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 रत्नेश कातुलकर

वर्णनाम ब्राह्मणों गुरु! यानि गुरु केवल ब्राह्मण वर्ण से ही हो सकता है. आदिकाल से यह भारत का सनातन नियम रहा है. हालांकि ऐसा भी नहीं की इस नियम का पालन देश में अक्षरशः होते रहा हो, स्वयं हिन्दू धर्म ग्रंथों में राक्षसों के गैर-ब्राह्मण गुरु शुक्राचार्य का वर्णन मिलता है और भारत के एक समय जो विश्व गुरु की ख्याति थी वह भी एक गैर-ब्राह्मण चिन्तक गौतम बुद्ध की ही बदौलत थी, जिनके सिद्धांतो पर आधारित नालंदा, ओदान्तपुरी आदि अंतरराष्ट्रिय स्तर के विश्वविद्यालय में एक समय संसार के कोने-कोने से विद्यार्थी भारत आया करते थे. पर गैर-ब्राह्मणों के इतने बड़े योगदान के बाद भी मुख्यधारा में शिक्षा का पर्याय सिर्फ ब्राह्मण वर्ग ही रहा है , यदि शक हो तो ज़रा गुरु द्रोणाचार्य, गुरु वसिष्ठ, कृपाचार्य, मनु, गौतम की लम्बी फेहरिस्त देखिये.

वैसे भी हमें कहानियों, धर्मग्रंथो और इतिहास में जो कुछ पढ़ाया जाता है, वहां तो सिर्फ इन गुरुओं का ही ज़िक्र होता है. यह बात और है कि हम इस पर भी इसे जातिगत रिज़र्वेशन नहीं कह सकते, क्योंकि इन तमाम गुरुओं ने यह पद उनकी कथित ‘योग्यता’ के बल पर कमाया था! वैसे गुरु के पद के लिए जाति विशेष का कब्ज़ा अकारण नहीं है. गुरु का सीधा सम्बन्ध ज्ञान और शिक्षा से होता है जो सीधे तौर पर मस्तिष्क के विकास यानि व्यक्ति के प्रगति से जुडा है, ऐसे में विभेदकारी समाज व्यवस्था में गैर-ब्राह्मण को शिक्षक बनाकर भला भारतीय समाज यानि जात-पांत की संरचना पर कौन चोट करना चाहेगा?आधुनिक भारत में भी इस मामले में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ भले ही अपने पूर्वज शुक्राचार्य और बुद्ध की तरह सावित्री-ज्योतिबा फुले और डॉ आंबेडकर ने अपने ईमानदारीपूर्ण, नि:स्वार्थ प्रयासों से हाशिये के लोगों को सफलतापूर्वक शिक्षित के लिए अपना सारा जीवन लगा दिया पर मुख्यधारा में आज भी वे शिक्षक दिवस का पर्याय नहीं है. बल्कि इसके लिए एक विद्वान् दार्शनिक डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का नाम आरक्षित है और क्यों न हो? दर्शन शास्त्र के क्षेत्र में वह अंतरराष्ट्रीय छवि जो रखते हैं तथा एक शिक्षक के रूप में पौराणिक काल के उस आदर्श गुरु द्रोणाचार्य से साम्यता भी रखते हैं, जिसने अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को श्रेष्ठ तीरंदाज़ बनाने के नाम पर अपने एक आदिवासी शिष्य एकलव्य का अंगूठा कटवा दिया था.

इधर डॉ राधाकृष्णन ब्रिटिश युग में अपने किसी शिष्य का अंगूठा नहीं पर उसकी बौद्धिक सम्पदा पर ज़रूर हाथ साफ़ कर गए. यह बात शायद कम ही लोगों को पता है की अपनी विश्व विख्यात पुस्तक ‘इंडियन फिलोसोफी’ के बहुत से अध्याय उन्होंने अपने पीएच डी शोध छात्र के शोध से चुराए थे. उनके इस विद्यार्थी का नाम जादूनाथ सिन्हा था, जिसने अपने शोध प्रबंध को अनुमोदन के लिए डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन को दिया था.

