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भानु प्रताप सिंह 

यहाँ से जारी

 

सवाल यह है कि आखिर एक आम दलित मायावती के बारे में क्या राय रखता है, वह मायावती और बसपा को किस रूप में देखता है? उनके लिए मायावती और बसपा की क्या जगह है, क्या मायने हैं? क्या मायावती सिर्फ एक राजनीतिज्ञ हैं? क्या बसपा सिर्फ एक राजनीतिक पार्टी है, जिसे हर चुनाव में जाकर वोट देना है और फिर अगले चुनाव तक काम खत्म? मायावती और बसपा ने कभी चुनावी घोषणा पत्र भी जारी नहीं किया… फिर भी लोग उन्हें क्यों वोट देते हैं? उनकी मायावती से क्या आशाएं हैं? क्या मायावती उन आशाओं पर खरी उतरी हैं? मायावती के समर्थकों की नजर में क्या मायावती सफल रही हैं? या उन्होंने अपने समर्थकों को निराश किया?

ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जिन पर अक्सर चर्चा होती है और सबकी अपनी अपनी राय है उनके अपने अनुभवों के मुताबिक. मैं खुद भी मायावती और बसपा का समर्थक रहा हूँ. मेरे लिए बसपा और मायावती के क्या मायने हैं, मेरे अपने कुछ अनुभव  हैं और कुछ ऐसी घटनाएं हैं जिनके अनुभव से मैंने बसपा और मायावती को देखा और समझा है.

 

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बचपन की बात है, समय ठीक से याद नहीं है, सिवाय इसके कि उस वक़्त मैं आठवीं कक्षा में पढ़ता था और गर्मियों की छुट्टियों में गांव आया था. अगर साल के हिसाब से हिसाब लगाऊं तो शायद यह 1989 की बात है, गांव में चाचा जी  की शादी थी. उन दिनों गांव में शादी में बहुत मजा आता था, लगभग तीन दिन की बारात होती थी और बारात के दूसरे दिन नौटंकी (live theatre on local folklores), का आयोजन होता था, जो कि बहुत मजेदार होता था और पूरी रात चलता था. यह सारे बारातियों और गांव वालों के लिए एक मुख्य आकर्षण रहता था. बाकी लोगों की तरह मैं भी उत्साहित था. रात भर नौटंकी का मजा लेने के लिए मैं भी सुबह नाश्ता करने के बाद सोने की कोशिश करने लगा ताकि रात भर जग सकूँ.

तभी अचानक चाचा जी ने जगाया और बोले चलो उठ जाओ और ट्रैक्टर पे बैठ जाओ, बारात गांव वापस चल रही है. मुझे कुछ समझ में नहीँ आया, क्या हो गया, अचानक से… सभी लोग हड़बड़ी में थे… मैं भी आँखे मलते-मलते चुपचाप ट्रैक्टर पर बैठ गया, और कुछ देर में बारात वापस चल पड़ी. मैं काफी उदास था कि अब सारा मजा और उत्साह, जो कि नौटंकी को लेकर था, सब किरकिरा हो गया था.

रास्ते में ,मैं सवार कुछ बुजुर्ग बरातियों की बातों को सुनकर मुझे कुछ एहसास हुआ, क़ि आज कुछ तो महत्वपूर्ण है,लोग जल्दी गांव वापस लौटने को लेकर उत्साहित हैं, आपस में बातें कर रहें है,कि इस बार हाथी पे मुहर लगानी है,कांशीराम को जिताना है…पहली बार मैंने चुनाव,हाथी और कांशीराम के बारे में सुना था,लेकिन उस वक़्त मेरे लिए, इनका सिर्फ इतना ही महत्व था, कि इनकी वजह से मेरा मजा किरकिरा हो गया.

