संजय कुमार
जब मैं उत्तर प्रदेश के एक कॉलेज में पढ़ाता था और मायावतीजी उस समय उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री थी ..तब एक कर्मचारी ने मायावती के सन्दर्भ में अनौपचारिक रूप से कहा “जात की चमारिन हूँ…दिल से तुम्हारी हूँ.” क्या यही बात किसी और के लिए कहने की हिम्मत है? एक ने कहा, ‘मायावती चमार नहीं, वो ब्राह्मण या ठाकुर की खून हैं” चमारों में इतनी हिम्मत कहाँ की वो हुंकार सके”.
बहुलतावादियों और प्रभुत्ववादियों, दलितों, मुस्लिमों और स्त्रियों पर कुछ भी बयानबाजी करने से पहले अपनी वैचारिक स्थिति स्पष्ट कर दो. मानव से अधिकतम वैचारिक होने की उम्मीद तो की जा सकती है पर वो विज्ञान की तरह पूरी तरह वस्तुनिष्ठ भी नहीं हो सकता. जब भी हम कुछ कह रहे होते हैं तो कहने वाले की पृष्ठभूमि भी उसके केंद्र में होती है. इसलिए हम जब भी किसी विचारक को पढ़ते हैं तो सलाह दिया जाता है की सबसे पहले उसके जीवन संघर्ष को पढ़ा जाए. ताकि हम उसके वैचारिक पहलू को समझ सकें.
अभी के ताजा सन्दर्भ में एक राजनीतिज्ञ द्वारा सुश्री मायावतीजी का चरित्र चित्रण किया गया और आपत्तिजनक बातें कही गयी. यह बात नयी नहीं है. कोई भी स्त्री अपने दम पर कोई मुकाम हासिल करती है तो सबसे पहले उसके चरित्र पर ही हमला किया जाता है. अगर आप दलित और स्त्री हैं तो आपकी जाति और चरित्र दोनों पर हमला किया जाएगा. वैसे भी यहाँ स्त्रियों का चरित्र चित्रण जाति के आधार पर करने की मानसिक बीमारी है. अगर आप दलित हैं तो आपके जाति पर और अगर मुस्लिम हैं तो आपके धर्म पर. कभी आपने कल्पना किया है की इनके बारे में प्रभुत्वशाली और बहुसंख्यकों का प्राइवेट और पब्लिक ओपिनियन कितना भिन्न होता है? अगर आपने इतिहास में कोई सुख भोगा है तो वर्तमान सन्दर्भ में अपनी जाति, धर्म और लिंग को भूल जाईये. अपने भूत को वर्तमान से मत मिलाइए. जो आगे बढ़ रहे हैं उन्हें आगे बढ़ने दीजिये. आपके रास्ते में दलित और अल्पसंख्यक कभी बाधा नहीं रहे …
लेकिन समस्या ये है की उनकी थोड़ी सी प्रगति और समृधि आपसे देखी नहीं जा रही है. क्या आपने कभी गरीबी का वो रूप देखा है जब लोगों को घोड़ों से लीद की गेहूं सुखाकर खाना पड़ा हो. जिन्हें अनाज के आभाव में जानवरों का मांस खाना पड़ा हो. आप उनके गरीबी का मुकाबला ब्रेड और चाकलेट खाकर नहीं कर सकते. गरीबी और सामाजिक वंचना हमेशा एतिहासिक एवं क्रमिक होती है. प्रभुत्व की दयनीयता से हम जल्दी भावुक हो जाते हैं पर एक गरीब की गरीबी भी हमें नकली लगती है और हमें उसके प्रति कोई दया भाव भी नहीं उत्पन्न होता है.
बचपन में मेरे गाँव में, किसी और गाँव का एक 14 साल का ब्राह्मण का लड़का घर से भाग कर आया. वह काफी भूखा था. उसको खाना खिलाने के लिए लोगों ने जमीन को गोबर से लिपा और उसे पीतल की थाली में खाना खिलाया और जाते वक्त उसके हाथ में कुछ रूपये भी दिए गए. यहाँ दलित लोगों ने अपनी मानवता का परिचय दिया. लेकिन सवाल ये है की क्या हमारे देश में एक दलित की भूख को भी यही सम्मान मिलता क्या? क्या वही सामाजिक सौहार्द मिल पाता है?