गौरतलब है कि जब जादूनाथ को अपने शोध प्रबंध से चोरी का पता चला तो उन्होंने एकलव्य की तरह गुरुभक्ति में त्याग का मार्ग नहीं अपनाया, बल्कि उन्होंने अपने गुरु डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन को कोर्ट में घसीट लिया हालांकि यह बात और है कि इस प्रभावशाली गुरु ने अपने रुतबे का इस्तेमाल करके केस को दबवा दिया. पर सच्चाई भला कहाँ पूरी तरह से छिप सकती थी क्योंकि डॉ राधाकृष्णन की बदकिस्मती से उनके शिष्य जादूनाथ के शोधप्रबंध के कुछ अध्याय पहले ही अन्य शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके थे. यानि कोर्ट के निर्णय के बिना ही यह साफ़ सिद्ध हो गया कि हमारे देश के इस महानतम शिक्षक की कालजयी रचना बौद्दिक चोरी के अलावा कुछ और नहीं है.
आज भी देश में ऐसे कितने ही शिक्षक हैं जो अपने छात्रों के शोध को अपने से छपवा कर अकादमिक जगत में खुद का नाम कमा चुके हैं और कितने ही शिक्षक अपने योग्य विद्यार्थियों को जाति, धर्म और लिंग के नाम पर प्रताड़ित करके उन्हें आत्महत्या करवाने के लिए मजबूर कर चुके हैं. पंजाब के चंडीगढ़ के गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज में २७ मार्च २००८ को एक अल्पसंख्यक धर्म के छात्र जसप्रीत सिंह को उसके जातिवादी शिक्षक ने उसे एम् बी बी एस की पढ़ाई में केवल इसलिए पास नहीं होने दिया क्योंकि वह एक दलित था. अपने करियर को बर्बाद होता देख जसप्रीत के पास खुद्कुशी के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं बचा.

यह बात सिर्फ चंडीगढ़ मेडिकल कॉलेज की ही नहीं है बल्कि देश के तमाम उच्च शिक्षा केंद्र खासकर आई ई टी, आई आई एम्, एम्स और अन्य केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में प्रतिवर्ष अपने शिक्षकों के जातिगत भेदभाव से त्रस्त आकर दलित और आदिवासी विद्यार्थियों की आत्महत्या की ख़बरें आती रही है. अभी पिछले ही वर्ष नयी दिल्ली के सफदरजंग मेडिकल कॉलेज में दलित-आदिवासी विद्यार्थियों की शिकायत पर गठित डॉ मुंगेकर आयोग कमेटी की रिपोर्ट में छात्रों की जाति देखकर कॉपी जांचने के नियम का साफ़ खुलासा हुआ है. वैसे जसप्रीत सिंह के मामले में भी जब उसकी मौत के बाद उसकी कॉपी विशेषज्ञों की एक कमेटी ने दुबारा जांच की तो वह उसमें उतीर्ण पाया गया था.
यदि उच्च शिक्षा के अलावा स्कूली शिक्षा पर नज़र डाले तो यहाँ भी स्थिति कुछ कम भयावह नहीं हैं, शिक्षाकों द्वारा छात्रों को अनुशासन के नाम पर मार-पीट उन्हें जीवन भर के लिए अपंग बना डालना या कभी पीट-पीट कर उनकी जान ले लेने जैसी ख़बरें आती रही हैं. अभी पिछले दिनों कलकत्ता में एक टीचर ने अनुशासन के नाम पर एक छात्रा को उसकी पेशाब पीने पर मजबूर किया था और तो और जातीय हिन्दू शिक्षकों द्वारा दलित छात्रों को क्लास में अलग बैठाना और उनसे स्कूल के शौचालय तक साफ करवाना कोई अनोखी बात नहीं है. पर क्या करें भारतीय संस्कृति में शिक्षक को भगवान का दर्ज़ा है, और अपने छात्र के शोध को चुराने वाले को आदर्श शिक्षक का!
हालांकि ख़ुशी है की इधर कुछ सालों से हाशिये के लोगों ने अपनी आवाज़ बुलंद करना आरम्भ किया है, और वे मुख्यधारा के धर्म-संस्कृति सहित उसके तमाम मूल्यों और आदर्शों को चुनौती दे रहे हैं. गौरतलब है कि इस वर्ष नयी दिल्ली के जंतर-मंतर पर हाशिये के समाज के लोगों ने बड़ी संख्या में पहुँच कर देश की प्रथम शिक्षिका सावित्री बाई फुले के जन्मदिवस को शिक्षा दिवस के रूप में मनाया था. डॉ आम्बेडकर ने भी कहा था समाज में जो गलत चीज़े स्थापित हो गयी है, उसे परम्परा मानकर जकड़े नहीं बैठना चाहिए, बल्कि उन्हें हटाकर सही बात को स्थापित करने का प्रयत्न करना चाहिए.

 

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यह लेख नील क्रांति मीडिया से लिया गया हैं। link 

 

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