राहुल गायकवाड (Rahul Gaikwad)
तो उस दिन, मैं बस यही सोच रहा था कि इस समाज में भ्रष्टाचार विरोधी भाषणबाजी कैसे और कब से चलन में आई। मुख्यधारा के मीडिया द्वारा समर्थित अन्ना हजारे और केजरीवाल की जोड़ी के नेतृत्व में ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन अभियान’ के दौरान हमने इसे बदसूरती के पूर्ण चरम पर देखा। अचानक, मुझे फिल्म ‘अर्ध सत्य’ (1983) की याद आ गई, क्योंकि इसने मुझे एक गंभीर असलियत दिखाकर प्रभावित किया था जिसे मैंने करीब से देखा था। साथ ही, इसने मुझे यह भी याद दिलाया कि किस तरह से मैं कभी भी इस फिल्म के नायक यानि ब्राह्मण चरित्र, ‘वेलंकर’ से संबंधित नहीं हो सकता था। तब मैंने अपने आप से सोचा कि इस समाज को जो आदर्श प्रश्न पूछना चाहिए वह यह है कि धारावी का अस्तित्व है ही क्यों? इसके बजाय, इस फिल्म ने यह सुनिश्चित किया कि एक ‘वेलंकर’ किसी कांबले या किसी अन्य बहुजन के समान ही पीड़ित है। यहीं से मैं कनेक्ट नहीं हो सका और तभी मुझे लगा कि इस फिल्म के माध्यम से जिस नेरेटिव को आकार दिया गया है, वह या तो एक आधारशिला है या भ्रष्टाचार विरोधी भाषणबाजी की ओर बढ़ता हुआ कुछ है, जिसने 2011 में IAC (इंडिया अगेंस्ट करप्शन) आंदोलन के दौरान पूर्ण शक्ति प्राप्त की, या मुझे कहना चाहिए यह आन्दोलन न होकर बस एक पल था, एक क्षण जिसमें यह सब घट गया.
खैर, फिल्म एक ‘ईमानदार ब्राह्मण’ पुलिस सब-इंस्पेक्टर अनंत वेलंकर के बारे में है, जिसे एक झुग्गी-झोपड़ी के बड़े गुंडे टाइप इंसान रमा शेट्टी के द्वारा अनंत वेलंकर पीछे पड़कर परेशान किया जाता है. रमा शेट्टी के कारोबारी हित सभी प्रकार की अवैध गतिविधियाँ करके पूरे होते हैं. फिल्म दर्शाती है कि कैसे झुग्गी-झोपड़ी का मालिक अपने राजनीतिक संबंधों का उपयोग करके इस ईमानदार पुलिस वाले को पछाड़ना और परेशान करना जारी रखता है; फिल्म में दिखाया गया है कि पुलिस माफिया के साथ कैसे काम करती है। पूरी व्यवस्था इतनी भ्रष्ट है कि यह ईमानदार सिपाही, वेलंकर, इसे सहन करना कठिन पाता है, इसलिए वह पूरी झुग्गी-झोपड़ी और राजनीतिक-पुलिस गठजोड़ से लड़ता है। यह फिल्म “समानांतर सिनेमा” की सबसे ज्यादा देखी जाने वाली पुलिस फिल्मों में से एक है, जिसे मुख्यधारा की फिल्म के रूप में अच्छा दर्शक मिला है।
आगे शोध करने पर मुझे एहसास हुआ कि हालांकि यह फिल्म एक मील के पत्थर के रूप में मनाई जाती है और कहा जाता है कि यह एक उपन्यास पर आधारित है, लेकिन वास्तव में धारावी-माटुंगा के डॉन, वरदराजन मुदलियार और तत्कालीन डीसीपी वाईसी पवार के बीच वास्तविक जीवन की लड़ाई से प्रेरित है। फिर इसने मुझे और अधिक सोचने पर मजबूर कर दिया. यह फिल्म किसी उपन्यास पर आधारित फिल्म नहीं हो सकती जैसा कि दावा किया जाता है, हालांकि प्रसिद्ध मराठी नाटककार विजय तेंदुलकर ने इस फिल्म