बलिदान दिवस है. वैभवशाली गोंडवाना में कोइतूर गोंड राजाओं की 250 से ज्यादा रियासतें थीं जिसका प्रमाण आज भी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में फैले सैकड़ों गढ़, किले, महल, गढ़ी और सराय के रूप में बिखरे हुए हैं. कोइतूर गोंडों के प्रतापी राजा संग्राम शाह के 52 गढ़ों में से सबसे प्रसिद्ध गढ़ा मंडला उन्हीं प्राचीन गढ़ किलों में से एक था जो अपने शासन प्रशासन, धन दौलत, वीरता, वैभव और सुंदरता के लिए चारों ओर प्रसिद्ध था. उसकी इसी खूबी ने मुगलों, मराठाओं और अंग्रेजों सभी को अपनी ओर आकर्षित किया और सबने उसे अपना बनाने के लिए जी जान से कोशिश की.

मण्डला के जाने माने इतिहासकार रामभरोस अग्रवाल के अनुसार गढ़ा मंडला में कोइतूरों के मड़ावी गोत्र का डंका बजता था और उन दिनों सबसे महान गढ़ के रूप में जाना जाता था. इस गढ़ की स्थापना कोइतूर राजा संग्राम शाह ने की थी (अग्रवाल, 1990) जो रानी दुर्गावती के ससुर थे. वर्ष 1564 में जब रानी दुर्गावती मुगलों द्वारा पराजित हो गईं तब ये गढ़ अकबर के आधीन आ गया और उनके बाद के सभी राजा मुगलों के आधीन रहकर काम करने लगे थे. इस तरह गोंड कोइतूरों की कई पीढ़ियाँ मुगलों के मातहत रहकर शासन प्रशासन सँभालती रहीं. मराठा और पेशवाओं ने इस किले को तहस नहस करने की कोई कसर नहीं छोड़ी. उन्होने तरह तरह से गोंड राजाओं को प्रताड़ित किया और किले को कमजोर करने लिए उसकी दीवारों और बुर्जों को तोपों से उड़वा दिया. आज भी मंडला के किले के खंडहरों में इनके अत्याचार की निशानियाँ देखी जा सकती हैं.

गढ़ मंडला की अकूत धन-सम्पदा को पेशवा – मराठों ने लूट कर पूरे किले को तहस नहस कर दिया और उनके वारिसों को अपने आधीन कर लिया. बची खुची कसर अंग्रेजों ने पूरी कर दी. अंग्रेजों ने गोंड राजाओं को मराठा सेनाओं के आतंक से मुक्त तो किया लेकिन उनको पेंशनर के रूप में अपने शासन के देख रेख में बंधक रखा. गोंड राजा नाम मात्र के शासक थे असली शासन तो अंग्रेजों के हाथ में था. गढ़ मंडला रियासत के अंतिम राजा शंकर शाह और उनके बेटे रघुनाथ शाह थे जो अंग्रेजों की सरपरस्ती में पेंशनर बन गए थे. आज हम इन्हीं दोनों बाप-बेटे की शहादत की कहानी को आप से साझा करेंगे.

वर्ष 1564 में रानी दुर्गावती की पराजय के बाद पूरे राज्य मे हाहाकार मच गया था और आसफ खान पूरे माल-असबाब के साथ मानिकपुर लौट गया और मुगलों को इस समय किसी ऐसे शख्स की जरूरत थी जो उनका विश्वासपात्र होने के साथ साथ उनके जीते हुए राज्य को भी संभाल सके और फिर उन्होंने दलपत शाह के छोटे भाई चंद्रशाह को चुना. इसके बदले चंद्रशाह ने गढ़ रियासत के पश्चिम उत्तर के 10 रियासतों को अकबर को भेंट स्वरूप दे दिया. इन रियासतों के नाम थे कारूबाग, कुरुवई, गिन्नौर, चौकीगढ़, बारी, भवरासो, भोपाल, मकराई रायसेन राहतगढ़ (अग्रवाल, 1990)

जिस गोंड साम्राज्य की कभी तूती बोलती थी उन्नीसवीं सदी तक आते आते, उसकी आवाज गुम होने लगी. गोंडवाना साम्राज्य का सूरज अस्त होने लगा. गढ़ मंडला के अंतिम राजा के रूप में शंकर शाह अंग्रेजी हुकूमत के पेंशनर के रूप में नाम मात्र के शासक बने रहे.

शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह 

इधर डलहौजी की राज्य-हड़प-नीति के अंतर्गत बहुत-सी भारतीय रियासतें अंग्रेजी शासन के अधीन होती जा रही थीं और उत्तर भारत में अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों के कारण जनमानस में अंग्रेजों के प्रति सहानुभूति खत्म हो रही थी. उधर अँग्रेजी सेना में भारतीय जवानों में सुअर और गाय की वसा से निर्मित कारतूस को लेकर एक विद्रोह की रूपरेखा तैयार हो रही थी. उपरोक्त कारणों से 9 मई 1857 को मेरठ सैनिक छावनी में भारतीय सिपाहियों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया. विद्रोह की चिंगारी धीरे धीरे लखनऊ, कानपुर, झाँसी, ग्वालियर, सागर होते हुए जबलपुर तक पहुँच गयी. जबलपुर में राजा शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह ने इस विद्रोह की ज्वाला को भड़काने का काम किया और अंग्रेजों को अपने बागी तेवर दिखा दिये. हालांकि ब्रिटिश शासन इस क्रांति की चिंगारी को एक वर्ष के अंदर ही दबाने में सफल रहा फिर भी यह एक ऐसी लोकप्रिय क्रांति थी जिसमें भारतीय शासक, जनसमूह और नागरिक सेना सभी शामिल थे. इसलिए इस क्रांति को भारतीय स्‍वतंत्रता के इतिहास का पहला संग्राम भी कहा जाता है और इसी क्रांति से जन्म होता है एक महान स्वतन्त्रता सेनानी शंकर शाह और उनके बेटे रघुनाथ शाह का(बाली , 2019).

राजा संग्राम शाह के सच्चे उत्तराधिकारी

शंकर शाह गढ़ मंडला गोंडवाना राजवंश के शासक सुमेद शाह के पुत्र थे जिनको अंग्रेजों ने पेंशनर बनाकर जबलपुर के एक महल में सीमित कर रखा था उनके पुत्र का नाम रघुनाथ शाह था. हालांकि दोनों बाप बेटे अंग्रेजों की निगरानी में रहते थे फिर भी गढ़ा मंडला की जनता के लिए दोनों हमेशा हाजिर रहते थे और जनता से मिलते जुलते रहते थे जिसके कारण उनका गढ़ा मंडला रियासत की जनता के साथ उनका संवाद बना रहा. अंग्रेजों के आधीन रहने के बावजूद भी गढ़ा मंडला की जनता शंकर शाह को ही अपना राजा मानती थी. जब प्रथम स्वतंत्र संग्राम की चिंगारी जबलपुर पहुंची तो इसी जन समर्थन का फायदा शंकर शाह और रघुनाथ शाह ने उठाया और अपने विश्वास पात्र जमींदारों की मदद से जबलपुर और मंडला में प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के विद्रोह की चिंगारी को हवा दी.

गोंडवाना के प्रतापी राजा संग्राम शाह के वंशज शंकर शाह और उनकी शहादत को तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक उस राजवंश की पूरी कहानी को न समझा जाये. तो आइये पहले गढ़ा मंडला के मड़ावी राजवंश की चर्चा कर लेते हैं और फिर इस शंकर शाह और रघुनाथ शाह की चर्चा करेंगे.

वैसे तो कोइतूरों के मड़ावी वंश का भारत में सबसे लंबे समय तक (1400 वर्षों) शासन करके का इतिहास रहा है(अग्रवाल, 1990). लेकिन यहाँ हम उस वंश के अंतिम 350 वर्षों के बारे में बात करेंगे और शंकर शाह के कुछ महत्त्वपूर्ण वंशजों के बारे में जानेंगे. इस वंश के सबसे प्रतापी राजा संग्राम शाह थे. राजा संग्राम शाह के बडे़ पुत्र दलपत शाह की पत्नी का नाम रानी दुर्गावती था. जिन्होंने अकबर से लोहा लिया था जिनकी वीरता के किस्से कहानियाँ हम सुनते आयें है. रानी दुर्गावती और उनके पुत्र वीरनारायण के वीरगति प्राप्त होने के पश्चात वर्ष 1564 में गढ़मंडला का साम्राज्य अकबर के अधीन हो गया. मुगल बादशाह का उद्देश्य मुगल साम्राज्य का विस्तार था. इसलिए उसने अपनी अधीनता में शासन के लिए दलपत शाह के छोटे भाई चंन्द्रशाह को गढ़मंडला का राजा बनाया. इन्ही राजा चन्द्र शाह की 11 पीढ़ी के रूप में शहीद शंकर शाह ने जन्म लिया था, जो इस वंश के अंतिम प्रसिद्ध राजा निजाम शाह के पौत्र एवं राजा सुमेद शाह के पुत्र थे(अचल, 2016). (विस्तृत जानकारी के लिए टेबल 1 देखें)

तालिका – राजा शंकर शाह की वंशावली –(अग्रवाल, 1990) और (स्लीमन, 1937)

क्रम संख्या

राजा का नाम

राज्य काल

विशेष टिप्पणी

1.  

चन्द्र शाह

1565 से 1576 ईस्वी

रानी दुर्गावती के देवर और संग्राम शाह के छोटे पुत्र.

2.  

मधुकर शाह

1576 से 1590 ईस्वी

पिता चन्द्र शाह और बड़े भाई को मारकर शासन हथियाया.

3.  

प्रेम नारायण (प्रेम शाह)

1590 से 1634 ईस्वी

मधुकर शाह के एकमात्र वारिस महाराजाधिराज की उपाधि, जुझार सिंह और पहाड़ सिंह (बुंदेला) ने धोखे से मारा.