जब मैं उत्तर प्रदेश के एक कॉलेज में पढ़ाता था और मायावतीजी उस समय उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री थी ..तब एक कर्मचारी ने मायावती के सन्दर्भ में अनौपचारिक रूप से कहा “जात की चमारिन हूँ…दिल से तुम्हारी हूँ.” क्या यही बात किसी और के लिए कहने की हिम्मत है? एक ने कहा, ‘मायावती चमार नहीं, वो ब्राह्मण या ठाकुर की खून हैं” चमारों में इतनी हिम्मत कहाँ की वो हुंकार सके”. ये रोज के सन्दर्भ में चलने वाले बयान हैं. यही बात हर सफल स्त्री, दलित और मुस्लिम के बारे में कई सन्दर्भ में की जाती हैं. हालात ये है की रोजमर्रा में उनकी पहचान, उनके संघर्ष और मेरिट को कभी पहचान नहीं मिलता . फिर भी आप उम्मीद करते हो की आप सुसंस्कृत या भौंडे तरीके से उनका शोषण करों और जब वे पलटवार करें या बात खुद पर आ जाए तो आपको प्रजातंत्र के मौलिक अधिकार याद आने लगे. या तो आप खुद अपने एतिहासिक विरासत भूल जाओ या तन मन से वंचितों के उत्थान में लग जाओ. स्वच्छ राजनीति का माहौल तैयार करों, नहीं तो लाल, पीले, नीले, भगवे रंगों में बंटे रहों और देश को भी बांटते रहो. क्या फर्क पड़ता है आपकी राजनीति तो चलती रहेगी और राजनीति को गन्दा भी बोलते रहो…ताकि मुट्ठी भर अच्छे लोग राजनीति का हिस्सा ही नहीं बन पाए.
हिंदुस्तान के सन्दर्भ में जाति, धर्म और जेंडर एक वास्तविकता है. इसी से आपकी यहाँ अपनी पहचान बनती है. जिसे समाजशास्त्र की भाषा में ‘मास्टर स्टेट्स’ कहा जाता है. यहाँ आप राष्ट्रपति बन जाओ या सुप्रीम कोर्ट का जज …पर जाने जायेंगे अपने ही जाति, धर्म और लिंग से. इसे जितना छिपाएंगे, वो उतना ही संकीर्ण रूप से मजबूत होगा. शहर में लड़कियां धड़ल्ले से बाथरूम जाने या मासिक धर्म की बात करती है और हम उसे सहज ही लेते है. पर छोटे जगहों पर लड़की ने ग्रुप में या किसी से ये बातें कही तो भी बड़ी बात हो जाती है. लोग सपने देखने लग जाते है उसने मुझसे ही यह बात क्यों कही? जबकि यह नियमित बात है. कहने का मतलब ये है की जब हम जाति, धर्म और स्त्री संबधी विषयों से खुद को नकारते है तो वास्तव में खुद के सहित समाज को भी धोखे में रखते है.
इसलिए आज के सन्दर्भ में जाति, धर्म और जेंडर पर खुल कर बात होनी चाहिए. इससे कोई भी नुकसान नहीं है. जाति, धर्म, स्त्री और सेक्स संबधी विषयों पर खुलकर बात करों.. देश की आधी राजनीतिक समस्यायों का अंत यों ही जाएगा. आखिर गालियाँ स्त्री अंगो से ही क्यों जुड़ी हुई हैं? दलितों पर उत्पीड़न का दर क्यों बढ़ गया है? मुस्लिमों को ही आतंकवाद के पर्याय के रूप में ही क्यों लेबल किया जा रहा है? ये सारे प्रश्न राजनीतिक हैं? और इसका समाधान भी राजनीति से ही आएगा. राजनीति बुरी चीज नहीं है? पूरा विश्व ही राजनीति का अखाड़ा है. अच्छे और बुरे के चक्कर में फंसने से बेहतर है की मजबूत और जड़ जमाये व्यवस्था पर लगातार प्रश्न उठाया जाए? बच्चें बहुत प्रश्न पूछ्तें हैं और हम इससे इरिटेट भी नहीं होते है. बच्चें जब प्रश्न नहीं पूछे तो उनके मस्तिष्क का सही विकास भी नहीं होगा. प्रश्नों से जो भी घबराता है…वह आपको और सभी को धोखे में रखता है.
संजय कुमार , भारत सरकार के श्रम और रोजगार मंत्रालय में असिस्टेंट कमिसनर (श्रम कल्याण ) के रूप में कार्यरत हैं । उनसे sanjay05jnu(at )gmail(डॉट)com ईमेल आईडी पे संपर्क किया जा सकता है ।
संजय कुमार जी के बारे में तहलका में उनकी कहानी पब्लिश हो चुकी है , आप उसे इस लिंक पे पढ़ सकते हैं ।
Link- http://archive.tehelka.com/story_main38.asp?filename=cr120408stubborn_pride.asp
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