 

यह मेरे पैतृक गाँव,जिला जालौन की घटना है, यहाँ इस बात का उल्लेख जरूरी है कि 1989 का विधानसभा चुनाव, बसपा का यूपी में पहला विधान सभा चुनाव था. इसमें उन्हें 13 सीटों पर जीत हासिल की थी. जालौन जिले में चार विधानसभा सीटें थी, जिसमें तीन पर बसपा विजयी हुई थी और चौथी सीट पर दूसरे नंबर पर रही.

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समय बीतता गया और मैं दसवीं कक्षा में पहुँच गया था, घर में टेलीविज़न आ गया था. फ़िल्में देखने का बहुत शौक़ था और उन दिनों सिर्फ़ रविवार की शाम को ही फ़िल्म आतीं थी जिसका की पूरे सप्ताह इंतज़ार  करना पड़ता था. एक दिन दोस्तों से पता चला कि कल से चुनाव के रिज़ल्ट के लिए मतगणना शुरू होगी और पूरे दिन दूरदर्शन पर फ़िल्में आएँगी, फिर क्या, मैं भी पूरे जोश के साथ सुबह-सुबह टीवी खोलकर बैठ गया.

फिल्म के बीच में ब्रेक होते थे और चुनाव समाचार आने लगते थे. मैंने देखा कि पिताजी बड़े ध्यान से समाचार देख रहे है, और समाचार ख़त्म होते ही, उनके चेहरे पर निराशा छा जाती थी. तीन-चार बार ऐसा हुआ और आखिर उनके मुंह से निकला, “ कितने कमीने हैं टीवी वाले, एक-एक, दो दो सीटों वाली पार्टी के नाम दिखा रहें हैं और बसपा को इतनी सीटों के बावजूद अन्य में दिखा रहे है !!” मुझे कुछ समझ नहीं आया कि यह बसपा क्या है? लेकिन उनके हावभाव और चेहरे का गुस्सा देखकर लगा, कुछ तो ख़ास है. वह गुस्सा और निराशा के भाव मेरी यादों में अमिट छाप की तरह अंकित हो गए…खैर कुछ वक़्त लगा और मेरी समझ में आ गया कि बसपा क्या है…

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अब मैं आईआईटी  में था और अब मेरी  बसपा और उसकी राजनीति में काफी गहरी रूचि हो  गयी थी. अक्सर खाली वक़्त में, कॉमन रूम में बैठ कर न्यूज़पेपर और मैगजीन्स उलटता-पलटता रहता थी कि अगर कोई समाचार या लेख निकला हो बसपा को लेकर तो वह मुझसे छूट न जाए.

ऐसे ही एक दिन फिर से इलेक्शन के रिजल्ट का दिन था. सभी स्टूडेंट्स कॉमनरूम में बैठ कर इलेक्शन रिजल्ट टीवी पर देख रहे थे. कॉमनरूम खचा-खच भरा था और टीवी पर रिजल्ट्स को लेकर कुछ बहस हो रही थी.  पैनल के सदस्य, बसपा के अच्छे प्रदर्शन पर उसका विश्लेषण कर रहे थे कि तभी पीछे से किसी स्टूडेंट की आवाज आई,  “ क्या ज़माना आ गया है, अब ये साले भूखे-नंगे चमारों की पार्टी भी इतनी सीटें जीत गयी है?” इसके साथ ही पूरे कमरे में ठहाकों की आवाज गूँज गई.  मैं थोड़ा सकपकाया सा अपने-आपको अनभिज्ञ सा दिखाने की कोशिश में बिना कोई रिएक्शन दिए कुछ क्षण वहीं बैठा रहा और कुछ देर बाद उठ कर बाहर आ गया. मेरे अंदर शायद इतनी हिम्मत नहीं थी कि मैं उनको इसका जवाब  देता या इसपर कोई विरोध जता पाता.

