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16 दिसंबर वर्ष 2012 को दिल्ली में 23 वर्ष की युवती के साथ चलती बस में गैंगरेप की घटना से, टी.वी. चैनलों पर लम्बे समय तक, औरतों की सुरक्षा को लेकर, एक अजीब सा शोर मचा था| जिसके कारण लोगों में भयंकर रोष और गुस्से का संचार हुआ| देश के हर शहर में लोग सड़कों पर मोमबत्तियां जलाकर दोषियों को फांसी और बलात्कार के खिलाफ एक सख्त कानून की मांग करते दिखाई दिए| दिल्ली में तो प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति भवन में घुसने की भी कोशिश की| सरकार द्वारा बलात्कार के विरुध एक सख्त कानून भी बनाया गया| इसके बावजूद हर रोज अखबार बच्चियों, लड़कियों और औरतों के बलात्कार की घटनाओं से भरे नजर आते हैं| दिल्ली में जहाँ 2012 में पूरे वर्ष में 153 बलात्कार के केस रजिस्ट्रड हुए वहीँ 2013 में 31 मार्च तक 353 केस दर्ज हो चुके थे| उन्हीं दिनों दिल्ली वालों को शर्मसार करने का समाचार दिल्ली के गांधी नगर इलाके से आया जहाँ एक 5 वर्ष की बालिका को पड़ोसी द्वारा 4 दिन तक बंधक बनाकर उसके साथ बारबार दुष्कर्म किया गया|

 

बच्चियां, लड़कियां और औरतें ना तो घर पर, न बाहर, न स्कूल व कार्यस्थल, कहीं पर भी तो सुरक्षित नहीं हैं| यह अपराधी पीड़िता का पिता, भाई, अन्य रिशतेदार, पड़ोसी, टीचर आदि ही तो होते हैं| ऐसे में देश के लोगों की मानसिकता को समझना जरूरी हो जाता है| साथ ही यह भी जानना जरूरी हो जाता है कि ऐसी क्या बात है जो इन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित करती है|

नरेंद्र मोदी जो अपने को हिंदू या भारतीय संस्कृति का झंडाबरदार मानते हैं वह शिमला में एक चुनावी रैली में शशि थरूर और उसकी पत्नी सुनंदा पुष्कर के रिश्ते पर टिपणी करते हुए, सुनंदा को “50 करोड़ की गर्ल फ्रेंड” कहते सुनाई दिए| यह टिप्पणी, हमें मध्य काल के उस परिपेक्ष्य में लाकर खड़ा करती है जहाँ कोई एक कबीला किसी दूसरे कबीले पर हमला कर उसकी संपत्ति (भेड़ बकरियों आदि) के साथ औरतों को भी लूट कर ले जाता था| बाद में उस लूट की बाजार में कीमत लगाई जाती थी| यह टिप्पणी अपने में शर्मनाक तो है ही, साथ ही यह टिप्पणी हमें उस हिंदू संस्कृति, जिसकी रक्षा की दुहाई देते ये ब्रहम्ण्वादी लोग सुनाई देते हैं, उसे एक बार मोटे तौर पर जांचने के लिए मजबूर भी करती है| तभी तो पता चलेगा कि ये ब्राहम्णवादी जिस संस्कृति की पुर्नस्थापना करना चाह्ते हैं उसमें नारी का क्या स्थान है?

 

अब अतीत में भारतीय संस्कृति के दर्शन करने के लिए हमें वेदों और वैदिक काल में तो जाना ही होगा|

हिंदी के एक विद्वान लेखक मदन मोहन विद्यासागर लिखते हैं, ….“वेदों से भारत में जाति को समय समय पर ओज और बल प्राप्त होता रहा है| इनके कारण ही अब तक भारतीय संस्कृति अजर और अमर है|” वेद धर्ममूल माने जाते हैं| मनु धर्म के बारे में बहुत ही रोचक बात लिखते हैं, “वेदो अखिलोधर्ममूलम| स्मृतिशीले च तद्विदाम आचारश्चैव साधूनामात्मतुष्टिरेव च|” यानि वेद धर्म का मूल है| पर विद्वान को जो याद हो या जैसा वह खुद आचरण करता हो या जिससे उसे सन्तोष मिलता हो, वह धर्म है| यह बेहद खेदजनक स्थापना है कि वेद्कालीन धर्मवेता (ब्राहमण) यदि किसी की पत्नी से दुराचार करना चाहे, मुफ्तखोरी करे, राजा से औरत मांगे तो वह धर्म हो जाता है| अपनी संतुष्टि के लिए अगर वह धर्मवेता शूद्रों को प्रताड़ित करे, स्त्रियों का स्वच्छंद भोग करे या खूब धन इकट्ठा करे तो वह वेद अनुकूलिक है और धर्म हो जाता है| क्योंकि इन से उसकी आत्मतुष्टि होती है| यही वह वैदिक धर्म है, यही वह वैदिक संस्कृति हैं, यही वह ब्रहम्णवादी संस्कृति है जिसका गुणगान भारत के हिंदुवादी लोग करते हैं और इसी संस्कृति को वे फिर से स्थापित करने के लिए आतुर हो रहे हैं|

