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हरियाणा के एक गाँव में पली-बढ़ी डॉ. कौशल पंवार दिल्ली विश्वविद्यालय में संस्कृत पढ़ा रही हैं. इनकी ज़िन्दगी तमाम कठिनाइयों और परेशानियों के बावजूद अपने लक्ष्य को हासिल करने की सफल ज़द्दोज़हद की अनूठी दास्ताँ है. अनूप कुमार द्वारा लिया गया उनका यह साक्षात्कार अंग्रेजी भाषा में  दलित एंड आदिवासी स्टुडेंट्स  पोर्टल पर उपलब्ध है . 

 

 

कृपया हमें आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में बताइये?

मैं हरियाणा के राजौर गाँव जिला कैथल के बाल्मीकि समुदाय से हूँ. मेरे पिता एक भूमिहीन मजदूर थे जिनकी वर्ष २००१ में मृत्यु हो गयी. मेरे दो बड़े भाई हैं. मेरे परिवार के सभी सदस्य एक जाट ज़मींदार के खेत में काम करते हैं. अपने परिवार के साथ मैंने भी सड़क-निर्माण कार्य में मजदूरी की है.

मेरा बड़ा भाई दसवी पास नहीं कर सका, वह पंजाब पुलिस में सिपाही के रूप में भर्ती हुआ पर कुछ कारणों से उसे यह काम छोड़ना पड़ा. आज वह बेरोजगार है. कैथल जिले के बाल्मीकि समुदाय से केवल मै ही इस स्तर तक पहुँच पाई हूँ हमारा बाकि समुदाय तो आज भी सफाई के काम और मजदूरी में लगा हुआ है.

आपकी शैक्षणिक पृष्ठभूमि क्या रही है?

मैंने अपनी स्कूली शिक्षा गाँव के स्कूल से की पर मुझे अपने ग्रेद्युएशन के लिए कॉलेज में दाखिला लेना पड़ा जो मेरे घर से ६० कि.मी. दूर था, यहाँ मुझे क्लास करने के लिए गाँव से रोज़ आना पड़ता था. मैंने मास्टर डिग्री के लिए कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और फिर एम फिल के लिए रोहतक में.

लेकिन मेरी ज़िन्दगी में मोड़ तब आया जब मुझे वर्ष २००९ में जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में पीएच. डी के लिए प्रवेश का अवसर मिला. मुझे मेरी थेसिस ‘धर्मशास्त्रों में शूद्र’ विषय पर डॉकटरेट की उपाधि मिली. अभी में दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज में सहायक प्राध्यापक हूँ.

यह वास्तव में आपकी असाधारण यात्रा है. आपकी पढाई में सफलता के पीछे क्या प्रेरणा थी?

मैं बिना किसी हिचक के कहूँगी कि मेरे पिता मेरे सबसे बड़े प्रेरणा स्त्रोत रहे. दूसरा महत्वपूर्ण कारण मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि थी-गरीबी, परिवार के पुरुष सदस्यों में पीने की लत, जाति-उत्पीडन के मामलों में असहाय होना- कुछ ऐसी बाते थी जिनके बीच में मै बड़ी हुई. एक समय के बाद इन सब चीजों से बहुत परेशान हुई और तब मैंने अपना ध्यान केवल पढाई की और लगाना शुरू किया.

मैंने देखा था कि मेरे पिता को जाति के नाम पर गालियाँ दी जाती थी तथा इसी आधार पर उनका शोषण होता था. सच कहूँ तो मेरे पिता की लाचारी ने मुझे हमारी ज़िन्दगी की ओर आलोचनात्मक रूप अख्तियार करने के लिए प्रेरित किया और यह जताया की हम इसे अपना ‘भाग्य’ समझ कर ही नहीं बैठे रहे.

