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अरविंद शेष

गुजरात में दलितों का विद्रोह खास क्यों है? यह इसलिए कि, जिस गाय के सहारे आरएसएस-भाजपा अपनी असली राजनीति को खाद-पानी दे रहे थे, वही गाय पहली बार उसके गले की फांस बनी है। बल्कि कहा जा सकता है कि गाय की राजनीति के सहारे आरएसएस-भाजपा ने हिंदू-ध्रुवीकरण का जो खेल खेला था, उसके सामने बाकी तमाम राजनीतिक दल एक तरह से लाचार थे और उसके विरोध का कोई जमीनी तरीका नहीं निकाल पा रहे थे। गुजरात में दलित समुदाय के विद्रोह ने देश में आरएसएस-भाजपा की ब्राह्मणवादी राजनीति का सामना करने का एक ठोस रास्ता तैयार किया है।

देश में भाजपा की सरकार बनने के बाद पिछले लगभग दो सालों से लगातार कुछ ऐसे मुद्दे सुर्खियों में रहे हैं, जिनसे एक ओर वास्तविक मुद्दों से समूचे समाज का ध्यान बंटाए रखा जा सके और दूसरी ओर पहले से ही धार्मिक माइंडसेट में जीते ज्यादा से ज्यादा लोगों के दिमागों का सांप्रदायीकरण किया जा सके। साक्षी महाराज, योगी आदित्यनाथ या दूसरे साधुओं-साध्वियों की जुबान से अक्सर निकलने वाले जहरीले बोल के अलावा जो एक मोहरा सबसे कामयाब हथियार के तौर पर आजमाया गया, वह थी गाय, गाय को लेकर हिंदू भावनाओं का शोषण और फिर उसे आक्रामक उभार देना। हाल में इसकी चरम अभिव्यक्ति उत्तर प्रदेश के दादरी इलाके में हुई, जहां सितंबर, 2015 में हिंदू अतिवादियों की एक भीड़ ने गाय का मांस रखने का आरोप लगा कर मोहम्मद अख़लाक के घर पर हमला कर दिया और उनके परिवार के सामने तालिबानी शैली में उन्हें ईंट-पत्थरों से मारते हुए मार डाला।

 

लेकिन इस तरह की यह कोई पहली घटना नहीं थी। अक्टूबर 2000 में हरियाणा में झज्जर जिले के दुलीना इलाके में पांच दलित एक मरी हुई गाय की खाल अलग कर रहे थे। उसी जगह से हिंदुओं के एक धार्मिक आयोजन से लौटती भीड़ ने उन पांचों को घेर लिया और गोहत्या का आरोप लगा कर उन्हें भी ईंट-पत्थरों से मार-मार कर मार डाला था। तब आरएसएस की एक शाखा विश्व हिंदू परिषद के एक नेता आचार्य गिरिराज किशोर ने कहा था कि एक गाय की जान पांच दलितों की जान से ज्यादा कीमती है।

गुजरात में मरी हुई गाय की खाल उतारने के लिए ले जाते दलितों को बर्बरता से पीटे जाने की घटना से पैदा हुए तूफान के बाद भी एक बार फिर विश्व हिंदू परिषद ने अपनी वास्तविक राजनीति के अनुकूल ही बयान जारी किया। परिषद ने कहा- “नैसर्गिक रूप से मरी गायों और पशुओं के निपटान की हिंदू समाज में व्यवस्था है और वह परंपरागत रूप से चली आ रही है। इस व्यवस्था को गौहत्या कह कर कुछ तत्वों  द्वारा जो अत्याचार हो रहा है, उसका विश्व हिंदू परिषद विरोध करती है।”
यानी सैद्धांतिक तौर पर आरएसएस या विश्व हिंदू परिषद मरी गायों और पशुओं के निपटान के लिए हिंदू समाज में ‘परंपरागत व्यवस्था’ होने की बात कहते हैं और व्यावहारिक तौर पर उन्हें जब भी अपनी राजनीति के लिए जरूरत होगी, मरी गायों को ले जाते या उनकी खाल उतारते दलितों को देख कर उन्हें गौ-हत्यारा घोषित कर देंगें और फिर उनकी जान तक ले लेंगे। विश्व हिंदू परिषद या आरएसएस का रवैया इस मसले पर बिल्कुल हैरानी नहीं पैदा करता। बल्कि अच्छा यह है कि कई बार दबाव में आकर ये हिंदू संगठन अपना असली चेहरा दिखाते रहते हैं।