वैदिक काल भारतीय नारी के लिए काला युग था| वेदों मे स्त्री को समान दर्जा तो था ही नहीं लेकिन उसकी निंदा जरूर कठोर शब्दों में की गई है| एक जगह (मंडल 10, सूक्त 95, मंत्र 15 ) स्त्री को भेड़िये जैसा बताया गया है| शतपथ ब्राह्म्ण पुस्तक में लिखा गया है कि स्त्री, शूद्र, कुत्ता और कौवा में झूठ , पाप और अंधकार रहता है| वैदिक समाज की स्त्री के प्रति नफरत का एक अद्भुत जिक्र अथर्ववेद में (अध्याय 3, सूक्त 25, मंत्र 5 और 6 ) आता है यहां स्त्री को पीटते हुए घर लाया जाता है और कामना की जाती है कि यह स्त्री ज्ञानशून्य हो जाए, उसे करनी-अकरनी की समझ समाप्त हो जाए| दूसरे अर्थों में वह स्त्री यौन सुख, पुत्र पैदा करने और दासकर्म के लिए संज्ञाशून्य मशीन में बदल जाए और पूरी तरह से पति की दास्ता स्वीकार कर ले| यह कैसी हतप्रभ करने वाली स्तुति है| अथर्ववेद के अध्याय 6 के सूक्त 77 में और भी विचारणीय स्थिति का वर्णन है यहां स्त्री को ठीक उसी तरह घर में बांधकर रखने की इच्छा जताई गई है जैसे एक सवार घोड़े को रस्सी से बांधकर कर रखता है|

यह कैसी स्थिति है वैदिक समाज में स्त्री की ? श्रृग्वेद में जगह जगह इंद्र आदि देवताओं से प्रार्थना की गई है कि वह प्रार्थी को स्त्री दिलाए जिसके लिए देवताओं की प्रशंसा भी की गई है| जाहिर है कि देवताओं द्वारा बांटी जाने वाली स्त्रियां युद्ध में लूटी हुई स्त्रियाँ होती थी और उन लोगों की होती थी जिन्हें वैदिक समाज के लोग दास कहते थे| इसलिए इन स्त्रियों को भी दास का दर्जा दिया गया और उन्हें रस्सियों से बांधकर रखा गया, उन्हें सम्पति व दूसरे अधिकारों से भी वंचित रखा गया| लूटी हुई कन्याएं आपस में बांटी गई, घरों में दी गई, शायद इसीलिए कन्या को दान में मिली हुई वस्तु कहा जाता होगा| कहा जाता है कि अश्वमेध यज्ञ जो पूरे एक वर्ष तक चलता था उसके दौरान एक वर्ष की अवधि के लिए ब्राह्मण अपने कर्मकाण्ड के चलते राजा बन बैठता था| इस यज्ञ का एक बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष यह है कि एक वर्ष के अंत में रानी को यज्ञ के घोड़े के साथ मैथुन प्रक्रिया में सोना होता था और यज्ञ करने वाले ब्रहम्ण बारी बारी रानी को जोर जोर से अश्लील गालियां देते थे|

महाभारत में दानधर्म पर्व में अग्निपुत्र सुदर्शन के घर एक ब्राहम्ण अतिथि का वर्णन है| इसमें ब्राहम्ण द्वारा खुद को प्रसन्न करने के लिए सुदर्शन की पत्नी से उसका शरीर मांगने का जिक्र आता है.. यह कितनी विचित्र बात है कि पति खुशी से उसकी स्वीकृति भी दे देता है| यहाँ यह देखना भी महत्वपूर्ण है की खुद की देह पर भी स्त्री का उसका अपना कोई अधिकार नहीं |

उसी परंपरा में तुलसीदास भी नारी और शूद्र को ढोल, गंवार, पशु की तरह ताड़न के अधिकारी कह डालते हैं| अब जब सारे वेद कह रहे हैं तो बाबा ने भी लगे हाथ बहती गंगा में हाथ धो लिए| इसीलिए तो रामायण के नायक रावण की बहन का अपमान करने से नहीं चूकते| दूसरी ओर अपनी पत्नी पर शक करते हुए उसे घर से निकाल देते हैं| मनुस्मृति के पांचवे अध्याय के श्लोक 154 में तो स्त्री की दासता का बेहद घृणित रूप प्रस्तुत किया गया है जिसमें विधान है कि पति चाहे लुच्चा, कामी, अशिक्षित, गुणहींन हो तो भी पत्नी को चाहिए वह उसकी एक देवता की तरह उपासना करे|