मुझे पढ़ाने में मेरे पिता की अहम् भूमिका रही. यहाँ में आपको मेरे पिता के साथ घटा एक वाकिया सुनाना चाहती हूँ. उन्हें एक बार बस कहीं से जाना था. उन्हें पक्का यकीन नहीं था कि बस यहीं आने वाली है इसलिए उन्होंने एक व्यक्ति से इस बाबत पूछताछ की तो उसने बड़ी ज़िल्लत से कहा “तुम पढ़ नहीं सकते हो कि बस पर क्या लिखा हैं” मेरे पिता अनपढ़ थे , उन्हें यह सुनना बहुत शर्मनाक लगा. उन्होंने ने उसे बहुत शांति से कहा, “अगर मै पढ़-लिखा होता तो तुमसे यह क्यों पूछता ? इस घटना के बाद मेरे पिता ने निर्णय लिया कि वह किसी भी कीमत पर अपने हर बच्चे को जरुर पढ़ाएंगे ताकि वे कभी इस तरह की शर्म का अनुभव नहीं करें. मेरे पिता ने मुझे कभी भी घरेलु काम करने कि इजाज़त नहीं दी. मेरी माँ ने भी मुझे पूरा सहयोग दिया पर उन्हें चिंता होती थी की शादी के बाद मेरा क्या होगा. (हँसते हुए)

लोग कहा करते थे कि मेरी शादी कब होगी? लेकिन मैंने कोई परवाह नहीं की और कभी भी पढाई से पीछे हटने की नहीं सोची. मुझसे जो भी संभव था वह मैंने पढाई के लिए किया.

पढाई के दौरान मुझे अपनी पढाई के साथ-साथ मेरे परिवार के लिए भी कमाना पड़ता था. आपको यकीन नहीं होगा कि मेरे ग्रेड्यूएशन के दिनों में, मै उस सड़क के निर्माण में मजदूरी किया करती थी जो मेरे कॉलेज तक जाती थी(हँसते हुए).

जिस समय मै मास्टर डिग्री कोर्स कर रही थी तभी मेरे पिता की मौत हुई पर उन्होंने मुझे अपनी बीमारी के बारे में बिलकुल भी जानकारी नहीं होने दी. वे नहीं जानते थे कि पीएच डी क्या होती है पर वे मुझसे हमेशा सबसे ऊँची शिक्षा प्राप्त करने के लिए कहा करते थे और उन्होंने मुझसे वादा करने के लिए कहा था कि मै किसी भी कीमत पर अपनी पढाई नहीं छोडूंगी. उनकी मौत के बाद वह स्थान कोई नहीं भर सका.

आपने संस्कृत विषय क्यों चुना?

इसलिए क्योंकि मैंने अपने बचपन में ही अपने आप से वादा किया था. छटवीं कक्षा के बाद मेने संस्कृत को अपने एक विषय के रूप में चुना था. लेकिन जब में पहली बार संस्कृत की क्लास में गयी तो मुझे मेरे टीचर ने पढ़ाने से मना कर दिया और कहा कि संस्कृत पढने के बजाय में जाकर कचरा उठाऊँ.

जब मैंने जोर दिया तो उन्होंने मुझे थप्पड़ मारकर आखिरी पंक्ति में बैठने के लिए कहा. मै रोई और चली आई पर मैंने उस दिन एक दृढ प्रतिज्ञा की कि मै संस्कृत पढूंगी और इस विषय में शिखर तक जाउंगी. मै बहुत इमानदारी से उस शिक्षक को धन्यवाद देती हूँ उसका जातीय और लिंग भेदभाव ही मेरी प्रेरणा बना.

हमारे अधिकांश दलित और आदिवासी विद्यार्थियों के लिए किसी उत्कृष्ट शिक्षण संस्था में प्रवेश लेना एक सपना होता है. आपने जे एन यू से पी एच डी की. आप वहां तक कैसे पहुंचे?

रोहतक विश्वविद्यालय से मेरे एम फिल हो जाने के बाद मै वहीँ से पी एच डी करना चाहती थी और इसके लिए मेने अपना विषय “वेदों में शूद्र” का चयन भी कर लिया था. पर वहां मेरे शिक्षकों ने मुझ पर अपने विषय में बदलाव कर “साहित्य में शूद्र” करने के लिए दबाव डाला, जिसे मैंने कुछ हिचकिचाहट के साथ स्वीकारा परन्तु एडमिशन के आखिरी दिन मुझे प्रवेश देने से इनकार कर दिया गया.