4.  

हृदय शाह

 

1634 से 1678 ईस्वी

अपने पिता के हत्यारे जुझार सिंह का 1651 में सिर काटा था.

17 वर्षों में नामनगर का किला बनवाया (1651-1668).

1951 में ही पहाड़ सिंह से हार कर चौरागढ़ किला गवाना पड़ा.

मुगल कन्या चिमनी बाई को भगा लाये थे और नामनगर में चिमनी बेग़म महल बनवाए.

5.  

छत्र शाह

1678 से 1685 ईस्वी

हृदय शाह के बड़े पुत्र थे.

पिता की मौत के बाद बुढ़ापे में कुछ समय राज्य किया.

6.  

केशरी शाह

 

1685 से 1688 ईस्वी

छत्र शाह के पुत्र थे

हरि सिंह गढ़ा में राजा रहे जिन्हें जल्लादों ने धोखे से केशरी शाह जंगल में मार डाला हरि सिंह का लड़का पहाड़ सिंह था. केशरी शाह के साले जुगराजसिंह ने हरि सिंह को गढ़ा में मार दिया था.

7.  

नरेंद्र शाह पुत्र केशरी शाह

1688 से 1732 ईस्वी

नरेंद्रशाह, केशरी शाह के पुत्र और पहाड़ सिंह, हरि सिंह के पुत्र थे. नाम नगर के लिए दोनों औरंगजेब के दरबार गए लेकिन राज्य मिला नरेंद्र शाह को. इसके बदले में औरंगजेब को धमोनी, हटा, शाहगढ़, गढ़ाकोटा और मडियादौ पाँच गढ़ का नज़राना दिया.

8.  

महाराज शाह

1732 से 1742 ईस्वी

मंडला के नरेंद्र शाह का बेटा, लांजी का राजा, मराठा बढ़े रघु जी को हराया था.

इनके तीन बेटे हुए-शिवराज शाह, धन सिंह और निजाम शाह (गोंड़ रानीसे).

9.  

1. शिव राज शाह

1742 से 1749 ईस्वी

शिवराज शाह के दो बेटे हुए- दुर्जन सिंह (वेश्या से) और मोहन सिंह राजपूत रानी से जो मरवा दिया गया था.

10.

दुर्जन शाह

1749 से 1749 ईस्वी

रानी विलास कुँवर ने अपने देवर (निजाम शाह) से कहकर दुर्जन शाह को मरवा दिया था.

शिवराज शाह का बेटा.

11.

2. निजाम शाह

1749 से 1776 ईस्वी

 गोंड महारानी से महाराज शाह के पुत्र थे

शिवराज शाह के भाई सागर के पेशवा के मातहत राज्य करते थे

12.

नरहरि शाह

1776 से 1780 ईस्वी

निजाम शाह का भतीजे(भाई धन सिंह का पुत्र) थे.

ये निःसंतान थे एक अनाथ बालक नर्मदा बख्स को गोद लिया.

गौरझामर के किले में कैदी के रूप में मारे गए.

गोंड़ राज वंश का अंतिम शासक.

13.

सुमेद शाह

1780 से 1818 ईस्वी

ये निजाम शाह के अकेले वारिस थे.

रानी विलास कुँवर को मरवाया था.

खुरई के किले में कैदी के रूप में मरे.

इनके पुत्र शंकर शाह हुए.

14.

शंकर शाह

1818 से 1825 ईस्वी

तोप के मुंह से बांध कर जबलपुर में मौत दे दी थी.

15.

रघुनाथ शाह

1825 से 1857 ईस्वी

पिता के साथ 32 वर्ष की उम्र में तोप के मुंह में बांध कर उड़ा दिया गया.

महाराजा शंकर शाह और रघुनाथशाह की पारिवारिक पृष्ठभूमि

राजा शंकर शाह का जन्म गढ़ मंडला रियासत के एक गोंड राज परिवार में हुआ. इनके पिता का नाम राजा सुमेद शाह था जो 1780 से 1818 ईस्वी तक गढ़ मंडला की राजगद्दी पर आसीन थे. इनके दादा का नाम राजा निजाम शाह था. वर्ष 1818 में पिता की मृत्यु के बाद राजा शंकर शाह (1818-1825) नाम मात्र के राजा रह गए और अंग्रेजों के मातहत पेंशनर के रूप में रियासत में रहने लगे. हालांकि दोनों बाप बेटे की जन्म तिथि का इतिहास के पन्नों में कहीं जिक्र नहीं हुआ है लेकिन उन दोनों की एक साथ मौत इतिहास के पन्नों में अमर हो गयी.