बालिका विवाह के पीछे भी मनुस्मृति जैसे ही ग्रंथ रहे हैं, जिस में विधान है कि तीस साल का पुरुष बारह साल की मनोहारिणी कन्या से विवाह और चौबीस साल वाला आठ साल वाली से विवाह शीघ्र न करने से धर्म पीड़ित होता है| धर्मसूत्रों ने शूद्र और स्त्रियों को गवाही देने के अधिकार से भी वंचित किया है| अजीब बात है कि धर्मसूत्रों ने शूद्र और नारी को संस्कार, शिक्षा और यज्ञ के अधिकार से तो वंचित किया ही, उन्हें तीर्थयात्रा और देवताओं की अराधना तक से भी कई जगह वंचित किया है| स्त्री के लिए पति सेवा ही एक मात्र धर्म माना गया| महाभारत के अध्याय 157 में कहा गया है –व्युष्टि रेषा प्रास्त्रीयां पूर्व मृतुः परागतिम—स्त्रियों का यह सौभाग्य होता है कि पति से पहले मर जाएं| अध्याय 158 में वह कुछ कहा गया है जिसके कारण आज कन्या का जन्म अभिशाप बन गया है और कन्या को जन्म लेने से पहले या तत्काल बाद मार डाला जाता है| वहां कहा गया है कि ‘पुत्री हो जाना ही मुसीबत होती है’ मानव सभ्यता के इतिहास में, शायद ही किसी दूसरी संस्कृति में स्त्री के लिए ऐसी अमानवीय और कुसांस्कृतिक व्यवस्था की गई हो|

इस तरह ब्राहमण तंत्र ने खुद को तो ज्ञान विज्ञान से परिपूर्ण किया लेकिन देश के 50 प्रतिशत स्त्री समाज की आबादी को सभी सांस्कृतिक व वैचारिक गतिविधि से अलग थलग कर रखा था इस के साथ साथ समाज के दलित, पिछड़े, आदिवासी भी ज्ञान विज्ञान से वंचित रखे गए| जब अंग्रेजी शासन में ज्योतिबाफुले और अन्य दलित-बहुजन महानायकों के चलते शूद्रों और महिलाओं को समान शिक्षा का अधिकार मिला तो पूरे देश में ब्राहमण नेताओं ने इसका खुला विरोध किया| यहां तक कि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जैसे विद्रोही कवि ने भी इस के विरोध में ही लेख लिखे| उस समय तो हिंदी के महर्षियों के आदरणीय तुलसीदास का वह कथन– ‘
“पूजिए विप्र सकलगुण हीन| शूद्र न पूजिए ज्ञान प्रवीन|”

पूरे ब्राहमण तंत्र के लिए आदर्श बना हुया था| रमायण का शंभूक भी तो इसी नफरत का शिकार हुया था| डा.अम्बेडकर जैसी विलक्षण प्रतिभा के प्रति देश के 15 प्रतिशत हिन्दू समाज की घृणा का भी तो यही आधार है|

जिस देश में ऐसी अन्यायपूर्ण और गैर बराबरी की संस्कृति पर गर्व किया जायेगा तो ऐसी संस्कृति में पारंगत समाज में भ्रूण हत्याएं तो होगी ही, परिवार के पुत्र और पुत्री में भेदभाव भी होगा, यौन शौषण भी होगा| वहां महिलाओं को अपमानित भी किया जायेगा, बलात्कार भी होगें, उन्हें जलाया भी जायेगा, विशेषकर तब जब महिलाएं विरोधियों की हों|

क्या आज की शिक्षित युवती कभी समझ पायेगी कि इन त्योहारों, व्रत, पाठ पूजा, आदि के माध्यम से उसे अतीत के उस विधान से जोड़ा जा रहा है जो कहता है महिलाओं की पहचान उनके पतियों से ही बनती है, वह पति भले ही उस पर अत्याचर करे और आपसी संबंधों में भी इमानदार न हो| संपूर्ण विश्व आज नारी के मानवाधिकारों को स्थापित करने और नारी सशक्तिकरण में प्रयासरत है, यह दुर्भाग्यपूर्ण ही तो है कि इक्कीसवीं सदी में भारत में खाप पंचायातें व राजनेता जिन्हें समूचे समाज को दिशा देनी है वे संस्कृति के नाम पर नारी की अस्मिता और सम्मान को रौंदकर पुरुष वर्चस्व
(इस लेख में धर्म ग्रंथों से सम्बंधित सभी सन्दर्भ मुद्राराक्षस की पुस्तक “धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ” से लिए गये हैं)|

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लेखक परमजीत  सिंह जी , भारत सरकार के कृषि मंत्रालय से डिप्टी कमिशनर के पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं 

कार्टून :  उनमती श्याम  सुंदर 

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