डॉ. अयाज़ अहमद (Dr. Ayaz Ahmad)
सालों बाद कल तब्लीग़ी जमात के दो सिपाहियों से एक बार फिर आमना सामना हो ही गया. हुआ यूँ की शाम के वक़्त सोसाइटी पार्किंग के पास एक पड़ोसी से पार्किंग झमेलों पे बात चल रही थी. तभी चार जमाती सिपाही दो बाइक्स से पार्किंग के पास उतरे. उनकी नज़र हमारे पड़ोसी पे शायद पहले से ही थी. पड़ोसी भी हमारे ठहरे मासूम आदमी! जमातियों से नज़रे लड़ाने में उन्हें भी कोई एतराज़ न था. मैंने जो यूँ नज़रों को नज़रों से लड़ते देखा तो वही किया जो हमेशा से करता आया हूँ, चल दिया अपने रस्ते, बेपरवाह! अनजान बन के!!
लेकिन कल के दो जांबाज़ तब्लीग़ी सिपाही इतनी आसानी से हार मानने वाले न थे. दूर से सलाम ठोकते मेरे पीछे-पीछे लग लिए. मैंने अपनी रफ़्तार बढ़ाई तो वो और फुर्ती से मेरे सामने हाथ मिलाने आ पहुंचे और हाथ आगे कर दिया. मैंने एक बार तो कोरोना माता को याद किया लेकिन अब ये साफ़ था कि इन सिपाहियों से इतनी आसानी से पीछा छूटने वाला न था. तो मैंने भी तपाक से हाथ मिलाया और इससे पहले कि वो मेरा कुछ मेन्टल टॉर्चर कर पाते, मैंने दोनों सिपाहियों की लगाम अपने हाथ में ले ली.
मैं : तो तब्लीग़ी जमात से लग रहे हैं आप लोग?
पहला सिपाही: जी हाँ, जी हाँ और आप कैसे जानते हैं ?
मैं : तब्लीग़ी जमात को तो मैं दशकों से जानता हूँ. पिछले बीस सालों में कुछ बदलाव हुआ या वैसे का वैसे ही है सब कुछ? एक किताब फ़ज़ाएले-आमाल, चौदह सौ साल पीछे जाने की कवायद, पांच नंबर…
दूसरा सिपाही: पांच नहीं, छे नंबर!
मैं : हाँ, हाँ, सही कहा, छे नंबर! तो वही मुसलमानों से ही मिलना, उन्हीं को समझाना, मुसलमानों का ईमान और मज़बूत करना वग़ैरा – वग़ैरा.
(दोनों सिपाहियों के दिल में लड्डू फूटा कि आज तो पका पकाया ही मुर्ग़ा मिल गया)
दोनों सिपाही एक साथ : जी, जी, जी, जी.. जी…
मैं : देखिये तब्लीग़ी जमात पहले ही बहुत नुकसान कर चुकी है मुसलमानों का और आगे भी मुझे कोई सुधार की उम्मीद नज़र नहीं आती इसमें.
(अब दोनों सिपाहियों के लड्डू उनके चेहरे पे ही फूट गए)
मास्क के पीछे मुरझाया हुआ दूसरा सिपाही : क्यों, क्यों, क्यों, क-क-कअ-कैसे?
मैं : जनाब देखिये, वक़्त बदल गया, हालात बदल गए, माहौल बदल गया और तब्लीग़ी जमात आज भी वही ढाक के तीन पात! ज्ञान-विज्ञान, लोकतंत्र का ज़माना है और आप वही एक किताब लिए सिर्फ 10-12% लोगो को चौदह सौ साल पहले के दौर में ले जाने की कोशिश में लगे हुए हैं. बिना इल्म और लोकतंत्र को अपनाए आज के वक़्त में कोई कैसे तरक्की की उम्मीद कर सकता है भला?
दूसरा सिपाही थोड़ा अकड़ते, शो-औफ करते हुए : तब्लीग़ से इल्म को कोई नुकसान नहीं होता, बहुत सारे पढ़े-लिखे लोग इससे जुड़े हुए हैं. मैं खुद एक इंजीनियर हूँ.
