डॉ. रतन लाल
आखिर गुजरात में दलितों ने विद्रोह कर ही दिया: कलक्टर ऑफिस के सामने मरी हुई गायें पटकी और कहा लो अपनी माँ का अंतिम संस्कार करो. चलिए इसी बहाने गाय को ‘माँ’ बनाने वाले अपनी माँ की इज्ज़त करना तो सीखेंगे. यह प्रतिरोध सिर्फ एक सुगबुगाहट है, आगे इंतज़ार कीजिए होता है क्या.
आइये भारत में माँ की अवधारणा को समझें. भारत में माँ कैसी होती है? एक त्याग, आदर्श की मूर्ति! मतलब गर्भ धारण से लेकर अपने शारीर के त्याग तक आपकी सेवा में – त्याग की प्रतिमूर्ति. माँ जो आपको पैदा करे, दूध पिलाकर, पाल-पोस कर बड़ा करे, स्कूल से आने के बाद आपको ट्यूटर की तरह पढाए. यदि आप कुछ गलती करें तो आपको पिता की डांट से बचाए, आपकी अमूमन हर गलतियों पर पर्दा डाले, पिताजी से छुपकर आपको पैसा दे, यदि खाना खाना हो तो सबका बचा-खुचा खाए, इत्यादि इत्यादि. कुल मिलाकर आपकी बेहतरी की कामना करे, और आपसे कुछ न मांगे. बदले में माँ को उतना ही मिलता है, जितना उसे जिन्दा रहने के लिए पर्याप्त है – भोजन, वस्त्र और आवास. शायद ऐसी आदर्श माता का चित्रण किसी और समाज में देखने को न मिले. यदि आपको मिले तो साझा करें. दूसरी तरफ पिता कई बार आपको डांट-डपट करते, पीटते हुए भी दिखेंगे – एकदम ‘खलनायक’ की तरह. आप ज्यादा पिता जी से डरते हैं, माता से नहीं. यही नहीं पिता जी आपको कई बार अपनी संपत्ति की तरह समझते हैं – एकदम सामंती प्रभु की तरह. आपके करियर से लेकर आपकी शादी और दहेज़ भी वही तय करते हैं. यही नहीं, संतान के बिगड़ने का ताना भी माँ को ही सुनना पड़ता है. बेटा यदि बिगड़ जाए तो आपने कई बार सुना होगा पिता जी को माँ को बोलते हुए, “तुम्हारा बेटा है, इसीलिए ऐसा है.” और यदि आप एक ‘सफल’ व्यक्ति होते हैं तब, मूंछ पर ताव देते हुए, “यह मेरा बेटा है.”
भारत को माँ बनाने में स्वार्थ है: उसके आजीवन दोहन का. विडम्बना देखिए जो समाज शक्ति के रूप में दुर्गा, विद्या की देवी के रूप में सरस्वती, धन की देवी के रूप में लक्ष्मी को पूजता है, उसी समाज में महिलाएं जलाई जा रही हैं, उनका बलात्कार और हत्याएं की जा रहीं हैं. और इस कु-कृत्य में शामिल ‘पुरुष’ विदेश से आयातित नहीं बल्कि इसी ‘भारत-माता’ की संताने हैं. आखिर किस ‘भारत-माता’ की पूजा करें, ये महिलाएं?
अब थोड़ी सी चर्चा ‘गऊ-माता’ पर. इस अवधारणा में कई तरह के पेंच हैं. गाय का सबसे पहला और महत्वपूर्ण काम है – दूध देना. विदित हो कि गाय का दूध सबसे ज्यादा सवर्ण – खासकर ब्राह्मण – पीते रहे हैं. जब प्रश्न किया गया कि गाय का दूध पीना बछड़े के साथ नाइंसाफी है, तब इन ‘बुद्धिमान’ (चालाक भी पढ़ा जा सकता है) लोगों ने खट से गाय को माँ बना लिया. मतलब, यदि गाय हमारी माता है, तब माँ का दूध पिया ही जा सकता है.
दूसरे, यदि गाय हमारी माता है, तो फिर भैंस क्या हुई? भैंस तो गाय से ज्यादा उपयोगी है. दूध देने के अलावा वह खेत में भी काम करती है, गाड़ी में जुतती भी है. इस हिसाब से भैंस को भी ‘सम्बन्ध-व्यवस्था’ में कोई-न-कोई सम्मानजनक जगह तो मिलनी ही चाहिए थी. मौसी तो कहा ही जा सकता था. लेकिन क्या हुआ? भैंस को इस पूरे विमर्श से सुनियोजित तरीके से बाहर निकाल दिया गया. कहीं वह काली (स्थानीय और मूलनिवासी का प्रतीक पढ़ें) थी, इसलिए साजिश का शिकार तो नहीं हुई? इसकी पड़ताल जरुरी है. फिर बकरी? बकरी का दूध तो जीवन-रक्षक है. डेंगू के समय लोग बकरी के दूध के लिए भागे फिरते है. ‘सम्बन्ध-व्यवस्था’ में उसे भी तो कुछ जगह मिलनी चाहिए थी’. उपलब्ध व्यवहार और साक्ष्य से दिख पड़ता है कि भैंस और बकरी जैसे जानवरों का सिर्फ इस्तेमाल किया गया – जैसे दलित और पिछड़ों का होता रहा है.
आपने ‘गऊ-दान’ तो सुना और देखा है, कभी ‘भैंस-दान’ देखा या सुना है. यक़ीनन नहीं! ऐसा क्यों है? इसके पीछे भी एक राजनीति है. भैंस का दूध मोटा और फैटी होता है. फैट शरीर को मोटा करता है. इसलिए जो लोग भैंस के दूध का इस्तेमाल करते हैं, वे ज्यादातर खेतिहर अर्थात् श्रम करने वाले लोग होते हैं. दूसरी तरफ गाय का दूध ज्यादा मीठा और पतला होता है और कहते हैं वह मज़बूत हड्डी और तेज़ दिमाग के लिए अच्छा होता है. अब आप समझ ही गए होंगे ‘गऊ-दान’ का रहस्य!
‘भारत-माता’ और ‘गऊ-माता’ जैसी अवधारणाओं का जन्म और राजनीतिकरण औपनिवेशिक काल में 19वीं सदी में हुआ. ‘भारत-माता’ का जन्म अंग्रेजों के खिलाफ और ‘गऊ-माता’ का जन्म मुसलमानों के खिलाफ और इसकी खोज करने वाले एक ही सामाजिक आधार/वर्ग के लोग थे. दो ‘दुश्मन’ के लिए दो प्रतीक ढूंढें गए – भारत और गाय, लेकिन दोनों में कॉमन थी माँ. विदित हो कि ‘इज्ज़त’ का पर्याय हमेशा महिलाएं होती हैं. इसीलिए माँ के नाम पर आसानी से लोगों को आंदोलित किया जा सकता था – एक अंग्रेजों ने ‘भारत-माता’ पर कब्ज़ा किया हुआ है और दूसरे मुसलमान ‘गऊ-माता’ का मांस खाते हैं. अंग्रेजों के खिलाफ ‘भारत-माता’ और मुसलमानों के खिलाफ ‘गऊ-माता’. अपनी माताओं का सम्मान करो!
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लेखक डॉ. रतन लाल , दिल्ली विश्वविद्यालय , हिन्दू कॉलेज में इतिहास के पढ़ाते हैं ।
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