मुझे बाद में पता चला कि मेरी सीट पर एक ब्राह्मण महिला को प्रवेश दिया गया जो उसी डिपार्टमेंट में पढ़ाती है. मुझे अपने ही शिक्षकों से धोखा मिला पर मै कुछ नहीं कर सकती थी इसलिए में वापिस घर आ गयी.

मेरे विश्वविद्यालय के दिनों में मै सेमिनार और मीटिंगों में भाग लिया कराती थी. ऐसी ही एक मीटिंग जो “कैथल के दलितों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति” पर थी में मुझे जे एन यू के दो प्रोफेसरों डॉ. मालाकार और डॉ फूल बदनसिंह से मिलने का मौका मिला जो वहां वक्ता के रूप में आमंत्रित थे.

बातचीत के दौरान मैंने उन्हें बताया कि किस तरह मुझे रोहतक विश्वविद्यालय ने पी एच डी की सीट से रोका. दोनों ने मुझे जे एन यू से पी एच डी करने की सलाह दे, पर मुझे इस पर विश्वास नहीं था कि मै कभी जे एन यू भी जा पाउंगी पर इन दोनों प्रोफेसरों ने मुझे विश्वास दिलाया.

डॉ फूल बदन ने तो मुझे आवेदन पत्र तक भरने में मदद की, उनके बिना तो आवेदन दूर में जे एन यू के बारे में सोच तक नहीं सकती थी. मेरे प्रकरण से मुझे पता चला कि कैम्पस में दलित प्रोफेसरों का होना कितना महत्वपूर्ण होता है.

 

अब चूँकि आप स्थापित (सैटल) हो चुकी हैं, आप अपने समुदाय के सशक्तिकरण के लिए कैसे काम करना चाहती है?

में उस हद तक काम नहीं कर पा रही हूँ जितना मुझे करना है पर फिर भी मै अपने स्तर पर काफी कुछ कर रही हूँ. अभी मैं लिख रही हूँ और लोगो को प्रेरणा देने के लिए दलित साहित्य के प्रचार का काम कर रही हूँ ताकि वे इसे पढ़े और इससे प्रेरित हो सके. जातिगत शोषण के खिलाफ खड़े हो सके. मै एक छोटे समूह का भी भाग हूँ जो हरियाणा के युवाओ और विद्यार्थियों को जाति विरोधी मुद्दे पर जागरूक करने के लिए छोटी मीटिंगे, नुक्कड़ नाटक और सेमिनार आयोजित कराता है.

हमने अभी १२ अप्रैल को जोतिबा फुले का जन्मदिवस गुरु रविदास पर नाटक खेल कर मनाया जिसमे हमने स्पष्ट दिखाया कि किस तरह गुरु रविदास महज़ एक धार्मिक व्यक्ति नहीं बल्कि हमारे समाज के एक क्रांतिकारी थे. मुझे एक टीचर होने के नाते मेरी ज़िम्मेदारी का एहसास है, हम अपने बच्चो के लिए एक प्लेसमेंट सेल भी चला रहे हैं.

दलित और आदिवासी विद्यार्थियों के कल्याण के लिए उच्च प्राधिकारियों से आपके क्या नीतिगत सुझाव हैं?

कुछ नीतियाँ तो पहले से ही है, लेकिन समस्या इन्हें गलत तरीके से लागू करने में है. हमने बहुत कुछ हासिल कर सकते है यदि हम प्राधिकारियों पर इनके क्रियान्वयन के लिए दबाव बना सके. इसलिए में समझती हूँ कि हमारे विद्यार्थियों को राजनैतिक रूप से इतना होना चाहिए कि वे उस स्थान तक जा सके जहाँ पर नीतियाँ बनती और लागू की जाती है.

दलित और आदिवासी लड़कियों में शिक्षा का प्रचार करने के लिए निश्चित ही बहुत सी नीतियों की ज़रूरत है. उच्च शिक्षा में उनका प्रतिनिधित्व नहीं के बराबर है.

हमारे बहुत से विद्यार्थी जो कमजोर पृष्ठभूमि के होते हैं, कई बार कैम्पस के वातावरण से तालमेल नहीं बिठा पाते. एक और बड़ी समस्या इनकी पहचान को लेकर हैं. इस पर आप क्या कहना चाहते हैं?

