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अरविंद शेष (Arvind Shesh)

‘पठान’ फिल्म शुरू ही होती है कश्मीर में अनुच्छेद 370 खत्म होने की खबर पर पाकिस्तानी सत्ता तंत्र के भीतर भारत के खिलाफ नफरत और दुश्मनी के सीन के साथ।

इतने से यह समझ लेना चाहिए कि यह फिल्म क्या है। लेकिन चूँकि औसत और शासित दिमागों को थोड़ा मसाज-सुख देना था, इसलिए रॉ (RAW) से बाग़ी हुए एक कैरेक्टर और उसके साथ कुछ आतंकवादियों का हड़बोंग दिखा कर रॉ के ही दूसरे अफसर और उसमें एक पाकिस्तानी आईएसआई की महिला अफसर के सहयोग की कथा गढ़ी गई। फिल्म के हीरो-हीरोईन मिल कर डिब्बों में बंद वायरस को रूस के भयानक सुरक्षित जगह से भी निकाल कर ले आते हैं (रूस का सिस्टम पकौड़ा बेचने में लगा था!) और उसे मूर्खतापूर्ण तरीके से नष्ट भी किया जाता है। खिस्सा खतम!

कुल इतनी ही पूरी कहानी है। इस बीच मशीनी और वीएफएक्स टेक्नोलॉजी के जरिए काल्पनिक पटका-पटकी के कंप्यूटरी फिल्मांकन का सपने से भी बदतर मनोरंजन है, जिसमें एक हताश और वंचना में लिथड़े समाज के मन में पलती नफरत, हिंसा, मूर्खता और सेक्स की भूख से पैदा कुंठा का शोषण करके उसी का कामयाब कारोबार किया गया है। बस..!

फिल्म देखते हुए ऐसा लगा गोया बागेश्वर बाबा टाइप किसी चमत्कारी बाबा का शो चल रहा है, जिसमें हर कदम पर बस चमत्कार है, अविश्वसनीय दृश्य है और इस सबका एजेंडा कुछ और है..!

सवाल है कि यह फिल्म सुपर-डुपर हिट क्यों हुई?अगर ‘बेशरम रंग’ जैसे खालिस बेमानी और ग़ैरजरूरी गाने में मार्केटिंग प्लान के तहत एक औसत व्यक्ति के मन में पलती सेक्स की कुंठा से उपजी आग को भड़काने वाला गाना दीपिका के छोटे भगवा कपड़ों और सिक्स-पैक ऐब्स वाले शाहरुख के बीच सेक्स उत्तेजना के सीन के फर्जी विवाद के मकसद से ही फिल्माया नहीं गया होता और फिल्म आने के पहले जारी कर उस पर हड़बोंग मचाने का खेल एक स्क्रिप्ट की तरह ही नहीं खेला गया होता तो इस फिल्म को दर्शक सिर्फ शाहरुख खान के नाम की वजह से मिलते। यों देखा किसने? क्या उस गिरोह ने सचमुच बायकॉट किया, जो इस फिल्म पर पाबंदी लगाने के लिए आंदोलन कर रहा था? क्या समझदारों को अब भी समझ में नहीं आता कि किसी फिल्म का बायकॉट अब एक मार्केटिंग स्ट्रैटेजी है फिल्म तक ज्यादा से ज्यादा लोगों को खींचने के लिए..?

नहीं!! इस फिल्म को सब देख सकें, यह ‘बेशरम रंग’ गाने के पब्लिक करने के साथ ही रणनीतिक तौर पर निश्चित किया गया। मूर्ख और जाहिल शक्लो-सूरत वाले आधे-अधूरे जॉम्बियों के झुंड को बायकॉट करने की हांक के साथ असभ्य तरीके से उछलते-कूदते देख कर तथाकथित सभ्य चेहरे वाले पोंगापंथी लोगों से लेकर बुद्धिजीवियों और क्रांतिकारियों तक ने यह तय किया कि फिल्म को कामयाब बनाना है! जबकि यह फिल्म अपनी कहानी के केंद्रीय विषय-वस्तु के साथ ही सुपर हिट हो चुकी थी। बस उसे हिट कराने के स्क्रिप्ट पर काम बाकी था, जो ज़मीन पर उतरा तो सबके सब उस जाल में फंसे। खासतौर पर बुद्धिजीवियों और क्रांतिकारियों को तो पता भी नहीं चला कि कैसे उन्हें पपलू बनाया गया.! शायद ये सब वही डिजर्व करते थे, जो उन्हें बनाया गया।