राजा शंकर शाह का विवाह रानी फूलकुंवर से हुआ था और कुँवर रघुनाथ शाह इन्ही की एकमात्र संतान थे. कुँवर रघुनाथ का विवाह बड़े धूम धाम से राजकुमारी मान कुँवर से हुआ था जिनके एकमात्र पुत्र का नाम लक्ष्मण शाह था. डॉ सुरेश मिश्रा अपने पुस्तक “गढ़ा का गोंड़ राज्य” में लिखते हैं कि वर्ष 1919 में जब राय बहादुर हीरा लाल ने दमोह स्थित सीलापरी गाँव का दौरा किया था तब लक्ष्मण शाह के दो पुत्र कंकनशाह और ख़लक़ शाह बेहद तंगहाली और गरीबी में जी रहे थे(मिश्र, 2008). दुर्भाग्य कहें या समय का खेल, जिस गोंडवाना में कभी सोने के सिक्के खनकते थे, जिसके राजकुमार और राजकुमारियाँ सोने-चाँदी के बर्तनों में भोजन करते थे आज उसके वंशज दाने दाने के लिए मोहताज हो गए हैं. शंकर शाह और रघुनाथ शाह के वारिस आज भी मध्य प्रदेश के दमोह जिले के सीलापरी गाँव में जिंदगी और मौत के बीच जूझ रहे हैं और बेहद गरीबी और भुकमरी का जीवन गुजारने पर मजबूर हैं.

राजा संग्राम शाह का बचपन मंडला किले में, जवानी सागर के किले में और बुढ़ापा जबलपुर के किले में बीता. ये उनका दुर्भाग्य ही था कि वे कभी भी एक जगह स्थिर रूप से रह नहीं पाये. उन्हे कभी भोंसला राजाओं ने, कभी पेशवाओं ने तो कभी अंग्रेजों ने दर-बदर किया. शंकर शाह का जन्म मंडला के किले में हुआ था जो तीन तरफ से नर्मदा नदी से सुरक्षित था और उत्तर की तरफ से मानव निर्मित खाई थी जिससे किले में केवल वही आ सकता था जिसे राजमहल के अधिकारी अनुमति देते थे. उनका बचपन बेहद अमीरी और ठाटबाट में बीता था. तैराकी, तलवारबाजी और घुड़सवारी की कलाओं में वो बहुत पारंगत थे. ये वह समय था जब पेशवा गोंडवाना पर अपना अधिकार जमा रहे थे और धीरे धीरे गोंडवाना के महल और किले अपने कब्जे में कर रहे थे (बाली, 2019). 

पेशवा और मराठाओं ने गोंडवाना में गढ़ा मंडला की सत्ता को अपने कब्जे में लेकर वहाँ के राजाओं को अपने आधीन राज्य चलाने की अनुमति दी थी. सागर स्थित पेशवा के प्रतिनिधि विसाजी चाँदोरकर की मदद से शंकर शाह के पिता राजा सुमेद शाह गढ़ा मंडला के राजा बने और शंकर शाह एक बार फिर से अपने पिता के साथ राजकीय कार्यों में बढ़ चढ़कर भाग लेने लगे और शासन प्रशासन के गुण सीखने लगे और इसी बीच उनका विवाह फूलकुंवर से हो गया.

बात सन 1789 ईस्वी की है जब गढ़ा मंडला के अंतिम राजा नरहरि शाह ने सुमेद सिंह (शंकर शाह के पिता) से सत्ता हथियाकर खुद दुबारा राजा बन बैठे और उसी समय अंग्रेजों ने गढ़ मंडला पर धावा बोला. चूंकि नरहरि शाह के कोई संतान नहीं थी इसलिए उन्होने एक अनाथ बालक को गोद लिया और उसे नर्मदाबख्स नाम दिया. नर्मदाबख्स के यकायक गायब हो जाने के कारण अँग्रेजी हुकूमत ने इस राज्य को हड़पना चाहा इसलिए उन्होंने न चाहते हुए भी सुमेद शाह के पुत्र शंकर शाह को गोद लिया और उनकी वर्ष 1818 में आनन फानन में राजतिलक करवा कर गढ़ मंडला का राजा बनवा दिया. वर्ष 2018 से लेकर 1825 तक वे गढ़ा मंडला के राजा बने रहे और बाद में भी वे राजा के रूप में ही जाने जाते रहे.

शंकर शाह का भले ही गढ़ा मंडला के राजा के रूप में राजतिलक हुआ लेकिन वे स्वतंत्र रूप से कभी राज नहीं कर सके और हमेशा अँग्रेजी हुकूमत के आधीन पेंशनर बन कर रहे. बुढ़ापे में उनकी हालत बहुत अच्छी नहीं थी और वे गढ़ मंडला (जबलपुर) के करीब मात्र पुरवा की जागीरदारी ही उनके पास बची थी और वे सपरिवार वहीं रहते थे(कंगाली, 2011).  लोग बताते हैं कि राजा शंकर शाह अंग्रेजों से मिलने वाली पेंशन को अपनी प्रजा में बाँट देते थे. गढ़ा मंडला की जनता में राजा शंकर शाह की छवि एक अच्छे राजा के रूप में थी. गढ़ा मंडला के प्रतापी राजवंश के इस उत्तराधिकारी को जनता श्रद्वा व सम्मान के भाव से देखती थी. इनका स्वभाव भी सरल एवं आम जनता के प्रति प्रेमपूर्ण था. (अचल, 2016).

