भानु प्रताप सिंह
मैं एक मार्केटिंग प्रोफेशनल हूँ. मेरे लिए ‘गूगल एडवर्ड’ एक बहुत ही जरूरी टूल है, यह समझने के लिए कि (क) इंटरनेट मार्केट में क्या ट्रेंड है? (ख) कम्पनियाँ अपना पैसा एडवरटाइजिंग में कहाँ पर लगा रही हैं (ग) इंटरनेट प्रेमियों के लिए कौन से विषय महत्वपूर्ण हैं? यानि वे सर्च इंजिन्स पर किस विषय के बारे में ज़्यादा खोज कर रहें हैं.
हाल ही में उत्सुकता-वश मैंने सोचा कि देखूं, मायावती के बारे में कितने लोग सर्च करते हैं. मायावती के कौन से पहलुओं पर लोग ज्यादा रुचि लेते हैं. एक डैशबोर्ड ऐसा आया जिस पर मैं ठहर गया. यह डैशबोर्ड दर्शा रहा था कि कम्पनियों को किस विषय पर अपने विज्ञापन को स्थान देने के लिए, प्रति क्लिक कितने रुपए गूगल को देने होंगे. प्रति क्लिक पर विज्ञापन रेट एक बिडिंग प्रक्रिया से तय होता है. आप इसको इस तरह भी समझ सकते हैं कि यदि एक अमुक विषय पर वेबपेज पर जो पाठक आते हैं और उनकी क्रय शक्ति कम है तो उस वेबपेज पर विज्ञापन देने के लिए कम्पनियों के बीच कोई बहुत ज्यादा प्रतिस्पर्धा नहीं होगी, इसलिए उस वेबपेज पर विज्ञापन देने के लिए आपको ज्यादा खर्च नहीं करना पड़ेगा. वहीं दूसरी तरफ अगर उस वेबपेज पर आने वाले पाठक उच्च आयवर्ग से हैं तो उस वेब-पेज पर विज्ञापन देने के लिए कंपनियों के बीच में होड़ लगेगी और कड़ी प्रतिस्पर्द्धा होगी, अतः उस वेब-पेज पर विज्ञापन देने के लिए आपको भारी कीमत देनी होगी.
यह डैशबोर्ड, जैसा कि आप नीचे दिए गए स्क्रीन-शॉट में देख सकते हैं कि यदि “मायावती” के बारे में पाठक खोज कर रहा है तो उस वेब-पेज पर विज्ञापन के लिए 2.55 रूपए प्रति क्लिक खर्च करने होंगे. वहीं यदि विषय “मायावती भ्रष्टाचार (mayawati corruption)” है तो यह रेट बढ़ कर 228.75 रुपए हो जाता है मतलब लगभग 91 गुना ज्यादा.
जाहिर है कि जो उच्च आय-वर्ग से है, वह मायावती के भ्रष्टाचार में ज्यादा रूचि रखता है, इसलिए कम्पनियाँ, उस विषय पर लिखे वेबपेजों पर विज्ञापन के लिए अधिक दर से खर्च करने को तैयार हैं.
हम इसे एक और नजरिए से समझने की कोशिश करते हैं, मान लीजिए कि आप एक मीडिया हाउस या मीडिया वेबसाइट चला रहे हैं; जाहिर है कि अगर आप बिजनेसमैन हैं और आप ने इसमें अपना पैसा निवेश किया है तो आप उस पर ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाना चाहेंगे; और उसके लिए जब आप अपनी प्लानिंग करेंगे तो आप जयादा से ज्यादा एडवरटाइजिंग रेवेन्यू हासिल करने की कोशिश करेंगें; और जब आपको पता है कि मायावती के भ्रष्टाचार से सम्बंधित समाचार या लेख से आपको ज्यादा एडवरटाइजिंग रेवेन्यू मिलेगा तो मायावती के बारे में पॉजिटिव लेख और समाचार के बजाय आप सिर्फ मायावती के भ्रष्टाचार पर ही खबर या लेख प्रकाशित करेंगे.
ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ मैनेजमेंट पर लागू हो, आगे चलकर यही बात संपादकों और रिपोर्टर पर भी लागू होती है. मैनेजमेंट अपने सम्पादकों को टारगेट देती है कि इतना रेवेन्यू और पाठक (टीआरपी ) करना होगा और इसी को ध्यान में रखते हुए संपादक अपने रिपोर्टरों को निर्देश या टारगेट देते हैं. यह एक पूरा तंत्र है वैसे इसके और भी पहलू हैं, जैसे कि मीडिया में सिर्फ ब्राह्मण और सवर्णों का वर्चस्व और उनकी जातिवादी मानसिकता.
‘मीडिया और दलित’ एक ऐसा विषय है कि इस पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, कई अध्ययन भी हुए हैं, मीडिया में दलितों की भागीदारी लगभग न के बराबर है और दलित मुद्दे मीडिया से लगभग नदारद ही रहते हैं.
दरअसल मीडिया में मायावती या बसपा के बारे में पॉजिटिव खबरें या लेख बहुत कम मिलते हैं , ज्यादातर ये लेख या खबरें नकारात्मक छवि के ही होते हैं.
कुछ वर्ष पूर्व की घटना है लगभग पांच से छह साल पहले की, लखनऊ में अम्बेडकर पार्क का उद्घाटन होना था और 14 अप्रैल का दिन था. भारी संख्या में लोग वहां पर एकत्रित हुए थे. मैं भी अपने कुछ साथियों के साथ वहाँ गया था.