इस फिल्म के विषय-वस्तु के लिहाज से देखें तो रॉ और आतंकवाद पर कोई फिल्म किसी को देखना ही हो तो उसे कमल हासन की ‘विश्वरूपम’ के दोनों हिस्से देखने चाहिए। ‘एक था टाइगर’ खेला भी इससे कई दर्जे बेहतर था, जिसमें कैटरीना कैफ़ ने जो भूमिका निबाही, जिस स्तर का अभिनय किया, उसके आसपास भी ‘पठान’ की दीपिका पादुकोण नहीं ठहरती है।

सवाल फिर यही कि यह फिल्म सुपर-डुपर हिट क्यों हुई?

सिर्फ एक वजह से। अगर इस फिल्म का वायरस एंगल इतना वैश्विक गेम से जुड़ा हुआ और भविष्य में वायरसी शिगूफे के इस हथियार से नई दुनिया बनाने का ‘प्रिडक्टिव प्रोग्रामिंग’ का हिस्सा नहीं होता, तो इस फिल्म को सुपर-डुपर हिट कराने में बायकॉट करने वाले चवन्नी छाप नौटंकीबाज से लेकर खुद सत्ता-तंत्र और यहाँ तक कि वायरस-प्रिय वैश्विक ताकतें भी इतनी शिद्दत से सक्रिय नहीं होतीं!

दरअसल, यह फिल्म कोरोना के हवाले के साथ वायरस के नाम पर खेले जाने वाले नए वैश्विक एजेंडे को केंद्र में बनाई गई है और इसी से इसके असली मकसद को समझने की जरूरत है। कोरोना वायरस का जैसा आतंक मचा, उसके बाद उसी तरह आने वाले वक्त में जानलेवा वायरसों के नाम पर जो कहर बरपेगा, तब लोग यह कबूल करके चलेंगे कि यह कुदरती है, नियति है और इसे कबूल करके चुपचाप खत्म होने की शर्त को पहले से मानने को तैयार रहेंगे। कोई सवाल नहीं, कोई प्रतिरोध नहीं। इसके लिए माइंड प्रोग्रामिंग… प्रिडक्टिव प्रोग्रामिंग..!

इसके अलावा, देशभक्ति की छौंक से लेकर ‘बेशरम रंग’ का हड़बोंग तो महज गोबर-दिमागों के भीतर की आग को भड़काने के लिए पर्दे पर सजाया गया है! हँसी तब ज्यादा आती है, जब इस देश का ‘परगतिशील’ तबका अपने ‘दुश्मन’ खेमे की चालबाजियों को रत्ती भर भी समझ सकने की सलाहियत नहीं संभाल पाता… और उनके इशारे पर ठुमके लगाने लगता है। मसलन, अंधभक्तों के कथित बायकॉट के हड़बोंग के बाद यहाँ के परगतिशील बुद्धिजीवी और क्रांतिकारी तबके ने फिल्म को हिट कराने का ठेका उठा लिया..! ये वही बुद्धिजीवी और क्रांतिकारी तबका है, जिसने आदित्य चोपड़ा की ही बनाई ‘शमशेरा’ के फ्लॉप होने पर खुश था और आदित्य चोपड़ा की ही ‘पठान’ पर रीझता दिखा! क्या इसलिए कि ‘शमशेरा’ ब्राह्मणवाद के खिलाफ एक सशक्त प्रतिरोध है और ‘पठान’ सत्ताधारी तबकों के सारे डिस्कोर्स को मजबूती से कायम रखने का इंतजाम करता है?

‘द वोमेन किंग’ जैसी शानदार और ज़मीनी फिल्म देखने के बाद इस फिल्म को देखना किसी के लिए अपने आप में एक कड़वी गोली का घूँट लेना हो सकता है।

बहरहाल… दुनिया है तो चलती रहेगी..!

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अरविंद शेष एक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेखक, कवि एवं फिल्म समीक्षक हैं.

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One thought on “‘पठान’ के पर्दे में क्या-क्या छिपा है?

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