मैं : यही तो अफ़सोस की बात है कि जिस पढ़े-लिखे इंटिलेक्चुअल तबके को नई सोच और समझ से पुरानी परेशानियों के नए इलाज निकालने थे वो भी तब्लीग़ी जमात के चक्कर में लकीर का फकीर बना घूम रहा है. अच्छा आप तो इंजीनियर हैं मैथ्स तो अच्छी ही होगी आपकी. आप ही बताइये कि लोकतंत्र में कोई भी तबका जब तक 51 % आबादी को अपने साथ जोड़ने की कोशिश नहीं करता तो क्या उसका मुस्तकबिल कभी महफूज़ रह सकता है?
दूसरा सिपाही : अरे ये तो आप दुनियावी तरक्की की बात कर रहे हैं. हक़ीक़त ये है की एक ईमान वाला सैकड़ों ग़ैरईमान वालों के मुकाबले बेहतर होता है. ईमान वाले के साथ तो अल्लाह की मदद होती हैं, उसे अपने तरीके से नवाज़ता है.
मैं : अल्लाह की मदद, नवाज़िश! ये सब तो चीनियों, जापानियों, ब्राह्मणों के साथ दिख रही है साहब आज कल.
दूसरा सिपाही : अरे ग़ैरईमान वाले को तो अल्लाह दुनिया में ही नवाज़ देता है, ईमान वाले के लिए तो आख़िरत का वादा है.
मैं : लेकिन आप भी तो तब्लीग़ के ज़रिये दुनिया ही हासिल करना चाहते हैं. भई यही तो कहना है न तब्लीग़ी जमात का कि सारे मुसलमान चौदह सौ साल पुराने वाले इस्लाम पे वापस आ जाएँ तो अल्लाह दुनिया की खिलाफत दे देगा मुसलमानो को जैसे पहले दे दिया था. आप कान घुमा के पकड़ना चाहते हैं लेकिन पकड़ना तो कान ही चाहते हैं न! अरे भई, आज के लोकतंत्र के दौर में आप हर इंसान को बराबर मानो, सबसे सोशल, एजुकेशनल, कल्चरल, पोलिटिकल रिलेशन बनाओ, ज्ञान-विज्ञान को बढ़ावा दो… हुकूमत आप के हाथ में होगी. इससे क्या फर्क पड़ता है कि कोई एक खुदा की बिना देखे हुए इबाबत करता है और कोई किसी चीज़ को खुदा की शक्ल दे के? सबके साथ मिलजुल के अमन और इन्साफ के साथ रहने से आख़िरत भी सवंर जायेगी.
दूसरा सिपाही कुछ तुनक सा गया जैसे मैंने उसकी दुखती रग पे हाथ रख दिया हो : ऐसे कैसे? ग़ैरईमान वाला एक ईमान वाले के बराबर कैसे हो सकता है, वो तो ईमान वाले से कमतर ही रहेगा, हमेशा !
मैं अब पूरे सुकून के साथ: अरे भाई अगर यही बात सारे ग़ैरईमान वाले मिलकर कह दें कि सारे ईमान वाले ग़ैरईमान वालों से कमतर हैं तो फिर?
पहला सिपाही पूरी तरह से कन्फ्यूज़्ड! दूसरा सिपाही हड़बड़ाते हुए: कुछ नहीं चलिए, अल्लाह… ईमान… हिफाज़त… सलाम…आपका ईमान…
मैं : अरे भाई ज़रा ठहरिये, चाय तो पीते जाइये, मेरे घर चलते हैं, आराम से बैठ कर बात करते हैं, इतनी भी क्या जल्दी है..
दोनों सिपाही हड़बड़ाते-बड़बड़ाते अपनी बाइक की तरफ भागे और देखते ही देखते नौ दो ग्यारह हो लिए. अल्लाह का शुक्र है बेग़म साहिबा के साथ कल भी हमारी शाम की चाय रोज़ की तरह आख़िरत बख्श रही.
