
विद्यासागर (Vidyasagar)
मैं तुम्हारा कवि नहीं हूँ
मैं कवि हूँ अपने चमारटोली का
जिसकी दुर्गन्धता में तुम्हें नरक का आभास होता है
लेकिन मुझे उसमे समानता का स्वर्ग प्रतीत होता है।
मैं कवि हूँ
उन लाखों लोहारों का
जिनकी निहाई पर बरसते हथौड़ों की आवाज़ मुझे
तुम्हारे मंदिरों में चीखते घंटों से ज्यादा मधुर लगती हैं।
मैं कवि हूँ
उन लाखों डोमों का
जिनकी छाया तुम्हारी आत्मा को अपवित्र तो कर देती है
लेकिन उनका स्पर्श हीं तुम्हें मुक्त करता है तुम्हारे पापों से।
मैं कवि हूँ
उन दलित-आदिवासी स्त्रियों का
जिनको तुमने डायन बता कर निर्लज्ज किया था
और भीड़ बनकर उनकी हत्याओं में भागीदार रहे।
मैं तुम्हारा कवि नहीं हो सकता
जो हज़ारों हत्याओं के बावजूद भी मौन हो जाए
जो अंतिम सत्य मान ले तुम्हारे तर्कविहीन शास्त्रों को।
मैं तुम्हारा कवि नहीं हो सकता
जिसकी कविता तथाकथित व्याकरणों में उलझ जाए
जिसकी कविता सत्ता और सियासत का मात्र गुणगान करे।
मैं कवि हूँ
बुद्ध की परम्परा का
जिसकी कविता में मानवता और विश्व का कल्याण है
मैं कवि हूँ
आंबेडकर के आदर्शों का
जिसकी कविता में समानता और बंधुता का विधान है
मैं कवि हूँ
दलित चेतना और अस्मिता का
जिसकी कविता में दलित होना हीं उसकी पहचान है।
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विद्यासागर दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीतिक विज्ञान विभाग में सीनियर रिसर्च फेलो के रूप में कार्यरत हैं।