ऐसा नहीं था कि मैं एकमात्र SC स्टूडेंट वहां पर मौजूद था. और भी बहुत सारे SC/ST स्टूडेंट्स वहाँ मौजूद थे लेकिन किसी ने भी कोई रिएक्शन नहीं दिया. ना ही वहां मौजूद किसी और  जनरल स्टूडेंट ने  इस तरह की बात का विरोध किया. शायद सबके लिए यह एक सामान्य सी बात थी.

 

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मैं अब नौकरी करने लगा था और काफी लम्बे अरसे  मुंबई और बैंगलोर में रहने के बाद दिल्ली वापस आ गया था.   अब दलित राजनीति के बारे में मेरी काफी अच्छी समझ बन चुकी थी और दलित एक्टिविज्म के काफी बड़े वर्ग से निकटता भी हो चुकी थी. यूं भी कह सकते हैं कि मैं खुद भी एक दलित एक्टिविस्ट के रूप में जाना-पहचाना  जाने लगा था और राउंड टेबल इंडिया शुरू किए हुए लगभग 6 महीने गुजर चुके थे.

मैंने नई कार खरीदी थी और कह सकते हैं कि यह मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण अवसर था. मैं पिछले कई साल से कार खरीदने के निर्णय को टाल रहा था. बचपन से  काफी महत्वाकांक्षी  होने की वजह से मेरी इच्छा थी कि जब भी कार लूँगा, बड़ी कार ही लूँगा.

खैर नई कार लेने के बाद मुझे लगा कि इसका उद्घाटन करने का सबसे बढ़िया तरीका तो यही होगा कि लखनऊ में बन रहे अंबेडकर पार्क की यात्रा की जाए. मैं अपने छोटे भाई के साथ ड्राइवर को लेकर दिल्ली से लखनऊ कार में निकल पड़ा. कानपुर में गंगा नदी के पुल से पहले एक ट्रैफिक पुलिस वाले ने कार रोक ली और कागज़ों की पूछताछ करने लगा. नई कार होने की वजह से नंबर प्लेट भी अस्थायी थी. चूँकि भाई आगे बैठा था, वही पुलिस वाले से निपट रहा था, कुछ वजह से बात बढ़ गई, और दोनों में बहस होने लगी, जैसा कि आम तौर पर होता है. पुलिसवाला मान नहीं रहा था तो यूपी स्टाइल में भाई ने बोला – मैं इसको जानता हूँ, उसको फ़ोन कर दूंगा….

इस पर पुलिस वाले के मुंह से निकला, “ मैं किसी से डरता नहीं हूँ  मैं , मैं भी ठाकुर हूँ”. यह सुन कर मैं गाड़ी से उतर आया, मैंने पुलिस वाले को देखा और मेरे मुंह से अचानक निकला, “ठाकुर है तो क्या हुआ…..? मैं भेी चमार हूं और वह भी जालौन का , क्या कर कर लोगे तुम बोलो…” यह सुनते ही अचानक से उसके हाव-भाव बदल गए. अपने आपको थोड़ा सँभालते हुए मुस्कुराने की कोशिश करते हुए उसने कहा “अरे भाई साहब, आप भी हाथी वाले हो… आपने पहले क्यों नहीं बताया…? हम भी हाथी वाले हैं, हमारे गाँव में सब ठाकुर हाथी को ही वोट डालते हैं”.

यह कहते हुए उसने गाड़ी के कागज़ भाई को थमाते हुए कार का दरवाजा खोला और मुझे बैठने को बोला. मैं उस वक़्त इस बात को समझ नहीं पाया, शायद सफर की थकान से… लेकिन कुछ समय बाद मुझे एहसास हुआ कि कितनी बड़ी घटना हो गयी. जिस जाति को मैं हमेशा छुपाता रहा, अचानक यह कैसे हो गया कि मेरे मुंह से यह बात इतने गर्व से निकली?

इसका मतलब समझने में वक़्त लगा, लेकिन जब समझा, तब मुझे महसूस हुआ कि मायावती ने मेरे जीवन में , मेरी सोच में और मेरे कॉन्फिडेंस में कितना महत्वपूर्ण योगदान किया है.