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डॉ. अयाज़ अहमद, यूनाइटेडवर्ल्ड स्कूल ऑफ़ लॉ, कर्णावती यूनिवर्सिटी, गुजरात में एसोसिएट प्रोफेसर हैं.
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Why Dr Ayaz is so agitated with the Muslim identity, if someone is practicing religion within the constitutional freedom, why is he so offended? Secondly the purpose of Tablighi jamaat is not to attain political dominance by ‘othering’. It’s a purely spiritual movement, he should know that Jamat has successfully countered radicalization of Muslim youths by giving them a metaphysical consciousness of life after death. All the arugements are perhaps prejudiced or emanated from his hatred towards the expression of Muslim identity.
Mr. Practicing, from which part of the narrative did you conclude that Dr. Ayaz is agitated or offended by any identity or practice of any religion? Secondly, why don’t you ask Tablighi jamaat what is the objective of their ‘purely spiritual movement’ if not political dominance by reforming and uniting the ummah? You should know that Jamat has successfully pauperized generations by pretending to ‘talk’ of life in the grave and in the hereafter. Towards what end, for what purpose is such talk one may ask? Answer is simple, so that allah can make them the ruler of this world and then they can enforce their regressive socio-political norms. This is why they regularly talk of becoming haakim/ruler/khaleefa, being superior to rest of the world and so forth. If you don’t have the patience to follow their thoughts which is always frozen in time then just pick up their central text “Fazael-e-Aamal” daily reading of which is literally called ‘taalim’ which exhausts all education for them. You can find it any tablighi mosque. Please educate yourself before passing arrogant judgments born out of ignorance.
काफी वक़्त से अपने आस-पास के कुछ ठीक-ठाक लोगों को भी तबलीग़ी जमात के चक्कर में बावला होते देख रही हूँ। यक़ीन नहीं होता की इतनी तल्ख़ हकीकत को इतने आसान और मज़ेदार अंदाज़ में भी बयान किया जा सकता है।
शुक्रिया Yasmin! मर्ज़ पुराना है और मरीज़ बचकाना, इलाज के नए तरीके तो ईजाद करने ही पड़ेंगे। इस लेख का मक़सद कड़वी दवा को हलवे के साथ पिलाना ही है।
Criticism is good but with positive mindset. The word “Jamati Sipahi” itself portrayed your ill-mindset towards them, and the way you write it seems a piece of comedy. For cheap publicity such articles are in huge demands; carry on and may be one day you will get the position and fame like Tasleema and many others.
Criticism is good but with positive mindset. The word “Jamati Sipahi” itself portrayed your ill-mindset towards them, and the way you write it seems a piece of comedy. For cheap publicity such articles are in huge demands; carry on and may be one day you will get the position and fame like Tasleema Tarik Fateh and many others.
Mr. Fishan, what is positive mindset and who can pass a judgment on it? Trust, me I wrote the narrative with a very positive mindset, if you still found it to be negative then work on your mindset. The word “Jamati Sipahi” has not been invented by me, it is commonly used by Jamatis and those who know Jamatis, therefore, your comment at best is ignorant. You also seem to be confused between a satirical narrative and a piece of comedy. I hope you will now learn a few things about both. Your comment further confirms that this narrative has touched a raw nerve but you don’t have any substantive comments to make. Finally, your ‘cheap publicity’ comment is so shallow that I will give it a pass.
Need to clarify a few things about this piece as it has already earned me a huge basket of slurs and abuses. Firstly, this is a narrative writing whereby all the dialogues have been written exactly as they transpired. I have only added a few comments before and after a dialogue to give it some context and perspective to the reader who was not an eye witness. Secondly, the ideology of Tablighi Jamaat came out during the course of a conversation in which I was least interested. In a way, the conversation was forced on me much against my own wishes. Finally, my suggestion that all human beings be treated equally without reference to their faith, ways of worship or identity is what irked the Tablighi. It continues to irk the reader who subscribes to Tablighi ideology or any other form of supremacist islamophilia. I am sure they deserve it.