एक हैंडबैग। एक नकली दाढ़ी ।
मायावती और हत्शेपसुत की मूर्तियों का हिस्सा बनने से ये दो मामूली सी लगने वाली चीज़े भी डरावने प्रतीकों में बदल जाती हैं। इन दो महिलाओं की मूर्तियों पर समाज में अभूतपूर्व मात्रा में क्रोध ज़ाहिर किया जा चुका है। क्या यह गुस्सा इन मूर्तियों की वजह से है , इन मूर्तियों में दर्शाया गये भावों पर है या फिर खुद की ही मूर्तियाँ स्थापित करवाने के कार्य की वजह से है ? इसका उत्तर सिर्फ यही तीन कारण हैं या फिर कुछ और भी हैं। इन मूर्तियों पर जताए गये गुस्से की तीव्रता उस उल्लंघन की ओर संकेत करती है जिनका प्रतीक मायावती और हत्शेपसुत बन चुकी हैं |
इन दोनों महिलाओं के बीच समय की दूरी कई सदियों की है । एक को शोषण की विरासत मिली , दूसरी एक शाही घराने से थीं। दोनों ने ही सत्ता की महत्वकांक्षा की , उसे पाया और राजनीति के रणभूमि में उपयोग भी किया । और दोनों ही सत्ता सँभालने के ज्ञात तरीको के विरुद्ध खड़ी हुईं। दोनों के सत्ता प्रबन्धन की कहानियों में अद्भुत समानताएं देखी जा सकती हैं , इनमें से सबसे प्रत्यक्ष यह है कि दोनों ने आने वाले समय के लिए अपनी विशिष्टता को पत्थर में उकेरा । इनके जीवन के किसी एक पहलु पर ध्यान केन्द्रित करना दोनों असाधारण महिलाओं का अनादर होगा। यहाँ मैं शोषण के दो रूपों को चित्रित करने के लिए उनकी प्रतिमाओं पर प्रतिक्रियाओं को एक निश्चित उद्देश्य के लिए प्रयोग कर रही हूँ वह हैं : पितृसत्ता और जाति , यह देखना दिलचस्प होगा की कैसे ये महिला शक्ति के सम्बन्ध में कार्य करते हैं|
अन्य बातो के साथ साथ हत्शेपसुत पितृसत्ता के टूटने का एक ऐतिहासिक चिन्ह भी है और इसी तरह मायावती एक समकालीन चिन्ह हैं जो जाति की श्रेष्ठता के टूटने को दर्शाती हैं |
जाति व्यवस्था एक बहुत मजबूती से बुना हुआ जाल हैं जिसके धागे कई तरह के शोषण हैं, जिनमें जेंडर भी एक हैं। इस उत्पीड़न की जटिल व्यवस्था का प्रारंभ और अभ्यास विशेष रूप से साउथ एशिया में पाया जाता है तथा यह शायद ही इसे कभी मुहावरों या किसी अन्य तरीके से बताया जा सके। यह समझना जरूरी है की उत्पीड़न कैसे संचालित होता है। इसको चुनौती देने ले लिए जाति विरोधी संवाद दुनिया भर के वंचित समुदायों की अभिव्यक्ति से प्रेरणा लेता है। लेकिन यह जाति के ब्रह्मांड के भीतर से अर्थ, परिभाषा और उदाहरण देखता हैं। हालांकि कि समय, स्थान और संस्कृतियों की दूरी के बावजूद मैंने हत्शेपसुत को इसलिए चुना क्योंकि महिलाओं के इतिहास में स्मृतियों का सृजन करने वाले साधन के रूप में उप सन्दर्भ प्रतिमा विज्ञान (iconography) है, और इस संबंध में इन दोनों महिलाओं के बीच समानांतरता स्पष्ट है। जैसाकि कला समीक्षक के रूप में जॉन बर्जर ने कहा:-
“शायद यह बात अजीब लगे, पर ऐसा लगता है जैसे समय के पार , दो चित्र… मानो दो चित्र एक दूसरे को पहचानते हैं । या एक दूसरे के प्रति आदर व्यक्त करते हैं|”