के लिए पटकथा लिखी थी। क्योंकि इस फिल्म के बनने से कुछ साल पहले ही आईपीएस वाईसी पवार ने पूरी मुंबई को ही मंत्रमुग्ध कर दिया था कि अब वह सबसे खूंखार धारावी डॉन वरदराजन को अपने साहसिक करतब के ज़रिये उसके साम्राज्य को अकेले ही खत्म करने वाले हैं. अब श्री वाईसी पवार महाराष्ट्र के एक छोटे से शहर से थे और चांभार जाति के थे; इस नाते वह एक दलित या अनुसूचित जाति से आने वाले पहले ऐसे अधिकारी थे जिन्होंने वह किया था जिसे करने की किसी अन्य अधिकारी ने करने की हिम्मत नहीं की थी मुंबई में।
जब मुझे एहसास हुआ कि यह फिल्म की वास्तविक पृष्ठभूमि थी और वास्तविक नायक एक दलित था, और जब मैंने फिल्म देखी, तो नायक एक ब्राह्मण चरित्र ‘वेलंकर’ है, और इस बात ने चीजों को स्पष्ट कर दिया कि कैसे ब्राह्मण-सवर्ण कभी भी सबाल्टर्न तबके के नायक को स्वीकार नहीं करते, उन्हें इस वर्ग से केवल पीड़ित लोग चाहिए, और वे लोग एक उत्पीड़क वर्ग से होने के नाते वे उत्पीड़ितों को बचाने वाले मसीहा बनना चाहते हैं। जाति से उपजा यह श्रेष्ठता का परिसर सुनिश्चित करता है कि तेंदुलकर-निहलानी सबाल्टर्न या दलित पृष्ठभूमि के एक नायक की थाह नहीं ले सकते हैं, और वास्तविकता के विपरीत, एक ब्राह्मण नायक, ‘वेलंकर’ को स्थापित करते हैं।
यदि सभी दलित उनके नेरेटिव में कहीं दिखाए भी गए हैं, तो वह केवल गूंगे, असहाय व् पीड़ितों के रूप में ही दिखाए गए हैं जिन्हें उच्च जाति के उद्धारकर्ताओं द्वारा आकर बचाया जाना है (वास्तव में, तेंदुलकर इससे आगे जाते हैं और दलितों को अपने नाटक ‘कन्यादान’ के माध्यम से प्रदर्शित करते हैं)। उनके लिए सबाल्टर्न से, शोषितों से आने वाला कोई भी वास्तविक नायक अभिशाप है। यही कारण है कि पवार को इस जोड़ी से कोई पहचान नहीं मिलती है लेकिन फिर भी ये जोड़ी, उनके द्वारा किये कामों के चलते एक उदारवादी प्रगतिशील साख के लिए जानी जाती है. यह जोड़ी जो दिखाती है वह केवल जाति आधिपत्य है, समानांतर सिनेमा इस प्रकार समानांतर जाति है, और मुख्यधारा के सिनेमा, मीडिया या शिक्षा जगत से अलग नहीं।
लेकिन जैसा कि मैंने पहले उल्लेख किया है, मैं व्यक्तिगत रूप से महसूस करता हूं कि इस फिल्म ने उस नेरेटिव को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है कि हम सभी भ्रष्टाचार नामक इस खतरे के समान शिकार हैं और इसलिए हम सभी समान हैं। तो वेलंकर, इस हिसाब से, इस जाति समाज में कांबले के समान ही पीड़ित हैं, जबकि वास्तव में जाति सबसे बड़ा धोखा है, भ्रष्टाचार है जो इस समाज में जाति के भौतिक अस्तित्व और असमानता के आधार को निर्धारित होता है, लेकिन इस नेरेटिव के माध्यम से पूरी तरह से मिटा दिया गया है। यह भ्रष्टाचार विरोधी जो भी था वह दरअसल केवल जाति के बारे में कोई भी चर्चा न हो इसलिए लाया गया था और अब यह बात स्पष्ट हो चुकी है.
