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आधुनिक भारत में सामाजिक क्रांति के अग्रदूत के रूप में यूँ तो सभी बंगाल के भद्रलोक जैसे राजा राम मोहन रॉय, केशव चंद्रसेन, इश्वर चंद विद्यासागर आदि के बारे में स्कूलों और अन्य पाठ्यक्रमो में पढ़ते रहे हैं जिनकी बंगाल प्रान्त में उच्च वर्णीय महिलाओ को दयनीय स्थिति से निकालने में प्रभावी भूमिका थी पर देश के मध्यप्रांत में जन्मे महात्मा जोतीराव फुले इन तमाम उच्च वर्णीय समाज सुधारको से अलग समाज के निम्न समझे जाने वाले अन्य पिछड़े वर्ग की माली जाति से थे जिन्होंने न सिर्फ महिलाओ की दशा सुधारने के अप्रतिम प्रयास किये बल्कि देश में व्याप्त जातिप्रथा और हिन्दू धर्म के तमाम पाखंडो और कुरीतियों के खिलाफ संघर्ष का आगाज़ करते हुए दलित और अन्य पिछड़े समाज के स्त्री-पुरुषो में जाग्रति और शिक्षा का प्रसार करते हुए उन्हें आत्म सम्मान और अधिकारों के लिए आंदोलित किया. महात्मा फुले का कार्य निश्चित ही अधिक चुनौतीपूर्ण था क्योंकि स्वयं शूद्र होने के नाते उन्हें न सिर्फ स्वयं सामाजिक व्यवस्था के भार का शिकार भी होना पद रहा था बल्कि वे इन भद्र्लोको से सभी मायने में काफी आगे थे.

 

एक बार की बात है कि वे अपने एक करीबी ब्राह्मण मित्र की शादी में बरात में गए तभी जैसे ही ब्राह्मणों को इस बात कि भनक पड़ी कि उनके बरात में कोई शूद्र भी शामिल है तो उन्होंने तुरंत बरात रोककर फुले को गली-गलौच देकर अपमानित करना शुरू कर दिया अंततः उन्हें बरात छोड़ कर आना पड़ा. यह बात उन्हें इतनी घर कर गई कि उन्होंने इसके बाद का सारा जीवन ब्राह्मणवादी व्यवस्था और पाखंडो को नष्ट करने के लिए ही कुर्बान कर दिया.

 

गौरतलब है कि महात्मा फुले ने वर्तमान गतिशील शूद्र जातियों की तरह स्वयं अपनी जाति को ब्राह्मणी व्यवस्था में स्थान दिलवाने की कोई चेष्टा नहीं कि अपितु उन्होंने इस ऊँच-नीच की पूरी व्यवस्था को ही जड़ से नष्ट करने का अभियान छेड़ दिया. बात १८६८ की है जब उन्होंने एक क्रांतिकारी कदम उठाते हुए अपने घर के कुएं को दलितों के लिए खोल दिया. यह बात अपने आप में बहुत अनोखी थी क्योंकि आज भी भारत के अधिकांश गाँव और बहुत से कस्बों में दलितों को शूद्रो के घरो में बिना प्रतिबन्ध के प्रवेश लेने कि इजाज़त नहीं है.  आज से लगभग डेढ़ सौ साल पहले किसी शूद्र द्वारा दलितों को उसके घर में प्रवेश आरम्भ करना कितना बड़ा कदम होगा. जाहिर है उन्हें इसका उतना ही कठोर प्रतिरोध भी झेलना पड़ा और उन्हें उनके पिताजी द्वारा घर से बेदखल कर दिया गया. चूँकि इस मुहीम में उनके साथ उनकी पत्नी सावित्री बाई भी थी अतः उन्हें भी इस गुस्से का शिकार होना पड़ा. इस तरह दोनों ही घर से निकाल दिए गए. पर उन्होंने थोड़ी भी हिम्मत नहीं हारी बल्कि दुगने उत्साह के साथ समाज परिवर्तन की मुहीम में जुट गए. सावित्री बाई फुले ने हर स्तर पर न सिर्फ महात्मा फुले का साथ दिया बल्कि एक कदम आगे बढ़कर स्वयं कई जिम्मेदारिया संभाली. उनका अपना काम इतना अधिक है कि उसे बताने के लिए एक अलग अध्याय की जरुरत है.