मैं एक विज्ञान शोधकर्ता हूँ और मेरा पेशा मेरे अंतर्मुखी स्वभाव का आश्रय है। ज्यादातर वैज्ञानिक व्यक्ति के रूप में पर्दे के पीछे रहना ही ठीक मानते हैं वह सिर्फ अपने किये गए काम के ज़रिये ही अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं। इसका मतलब क्या यह है कि मैं अन्य क्षेत्रों , जो कि महिलाओं को सार्वजनिक जीवन के केंद्र में रखते हैं उनकों समझ ही नहीं सकती ? राजनेताओं के लिए विज्ञान की तरह, पर्दे के पीछे रहना पुरस्कार नहीं होता। मुझे यह बात बहुत प्रभावित करती है कि वह सार्वजनिक जीवन में सबकी नज़रों के बीच काम करते हैं और उपलब्धियां हासिल करते हैं। मुझे यह बात भी रोमांचित करती हैं की वह दीर्घकालिक लोक स्मृतियाँ बनाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो, धर्मनिरपेक्ष प्रतिमा-विज्ञान स्थापित करने की उनके पास शक्ति होती हैं तथा यह उनके किये गए काम का पुरस्कार होता है। या तो उन्होंने इस पहलु पर गौर नहीं किया या इस पर उर्जा का व्यय नही किया|
हत्शेपसुत और मायावती की स्थापत्यकला के क्षेत्र का फैलाव बहुत था, मायावती के मामले में यह अस्पताल , स्मारक ,राजमार्गों, खेल परिसरों, ग्रामीण बुनियादी ढांचे और शहर संवर्द्धन में भी दीखता है, लेकिन कुलीन वर्ग अपना क्रोध व्यक्तिगत मूर्तियों की ओर ही ज़ाहिर करता है। इस तरह यह जाति और पितृसत्ता की दूसरी संरचनाओं की ओर इशारा करती है । इसका अंदाजा इस बात से लगया जा सकता है की इन महिलाओं की प्रतिमाओं की वजह से कुलीन वर्ग में बहुत घबराहट फैली, जिसका लेखा जोखा क्रोधित शब्दों और विनाशकारी कृत्यों में दर्ज है तथा हमेशा इस बात को कहा जाता है कि इनके पास सत्ता नहीं होनी चाहिए थी क्योंकि इन्होनें अपने जीते जी अपनी मूर्तियाँ स्थापित करवाकर सत्ता का दुरूपयोग किया। यहाँ मकसद सिर्फ दो महिला नेताओं के व्यक्तित्व को जोड़ने का, या फिर उनके शासन करने के तरीके का अध्ययन करना नहीं है, बल्कि यह जानने का है की इन दोनों के हिस्से क्या आया – घृणा, भयंकर क्रोध , सामूहिक भय और उन शक्तियों का गुस्सा जिनकों इन्होंने कुछ समय के लिए अपने अपने समाज से विस्थापित किया |
यह हमको फिर से वही ले जाता हैं जहाँ से हम समझते हैं कि प्रतिमा विज्ञान से कैसे यथास्थिति बनायी रखी जाती है। स्त्रियों के सत्ताधारी, परिवर्तक या ज्ञान निर्माता के रूप में इस पितृसत्तात्मक समाज के शास्त्र में इस समाज के दलालों को शायद ही कभी महिलाओं के प्रतिनिधत्व के अंतर्गत रहना पड़ा है। क्या हमने कभी इस बारे में सोचा हैं? कितनी महिलाओं ने मानव इतिहास में दीर्घकालिक स्मृति बनाने के प्राथमिक साधन को चुनौती दी है ? या हमें कहना चाहिए कि इस पितृसत्तात्मक इतिहास में स्मृति-निर्माण की प्रक्रिया में?