बौद्धिक हलकों में शायद इन सब पहलुओं से विचार किया गया होगा, इसके बावजूद सच यह है कि हिंदुत्व की सियासत में गाय के इस मोहरे का जवाब अब तक नहीं ढूंढ़ा जा सका था। पिछले तकरीबन दो सालों से देश के अलग-अलग इलाकों से आने वाली खबरें यह बताती रहीं कि समाज में ‘गाय का जहर’ हिंदू पोंगापंथियों के सिर पर चढ़ कर बोल रहा है और जगह-जगह पर जिंदा या मरी हुई गाय ले जाते लोगों के साथ गऊ-रक्षक बेहद बर्बरता से पेश आते हैं। इसके अलावा, समूचे समाज में गाय अब एक मुद्दा बन चुकी है। बहुत साधारण रोजी-रोजगार में लगे लोग, जिन्हें गाय से कोई वास्ता नहीं है, वे ‘गऊ-हत्या’ के नाम पर उन्माद में चले जाते हैं। कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश के दनकौर में पंद्रह से पच्चीस वर्ष के तकरीबन पंद्रह युवाओं से एक साथ बात करते हुए मुझे हैरानी इस बात पर हुई थी कि वे यह कहने में बिल्कुल नहीं हिचक रहे थे कि ‘कोई गऊमाता को मारेगा तो हम उसे काट देंगे जी…!’ इन युवाओं में कुछ दलित पृष्ठभूमि से भी थे। दस मिनट की बातचीत के बाद ‘गऊमाता’ के सवाल पर दलित किशोर चुप हो गए, लेकिन बाकी अपनी राय पर कायम थे।

हालांकि गाय को लेकर उन्माद पैदा करने की कोशिशें हिंदुत्व की राजनीति का एक औजार रही हैं, लेकिन पिछले दो-तीन सालों के लगातार आबो-हवा में गाय के नाम पर जहर घोलने का ही नतीजा है कि एक जानवर के नाम पर लोग इंसानों को मारने-काटने की बातें सरेआम करने लगे हैं। सड़कों पर गोरक्षक गुंडे खुले तौर पर कानून हाथ में लेते हैं और मवेशी ले जाते वाहनों को रोक कर लोगों को बुरी तरह मारते-पीटते हैं या मार भी डालते हैं। झारखंड के लातेहर और हिमाचल प्रदेश से गोरक्षक गुंडों द्वारा मवेशी ले जाते लोगों को पकड़ कर मार डालने की खबरें सामने आईं। लातेहर में एक किशोर और एक युवक को मार कर पेड़ पर लटका दिया गया था। जहां-जहां भाजपा की सरकार है, वहां तो जैसे इन्हें अभयदान मिला हुआ है।
गुजरात के ऊना में जिन लोगों ने चार दलित युवकों को सरेआम बर्बरता से मारा-पीटा, उन्हें बाकायदा जिस तरह पुलिस से संरक्षण प्राप्त था, वह भी भाजपा सरकार की ही है। यों भी, पुलिस अपने राज्य  की सरकार के रुख के हिसाब से ही किसी को खुला छोड़ती है या उसके खिलाफ कोई कार्रवाई करती है। कम से कम गुजरात में तो सन 2002 के दंगों से लेकर अब तक पुलिस ने यही साबित किया है।

