दिव्येश मुरबिया
नागराज मंजुले, उनकी नवीनतम फिल्म सैराट के लिए मराठी फिल्म निर्देशक के तौर पर काफी मशहूर हुए हैं लेकिन उनको इस फिल्म से कहीं अधिक श्रेय जाता है. उन्होंने एक लघु फिल्म पित्सुल्या के साथ अपना कैरियर शुरू किया था जिसने उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार दिलवाया. उन्होंने फैंड्री के साथ मराठी फिल्म उद्योग में शुरूआत किया था, जो व्यापक रूप से (और समीक्षात्मक रूप से) प्रशंसित थी, और उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार दिलवाया.
उनकी बहुप्रतीक्षित फिल्म सैराट 29 अप्रैल 2016 को प्रदर्शित हुई थी और मराठी फिल्म उद्योग में सबसे अधिक संग्रह दर्ज किया और तीसरे सप्ताह तक 65 करोड़ को पार कर गई (और अभी भी चल रही है)1. पर्श्या (आकाश थोसर) और आर्ची (रिंकू राजगुरु) की एक महाकाव्य प्रेम कहानी जो भारतीय समाज में जाति की कठोर सामाजिक संरचना को तोड़ने की कोशिश करती है.
सैराट (हिंदी में मतलब उन्मुक्त) ; एक सिनेमा, भावुक प्रेम की भावनात्मक यात्रा जो अंत तक दर्शक को इतनी चिरस्थायी चिंता और बेचैनी के साथ छोड़ देती है, यह केवल देखने के बजाय इसकी सभी सूक्ष्मताओं, जटिलताओं के साथ अनुभव करने लायक एक सिनेमा है. यह प्यार, दर्द और इज्ज़त के नाम पर होने वाली प्रत्येक और हर संरक्षक हत्या2 की पीड़ा का प्रमाण है; एक अनुभव जिसमें होने की कोई कल्पना मात्र कर सकता है.
एक बॉलीवुड फिल्म देखने पर, दर्शक थिएटर छोड़ने के साथ ही सब कुछ भूल चूका होता है, लेकिन निश्चित रूप से सैराट उनमें से एक नहीं है. इसके अलावा, आपके जाने-अनजाने रोज़मर्रा के अन्य कामों में व्यस्त होने तक यह आप के दिलो-दिमाग पर छाई रहेगी, क्योंकि जिन सवालों को फिल्म ने उठाया है, उन्हें अभी तक इस देश में सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षणिक परिवेश के भीतर गंभीर रूप से लिया ही नहीं गया है, और यही स्थिति संरक्षण में की गई हत्या के साथ भी है.
हमारे समाज के पाखंड पर यह एक जोरदार तमाचा है जहां हम एक तरफ़ खुद को प्रगतिशील कहते नहीं थकते और दूसरी तरफ़ जाति के नाम पर इस तरह का जघन्य अपराध होता है; और इसकी प्रतिक्रिया में मैं क्या देखता हूँ- गहरी चुप्पी.
मंजुले ने शुरुवात के 1.45 घंटे में चार गानों को पेश करके कथानक के साथ प्रयोग किया,फिर भी फिल्म दर्शकों को बांधे रखती है.कुछ समीक्षकों ने बहस किया कि फिल्म का पहला भाग रोमांस से भरा है जबकि दूसरा रोज़मर्रा के जीवन संघर्ष से. ऐसा सरलीकरण स्वयं को फिल्म को अनुभव करने से वंचित करेगा जो कि आर्ची और पर्श्या के उनके दैनिक जीवन में देखने का दृष्टिकोण देता है. यह लगता है कि ऐसा संक्रमण सोद्देश्य है. फिल्म के पूरे कथानक के इस अचानक बदलाव का उद्देश्य दर्शकों को रोमांस और उन्मुक्त भावना से वास्तविकता के धरातल पर लाने का है, उन्मुक्त भावना से नायक-नायिका द्वारा इसकी कीमत चुकाने तक.