पार्क के अंदर घुसते ही एक कोने में हमें कई टीवी वैन खड़े दिखाई दिए. उनको देखकर मेरे एक दोस्त ने टिप्पणी की – “यार इतने सारे टीवी चैनल वाले वैन के साथ हैं लेकिन टीवी में तो यह दिखाते नहीं हैं कि अंबेडकर जयन्ती पर लाखों लोगों की भीड़ यहाँ आई हुई है”. दूसरे दोस्त ने तुरंत जवाब दिया, “दरअसल यह मीडिया वाले गिद्ध की तरह हैं , जैसे गिद्ध टकटकी लगा के अपने शिकार को देखता है और मौका मिलते ही झपट पड़ता है, वैसे ही यह मीडिया वाले हैं, वह इस इंतज़ार में हैं कि जैसे ही कोई नेगेटिव घटना हो, वैसे ही , वह लाइव टेलीकास्ट शुरू कर देंगे”.
अगर आप गूगल न्यूज़ पर सर्च करें, तो आप पाएंगे कि ज्यादातर ख़बरें आपको तीन-चार विषयों पर ही मिलेंगी:
- मायावती, भष्टाचार, सीबीआई
- मायावती द्वारा स्मारकों में पैसे की बर्बादी
- मायावती और जातिवादी राजनीति
- और कैसे मायावती दलितों और जाटवों के बीच अपना आधार खोती जा रहीं हैं
इन सब ख़बरों के बावजूद मायावती का इतना बड़ा जनाधार है और भारी संख्या में प्रसंशक हैं.
क्या मायावती के समर्थकों को , मायावती के भ्रष्टाचार, स्मारकों में पैसे की बर्बादी और उनकी जातिवादी राजनीति से कोई फर्क नहीं पड़ता या फिर इसमें उनकी सहमति है? या फिर उनके समर्थक इस बात को जानते हैं कि ये सब झूठ है बल्कि वे मीडिया पर विश्वास नहीं करते है और समझने लगे हैं कि यह सब मीडिया की साजिश है मायावती को बदनाम करने की?
अगर पिछले तीन-चार सप्ताह की खबरों पर नज़र डालें तो हर जगह आपको इसी विषय पर पढ़ने को मिलेगा कि कैसे मायावती कमजोर पड़ रहीं हैं, कैसे बसपा में फूट पड़ रही है, कैसे एक के बाद एक बसपा के बड़े-बड़े नेता पार्टी छोड़कर जा रहें हैं….. इत्यादि, इत्यादि. लेकिन इसके साथ ही सोशल मीडिया पर जहाँ दलितों ने अपनी थोड़ी-बहुत जगह बनाई है, एक दूसरी खबर शेयर हो रही है जो कि मीडिया से गायब है. घटना 11 जुलाई की है, मायावती ने संगठन के पदाधिकारियों और कॉर्डिनेटर्स की मीटिंग बुलाई थी जिसमें चुनाव की तैयारियों पर चर्चा हुई, संगठन में कुछ बदलाव हुए. यह मीटिंग हर माह होती है. मीटिंग के अंत में मायावती ने कहा – “जैसा कि आप सब को मालूम है कि कल मेरे छोटे भाई टीटू का देहांत हो गया और उसके अंतिम संस्कार में मुझे जाना था, लेकिन चूँकि यह मीटिंग पहले से प्लान थी और आप सब लोग इतनी दूर से मीटिंग के लिए आते हैं, तो ऐसे में व्यक्तिगत कारणों से मीटिंग स्थगित करना मुझे उचित नहीं लगा क्योंकि मेरे लिए व्यक्तिगत और पारिवारिक जिम्मेदारी से ज्यादा जरूरी मूवमेंट हैं” – यह सुनकर सभी उपस्थित कार्यकर्ताओं की आँखों में आंसू आ गए.
जाहिर है कि दो अलग-अलग ध्रुव हैं, एक तरफ मीडिया की अपनी दुनिया और उसके विचार और दूसरा ध्रुव दलित-बहुजन की अपनी राय, अपने अनुभव और सूचनाओं के आदान प्रदान का अपना एक व्यक्तिगत संपर्क माध्यम. ऐसा ही कुछ रिश्ता मीडिया और दलित आंदोलनों का है.
मीडिया ने कभी दलित और आदिवासियों को अपने संस्थानों में स्थान नहीं दिया, इस पर वह अक्सर मेरिट और काबिलियत की बात करते हैं, दलितों और आदिवासियों में इतनी भी काबिलियत नहीं है कि वह अपनी बात, अपने मुद्दे खुद रख सकें इसके लिए भी ब्राह्मण और अन्य सवर्णों को विशेषज्ञता हासिल है. अक्सर टीवी चैनल्स की डिबेट में सवर्णों को दलित या आदिवासी विशेषज्ञों के तौर पर पेश किया जाता है. यही सवर्ण, दलित-आदिवासी विशेषज्ञ बनकर अखबारों और वेबसाईटों पर दलितों और आदिवासियों पर लेख लिखते हैं. दलित कैसे सोचते हैं, दलित क्या सोचते हैं, कैसे वोट करते हैं – इन पर अपना सवर्ण ज्ञान बांटते हैं. दलित आंदोलन अगर मीडिया के सहारे होता तो शायद दलित आंदोलन नाम की कोई चीज पैदा भी नहीं होती…..शेष अगले भाग में जारी
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लेखक आईटी इंफ्रास्ट्रक्चर इंडस्ट्री में टेक्निकल कंसलटेंट हैं और राउंड टेबल इंडिया के संस्थापक हैं ।
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