एक और “समानांतर फिल्म” जो अत्यधिक प्रशंसित है, वह है जब्बार पटेल की मराठी फिल्म मुक्ता (1994)। इस फिल्म में नायक को एक दलित व्यक्ति के रूप में दिखाया गया है, जिसे समान रूप से पितृसत्तात्मक और हिंसक दिखाया गया है जब वह अपनी सवर्ण प्रेमिका के काले पुरुष मित्र से ईर्ष्या करता है और उसकी पिटाई करता है। इसलिए, जैसा कि आप दलित पैंथर्स द्वारा उत्पीड़कों का सामना करने के दलित दावे को बढ़ते हुए देखते हैं, तुरंत हम देखते हैं कि जब्बार पटेल (जो महाराष्ट्र में तथाकथित उदार समाजवादी प्रगतिवादियों से जुड़े हैं) मुक्ता में दलित नायक को अपनी सवर्ण प्रेमिका के प्रति हिंसक रूप से मर्दाना चित्रित करते हैं। इस “समानांतर सिनेमा” के माध्यम से इस स्टीरियोटाइप को जन्म दिया गया था। इस फिल्म ने कुछ ‘राष्ट्रीय एकता’ पुरस्कार भी जीता। कोई आश्चर्य नहीं कि उस दशक में शर्मिला रेगे जैसे ब्राह्मण शिक्षाविदों द्वारा इस नेरेटिव को समान रूप से प्रभावी ढंग से या अधिक प्रभावी ढंग से चलाया गया था।
वर्ष 2014 में रिलीज हुई फिल्म “कोर्ट” इसी तरह प्रगतिशील दिखने की आड़ में गुमराह करने की कोशिश करती है, जबकि यह दिखाती है कि कैसे एक संस्था के रूप में अदालत विफल है और कैसे अंबेडकरवादी कार्यकर्ता केवल एक पीड़ित हो सकता है जिसकी कोई आवाज़ नहीं है, और वह बस एक निराश इन्सान है. यद्यपि इसने अयोग्य न्यायपालिका को दिखाने के लिए विश्व स्तर पर प्रशंसा अर्जित की हो, लेकिन इसने बहुत ही चतुराई से जाति के प्रश्न से ध्यान हटा दिया। इसने न्यायपालिका को एक विफलता के रूप में दिखाया जैसे कि यह बिना किसी जाति चेतना के, लहू-मास रहित लोगों के बिना एक स्वचालित/स्वतंत्र मशीनरी है। प्रतिनिधित्व आधारित न्यायपालिका समय की मांग है, यह कल्पना करना बहुत बचकाना है कि लोग केवल उच्च सिद्धांतों पर आधारित कुर्सियों पर आसीन होने भर से ही जातिविहीन हो जाते हैं।
तो सवर्ण निर्देशक तम्हाने इस फिल्म में जजों को भ्रष्ट, अक्षम और यहां तक कि अंधविश्वासी भी दिखाते हैं लेकिन यह केवल एक व्यक्तिगत विशेषता है और इसका जाति या जाति के हितों से कोई संबंध नहीं है, यह इस फिल्म द्वारा दिया गया संदेश है। आप ऐसे “समानांतर” सिनेमा से कभी सच बोलने की उम्मीद कैसे करते हैं?
भले ही सई परांजपे की ‘कथा’ जैसी हलकी-फुलकी फिल्मों की ओर रुख किया जाए तो आप जो देखते हैं वह है जाति! लेकिन इस बार ब्राह्मण है, “उनके तौर-तरीके और उनकी संस्कृति” है. इसमें उग्र-सुधारवाद जैसा यानि रेडिकल क्या है, यह समझना मुश्किल है. अगर आधुनिकता या सेक्स या जीवन शैली या कपड़ों के बारे में कुछ विचारों को रेडिकल माना जाता है तो सई परांजपे इस “समानांतर” सिनेमा के माध्यम से उससे भी आगे जाती है जहाँ जातीय-अंतर्विवाह ( caste endogamy) जारी रहते हैं, और जातीय वर्चस्व बच जाता है.
इस प्रकार समानांतर सिनेमा इस भूमि के बहुसंख्यक बहुजनों के साथ बामुश्किल ही जुड़ा है या चिंतित है।
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राहुल गायकवाड़ एक स्वतंत्र शोधकर्ता हैं।
अनुवाद: गुरिंदर आज़ाद
यह आलेख मूल रूप से अंग्रेजी भाषा में है जो अंग्रेजी भाषी राउंड टेबल इंडिया पर यहाँ छपा था.
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