भारतीय सिनेमा में जाति के चित्रण पर एक झलक
1960 के दशक के सिनेमा में सत्यजित रे,बिमल रॉय,मृणाल सेन और कई अन्य श्याम बेनेगल जैसे लोग सामानांतर सिनेमा के प्रस्तावक माने जाते थे. इस समय के आस-पास, बिमल रॉय द्वारा सुजाता (1959), श्याम बेनेगल द्वारा अंकुर(1974), सत्यजित रे द्वारा सद्गति (1981) जैसी फिल्मों ने सामंती व्यवस्था और जाति को भारतीय समाज में सन्निहित दमनकारी संरचना के रूप में चित्रित किया. जैसा कि हरीश वानखेड़े ठीक से आगे रखते हैं, “ दलित व्यक्तित्व और उसके / उसकी विचारधारात्मक और नैतिक चरित्र का निरूपण ‘हरिजन’ के गांधीवादी मानसिक चित्रण को प्रतिबिंबित करता है जो निर्भर (सुजाता), दब्बू (दामुल) और सामाजिक सांस्कृतिक ब्राह्मणिक मूल्यों की नीतियों के लिए उपयुक्त है (लगान) ”. “यथार्थवादी सिनेमा” खंडित यथार्थ को तोड़ने और समाज के नंगे सच पर केंद्रित करने का लक्ष्य कर रहा था. लेकिन इसने दलित बहुजन के खिलाफ मुख्यधारा की रूढ़िबद्धता का प्रदर्शन किया और मुख्य मुद्दे अछूते ही रहे. इसके अलावा इन समुदायों से प्रतिनिधित्व बहुत कम था, जो 2013-14 में बॉक्स ऑफिस प्रदर्शन की हिंदू रिपोर्ट से जाहिर है, जहां 250 फिल्मों में से केवल 6 मुख्य पात्र पिछड़ी जातियों से थे.
यह देखा गया है कि क्षेत्रीय सिनेमा मुख्यधारा लोकप्रिय हिंदी सिनेमा के विपरीत अधिक विषयवस्तु उन्मुख होता है. वैसे ही, मराठी सिनेमा ने दलित बहुजन की लोकप्रिय छवि को उखाड़ फेंका है ; जोगवा, मुक्ता और फैंड्री जैसी फिल्मों में जहां नायकों को विद्रोही के रूप में चित्रित किया गया.यह कहना गलत नहीं होगा,कि यह इसलिए क्योंकि महाराष्ट्र ने फुले और आंबेडकर द्वारा चलाए गए जाति-विरोधी आन्दोलन और 1970 और 1980 के दशकों में दलित बहुजन के सामाजिक-राजनीतिक संघर्ष का अनुभव किया था. हालांकि, हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि इन भूमिकाओं को करने वाले जो मुख्य पात्र थे, वे भी दलित बहुजन समुदायों से नहीं थे. इस दृष्टिकोण से नागराज मंजुले ने मराठी सिनेमा में एक नया चलन लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया है. उन्होंने जाति के मुद्दे को दर्शाने के लिए मुख्यधारा की भाषा का इस्तेमाल किया, इस प्रकार एक तरफ़ मुख्यधारा के दर्शक की आवश्यकता को ध्यान में रखा है, जो गाने, लड़ाई और नाच जैसे मसाला तत्वों को पसंद करता है, उसी समय फिल्म के आलोचनात्मक अवलोकन की तरफ़ भी बाध्य किया है.
लोकप्रिय कल्पना में आत्म के लुप्त भाव को प्राप्त करना
सैराट के प्रदर्शन के बाद एक साक्षात्कार में, नागराज मंजुले दर्शक से मिली प्रतिक्रिया के बारे में बात कर रहे थे, “पहली बार, मैं खुद को स्क्रीन पर देख सका.” यह बयान अपने आप में सब कुछ बयां कर देता है. जहां, उच्च जाति कुलीन वर्ग ने उनकी सांस्कृतिक वैधता को स्थापित करने के क्रम में विनिर्माण द्वारा और अंततः स्क्रीन पर गोरी चमड़ी, सुडौल या छः पैक मांसपेशियों के साथ मर्दाना देह के रूप में सुन्दरता की धारणा को सहज बनाते हुए उनके सौंदर्यशास्त्र के मानकों को अधिरोपित किया और साथ ही दलित-बहुजन संस्कृति और उनकी विरासतों का प्रतीकात्मक रूप से उल्लंघन करते हुए समेकित रूप से ऐसी फिल्मों का निर्माण किया जिनसे दलित बहुजन होने के तौर पर ना के बराबर समानता समझ में आती है.इस परिप्रेक्ष्य में, सैराट ने मुख्यधारा सिनेमा में अंतर्निहित सौंदर्य और जेंडर रुढियों की धारणा को तोड़कर सौंदर्य की दलित बहुजन अवधारणा को पुनर्स्थापित किया जो कभी चित्रित नहीं किया जा रहा था, और इस प्रकार “आत्म” की धारणा को जगा के सराहती है.