क्या हत्शेपसुत से पहले भी किसी रानी ने एक राजा की तरह राज्य किया है? उनका शासन सिर्फ एक ऐतिहासिक विचलन अथवा पुरुष फिरौन (मिस्र के राजा को दी जाने वाली उपाधि) के उत्तराधिकार श्रृंखला में अचानक रूकावट नहीं है, बल्कि यह एक अभिलेख हैं जो बताता हैं की पितृसत्ता के इतिहास में राजनीतिक स्तर पर बदलाव का अर्थ क्या होता है । क्योंकि उनका शासन कोई पितृसत्ता के खाके से लिए गए नियमो को पालन करने वाला नहीं था, बल्कि उससे बहुत ही अलग रहा। उनकी दृष्टि में शासन सिर्फ युद्ध और आधिपत्य नहीं बल्कि व्यापार और समृद्धि था, सामाजिक शांति और स्थापत्यकला की भव्यता उनकी विरासत थी। ऐसा कहा जाता हैं की उनके राज में उन्होंने सबसे पितृसत्तात्मक कही जाने वाली राजनैतिक मशीनरी अर्थात सेना को शक्तिहीन किया। कुलीन वर्ग में बेचैनी स्वतः ही देखने को मिली। इस तरह हत्शेपसुत एक परिवर्तन की कारक थी जो नफरत की भागी बनी, इतनी नफरत की उनका नाम इतिहास के पन्नो से गायब कर दिया गया|
हत्शेपसुत के शासन के कई सालो के बाद, उनकी जीवनी मूर्तियां, चित्र और शिल्पलेखों को दुबारा बुना गया। जिनमें से ज्यादातर तथ्यों को उनके पुरुष उत्तराधिकारियों द्वारा विकृत किया गया|
मिस्र की महिला राजा , हत्शेपसुत की म्रत्यु के उपरान्त वे चित्र या अभिलेख नष्ट कर दिए गए जो उन्हें एक राजा के रूप में दर्ज करते थे । यहाँ एक लम्बा सफ़र शुरू हुआ जिसमें यह भुला दिया गया कि मिस्र में एक महिला थी जिसने एक राजा बनके शासन किया था । हत्शेपसुत को एक महिला के रूप में दर्शाती प्रतिमाएं भी विखंडित की गयी , विशेषकर उन्हें जो उनकी शक्ति से जुडी हुई थी या उनकी राजा की पदवी से |
पर वह आज भी जिन्दा हैं, उनकी स्मृति हमारे आगे इस बात की संभावनाएं प्रस्तुत कर सोचने को प्रेरित करती हैं कि एक महिला के नेतृत्व में समाज का शासन कैसा हो सकता है। खासकर क्रांतिकारी महिला नेताओं के नेतृत्व में।
मेट्रोपोलिटन म्यूजियम ऑफ़ आर्ट (Metropolitan Museum of Art) का एक नोट हत्शेपसुत की प्रतिमाओं का वर्णन कुछ इस प्रकार करता है :-
“दीर अल-बहरी में उनके मंदिर में कम से कम 10 बहुत बड़ी पूर्णकाय घुटने टेकने की मुद्रा में हत्शेपसुत की प्रतिमाएं थीं|”
क्या ऐसा माना जा सकता है कि उनकी मृत्यु के पश्चात् किसी और ने उनके लिए यह प्रतिमाएं बनवाईं? या यह उनके शासन काल में बनी थी। इस से मायावती के आलोचकों को सचेत हो जाना चाहिए, और साथ ही साथ बाकि विद्वानों को भी – इतिहासकार, नारीवादी , प्रभावशाली बुद्धिजीवियों को भी जो मूर्तियों को लेकर उनकी आलोचना करते नहीं थकते। वह बहुत सार्वजनिक और आध्यात्मिक रोष यह कहते हुए जताते हैं कि ‘कोई अपने ही जीवन काल में कैसे अपनी प्रतिमाएं बनवा सकता हैं ?’ विश्व की अन्य क्रांतिकारी महिला नेताओं के इतिहास के बारे में ये लोग जानबूझकर अनजान बनते हैं|
मायावती की ‘निंदा’ दलित प्रतीकों के एक भाग के रूप में उनकी खुद की प्रतिमाओं को बनवाने को लेकर होती है , हमेशा उनकों उस विलक्षण शक्ति से अलग करने की कोशिश की जाती है जो केवल उनके पास थी कि, उसने अकेली ही दुनिया के सबसे बड़े इतिहासों में से एक जाति के विरुद्ध चले आन्दोलनों के साक्ष्य को मिटने से रोका। मैं यह बहुत जोर देकर कहना चाहती हूँ कि, वह अकेली थी जिनके पास यह शक्ति थी की दुनिया को सदियों पुरानी जाति-विरोधी आन्दोलनों के साक्ष्य को प्रतिमा विज्ञान के जरिये दे सकें।