वैसे ऐसा नहीं की जोतिबा फुले के पिताजी द्वारा पहली  बार कोई  दकियानूसी कदम उठाया गया था पर वह तो इससे पहले भी वे जोतीराव के स्कूल के दिनों में एक ब्राह्मण की सलाह पर बीच में बंद करवा चुके थे वह तो बीच में एक मुस्लिम मित्र की नेक सलाह पर पिताजी ने जोतिबा फुले की पढाई पूरी करवाई. पर ऐसा नहीं की फुले का परिवार आरम्भ से ही दकियानूसी रहा हो उल्टा उनके परदादा तो पहले ही अपने गाँव लाल्गुन में ब्राह्मणों के दमन का विरोध कर चुके थे जब उस गाँव में पेशावाकाल में ब्रह्मण राजस्व अधिकारी दलित ओर किसानो पर तरह-तरह के ज़ुल्म ढाया करते थे. इस समय जोतीराव के परदादा ने जब देखा की इस अन्याय से अन्य किसी विधि से निपटाना असंभव है तो उन्होंने शोषण का अंत करने के लिए उन राजस्व अधिकारियों की ही हत्या कर दी पर उन्हें स्वयं की जान बचाने के लिए अपना गाँव छोड़ने पर मजबूर होकर  पूना शहर के नज़दीक अपना निवास ब बनाना पड़ा. यहाँ पर उन्होंने अपना फूलों का व्यवसाय आरम्भ किया ओर तभी से इस परिवार के साथ ‘फुले’ उपनाम जुड़ गया.

 

ठीक अपने परदादा के ही तरह पैत्रक घर छोड़ने पर जोतीराव को भी कालान्तर में एक नया विशेषण ‘महात्मा’ मिला. यहाँ यह जानना जरुरी है की फुले स्कूल के दिनों से ही एकदम मेधावी रहे थे ओर उन्होंने ने तब से अंग्रेजी की उपलब्ध कितबे पढ़ना शुरू कर दिया था थोमस पैने की ‘राइट्स ऑफ़ मेन’ ओर एज ऑफ़ रिसन ने उन्हें बहुत प्रभावित किया था. गौरतलब है की अपने घर से बेघर होने से कुछ पहले ही वे सावित्री बाई के साथ  दलित लडकियों के लिए स्कूल खोल चुके थे. १८५१ में उन्होंने एक ओर स्कूल खोला जो सभी जाति की लड़कियों के लिए था. आज के दौर में भले ही हमें महिलाओं की शिक्षा कोई नयी बात नहीं लगे लेकिन उस वक़्त समाज में स्पष्ट मान्यता थी की शिक्षा सिर्फ पुरुष के लिए ही होती है क्योंकि महिलाओं का काम सिर्फ चुल्हा-चौका ओर परिवार की देखभाल का है तथा उस काल की मान्यता के अनुसार लड़की को पराया धन समझा जाता था क्योंकि कम उम्र में ही लडकियों की शादी कर दी जाती थी. ऐसे समय जोतिबा फुले का महिलाओं को शिक्षा के लिए प्रवृत्त करना कितना चुनौती भर होगा इसे साफ़ समझा जा सकता हैं.

 

गौरतलब है की जोतिबा फुले ने जिस तरह अपने घर का कुआ दलितों के लिए उपलब्ध करा कर स्वयं जातिवाद के खिलाफ एक उदाहरण पेश किया था उसी तरह महिलाओं की शिक्षा के कार्य को हाथ में लेने से पहले उन्होंने इसकी शुरुआत भी अपने घर से अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले को शिक्षित कराने के माध्यम से की. महात्मा फुले इन इस तरह अपने जीवन में कभी दो मापदंड नहीं रखे उन्होंने जो भी चीज़ समाज के लिए हितकर पाई उसका उपदेश देने के बजाय पहले स्वयं ही अमल किया ओर उसके बाद उसे समाज में लागु करवाने की कोशिश की.