यह हम ना भूलें फिल्म किस बारे में थी
फिल्म सैराट की कई समीक्षाओं ने जाति की मौजूदगी को स्वीकार किया है लेकिन फिल्म में जाति के चित्रण को सावधानी से विश्लेषण करने में विफल रहीं. मैं मीडिया को प्रश्न नहीं करूँगा, क्योंकि उच्च जाति द्वारा संचालित मुख्यधारा मीडिया में जाति की अदृश्यता बहुत आम है, और दलित, बहुजन के प्रति स्पष्ट उपेक्षा के तौर पर माना जा सकता है. और इसलिए, भयावह अपराध होने के बावजूद खैरलांजी जैसी घटना मीडिया का ध्यान लाने में विफल हो जाती है. मैं समझने में विफल हो जाता हूं कि जितनी समीक्षाएं मेरी नज़र से गुजरीं, सिवाय राउंडटेबल इंडिया में प्रकाक्षित एक या दो को छोड़कर, उनमें से किसी में भी संरक्षक हत्या के बारे में कहीं कोई टिपण्णी क्यों नहीं थी. मैं महसूस करता हूं सैराट हमें प्रत्येक संरक्षक हत्या की सूक्ष्मताओं, गतिकी और यंत्रणा के बारे में जागरूक कराने का एक प्रयास है, जिससे होकर प्रत्येक युगल को,केवल एक व्यक्ति से शादी करने के लिए जिससे वह प्यार करता/करती है, गुजरना पड़ता है. यह कठोर सामाजिक प्रतिबंधों को भी प्रकाश में लाती है जो जाति को नष्ट करने के किसी भी प्रयास को नामंजूर कर देते हैं या अन्यथा हिंसा या मौतों का सामना करना पड़ता है.
U.N से आंकड़े बताते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर संरक्षक हत्याओं के 5 मामलों में से एक भारत का होता है, जिसका मतलब, हर साल 5000 हत्याओं के मामलों की रिपोर्ट में, 1000 ऐसे मामले भारत से हैं.हालांकि गैर-सरकारी संस्थाएं इन आकड़ों की संख्या और अधिक होने का दावा करती हैं.3
पुलिस विभाग पर नीति नोट दर्शाता है कि प्रेम संबंधों या यौन कारणों से होने वाली हत्याओं की संख्या 2012 में 321, 2013 में यह 351 थी और 2015 में यह 320 थी. यहां जाति और प्रेम संबंधों के परस्पर व्याप्त होने को नहीं भूलना चाहिए,जहां प्रेम संबंध अधिकांश तौर पर प्रतिबंधित हैं जब वे अंतर्जातीय या अंतरधार्मिक होते हैं.
सैराट के प्रदर्शन के एक महीना पहले भी नहीं हुआ था जब तमिलनाडु में एक युवा जोड़े की बर्बर हत्या हुई थी. सैराट के तमिल में डब किये जाने के पीछे संभवतः यही कारण होगा. जून 2013 से,80 युवक और युवतियां जिन्होंने शादी करने या प्यार में पड़ने का का साहस किया, मारे गये लेकिन अभी तक एक भी सजा नहीं हुई है (उक्त).
सैराट जैसी फिल्म ने स्वाधीन सिनेमा (indie cinema) को एक नई दिशा दिया है और इसके तमिल और गुजराती में डब होने और बॉक्स ऑफिस पर अच्छी प्रतिक्रिया, हमें उम्मीद देती है कि जाति के साथ और अधिक गंभीर रूप से उलझने के द्वारा अधिक निर्देशक फिल्म-निर्माण के एक नए क्षेत्र में प्रवेश करें. सैराट के अंतिम दृश्य की एक समीक्षा के निम्नलिखित उद्धरण द्वारा मैं अपनी बात ख़त्म करना चाहूंगा-
“ यदि एक पडोसी एक बच्चे को घुमाने के लिए बाहर ले जाती है, वह सुनिश्चित करेगी कि लौटने के बाद,उसने बच्चे को उसके माँ-बाप के पास छोड़ा. वह उसे केवल घर के बाहर नहीं छोड़ देगी… लेकिन फिर, हमें अंत को बच्चे की आंखों के जरिये देखने की ज़रुरत है.हमें उस अविश्वसनीय रूप से कम उम्र में मासूमियत खो दिए जाने को महसूस करने की ज़रुरत है.हमें गंभीर सोच की ज़रुरत है कि बच्चे की यात्रा खूनी कदमों से भरी होने जा रही है.”
उद्धरण
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लेखक दिव्येश मुरबिया मुंबई में रहते हैं , और एक भविष्य में एक फिल्म निर्देशक बनना चाहते हैं
हिन्दी अनुवादक : पुष्पा यादव
1http://indianexpress.com/article/entertainment/regional/sairat-box-office-collections-nagraj- manjule-highest-grossing-marathi-movie-2812740/
2 https://www.youtube.com/watch?v=PrD72xmOtxE
6 W. S. Harish. 2013. Dalit Representation in Bollywood, Mainstream Weekly, Vol LI, No 20
7 Dwyer, Rachel. 2007, Bollywood Bourgeois, India Internation Centre.
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