क्या हम सिविल राइट्स मूवमेंट की सकारात्मक मूर्ति विज्ञान और नेताओं के बिना अमेरिका की कल्पना कर सकते हैं ? जाति विरोधी आन्दोलन आदिवासी और दलित बहुजन के लिए कई सदियों से मानवाधिकार और नागरिक आन्दोलन की इससे भी पुरानी लड़ाई लड़ रहा हैं । यह प्रभुत्व रखने वाली कुलीन जाति वर्ग के लिए अति आवश्यक है की वो इस लड़ाई को छुपा सके। उनकी जाति को बनाये रखने की आवश्यकता की प्रबलता श्वेत अमेरिका की दमन करने की शक्ति से कहीं अधिक है।
पर अब मायावती के स्थापत्यकला में निवेश ने सारी पोल खोल दी है। एक सामान्य तर्क दुनिया के सामने आ गया है कि जाति के अस्तित्व को स्वीकार करने के लिए दुनिया के सामने जाति विरोधी आन्दोलनों के अस्तित्व को स्वीकार करना होगा। जिस व्यक्ति ने यह गलती ठीक करने का बीड़ा उठाया उसका तिरस्कार तो होना ही था। यह स्मारक न केवल जाति विरोधी आन्दोलनों की विरासत हैं बल्कि यह भारत के नैतिक , राजनीतिक और आध्यात्मिक ढोंग का खुलासा भी है, जो की खुद को एक गौरवशाली इतिहास वाला लोकतान्त्रिक, धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र कहता है।
ये पूरी दुनिया के सामने जाति के अस्तित्व को पत्थर में उकेरते हैं तथा साथ ही साथ यह मूर्त रूप में भारत की जाति के इतिहास रूपरेखा बनाते हैं । जब जाति के खिलाफ संघर्ष को पत्थर पर उकेरा जाता हैं , तब जाति केवल एक मामूली अकादमिक पुस्तकों और विशेष सम्मलनो तक सीमित रह जाने वाली एक अस्पष्ट व्याख्या बनकर नहीं रह जाती है। इसके पश्चात् जाति भौगौलिक परिदृश्य का हिस्सा बन जाती है, जिसकी वजह से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचो पर यह संवाद के लिए मजबूर करता है की भारत एक जातीय समाज के रूप में कैसे काम करता है। यह सबको बताता है कि भारतीय उपमहाद्वीप में लोगों के मानवीय संपर्क के बुनियादी तत्व मनुष्यों में असमानता और भेदभाव में पूरा भरोसा करते हैं। मानव व्यव्हार के इस रूप का वर्णन करने के लिए नस्लवाद एक अपर्याप्त पारिभाषिक शब्द है|
उत्तर प्रदेश में स्मारकों के लिए बजट कैबिनेट से मंजूरी प्राप्त करने की सामान्य प्रक्रिया से गुज़रा। अगर उत्तर प्रदेश के लोगों को ये गलत या फिर अनावश्यक खर्च लगता तो सड़को पर बड़े पैमाने में विरोध प्रदर्शन देखने को मिलते, यह काम कोई गुप्त तरीके से नहीं हुआ, बल्कि इसके लिए सभी स्तर पर सार्वजनिक जांच के दरवाजे खुले हुए थे। दलित बुद्धिजीवियों और लेखको ने जनता के पैसे के दुरुपयोग के बारे में झूठी चिंता का जवाब दिया है – वह जानना चाहते हैं कि कौन वह लोग हैं जिन्होंने उच्च जातियो के राजनैतिक नेताओ और आंदोलनों के मूर्ति स्मारक बनवाने का बिल पारित करवाया ? बुनियादी तथ्य यह है कि अगर बहुजन समाज पार्टी ने कोई कानून का उलंघन किया होता तो निर्माण का कार्य उसी वक्त रोक दिया गया होता |
तो ये कौन लोग हैं जो गुस्सा हैं ? कुलीन वर्ग के ब्राह्मणवादी लोग जिनके पास टीवी स्टूडियो और मुख्या धारा की मीडिया हैं । वही जो ख़ुशी से जनता के पैसे अल्पकालिक मेगा शो जैसे कॉमन वेल्थ खेल में उड़ा रहे हैं |
तो उनका गुस्सा आखिर किसलिए हैं ? क्या यह जेंडर की ओर है या जाति की ओर है ?