मै यह अवश्य कहूँगी कि मेरे लिए मेरी असली पहचान कभी भी समस्या नहीं रही भले ही मै किसी भी स्तर तक पहुंची हूँ . मैंने कभी अपनी पहचान नहीं छुपायी और इसे लेकर मुझमे शुरू से आत्मविश्वास रहा. मैंने अपने बहुत से सहपाठियों के घरो पर नौकर का काम जैसे गोबर साफ़ करना आदि किया और क्लास में मै उनके साथ में बैठा करती थी.

स्कूल में वे लोग मुझे चुहड़ी कह कर चिढाते थे.सच कहू तो मेरे पिता ने मुझे अपनी पहचान पर गौरव करना सिखाया. अपने बचपन से ही मेरे पिताजी मुझे बताया करते थे कि इन मुद्दों पर कोई चिंता नहीं करनी चाहिए कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता यह बात हमारे सभी विद्यार्थियों पर लागू होती हैं, उन्हें भी इस बात पर गर्व होना चाहिए की वे एक मेहनतकश समुदाय से आते हैं और उनका उच्च शिक्षा में होना सिर्फ उनके लिए ही नहीं बल्कि उनके सम्पूर्ण समुदाय के लिए गौरव की बात है.

आपका हमारे उन दलित और आदिवासी विद्यार्थियों के लिए क्या सुझाव हैं जो उच्च शिक्षा में जाना चाहते है?

मै इसके अलावा और क्या कह सकती हूँ कि उन्हें दुगनी मेहनत की ज़रूरत है! चूँकि दलित और आदिवासी विद्यार्थियों को- जाति, वर्ग और लड़कियों को लिंग भेद जैसी रूकावटो का सामना करना पड़ता है, वहीँ सवर्ण विद्यार्थियों को केवल पढाई में ही कड़ी मेहनत करनी पड़ती है. पर हम दलित-आदिवासी विद्यार्थियों को न सिर्फ पढाई के लिए मेहनत करनी होती है बल्कि हमें तो आर्थिक और सामजिक अडचनों का सामना करना होता है. अन्य विद्यार्थियों को किसी को भी कुछ करके नहीं दिखाना होता है, परन्तु हमें न सिर्फ अपने आप को बल्कि हमारे समुदाय के लिए भी कुछ करके दिखाना होता है.

मै संस्कृत पढ़ाती हूँ पर एक दलित-महिला होने के नाते मै जानती हूँ कि यदि मै ठीक से नहीं पढाऊ तो लोग बड़ी आसानी से मुझपर उंगली उठा सकते है. मैंने लोगो को मेरे खिलाफ चुगली करते सुना है, मै उन्हें बड़ी आसानी से अपने काम के माध्यम से जवाब दे देती हूँ. इस छोटे से समय मेरी तीन किताबे प्रकशित हो चुकी हैं और चौथी पर मैं काम कर रही हूँ. हमें हमेशा आगे बढ़ते रहना चाहिए और दूसरों को हमें पीछे धकेलने नहीं देना चाहिए.

आपका इनसाईट जैसे दलित विद्यार्थी समूह के लिए क्या सुझाव है?

मै इन साईट को अपने दिल से धन्यवाद देती हूँ. यह वास्तव में एक अनूठी पहल है जिसका हमारे विद्यार्थियों को लम्बे समय तक लाभ मिलेगा. मै इस समूह को अपने जे एन यू के दिनों से जानती हूँ. इन साईट जैसे समूह के लिए मेरा एक ही सुझाव है कि वह अपनी पहुँच बढाने में समान भागीदारी सुनिश्चित करे हमारे अधिकांश विद्यार्थी बेहद गरीब परिवार से आते है और उनके पास सूचनाओं की कमी होती है. वे स्वयं भी बाहर नहीं आना चाहते हैं. इनसाईट की यह ज़िम्मेदारी है की वह ऐसे विद्यार्थियों तक जाए. हम तब ही कह पाएंगे कि इनसाईट हमारा रोल मॉडल है.

 

(नीलक्रांति के लिए इस  साक्षात्कार का हिंदी अनुवाद रत्नेश  कुमार)

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