 

जोतिबा फुले के ये सभी कार्य पूरी तरह हिन्दू मान्यताओं के खिलाफ थे इसलिए उनका हर स्तर पर विरोध होता रहा पर बात छिटपुट विरोध तक ही नहीं रुकी बल्कि ब्राह्मणों ने जोतिबा फुले की हत्या करवाने के लिए गुंडे भेज दिए जो एक रात  जोतिबा फुले के घर रात के अँधेरे में लाठी लेकर चुपचाप दाखिल हुए पर वे फुले की नज़र से बच नहीं पाए. जोतिबा फुले ने कड़कती हुई आवाज़ में उनसे पुछा की वे कौन है तो उन लठेतो ने कहा की वे उन्हें मारने आये है. इस पर भी जोतिब फुले ने बिना घबराए उनसे कहा की ‘मेरी तुम लोगो से कोई दुश्मनी नहीं है फिर तुम मुझे क्यों मारना चाह रहे हो ‘. इस पर उन लठेतो ने बताया की वे पैसो की खातिर उन्हें मारने आये हैं तब फुले ने शांतचित्त से उनसे कहा की यदि ‘मुझे मारने से तुम्हे पैसे मिलने वाले है तो ठीक है तुम लोग मुझे मार डालो’. यह बात सुनकर दोनों लठेतो को बहुत आश्चर्य हुआ की आखिर यह कैसा व्यक्ति है जो मौत को सामने देखकर भी नहीं घबराता ओर उन्होंने तुरंत अपने हथियार डाल दिए. तब महात्मा फुले ने उन्हें पास बैठाकर ब्राह्मणवाद की पूरी व्याख्या की ओर उन्हें बताया की जिस तरह वे स्वयं शूद्र होने के बावजूद भी एक एनी शूद्र की जान सिर्फ कुछ पैसो के खातिर लेना चाह रहे थे उसी तरह सारा भारतीय समाज चंद स्वार्थ के खातिर दूसरी जाति को अपने से नीच समझ कर उनसे अमानवीय व्यवहार करने लगता है. जोइबा फुले से इतना बड़ा  सच सुनकर वे दोनों बहुत प्रभावित हुए उनमे से एक धोंदिराव तो महात्मा फुले के इतने करीबी शिष्य बने ओर उन्होंने फुले के मिशन को आगे बढ़ने में बड़ी भूमिका अदा की. गौरतलब है की महात्मा फुले की प्रसिद्ध पुस्तक ‘गुलामगिरी’ धोंदिराव द्वारा महात्मा फुले से पूछे गए प्रश्नों पर ही आधारित हैं.

 

यह किताब भारत के प्राचीन इतिहास का वैज्ञानिक पद्धति से विश्लेषण हैं जिसमे महात्मा फुले ने हिन्दू धर्म के मिथक के आधार पर इतिहास की पुनर्रचना की. जैसा की इसके नाम से इंगित होता है इस किताब में महात्मा फुले ने सबसे पहला जोर इस बात पर दिया की किसी भी समाज में शोषित वर्ग स्वयं मानसिक गुलामी से ग्रस्त रहता है इसलिए वह कभी भी इसके खिलाफ संघर्ष करने का प्रयास नहीं करता. आगे वे पुराणों में वर्णित विष्णु के विभिन्न दस अवतारों का विश्लेषण करते हुए कहते हैं की  इन प्रत्येक अवतारों ने छल-कपट से मूल निवासियों को पराजित करते हुए धीरे-धीरे शासन पर कब्ज़ा कर लिया ओर यहाँ के मूल निवासियों को शूद्र ओर अस्पृश्य घोषित कर दिया.

 

इसकी शुरुआत में उन्होंने तर्क रखा कि हिन्दू लोग वर्ण व्यवस्था को सनातन मानते हुए कहते हैं कि चारो वर्णों का जन्म ब्रह्मा के शरीर से हुआ तब उन्हें यह बताना चाहिए कि क्या ब्रह्मा ने यह करतूत भारत में ही क्यों कि देश के बाहर के अन्य समुदाय जैसे अँगरेज़, फ्रांसीसी आदि तो वर्ण व्यवस्था को बिलकुल भी नहीं मानते अर्थात यह तथाकथित सनातन नियम कोई सार्वजनीन सच्चाई नहीं बल्कि भारत के मूल निवासियों को गुलामी में रखने की एक चल मात्र है.

 

आगे वे कहते हैं कि यदि ब्राह्मणों का जन्म ब्रह्मा के मुख से हुआ तो क्या ब्रह्मा के मुखे से मासिक स्राव भी हुआ करता था क्या और उसे इस दौरान कपडे या नेपकिन का इस्तेमाल किया करता था? आश्चर्य कि बात है कि जिस ब्रह्मा के वंशज होने का दावा ब्रह्मण करते हैं वे ब्रह्मा एक कामांध व्यक्ति था जिसने उसकी स्वयं की बेटी सरस्वती के साथ बलात्कार किया और उसे पत्नी बना लिया!!!