मंडला किले पर अंग्रेजों का कब्जा

सन 1818 में राजा शंकर शाह ने गढ़ा की गद्दी संभालते ही सभी जागीरदारों और जमींदारों से अच्छे संबंध बनाने शुरू कर दिये और स्थानीय जमींदार उन्हें ही अपना राजा मानने लगे. वर्ष 1825 में शंकर शाह ने अपने बेटे रघुनाथ को गढ़ा मंडला का राजा घोषित कर दिया. कुछ वर्ष बाद सन 1841 को नर्मदा बक्श वापस लौटा और शंकर शाह के बेटे रघुनाथ शाह के बीच जायदाद को लेकर विवाद शुरू कर दिया जिससे अंग्रेजों को दो विरोधियों के बीच गढ़ा मंडला में घुसने का मौका मिल गया. अंग्रेजों ने जानबूझकर फैसला नर्मदा बख़्श के पक्ष में दिया और शंकर शाह और रघुनाथ शाह को मंडला किले से बेदखल कर जबलपुर भेज दिया. अंग्रेजों ने बाद में नर्मदा बख़्श को भी षणयंत्र करके मंडला के किले से दूर कर दिया. अंग्रेजों की इस धोखेबाजी से शंकर शाह बहुत नाराज थे और उनके अंदर अंग्रेजों के प्रति नफरत भर गयी थी यही कारण था कि 1857 में मौका मिलते ही वे अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह में कूद पड़े और इस विद्रोह में उनके पुत्र राजा रघुनाथ शाह का पूरा साथ था.

राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह का अँग्रेजी सत्ता के खिलाफ विद्रोह

शंकर शाह और रघुनाथ शाह शौर्य, निर्भीकता, साहस और संकल्प के साक्षात प्रतिमूर्ति थे जिन्होंने अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंका. दोनों, बाप और उनके पुत्र, बहुत अच्छे कवि थे जिन्होंने अपनी कविताओं से अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरूद्ध बगावत और विद्रोह के स्वर बुलंद किए. अपनी ओजपूर्ण कविताओं से इन्होंने गढ़ा मंडला की जनता के साथ जबलपुर स्थित 52वीं बटालियन के भारतीय जवानों को भी विद्रोह के लिए उकसा दिया. जबलपुर सैनिक छावनी में भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह कर दिये जिसमें अंग्रेजों के जान-माल का बहुत ज्यादा नुकसान हुआ. ऐसा दोनों पिता पुत्र के कुशल नेतृत्व और निर्भीकता के कारण संभव हो सका था.

बाप बेटे पर राजद्रोह का आरोप और सजा

वर्ष 1857 में जब बाप बेटे अँग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लोगों को तैयार कर रहे थे उस समय लेफ़्टिनेंट कर्नल जैमिक्सन जबलपुर की 52वीं बटालियन के कमांडर था और मेजर इरस्किन सागर और नर्मदा डिविजन का प्रमुख था (जान काये और मालेसन, 1898). रात्रि के समय अपने जबलपुर आवास में जब पिता पुत्र सैनिकों को संबोधित कर रहे थे और सैनिकों को सशस्त्र विद्रोह के लिए तैयार कर रहे थे तब वहाँ पर उनकी सेवा में लगे हुए कुछ ब्राह्मण और बनिए भी थे जो शंकर शाह और 52वीं बटालियन के सैनिकों के बीच की वार्ता को अंग्रेज़ अधिकारियों तक पहुँचा दिये. खुशालचंद नाम के बनिए ने खुफ़िए के रूप में राजमहल की महत्त्वपूर्ण और संवेदनशील जानकारियाँ अंग्रेज़ अधिकारियों तक पहुँचाई और अंग्रेजों को राजा शंकर शाह और उनके बेटे रघुनाथ शाह के खिलाफ भड़काया. इस तरह गोंडवाना के अंतिम वीर सपूतों को मरवाने में अपने ही देश के ब्राह्मण और बनियों का हाथ था.

इन्हीं दोनों ब्राह्मण और बनिए जासूसों ने वर्ष 1857 के सितंबर के प्रारंभ में 52वीं बटालियन के कैप्टेन मोक्सन को बताया कि पिता-पुत्र दोनों, अँग्रेजी शासन के खिलाफ साजिश रच रहे हैं और सैनिको को बगावत के लिए भड़का रहे हैं. दोनों गद्दारों ने जानबूझकर अंग्रेजों को झूठी जानकारी दी कि बाप और बेटा जबलपुर छावनी में रहने वाले यूरोपियन अधिकारियों और उनके परिवारों पर हमला करके हत्या करने और स्टेशन को लूटने का प्लान बना रहे हैं. और ये भी जोड़ा कि गढ़ा मंडला के कई असंतुष्ट मालगुजार भी इनके साथ षणयंत्र में शामिल हैं. यह सूचना मिलते ही मोक्सन ने राजा शंकर शाह के आवास को घेर लिया आर जबर्दस्ती उनके पूरे आवास का निरीक्षण किया गया. इस दौरान उन्हे वहाँ से कुछ आपतिजनक और भड़काने वाले दस्तावेज़ मिले. अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ साजिश रखने और सेना में विद्रोह भड़काने के आरोप में राजा शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह को 14 सितंबर, 1857 को कैद कर लिया गया(केव, 1908).