इनमे से कितना विरोध हत्शेपसुत के शासन व उनकी मूर्तियों पर विरोध से मेल खाते हैं और कितने ऐसे विरोध हैं जो जाति विरोधी संघर्षों को दबाने की नियत दर्शाते हैं ? कैसे ये हमें जाति, पितृसत्ता और वर्ग के संचालनों के तरीकों के बारे में बताते हैं ?
इन कुलीन वर्ग के लोगों का मायावती की मूर्तियों के प्रति रोना ऐसा दर्शाता है कि जैसे इससे वह वापिस उसी काल में ले जाना चाहते हैं जहां दलित स्त्री और पुरुष बिलकुल शक्तिहीन थे |
ऐसा प्रतीत होता है कि वे कहना चाहते हैं कि: वह तो दलित महिला हैं, उसको तो अपने अधिकारो के अभाव का बोझ सहन करना होगा , सबसे दरिद्र व्यक्ति की तरह अभावों में रहना होगा। भले ही उसको लोकतंत्र के चमत्कार से एक राज्य जो ब्राज़ील जैसे देश जितना बड़ा हैं, उसका मुख्या मंत्री बना दिया हो मगर उसको समाज में उसकी जगह दिखानी होगी |
कुलीन वर्ग की मीडिया में ‘शब्दों की लड़ाई’ एक बहुत ही प्रमुख तरीका है जिससे ब्राह्मणवाद या जाति को जीवित रखने का कार्य उच्च जातियों द्वारा किया जाता है । वह समय ज्यादा दूर नहीं है जब आने वाले समय में तोड़ फोड़ ज़रूर होगी, वह खुद हथौड़े नहीं उठाएंगे। लेकिन इसी कुलीन वर्ग के जातीय बंधुओ द्वारा सिद्धांत दिए जाएँगे, जो इसको पिछड़ी जाति बनाम दलित की लडाई कहेंगे , जो यूपी में स्मारकों की तहस नहस का कारण बनेगी|
यह गुस्सा न केवल कुलीन वर्ग की नैतिक उच्चता की हैं बल्कि यह एक भयभीत अभिस्वीकृति भी है कि ऐसा बहुत कम होता है जब मानव इतिहास में हमारा सामना एक महिला से हो जिसमें यह शक्ति हो की वह स्वयं अपनी छवि एक प्रतिमा में उकेरे , जिनकों एक निर्वाचित सरकार की स्वीकृति मिली हो। यहाँ तो एक दलित महिला है जिसने बिलकुल यही किया। मायावती की प्रतिमाएं दूसरी महिलाओं की प्रतिमाओं की तरह नहीं हैं जो पुरुषो की दृष्टि के लिए बनायीं गयी हो और न ही यह मूर्तियाँ पुरुषों का उपकार हैं, यह ना सिर्फ उनके इतिहासबोध को दर्शाती हैं अपितु उनके निर्देशानुसार बनी हैं|
पर जरा सोचिये इसमें ऐसा क्या है जिसे वे विकृत या ख़त्म कर देना चाहते हैं, उस महिला को या उसकी जाति को ?
लेखक , अनु रामदास computational biologist हैं , इसके साथ वह राउंड टेबल इंडिया और सावरी की संस्थापक सदस्य और सहयोगी सम्पादिका है ।
यह लेख 19 April 2012 को अंग्रेजी में Round Table India में प्रकाशित हुआ था
http://roundtableindia.co.in/index.php?option=com_content&view=article&id=4986:statues&catid=119:feature&Itemid=132
हिंदी अनुवादक : करिश्मा चौधरी कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातक हैं और उनकी रूचि समाज विज्ञानं और बुद्धिज़्म में है ,सारांश गौतम सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं |
Sources: 1) Women Rulers Throughout the Ages, Guida Myrl jackson-Laufer
2) Twice born riot against democracy, Gail Omvedt.
3) Inscription at Rashtriya Dalit Prerna Sthal
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