लेकिन उन गौरक्षक गुंडों से लेकर आरएसएस-भाजपा तक को इस बात का अंदाजा शायद नहीं रहा होगा कि जिस गाय के हथियार से वे बाकी मुद्दों को दफ़न करने की कोशिश में थे, वह इस रूप में उनके सामने खड़ा हो जाएगा। पिछले दो-ढाई सालों में यह पहली बार है जब गाय की राजनीति को इस कदर और मुंहतोड़ तरीके से जवाब मिला है। ऊना में मरी हुई गाय की खाल उतारने ले जाते दलितों पर बर्बरता ढाई गई, उसी के जवाब में गुजरात के कई इलाकों से दलित समुदाय मरी हुई गायों को ट्रकों में भर कर लाए और कलक्टर और दूसरे सरकारी दफ्तरों में फेंक दिया। संदेश साफ था। जिस सामाजिक व्यवस्था ने उन्हें इस पेशे में झोंका था, अगर उससे भी उन्हें अपने जिंदा रहने के इंतजामों से रोका जाता है, उसके चलते उन पर बर्बरता ढाई जाती है तो वे यह काम सरकार और प्रशासन के लिए छोड़ते हैं। अब वही करें गायों के मरने के बाद उनका निपटान।

अपने ऊपर हुए जुल्म के खिलाफ खड़ा होने का यह नायाब तरीका है, यह अपने खिलाफ हो रही  राजनीति का करारा जवाब है, यह एक समूची ब्राह्मणवादी सत्ता की राजनीति की जड़ पर हमला है। अच्छा यह है कि मुख्यधारा की मीडिया के सत्तावादी रवैये के चलते गुजरात में आए इस तूफान की अनदेखी और सच कहें तो इसे दबाने की कोशिशों के बावजूद विरोध के इस तरीके की खबर देश के दूसरे इलाकों तक भी पहुंची है और इसके संदेश ने व्यापक असर छोड़ा है। अब जरूरत यह है कि मरी हुई या जिंदा गायों को इस देश में गोरक्षा का कथित आंदोलन चलाने वाले आरएसएस-भाजपा और उनके दूसरे संगठनों के सदस्यों के घर छोड़ दिया जाए, ताकि वे अपनी ‘गऊमाता’ के प्रति अपनी निष्ठा दर्शा सकें। मरी या जिंदा गाय से पेट भरने लायक जितनी आमदनी होती है, उससे ज्यादा दूसरे किसी रोजगार में हो सकती है।

जाहिर है, यह एक ऐसा जवाब है जिससे आरएसएस-भाजपा की समूची ब्राह्मणवादी राजनीति की चूलें हिल सकती हैं। अगर यह आंदोलन आगे बढ़ा और समूचे देश के दलितों ने मरे हुए जानवरों के निपटान के काम सहित मैला ढोने, शहरों-महानगरों से लेकर गली-कूचों या फिर सीवर में घुस कर सफाई करने या जातिगत पेशों से जुड़े तमाम कामों को छोड़ कर रोजगार के दूसरे विकल्पों की ओर रुख करते हैं तो बर्बर और अमानवीय ब्राह्मणवादी समाज के ढांचे को इस सामंती शक्ल में बनाए रखना मुश्किल होगा।

गुजरात में दलित समुदाय ने पहली बार मरी हुई गायों और दूसरे जानवरों के जरिए आरएसएस-भाजपा और हिंदुत्ववादी राजनीति के सामने एक ठोस चुनौती रखी है। इसके अलावा, उन्होंने सड़क पर उतर कर और उनमें से कुछ की आत्महत्या की कोशिश ने उनके छिपे दुख को जाहिर कर अपनी मौजूदगी का अहसास कराया है। इस स्वरूप के आंदोलन के महत्व आरएसएस को मालूम है और वह अपनी ओर से इससे ध्यान बंटाने के लिए कुछ भी कर सकता है। इसलिए इस विद्रोह की अनदेखी करने या दूसरे कम महत्व के मुद्दों में उलझने के बजाय अब दलित समुदाय की ओर से शुरू की गई इस सामाजिक क्रांति का स्वागत और उसे आगे बढ़ाने की कोशिश उन सब लोगों को करने की जरूरत है, जो आरएसएस-भाजपा की ब्राह्मणवादी राजनीति को दुनिया की एक सबसे अमानवीय सामाजिक राजनीति मानते हैं।

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अरविन्द शेष ,बिहार के सीतामढ़ी से हैं और दिल्ली में जनसत्ता (दैनिक हिंदी अखबार ) में सहायक सम्पादक  हैं

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