राजा शंकरशाह की गिरफ्तारी के पश्चात अंग्रेजों सैनिकों ने राजमहल में जमकर लूटपाट किया गया और सारा समान और अस्त्र शस्त्र अपने कब्जे में ले लिया. राजमहल से अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह के ढेरों दस्तावेज मिले, जिसमे राजा शंकर शाह की लिखी हुई एक कविता भी लाल रंग के मखमल के कपड़े में लपेटी हुई मिली जो कुछ इस प्रकार से थी –

“मूंद मुख दंडिन को, चुंगलों को बचाई खाई, खूंद डार दुष्टन को, शत्रु संघारिका.

मार अंग्रेज रंज, कर देई मात चण्डी, बचै नहीं बैरी, बाल बच्चे संहारिका ॥

शंकर की रक्षा कर, दास प्रतिपाल कर, दीन की पुकार सुन, जाय मात हालिका.

खायले मलेच्छन को, झैल नहीं करो मात, भच्छन कर तच्छन, दौर माता कलिका”॥(परते, 2013)

 

इस कविता के द्वाराशंकर शाह ने अपने आराध्य देवी कली कंकालिन की स्तुति की थी जिसमे अंग्रेजी हुकुमत को नष्टकर अंग्रेजों को सत्ताहीन करने की अर्चना की गई थी. एक ब्राह्मण ने इस कविता का अंग्रेज़ी में अनुवाद करके अंग्रेजों को बहुत डरा दिया जो कुछ इस प्रकार था –

“The king, Shankar Shah, meditating on the terrible image of the Goddess Chandi says, “ Shut the mouths of slanderers; trample the sinners! Shatru Samharike ! Killer of enemies !) Listen to the cry of Religion ; support your slave. Makalike ! Kill the British ; exterminate them ; Mata Chandi ! ” etc. etc” (सावरकर, 2014).

 

जबलपुर सैनिक विद्रोह और क्रांति के साथी

राजा शंकर शाह के सहयोगियों में मोकासी के शिवनाथसिंह, उमरावसिंह, देवीसिंह, ठाकुर खुमानसिंह, नारायणपुर-बघराजी के ठाकुर कुन्दनसिंह, बरखेड़ा के जैसिंहदेव, जगतसिंह, बरगी से मुनीर गौसिया, इमलई से रानी रामगढ़, बलभद्रसिंह, राजा दिलराज सिंह, मगरमुहा से भीमकसिंह, बिल्हरी से राजा शिवभानुसिंह, ठाकुर नरवरसिंह, बहादुरसिंह और कुछ मालगुजार शामिल थे. वहीं 52वीं बटालियन के ठाकुर पाण्डे और गजाधर तिवारी जैसे कुछ प्रमुख सिपाही भी थे(परते, 2013).

बाप बेटे की गिरफ्तारी से पूरे जबलपुर में सनसनी फैल गयी और 15 सितंबर को पूरे दिन गढ़ा मंडला से शंकर शाह के वफादार साथी और जमींदार असलहों के साथ पैदल, घोड़े बग्घियों और बैलगाड़ियों से जबलपुर पहुँचने लगे. 15 सितंबर की रात में शंकर शाह के वफ़ादारों ने राजा शंकर शाह को छुड़ाने के लिए सैनिक छावनी पर हमला करने का प्लान बनाया लेकिन किसी गद्दार व्यक्ति ने इस प्लान की जानकारी अंग्रेज़ डिप्टी कमिशनर तक पहुंचा दी. जब विद्रोही सैनिकों और लोगों ने छावनी पर हमला किया तो पहले से तैयार मद्रास इंफेंटरी के अंग्रेजी सैनिको ने उसे विफल कर दिया. बहुत सारे लोग मारे गए लेकिन विद्रोहियों ने अंग्रेजों के कई बंगले जला दिये और कई अंग्रेजी सैनिकों को मौत के घाट सुला दिया लेकिन वे बाप और बेटे को आज़ाद नहीं करवा पाये.