 

सच्चाई यह है कि ब्रह्मण कभी भी भारत के मूल निवासी नहीं रहे हैं बल्कि उनका मात्र स्थान इरान रहा है जहा से वह समुद्र और ज़मीन दोनों ही माध्यम से आकर यहाँ के मूल निवासियों को धोखे से बंदी बनाकर शुद्र घोषित कर डाला. विष्णु का मत्स्य अवतार हमें ब्राह्मणों के समुद्र मार्ग से आक्रमण का संकेत देता है वहीँ उसका सूअर अवतार हमें ज़मीन से उनके आक्रमण की गंध देता है. महात्मा फुले आगे कहते हैं कि एक समय इस देश में आज के दलितों और शुद्रो का राज हुआ करता था और यहाँ पर उनका एक विशाल साम्राज्य था जिसका राजा बलि था जो बहुत न्यायप्रिय और सिद्धांतवादी राजा था वह कभी भी भागते हुए दुश्मन पर वार नहीं करता था इसलिए उसे मार-टोंड (मुंह पर वार करने वाला ) कहा जाता था जिसे युद्ध में हराना मुश्किल था इसलिए ब्रह्मण ने छल से उसकी हत्या कर दी.

 

महात्मा फुले ने ब्राह्मणवाद से आमजनों को मुक्त कराने के व्यावहारिक प्रयास के लिए १८७३ में सत्यशोधक समाज की स्थापना की जिसके माध्यम से वे आमजनो को हिन्दू धर्म के संस्कारो का विकल्प उपलब्ध कराते हुए उनमे वैज्ञानिक मानववाद का प्रसार करने का कार्य आरम्भ किया और इस दिशा में उन्होंने सबसे पहले पंडितो और हिन्दू कर्मकांडो को सभी आवश्यक संस्कार जैसे विवाह, जन्म और  मृत्यु से हटाने के लिए  कुछ स्त्री-पुरुषो की टीम तैयार की जो बिना मंत्र पठन और देवी -देवताओं का पूजा-पाठ किये तथा बिना किसी दान-दक्षिणा के सरलता से इसे पूरा कर दिया करते थे.  

 

शिक्षा को मानव मुक्ति का माध्यम जानते हुए उन्होंने अंग्रेजी हुकुमुत से प्राथमिक स्तर की शिक्षा की और भी ध्यान देने की वकालत की उनका कहना था कि ब्रिटिशो द्वारा सिर्फ उच्च शिक्षा पर ही खर्च किया जा रहा रहा है जिसका लाभ केवल उच्च वर्णों को ही मिलता है पर यदि सरकार प्राथमिक स्तर पर भी ध्यान देने लगे तभी समाज के कमज़ोर वर्ग तक शिक्ष पहुच पायेगी . १८८२ में उन्होंने हंटर कमीशन के समक्ष पिटीशन दायर करके उसका ध्यान इस ओर आकृष्ट कराया कि उच्च वर्गों को यह सोच कर शिक्षित करना कि वह इस ज्ञान का उपयोग कमज़ोर वर्गों को शिक्षित करने में लगायेंगे भारतीय सन्दर्भ में नामुमकिन है इसलिए सरकार को अब दलित ओर पिछड़े वर्ग की ओर ध्यान देना ज़रूरी है.

 

समाज में पूरी तरह समता स्थापित करना उनके जीवन का लक्ष्य था इसलिए उन्होंने जब भी कोई शोषित वर्ग देखा वे उसके उत्थान के लिए अपने को रोक नहीं पाए उन्होंने जब ब्राह्मण विधवाओ की दुर्दशा देखी को वे उन्हें अपनी दुश्मन कौम मानकर आँख मूंदे नहीं बैठे रहे बल्कि वे पूरी शिद्दत के साथ ब्राह्मण विधवाओं के उत्थान के लिए जुट गए १९६० में उन्होंने विधवा पुर्नर्विवाह के लिए अभियान आरम्भ किया क्योंकि उन्होंने देखा कि ब्राहमण उनकी विधवाओं पे तमाम प्रतिबन्ध जैसे उनके सर मुंडवाना, सफ़ेद साडी पहनने की अनिवार्यता और उनके सामान्य जीवन पर प्रतिबन्ध लगाया करते थे पर ब्रह्मण-पुरुष खुद अपने घर की ही विधवा के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाकर गर्भवती कर दिया करते थे और बाद में राज खुलने पर उन विधवाओं को दुश्चरित्र होने का लांछन लगाया करते थे  और उन्हें मारपीट कर बेघर कर दिया करते थे या ज़बरदस्ती गर्भपात कराया करते थे.