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मैं दिल्ली में रहता हूँ लेकिन मेरा और मेरी पत्नी दोनों का वोटर कार्ड अपने पैतृक स्थानों का है. अब दो वोट हैं हमारे और 1200 किमी की आने-जाने की यात्रा, काफी सोच विचार के बाद हमने सोच लिया कि दो वोट जरूरी हैं, भले ही 3 दिन की छुट्टी और 1200 किमी की यात्रा हो.

बात 2012 के विधानसभा चुनाव की है. पहुँच गए वोट डालने , पहले मैंने अपना वोट डाला  और उसके बाद पत्नी के वोट के लिए, उनको लेकर चल दिए. उनका वोटिंग क्षेत्र मेरे क्षेत्र से लगभग 120 किमी और आगे था. वहाँ जा कर मुझे पता चला कि  मेरी पत्नी के क्षेत्र में जो उम्मीदवार विरोधी दल से खड़े हुए हैं  वह हमारी पत्नी के ख़ास सगे  रिश्तेदार थे. दरअसल एक जमाने में वह बसपा के बुंदेलखंड में काफी बड़े नेता माने जाते थे, लेकिन तकरीबन दस साल पहले उन्होंने बसपा छोड़ दी थी. उन्होंने कुछ समय स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में राजनीति की और जब सफल नहीं हुए तो कांग्रेस में शामिल हो गए.

मेरे लिए बड़ी दुविधा वाली स्थिति थी, अपने ससुराल जाते वक़्त पहली बार ऐसा लग रहा था, जैसे विरोधी कैंप में जा रहा हूं.  खैर, मैं पहुँच कर चुपचाप बैठ गया. सभी लोग व्यस्त दिखे, लोग आ-जा रहे थे. मैं बैठे-बैठे सोने की कोशिश कर रहा था कि किसी तरह से चुनाव पर बातचीत टाली जाए कि एक रिश्तेदार खुद ही शुरू हो गए, “अब क्या है कि घर का उम्मीदवार है तो काम तो करना ही पड़ता है लेकिन पूरे इलाके में वोट तो हाथी पर ही पड़ रहा है, अपने सब वोट तो हाथी पर ही पड़ रहे हैं. वैसे इस सीट से हाथी पिछले 3-4 इलेक्शन से जीता नहीं है लेकिन इस बार लगता है, कि सीट निकल ही आएगी”. यह सुनते ही मेरे चेहरे पे मुस्कान थोड़ी सी लौट आई. लौटते वक़्त रास्ते में मैंने पत्नी जी से भी पूछ ही लिया, “और किसको वोट डाला?” जवाब आया “और किसको, हाथी को…. रिश्ता-विश्ता सब ठीक है लेकिन वोट तो हाथी को ही देते हैं हम”.

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जाहिर है, एक आम दलित के रूप में, मैंने बसपा और मायावती को अपने और परिवार और समाज के अनुभवों से जाना है , न की मीडिया की नजर्रों से । 

कह सकते हैं कि व्यक्तिगत तौर पर मेरा बसपा और मायावती से एक भावनात्मक रिश्ता है –  एक पार्टी और एक नेता से इतर. मैं एक कट्टर बसपा समर्थक कैसे बन गया, इसके दो कारण है  पहला भावनात्मक, क्योंकि जो भावनात्मक बल मिला है वह बेशकीमती है.  दूसरा, तथाकथित सवर्णों की  उपेक्षा, तिरस्कार और भावनात्मक अत्याचार जो हर जगह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से होता रहता है.