शंकर शाह और रघुनाथ शाह की गिरफ्तारी के बाद हुए निरीक्षण में मिली शंकर शाह द्वारा लिखित इसी कविता के अँग्रेजी अनुवाद को आधार मानकर जबलपुर के डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में एक डिप्टी कमिश्नर और दो अन्य अंग्रेज़ अधिकारियों से बने जांच आयोग के सामने शंकर शाह और रघुनाथ शाह की पेशी हुई और उनपर मुकदमा चला. आनन फानन में बाप बेटे को अपराधी साबित करते हुए दोनों को तुरंत मृत्यु दण्ड की सजा सुना दी गयी और तुरंत ही सजा पर अमल करने का निर्देश दिया गया. मृत्युदंड पर अमल करते हुए 18 सितंबर, 1857 की सुबह शूरवीर बाप और उनके शूरवीर बेटे को जबलपुर छावनी परिसर में दो अलग अलग तोपों के मुंह पर बांध दिया गया. जैसे ही जल्लाद ने तोप के गोलों में आग लगाई वैसे ही पिता-पुत्र दोनों के शरीर तोप के धमाकों चिथड़े चिथड़े हो गए और पूरा वातावरण दहशत से भर गया(केव, 1908). भारत के इतिहास में इतना बर्बर और अमानवीय व्यवहार किसी भी अन्य राजा के साथ नहीं हुआ जितना की इस कोइतूर समाज के पिता-पुत्र के साथ हुआ. अंग्रेजों की इस बर्बरता के लिए भारतीय समाज उन्हें कभी भी माफ नहीं करेगा.

शंकर शाह और रघुनाथ शाह की मौत के बाद का कोलाहल और विद्रोह

शंकर शाह और रघुनाथ शाह के मौत की खबर बिजली की तरह पूरी छावनी में फैल गयी. खबर मिलते ही 52 वीं बटालियन ने विद्रोह कर दिया. चारों तरफ अफरा-तफरी मच गयी. वैसे तो अंग्रेजी इतिहासकारों ने इस सैनिक विद्रोह का जिक्र नहीं किया है लेकिन दामोदर विनायक सावरकर ने अपनी पुस्तक द इंडियन वार आफ इंडिपेंडेंस 1857 में लिखा है कि इस खबर से भारतीय सैनिक इतने उत्तेजित हो गए थे कि उन्होंने एक अंगेज़ अधिकारी मैक ग्रेगर को वहीं गोलियो से भून डाला था और कुछ सीधे युद्ध के लिए कूच कर दिये थे (सावरकर, 2014).

शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह की प्रतिमाएं

तोप के बारूदी गोले की मार से पिता-पुत्र, दोनों के शव पूरे मैदान में बिखर गए थे. रानी फूलकुंवर ने किसी तरह अपने पति और बेटे की लाश के टुकड़ों को इकट्ठा किया और उन्हे नर्मदा के किनारे दफना कर अंग्रेजों से बदला लेने के लिए निकल पड़ी. मर्दाना भेष में रानी फूल कुँवर ने अपने वफादार सैनिकों के साथ रामगढ़ किले को अपने अधिकार में किया और कई स्थानों पर अंग्रेजों को पीछे धकेला. उन्होंने अंग्रेजी सेना के कई सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया. एक एक कर उनके साथी सैनिक मरते जा रहे थे और वे एक अकेली अँग्रेजी सैनिकों से लोहा ले रही थीं और अंत में लड़ते लड़ते घोड़े से गिर गयी. उनके गिरते ही अंग्रेज़ सैनिकों ने उन्हे घेर लिया. अपनी इज्ज़त को बचाने के लिए उन्होने तुरंत अपना खंजर निकाल कर अपने ही सीने में भोंक लिया. घायल अवस्था में उन्हें जबलपुर छावनी में लाया गया जहाँ उन्होंने अंतिम सांस ली(केव, 1908). इस तरह गढ़ा मंडला में सैकड़ों साल बाद एक और इतिहास दुहराया गया. रानी दुर्गावती के बाद रानी फूलकुंवर दूसरी महिला थीं जिन्होंने अपनी आन बान और शान के लिए स्वयं अपनी जान ले ली लेकिन अंग्रेजों से हार स्वीकार नहीं की. आज भी रानी फूलकुंवर के किस्से और गीत मंडला और जबलपुर के आसपास सुने जाते हैं.

दूसरी तरफ रानी मान कुँवर ने अपने बच्चे लक्षण शाह के साथ अंग्रेजों से बचाकर दमोह की तरफ भाग जाती हैं और एक गाँव में शरण लेती हैं. इस तरह मड़ावी वंश के वारिस को जिंदा रखने का प्रयाश में सफल होती हैं.

जिस कोइतूर मड़ावी वंश ने देश की आज़ादी और प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में इतना बढ़ चढ़कर भाग लिया और इतनी कुर्बानियाँ दीं उसके साथ भारतीय इतिहासकारों और लेखकों ने बहुत सौतेला व्यवहार किया. उन्हें इतिहास के पन्नों में वो स्थान नहीं दिया जिसके वो हकदार थे. आज भी जबलपुर में स्थित मदन महल, रानी महल जैसी बहुत सारी इमारतें इस खानदान की गवाह हैं. अतीत के भव्य महल आज भले ही खंडहर हो चुके हैं लेकिन आज भी वे मड़ावी वंश के वीरों और वीरांगनाओं के वीरता की कहानियाँ बयान कर रहे हैं. भले ही इतिहासकार उनका जिक्र न करें लेकिन आज भी मड़ावी वंश की वीरता और वैभव की कहानियाँ लोगों की जुबान पर हैं. राजा शंकर शाह और राजा रघुनाथ शाह के शहादत दिवस पर उन्हें कोटि कोटि नमन और सादर सेवा जोहार !!