 

इस अमानवीय प्रथा को देखकर महात्मा फुले ने सावित्री बाई के साथ मिलकर विधवा आश्रम की स्थापना की जहाँ न सिर्फ विधवाओं के रहने और खाने की व्यवस्था थी बल्कि वहां पर प्रसव सुविधा भी थी.

 

गौरतलब है कि भद्रलोक सुधारवादी जहाँ ब्रह्मण महिलाओं की स्थिति में सुधार को ही परम लक्ष्य बनाए बैठे थे वन्ही जोतिबा फुले की द्रष्टि में सभी पीड़ित वर्ग का उत्त्थान  एक समान ही आवश्यक था.

 

महात्मा फुले ने खुलकर सुधारवादी ब्राह्मण महिलाओं की मुहीम का भी समर्थन किया. पंडिता रमा बाई जो कि एक प्रगतिशील महिला थी ने जब हिन्दू धर्म के पाखंडो को उजागर कटे हुए धर्मान्तरण की घोषणा की तो समाज के तथाकथित आधुनिक विचारक जैसे विवेकानंद भी विरोध में उतर आये पर जोतिबा फुले ने पूरी शिद्दत के साथ पंडिता रमा बाई का  साथ दिया, इसी तरह तारा बाई शिंदे के अभियान का भी फुले समर्थन किया जबकि उनके कुछ करीबी सहयोगी भी ताराबाई का विरोध करने लगे थे.

 

जाहिर है कि महात्मा फुले किसी भी रूप में स्त्री को पुरुष से कम नही मानते थे इसलिए जब उनकी शादी के वर्षो बाद भी उन्हें कोई संतान नहीं हुई और लोग उनपर इसके लिए दूसरी शादी करने का दबाव बनाने लगे तो फुले ने बड़ी दृढ़ता के साथ उन्हें जवाब देते हुए कहा कि संतान नहीं होने पर स्त्री को दोषी मानना बिकुल भी विज्ञानसम्मत नहीं है बल्कि यह पुरुषवादी मानसिकता है जो दूसरी शादी करने की वकालत करती हैं इसलिए बेहतर है हम दोषारोपण करने के बजाय कोई बच्चा गोद ले ले और उन्होंने अपने विधवा आश्रम से ब्राह्मणी विधवा का बेटा गोद ले लिया जिसका नाम यशवंत रखा जो आगे चलकर डोक्टर बन और जोतिबा फुले के मिशन को कार्यरूप देता रहा.

 

महात्मा फुले निर्बलो की सेवा अपनी जान जोखिम में डाल कर किया करते थे १८९० में जब उनका गाँव प्लेग की चपेट में आया तो उन्होंने बिना परवाह के रोगियों की सेवा में समर्पित कर दिया अंततः उन्हें स्वयं भी प्लेग का शिकार हो गए. फुले कि मृत्यु के बाद सारा काम सावित्री बाई फुले ने अपने हाथ में लिया, वे ओर उनका बेटा भी प्लेग रोगियों की सेवा करते हुए मानवता के लिए शहीद हो गए. उनकी इस कर्ताव्यपरायणता से अभिभूत होकर ब्रजरंजन मणि कहते हैं कि विश्व में शायद ही ऐसा कोई उदहारण होगा जहाँ पूरा परिवार मानवता की सेवा के लिए एक एक कर के शहीद हुआ हो.

 

उल्लेखनीय है कि महात्मा फुले की मृत्यु के बाद भी उनका कारवा जारी रहा. डॉ बाबासाहेब आंबेडकर को बडौदा नरेश से मिलवाकर उनके लिए विदेश में पढाई के लिए स्कालरशिप उपलब्ध करवाने में मदद करने वाले तथा बाबासाहब को उनके युवा दिनों में बुद्ध के धम्म से अवगत करवाने वाले केलुस्कर गुरूजी सत्यशोधक समाज के ही सदस्य थे. बाबासाहब भी स्वयं महात्मा फुले के कार्यो ओर विचारो से इतने अधिक प्रभावित थे कि उन्होंने बुद्ध ओर कबीर के साथ महात्मा फुले को अपना गुरु माना.

 

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