जब मैं व्यक्तिगत तौर पे मायावती के बारे में सोचता हूँ तो कुछ बातें प्रमुखता से ध्यान में आती हैं. एक लड़की की तस्वीर, जो गरीब दलित परिवार में पैदा हुई; पढ़-लिख कर एक अच्छी नौकरी की तलाश में, सिविल सेवा की परीक्षा पास करने का सपना संजोए थी लेकिन अचानक मूवमेंट में आने का फैसला कर लिया. वह भी अपने घर वालों के घोर विरोध के बावजूद. रहने का कोई ठिकाना नहीं, फिर भी घोर मुसीबतों को झेलते हुए मूवमेंट के लिए वह जज्बा बनाये रखा. आसान नहीं है एक लड़की के लिए. सचमुच में किसी के लिए भी एक बहुत बड़ी प्रेरणास्त्रोत हैं.

जब मैं उन्हें एक दलित एक्टिविस्ट के रूप में सोचता हूँ, तो उनका महत्व बहुत ज्यादा नज़र आता है. उन्होंने जो दलित-बहुजन इतिहास को पुनर्जीवित करने का काम किया है विभिन्न स्मारकों का निर्माण करके, यह एक एतिहासिक कदम है. मेरे जैसे बहुत सारे लोग, हमेशा उनके कर्ज़दार रहेंगे. ये वो जगहें हैं जो हमें हमारी अपनी लगती है, जिन्हें हम अपना कह सकते हैं. दलितों के लिए पब्लिक स्पेस की जो कमी थी, उसको कुछ हद तक पूरा किया है मायावती ने.

मायावती ने दलित-बहुजन आंदोलन में एक महत्वपूर्ण योगदान दिया है, जिसे ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले ने दलित बहुजन जन-जागरण से शुरू किया था. उसे एक कदम आगे ले जाते हुए  बाबा साहेब ने हम लोगों को कुछ संवैधानिक अधिकार दिलाए. जहाँ तक अधिकारों और सामाजिक चेतना की बात थी तो बाबा साहेब का आंदोलन दलित-बहुजन आंदोलन में एक महत्तपूर्ण मील का पत्थर था, लेकिन राजनैतिक स्तर पर कोई बहुत ज्यादा कामयाबी नहीं मिल पायी थी.

इस  आंदोलन की एक तीसरी कड़ी के रूप में मान्यवर साहेब ने इसे आगे बढ़ाया और हमें सिखाया की हम राजनैतिक ताकत भी  बन सकते हैं. भारतीय राजनीती और सत्ता में हमारी हैसियत और भागीदारी सिर्फ चमचों के रूप में या सांकेतिक नहीं होगी बल्कि हम इस काबिल बन सकते हैं कि बड़ी-बड़ी पार्टियों के समीकरण बदल दें. मायावती ने इस आंदोलन  में एक चौथी कड़ी के रूप में काम किया और हमें पहली बार यह अहसास कराया कि, हम अपने दम पर भी बहुमत के साथ सत्ता में आ सकते हैं.

और आज जो हज़ारों लाखों की संख्या में दलित-बहुजन एक्टिविस्ट पैदा हुए हैं, जोर-शोर से अपने स्तर पे समाज के लिए योगदान कर रहे हैं, वह भी बसपा की ही देन है , हम चाहे स्वीकार करें या न करें , अगर बसपा न होती तो शायद, यह दलित-बहुजन एक्टिविज्म भी पैदा नहीं होता. हर  पार्टी  जो आज दलित नेताओं को खड़ा कर रही है, उनको मौका दे रही है, उन्हें संगठन में बड़े पद और मंत्री पद दे रही है,  क्योंकि बसपा का अस्तितव है.  जब तक बसपा मजबूत है इन दलित नेताओं को उनकी पार्टी में अहमियत मिलती रहेगी  जिस दिन बसपा कमजोर हुई, उन्हें उनकी पार्टियों से  दूध में गिरी मक्खी की तरह निकाल कर बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा.

लेखक आईटी इंफ्रास्ट्रक्चर इंडस्ट्री में टेक्निकल कंसलटेंट हैं  और राउंड टेबल इंडिया के संस्थापक हैं । 

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