~~

संदर्भ सूची 

  1. अग्रवाल,राम भरोस. (1990). गढ़ा मंडला के गोंड राजा (चतुर्थ संस्करण, Vol. 1–1). गोंडी पब्लिक ट्रस्ट , मंडला , मध्य प्रदेश 481661.
  2. अचल,आर. (2016, September 17). सन् 1857 के अमर शहीद शंकर शाह,रघुनाथ शाह. VigyanBairav.  https://drachal.blogspot.com/2016/09/18-flarecj-cfynku-fnol-ssss-lku-1857-ds.html
  3. कंगाली, मोती रावन. (2011). गोंडवाना का सांस्कृतिक इतिहास (तृतीय संस्करण, Vol. 1). तिरुमाय चंद्रलेखा कंगाली , 48 उज्ज्वल सोसाइटी जयतला रोड ,नागपुर.
  4. केव,जे. (1908). द रेवोल्ट इन सेंट्रल इंडिया. THE GOVERNMENT MONOTYPE PRESS, SHIMLA. https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.285231
  5. जान काये और मालेसन. (1898). इंडियन म्यूटिनी ऑफ 1857. Longmans, Green and Co., London, Newyork and Bombay. http://archive.org/details/pli.kerala.rare.7187
  6. परते, दिलीप सिंह. (2013). अमर शहीद राजा शंकरशाह एवं रघुनाथशाह का बलिदान दिवस दिनांक १८ सितम्बर, २०१३. GONDWANA SANDESH (गोंडवाना सन्देश)http://gondwanasandeshraipur.blogspot.com/2013/09/blog-post.html
  7. बाली ,सूर्या. (2019). इतिहास में इतनी बर्बर और अमानवीय सजा कभी किसी को नहीं मिली, फिर भी देशभक्त पिता-पुत्र ने हंसते-हंसते दिया था बलिदान. गोंडवाना समय. https://www.gondwanasamay.com/2019/09/blog-post_76.html
  8. मिश्र, सुरेश. (2008). गढ़ा का गोंड राज्य (प्रथम संस्करण, Vol. 1). राजकमल प्रकाशन प्रा लि, नई दिल्ली.
  9. सावरकर,विनायक दामोदर. (2014). द इंडियन वार ऑफ इंडेपेंडेंस 1857 (First published from England 1909, Vol. 1). Asian Educational Services. https://archive.org/details/ldpd_6260651_000
  10. स्लीमन,विलियम. (1937). गढ़ा मंडला के राजाओं का इतिहास (History of Garha Mandla Raja). द जर्नल ऑफ द एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल, द बैपटिस्ट मिशन चर्च , सर्क्युलर रोड , कलकत्ता, 6(2), 621–648.

 

~~~

डॉ सूर्या बाली “सूरज धूर्वे” अंतर्राष्ट्रीय कोया पुनेमी चिंतनकार और कोइतूर विचारक हैं. पेशे से वे AIIMS (भोपाल) में प्रोफेसर हैं. उनसे drsuryabali@gmail.com ईमेल पर संपर्क किया जा सकता है.

Magbo Marketplace New Invite System

  • Discover the new invite system for Magbo Marketplace with advanced functionality and section access.
  • Get your hands on the latest invitation codes including (8ZKX3KTXLK), (XZPZJWVYY0), and (4DO9PEC66T)
  • Explore the newly opened “SEO-links” section and purchase a backlink for just $0.1.
  • Enjoy the benefits of the updated and reusable invitation codes for Magbo Marketplace.
  • magbo Invite codes: 8ZKX3KTXLK
Happy
Happy
0 %
Sad
Sad
0 %
Excited
Excited
0 %
Sleepy
Sleepy
0 %
Angry
Angry
0 %
Surprise
Surprise
0 %

Average Rating

5 Star
0%
4 Star
0%
3 Star
0%
2 Star
0%
1 Star
0%

One thought on “भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दो कोइतूर महानायक बाप-बेटे

  1. दुर्लभ जानकारी मिली आज मुझे इस लेख को पढ़कर, जबकि मैं भी इतिहास को बहुत ही करीब से जानने की कोशिश की है फिर भी अनभिज्ञ था इस इतिहास से। डॉ सूर्या बाली जी का बहुत बहुत आभार जो की इतनी व्यस्तता के बाद भी हमारे लिए इतनी रोचक जानकारी जो कि हर इक कोयतूर के लिए अहम है प्रदान किये। सह्र्दय सेवा जोहार सूर्या बाली सर!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *